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कांकेर। यह अफ्रीका के किसी सुदूर पिछड़े गांव का नहीं, आज के भारत का नजारा है। स्कूल जाने के लिए बच्चों को पहाड़ लांघना पड़ता है। दो किमी लंबा पहाड़ी रास्ता घने जंगलों से घिरा हुआ है। भालू, तेंदुआ, सांप, बिच्छू से भरा है। बच्चे एक के पीछे एक लाइन बना आगे बढ़ते हैं।
::/introtext::छत्तीसगढ़ के कांकेर जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर स्थित मुरनार गांव में यह नजारा हर रोज का है। तमाम नकारात्मक बातों के बीच अच्छी बात यह है कि ये बच्चे नियमित रूप से स्कूल जाते हैं। आना-जाना मिलाकर रोजाना चार किलोमीटर। जंगली जानवरों का भय लगातार बना रहता है, यही वजह है कि ये बच्चे दल में चलते हैं। इस गांव के लिए प्रधानमंत्री योजना से सड़क स्वीकृत है, लेकिन निर्माण का अतापता नहीं है।
इसके चलते बच्चों को रोज जोखिम उठाना पड़ता है। दरअसल, यहां के प्रसिद्ध केशकाल घाट से लगे गांव होनहेड़, खालेमुरवेंड, मुरनार व दादरगढ़ के 22 बच्चे पहाड़ के उस पार स्थित ग्राम उपरमुरवेंड हायर सेकंडरी स्कूल में पढ़ते हैं। कक्षा छह से लेकर बारह तक के इन बच्चों में 12 छात्राएं भी हैं। गांव के आसपास यह एकमात्र हायर सेकंडरी स्कूल है। स्कूल के प्रधानाचार्य अजय शर्मा के अनुसार, मौसम कैसा भी हो, बच्चों की उपस्थिति सौ फीसदी रहती है, जो शिक्षकों को भी प्रेरित करती है।
ग्रामीण रतनलाल व बनकूराम बताते हैं कि यह पूरा इलाका दरअसल घनघोर जंगल है। जिस पहाड़ को पारकर बच्चे रोज स्कूल जाते-आते हैं, वहां तेंदुआ, भालू, लकड़बग्घे के अलावा जहरीले सर्प व अन्य जीव-जंतु भी हैं। तेंदुआ व भालू तो गांव के भीतर तक भी पहुंच जाते हैं। पहाड़ पर खतरा होने के कारण प्रतिदिन एक अभिभावक इन बच्चों के साथ जाता है।
वही व्यक्ति वापसी के समय भी उन बच्चों के साथ रहता है। इस तरह सभी अभिभावकों की पारी बंधी है। मौसम लाख खराब हो तो भी बच्चे स्कूल जाना बंद नहीं करते। दूसरी ओर पहाड़ के इस पार स्कूल के एक अध्यापक इन बच्चों का इंतजार करते रहते हैं।
शिक्षा की राह
छात्रा सुशीला, रहेश्वरी, रजुला, संतेश्वरी आदि बताती हैं कि सभी बच्चे पहले पहाड़ के नीचे एक स्थान पर इकठ्ठा होते हैं। जब सभी लोग जुट जाते हैं तब सफर शुरू होता है। बड़े बच्चे आगे और पीछे जबकि छोटे बच्चे बीच में रहते हैं। इन छात्रों ने बताया कि कई बार जंगली जानवरों से उनका सामना हो चुका है।
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