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भारत में बड़े स्तर पर टीकाकरण अभियान चलाए जाते हैं, यहां दुनिया भर की 60 प्रतिशत वैक्सीन बनती हैं और यहां आधे दर्जन वैक्सीन निर्माता मौजूद हैं, जिनमें दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया प्राइवेट लिमिटेड शामिल है.
इसमें हैरानी की बात नहीं कि भारत सरकार अरबों लोगों तक कोविड-19 की वैक्सीन पहुंचाने की इच्छा रखती है. भारत की अगले साल जुलाई तक वैक्सीन की 50 करोड़ डोज़ बनाने और 25 करोड़ लोगों का टीकाकरण करने की योजना है. भारत का ये आत्मविश्वास तब और बढ़ जाता है जब वो हर साल बड़ी संख्या में टीकाकरण के अपने पिछले रिकॉर्ड को देखता है.
देश का 42 साल पुराना टीकाकरण अभियान दुनिया के सबसे बड़े स्वास्थ्य अभियानों में से एक है जिसे 55 करोड़ लोगों तक पहुंचाया जाता है. इनमें खासतौर पर नवजात शिशु और गर्भवती महिलाएं शामिल हैं जिन्हें हर साल कई बीमारियों से बचाव के लिए वैक्सीन की करीब 39 करोड़ मुफ्त खुराकें मिलती हैं. भारत के पास इन वैक्सीन को संग्रहित करने और उन पर नज़र रखने का एक बेहतरीन इलैक्ट्रॉनिक सिस्टम भी है.
इन सबके बावजूद विशेषज्ञों का कहना है कि पहली बार लाखों वयस्कों सहित अरबों लोगों तक कोरोना की वैक्सीन पहुंचाना सरकार के सामने एक असाधारण चुनौती होगी. भारत में विकसित की जा रहीं 30 वैक्सीन में से पांच का क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है. इनमें से एक है ऑक्सफ़र्ड और एस्ट्राज़ेनिका की वैक्सीन जिस पर फिलहाल भारत के सीरम इंस्टीट्यूट में ट्रायल चल रहा है. भारत बायोटेक एक स्वदेशी कोरोना वैक्सीन विकसित कर रही है.
भारत के जैव प्रौद्योगिकी विभाग की सचिव डॉक्टर रेणु स्वरूप बताती हैं, "एक स्वदेशी वैक्सीन का होना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है."
वहीं माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉक्टर गगनदीप कांग कहती हैं, "कई वैक्सीन में से एक को चुनना और फिर उसे चुने गए समूहों तक पहुंचाना, ये सब बड़ी चुनौतियां हैं."
गगनदीप कांग रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन की फेलो चुनी जाने वालीं पहली भारतीय महिला हैं. वह कहती हैं, "हम इस काम की जटिलता को समझते हैं. भारत की आधी आबादी का टीकाकरण करने में ही कुछ साल लग जाएंगे."
ऐसे में ये समझने की कोशिश करते हैं कि टीकाकरण के बेहतरीन अनुभव के बावजूद भारत सरकार के सामने कोविड-19 की वैक्सीन लोगों तक पहुंचाने में क्या चुनौतियां हैं.
वैक्सीन की आपूर्ति और संग्रहण
वैक्सीन प्रभावी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि उसे उचित तापमान पर स्टोर किया जाए. भारत में 27,000 कोल्ड स्टोर्स हैं जहां से संग्रहित की गईं वैक्सीन को 80 लाख स्थानों पर पहुंचाया जा सकता है. लेकिन, क्या ये पर्याप्त होगा?
देश में जितनी संख्या में वैक्सीन की ज़रूरत होगी, उतनी ही संख्या में अपने आप नष्ट हो वाली सीरिंज (इंजेक्शन) की भी ज़रूरत होगी ताकि उनके दोबारा इस्तेमाल और किसी तरह के संभावित संक्रमण को रोका जा सके.
दुनिया के सबसे बड़े सीरिंज निर्माता का कहना है कि वो वैक्सीन की मांग को पूरा करने के लिए अगले साल तक एक अरब सीरिंज बनाएगा. इसके अलावा कांच की उन शीशियों की आपूर्ति को लेकर भी सवाल हैं जिनमें वैक्सीन की खुराक रखी जाएगी.
वहीं, उस मेडिकल कचरे के निपटारे को लेकर क्या किया जाएगा जो इस टीकाकरण अभियान से बड़े स्तर पर निकलेगा?
इन सबके अलावा भारत में आम तौर पर होने वाले टीकाकरण कार्यक्रम को पूरा करने के लिए क़रीब 40 लाख डॉक्टर और नर्सों की ज़रूरत होती है. लेकिन, कोविड-19 के टीकाकरण के लिए और ज़्यादा लोगों की ज़रूरत पड़ेगी.
देश की प्रमुख बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोकॉन की संस्थापक किरन मजूमदार शॉ कहती हैं, "मुझे चिंता है कि ग्रामीण भारत तक इन संसाधनों का विस्तार हम कैसे करेंगे."
किसे पहले मिलेगी वैक्सीन
सरकार के लिए ये फ़ैसला लेना भी चुनौतीपूर्ण होगा कि सबसे पहले किसे वैक्सीन दी जाए. स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन का कहना है कि निजी और सरकारी स्वास्थ्यकर्मियों और अन्य विभागों के फ्रंटलाइन वर्कर्स को पहले वैक्सीन दी जाएगी. हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा करना आसान नहीं होगा.
एपिडेमियोलॉजिस्ट डॉक्टर चंद्रकांत लहरिया कहते हैं, "हमारे पास वैक्सीन की पर्याप्त आपूर्ति कभी नहीं होगी. ऐसे में किसे पहले वैक्सीन दी जाए ये तय करना अपने आप में बड़ी चुनौती बनने वाला है."
एक और बात का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है. भारत एक ऐसा देश है जहां बड़ी संख्या में स्वास्थ्यकर्मी निजी क्षेत्र से जुड़े हैं. तो क्या एक निजी क्षेत्र के स्वास्थ्यकर्मी को सरकारी स्वास्थ्यकर्मी के मुक़ाबले प्राथमिकता दी जाएगी? क्या स्थानीय कर्मियों को अनुबंध पर काम करने वालों के मुक़ाबले प्राथमिकता दी जाएगी?
अगर पहले से दूसरी बीमारियों से जूझ रहे बुज़ुर्गों को पहले वैक्सीन दी जाएगी तो उसमें अलग-अलग बीमारियों के हिसाब से किन्हें प्राथमिकता मिलेगी? जैसे भारत में सात करोड़ लोगों को डायबिटीज है, ये आंकड़ा पूरी दुनिया में दूसरे नंबर है. तो क्या इन सभी लोगों को पहले वैक्सीन दी जाएगी. वहीं सभी 30 राज्यों में कोरोना की वैक्सीन पहुंचाना संभव नहीं है. तो क्या उन राज्यों में वैक्सीन पहले दी जाएगी जहां कोरोना वायरस के ज़्यादा मामले हैं?
लाखों खुराकों की निगरानी
वॉशिंगटन स्थित सेंटर फ़ॉर ग्लोबल डेवलपमेंट में स्वास्थ्य देखभाल आपूर्ति श्रृंखला का अध्ययन करने वाले डॉक्टर प्रशांत यादव के मुताबिक़ वैक्सीन के अच्छे पोर्टफोलियो वाले वैक्सीन निर्माताओं से विनिर्माण अनुबंध करने से भारत को लोगों तक जल्दी पर्याप्त वैक्सीन पहुंचाने में मदद मिलनी चाहिए. लेकिन वो कहते हैं कि नियमित टीकाकरण में सफलता मिलना कोविड-19 वैक्सीन के मामले में सफलता की गारंटी नहीं देता.
डॉक्टर प्रशांत यादव का कहना है, "नियमित टीकाकरण में सरकार के पास पहले से बनी हुई व्यवस्था है लेकिन ये ज़्यादातर सरकारी क्लीनिक्स के लिए है. फिलहाल वयस्कों के लिए बड़े स्तर पर कोई टीकाकरण कार्यक्रम नहीं है और वयस्क सरकारी स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों में नियमित तौर पर नहीं जाते."
किरण मजूमदार शॉ और इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणि सुझाव देते हैं कि भारत को वैक्सीन की हर खुराक का रिकॉर्ड रखने और निगरानी के लिए आधार कार्ड का इस्तेमाल करना चाहिए. नंदन नीलेकणि ने एक अख़बार से कहा, "हमें एक ऐसी प्रणाली बनाने की ज़रूरत है जिससे देशभर में एक दिन में एक करोड़ लोगों को वैक्सीन दी जा सके लेकिन ये सब एक डिजिटल आधार द्वारा एकीकृत हो."
धोखाधड़ी की आशंका
इस बात को लेकर भी चिंता जताई जा रही है कि वैक्सीन पहुंचाने में भ्रष्टाचार भी हो सकता है.
प्रशासन उन लोगों की पहचान कैसे करेगा जो नकली दस्तावेजों के आधार पर उन लोगों में शामिल होने की कोशिश करेंगे जिन्हें शुरुआती टीकाकरण के लिए चुनाव गया है. वहीं, दूर-दराज के बाज़ारों में बेची जा रही नकली वैक्सीन को कैसे रोका जाएगा?
दुष्प्रभावों की निगरानी
कुछ लोगों में वैक्सीन के दुष्प्रभाव भी सामने आ सकते हैं. भारत के पास टीकाकरण के दौरान सामने आने वाले प्रतिकूल प्रभावों की जांच करने के लिए 34 साल पुराना निगरानी कार्यक्रम है. लेकिन, शोधकर्ताओं ने पाया है कि दुष्प्रभावों के बारे में बताने के लिए मानक अभी भी कमजोर हैं और गंभीर प्रतिकूल घटनाओं की संख्या अभी भी अपेक्षित संख्या से कम है. वैक्सीन के प्रतिकूल प्रभावों की पारदर्शी रूप से रिपोर्ट करने में विफलता के कारण इसे लेकर डर पैदा हो सकता है.
किसे देने होंगे पैसे
ये संभवत: एक बड़ा सवाल है. क्या सरकार वैक्सीन की सभी खुराकें लेकर उसे निशुल्क या सब्सिडी के साथ टीकाकरण अभियान में लोगों को देगी? या फिर टीके को निजी वितरण और बिक्री के माध्यम से बाज़ार की क़ीमत पर दिया जाएगा?
डॉक्टर लहरिया जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को हर भारतीय को टीका लगाने के लिए भुगतान करने को तब तक तैयार रहना चाहिए जब तक कि महामारी ख़त्म न हो जाए. डॉक्टर किरण मजूमदार शॉ का कहना है कि निजी कंपनियां अपने कर्मचारियों को टीका लगाने के लिए खुद भुगतान कर सकती हैं.
नंदन नीलेकणि कहते हैं कि शुरुआत में वैक्सीन की क़ीमत 3 से 5 डॉलर (लगभग 220 से 369 रुपये) होती है तो हर भारतीय के लिए इसकी दो खुराक की क़ीमत 10 डॉलर (क़रीब 739 रुपये) और भारत के लिए 13 अरब डॉलर (लगभग नौ खरब रुपये से ज़्यादा) हो सकती है. ये बहुत मंहगा होगा.
इसलिए डॉक्टर गगनदीप कांग कहती हैं कि भारत के लिए एक अच्छी वैक्सीन की लागत 50 सेंट (क़रीब 2.25 रुपये) प्रति खुराक से कम होनी चाहिए. ये भरपूर मात्रा में उपलब्ध हो और इसकी एक खुराक की ज़रूरत हो.
जयपुर : कोरोना काल से पहले राजस्थान आए एक ब्रिटिश मूल के नागरिक पहले डेंगू और मलेरिया की चपेट में आ गए, फिर कोरोनावायरस ने भी उन्हें अपनी जद में ले लिया. तीनों बीमारियों से जीतने के बाद उन्हें एक जहरीले सांप ने काट लिया. हैरानी की बात यह है कि वह इस जहर को भी मात देने में कामयाब रहे. इयान जोनस को जोधपुर जिले में एक कोबरा ने काट लिया था. उन्हें जोधपुर के ही एक अस्पताल में भर्ती कराया गया.
अस्पताल के डॉक्टर अभिषेक तातर ने कहा, 'इयान जोनस को सांप द्वारा काटे जाने के बाद अस्पताल लाया गया था. शुरुआती जांच में उनके कोरोना पॉजिटिव (दूसरी बार) होने का भी शक हुआ लेकिन जांच में वो नेगेटिव पाए गए. उनके अंदर सांप के काटने के सभी लक्षण दिख रहे थे. उनकी दृष्टि कमजोर हो गई थी, वो मुश्किल से चल पा रहे थे. उनका इलाज किया गया. हमें लगता है कि कोई दीर्घकालिक प्रभाव नहीं होगा. अगर उनकी हालत में पहले की अपेक्षा सुधार नहीं होगा तो वो अगले कुछ दिनों में बिल्कुल ठीक हो जाएंगे.'
जोनस को इस हफ्ते की शुरुआत में अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया. जल्द वह अपने देश लौटेंगे. उनके बेटे सैब जोनस ने कहा, 'मेरे पिता एक फाइटर हैं. भारत में रहने के दौरान वह कोरोना की चपेट में आने से पहले डेंगू और मलेरिया से भी ग्रसित हुए थे. कोरोना संकट की वजह से वह वापस नहीं लौट सके थे.' बता दें कि इयान जोनस राजस्थान के पारम्परिक कलाकारों के साथ काम करते हैं. वह उनके सामान को ब्रिटेन भेजने में उनकी मदद करते हैं.
वह साल 2015 का नवंबर महीना था.
झारखंड के आदिवासी अपने अलग धर्म कोड को लेकर मुखर थे. राँची की सड़कों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत के पुतले फूंके जा रहे थे. इसकी वजह बना था आरएसएस में नंबर-2 की हैसियत रखने वाले सह सरकार्यवाह डॉक्टर कृष्णगोपाल का वह बयान, जिसमें उन्होंने आदिवासियों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताया था.
उन्होंने कहा था कि सरना कोई धर्म नहीं है. आदिवासी भी हिंदू धर्म कोड के अधीन हैं. इसलिए उनके लिए अलग से धर्म कोड की कोई ज़रूरत नहीं है. वे आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में शामिल होने राँची आए थे और यहां आयोजित प्रेस वार्ता में उन्होंने यह बात कही थी.
तब झारखंड में बीजेपी की सरकार थी. पांच साल बाद अब साल 2020 का नवंबर है. राँची की सड़कों पर आदिवासियों की टोलियां जश्न मना रही हैं. जय सरना के नारे लग रहे हैं. सड़कें लाल और सफ़ेद धारियों वाले सरना झंडे से पट चुकी हैं.
सरना आदिवासी धर्म कोड बिल
झारखंड विधानसभा ने 'सरना आदिवासी धर्म कोड बिल' को सर्वसम्मति से पास कर दिया है. इसमें आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रस्ताव है. झारखंड सरकार ने कहा है कि ऐसा करके आदिवासियों की संस्कृति और धार्मिक आज़ादी की रक्षा की जा सकेगी. अब केंद्र सरकार को यह तय करना है कि वह इस माँग को लेकर क्या रुख अख्तियार करती है. इन पांच सालों का एक फ़र्क़ यह भी है कि अब यहां की सत्ता बदल चुकी है.
राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व वाली सरकार है. नज़ारा पूरी तरह बदला हुआ है. यही वजह है कि इस बिल के पास होने के अगले दिन जब आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने पहुंचे, तो मुख्यमंत्री स्वयं उनके साथ नाचने लगे.
पारंपरिक आदिवासी धुनों पर थिरकते मुख्यमंत्री ने कहा कि उन्हें काफी दिनों बाद चैन की नींद नसीब हुई है.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, "सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव झारखंड विधानसभा से पारित करा लिया गया है लेकिन अभी कई लड़ाईयाँ लड़नी हैं. केंद्र सरकार से इसे हर हाल में लागू कराना है ताकि आगामी जनगणना में इसे शामिल किया जा सके. हमें हमारा हक और अधिकार मिले, इसके लिए हम हर लड़ाई लड़ने को तैयार हैं. अब देश स्तर पर आदिवासी समाज की एकजुटता की ज़रूरत है. हमलोगों ने इसके लिए विशेष कार्य योजना बनाई है."
क्या केंद्र सरकार से भिड़ेंगे हेमंत सोरेन
गुजरात के आदिवासी नेता व विधायक छोटूभाई बसावा ने मीडिया से कहा कि अब हेमंत सोरेन को देश के स्तर पर आदिवासियों का नेतृत्व करना चाहिए. हालाँकि इसके लिए सरना धर्म कोड की जगह कोई वैसा नाम सोचना चाहिए, जो देश भर के आदिवासियों को मान्य हो.
वहीं झारखंड के पूर्व मंत्री बंधु तिर्की का मानना है कि झारखंड सरकार ने आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का बिल लाकर ऐतिहासिक काम किया है. अब केंद्र सरकार की जवाबदेही है कि वह इस संबंधित विभिन्न प्रस्तावों में एकरूपता लाकर आदिवसियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रावधान कराए.
झारखंड सरकार का प्रस्ताव
झारखंड सरकार ने केंद्र को यह प्रस्ताव भेजते वक्त लिखा है कि साल 1931 में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी का 38.3 प्रतिशत थी, जो साल 2011 की जनगणना के वक्त घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई. आदिवासियों की इस घटती संख्या की एक वजह उनके लिए अलग धर्म कोड का नहीं होना है. लिहाजा, केंद्र सरकार को सरना आदिवासी धर्म कोड बिल पर विचार करना चाहिए.
विपक्ष का आरोप
हालाँकि पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी मानते हैं कि आदिवासी सरना धर्म कोड को लेकर झारखंड सरकार की मंशा ठीक नहीं है.बाबूलाल मरांडी ने बीबीसी से कहा, "मैं इस मुद्दे पर सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देना चाहता था लेकिन मुझे विधानसभा में बोलने तक नहीं दिया गया. जब सरना आदिवासी धर्म कोड बिल के लिए ही विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया था, तो मुझे बोलने क्यों नहीं दिया गया. अगर बोलने ही नहीं देना था, तब विशेष सत्र की क्या आवश्यकता थी. मेरा मानना है कि हेमंत सोरेन की सरकार इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति कर रही है. इसके बावजूद मेरी पार्टी ने इस विधेयक का समर्थन किया है."
आदिवासियों की हिस्सेदारी
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या दस करोड़ से कुछ अधिक है. इनमें क़रीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं.
देश में आदिवासियों की 750 से भी अधिक जातियां हैं. अधिकतर राज्यों की आबादी में इनकी हिस्सेदारी है. इसके बावजूद अलग आदिवासी धर्म कोड की व्यवस्था नहीं है. इस कारण पिछली जनगणना में इन्हें धर्म की जगह 'अन्य' कैटेगरी में रखा गया था.
जबकि ब्रिटिश शासन काल में साल 1871 से लेकर आज़ादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था रही है. तब अलग-अलग जनगणना के वक्त इन्हें अलग-अलग नामों से सबोधित किया गया. आज़ादी के बाद इन्हें शिड्यूल ट्राइब्स (एसटी) कहा गया.
इस संबोधन को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी. इस कारण विवाद हुआ. तभी से आदिवासियों के लिए धर्म का विशेष कॉलम ख़त्म कर दिया गया. वरिष्ठ पत्रकार मधुकर बताते हैं कि 1960 के दशक में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के वक्त लोकसभा में भी इस संबंधित एक संशोधन विधेयक लाया गया लेकिन बहस के बावजूद वह पारित नहीं कराया जा सका.
वो कहते हैं," यह विवाद पैदा करने की कोशिश की जाती रही कि आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं अलग-अलग हैं. कोई सरना है, कोई ईसाई तो कोई हिंदू धर्म को मानता है. आदिवासियों का एक समूह इस्लाम, जैन और बौद्ध धर्मावलंबी भी है. इस कारण उनके लिए अलग धर्म कोड की ज़रूरत नहीं है."
बकौल मधुकर, ऐसे लोग आदिवासी स्कॉलर और कांग्रेस के सांसद रहे कार्तिक उरांव की पुस्तक 'बीस वर्ष की काली रात' का भी उल्लेख करते हैं लेकिन ज़्यादातर मौकों पर इसकी ग़लत व्याख्या की जाती रही है.
इस कारण विभिन्न आदिवासी संगठन अलग धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलन करते रहे हैं. बहरहाल, अब यह मामला केंद्र सरकार के पास है. यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार इस प्रस्ताव पर क्या निर्णय लेती है.
दुनिया भर के वैज्ञानिक परेशान हैं कि अब धरती की तरफ अंतरिक्ष से आने वाले खतरों की जानकारी कौन देगा? ऐसे खतरों की जानकारी देने वाला दुनिया का सबसे बड़ा एंटीना टूट गया है. यह एंटीना जिन लोहे के केबलों से जुड़ा है वो भी टूट रहे हैं. अब इस एंटीना की रिपेयरिंग की जाएगी. इस एंटीना के ऊपर जेम्स बॉन्ड सीरीज की मूवी गोल्डन आई की शूटिंग भी हुई थी. आइए जानते हैं इस ताकतवर एंटीना के बारे में...
यह एंटीना अंतरिक्ष की गहराइयों से आने वाले खतरों जैसे एस्टेरॉयड्स, मेटियॉर्स आदि की जानकारी दुनिया भर के वैज्ञानिकों को देता है. यह एंटीना लगा है आर्सीबो ऑब्जरवेटरी (Arecibo Observatory) में. ये प्यूर्टो रिको में स्थित है. इसका संचालन एना जी मेंडेज यूनिवर्सिटी, नेशनल साइंस फाउंडेशन और यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा मिलकर करते हैं.
इस ऑब्जरवेटरी में एक 1007 फीट तीन इंच व्यास का बड़ा गोलाकार एंटीना है. जो सुदूर अंतरिक्ष में होने वाली गतिविधियों को पकड़ता है. इसका मुख्य काम धरती की तरफ आ रही खगोलीय वस्तुओं के बारे में जानकारी देना है. 1007 फीट व्यास वाले एंटीना में 40 हजार एल्यूमिनियम के पैनल्स लगे हैं जो सिग्नल रिसीव करने में मदद करते हैं. इस एंटीना को आर्सीबो राडार कहते हैं. आर्सीबो ऑब्जरवेटरी को बनाने का आइडिया कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विलियम ई गॉर्डन को आया था.
इस ऑब्जरवेटरी को बनने में तीन साल लगे. इसका निर्माण कार्य 1960 में शुरू हुआ था. जो 1963 में पूरा हुआ. इस एंटीना के बीचो-बीच एक रिफलेक्टर है जो ब्रिज के जरिए लटका हुआ है. यहां ऐसे दो रिफलेक्टर्स हैं. पहला 365 फीट की ऊंचाई पर और दूसरा 265 फीट की ऊंचाई पर. सभी रिफलेक्टर्स को तीन ऊंचे और मजबूत कॉन्क्रीट से बने टावर से बांधा गया है. बांधने के लिए 3.25 इंच मोटे स्टील के तारों का उपयोग किया गया है. ऑर्सीबो राडार यानी एंटीना कुल 20 एकड़ क्षेत्रफल में फैला है. इसकी गहराई 167 फीट है.
आपको बता दें कि इस ऑब्जरवेटरी में जेम्स बॉन्ड सीरीज की मशहूर फिल्म गोल्डन आई का क्लाइमैक्स सीन फिल्माया गया था. इस फिल्म में पियर्स ब्रॉसनन जेम्स बॉन्ड का किरदार निभा रहे थे. इसके अलावा इस ऑब्जरवेटरी में कई फिल्में, वेबसीरीज और डॉक्यूमेंट्रीज बन चुकी हैं. इसके अलावा जोडी फॉस्टर की फिल्म कॉन्टैक्ट की शूटिंग भी यहीं हुई थी. इस ऑब्जरवेटरी के जो केबल टूटे हैं उन पर 5.44 लाख किलोग्राम वजन था.
इनमें से कुछ केबल टूट गए. जो केबल टूटे हैं उनपर 2.83 लाख किलोग्राम का वजन था. इसकी वजह से एंटीना के 100 फीट के हिस्से में छेद हो गया है. एल्यूमिनियम से बने एंटीना का बड़ा हिस्सा टूटकर जमीन पर गिर चुका है. आपको बता दें कि इस एंटीना की मदद से दुनिया भर के करीब 250 साइंटिस्ट अंतरिक्ष पर नजर रखते हैं.
सिर्फ इतना ही नहीं यह जगह पर्यटकों के बीच भी काफी प्रसिद्ध है. यहां पर हर साल करीब एक लाख पर्यटक आते हैं. ताकि वो इस एंटीना को देख सकें और यहां पर किए जा रहे कार्यों के बारे में जानकारी हासिल कर सकें.
इस एंटीना को जब बनाया गया था तब इसका मकसद रक्षा प्रणाली को मजबूत करना था. इसके जरिए प्यूर्टो रिको एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम को मजबूत करना चाहता था. बाद में इसका उपयोग वैज्ञानिक कार्यों के लिए किया जाने लगा. इस एंटीना ने सिर्फ अंतरिक्ष से आने वाले खतरों की ही जानकारी नहीं दी है. बल्कि आसपास के देशों को कई प्राकृतिक आपदाओं की सूचनाएं भी मुहैया कराई हैं.
इस एंटीना ने पिछले 50 सालों में कई चक्रवातों, भूकंपों और हरिकेन्स की जानकारियां भी दी हैं. अब साइंटिस्ट हैरान है कि करीब 900 टन का यह ढांचा कुछ ही केबल्स पर टिका है. इसे तत्काल रिपेयरिंग की जरूरत है. अगर जल्द ही इसकी मरम्मत नहीं की गई तो पूरा का पूरा ढांचा गिर सकता है. अगर यह ढांचा गिर गया तो इसे वापस बनाने में काफी समय लग जाएगा.
साइंटिस्ट ने टूट-फूट का आकलन किया तो पता चला कि करीब 89.46 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है. अगले महीने तक नए केबल आने की उम्मीद है. ऑब्जरवेटरी के प्रमुख ने नेशनल साइंस फाउंडेशन से मरम्मत के लिए नुकसान हुए रकम की मांग की है. ऑब्जरवेटरी के साइंटिस्ट्स और कर्मचारियों को एंटीना के नीचे और ढांचे के आसपास जाने से मना कर दिया गया है.