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भूख और कुपोषण इस देश में सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए लेकिन यह है या नहीं यह बिल्कुल दूसरी बात है. यह ज़रूर होना चाहिए था. केंद्र सरकार ने नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के छठे राउंड के आंकड़े जारी किए हैं. इससे पता चला कि पिछले चार-पांच साल में बच्चों के पोषण में कोई प्रोग्रेस नहीं हुआ है. मेन स्ट्रीम मीडिया में इसकी कोई चर्चा भी नहीं है. इस मुद्दे को बड़ा मुद्दा बनाया जाना ज़रूरी है.
याद रखिए कि 2016 में भी हर तीन में से एक बच्चा अंडरवेट था. लगभग इतने ही बच्चों की लंबाई कम थी. दुनिया में देखें तो भारत में सबसे अधिक कुपोषण है. लेकिन, इस समस्या को दूर करने के लिए कितना काम और कितना ख़र्च हो रहा है, यह समझा जा सकता है. मुझे लगता है यह मुद्दा उठाया जाना चाहिए, तभी भारत की स्थिति ठीक हो सकेगी.
लॉकडाउन ने समस्या को कितना बढ़ाया
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2020 के बीच बच्चों के कुपोषण के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई. लॉकडाउन में यह हालत और ख़राब हुई होगी. मिड डे मील और स्वास्थ्य सुविधाएं कई जगहों पर बंद हुई हैं.
हंगर वाच के सर्वे से पता चला है कि 76 फ़ीसदी लोग लॉकडाउन के कारण कम खा रहे हैं. इसका मतलब है कि हालत ख़राब हुई है. मोदी सरकार जब 2014 में आई, तो उन्होंने साल 2015 में अपने पहले ही बजट में मिड डे मील और आइसीडीएस का बजट कम कर दिया.
आज भी केंद्र सरकार का बजट इन योजनाओं के लिए 2014 से कम है. सबसे बड़ी समस्या है कि इस सरकार की विकास की समझ उल्टी है. विकास का मतलब केवल यह नहीं है कि जीडीपी बढ़ रहा है या लोगों की आय बढ़ रही है. यह आर्थिक वृद्धि है. लेकिन, आर्थिक वृद्धि और विकास में काफ़ी फर्क है.
विकास का मतलब यह भी है कि न केवल प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, लोकतंत्र, सामाजिक सुरक्षा की हालत में भी सुधार हो रहा है. अगर उद्देश्य केवल यह है कि भारत दुनिया में सुपर पावर बन जाए, हमारी इकोनॉमी पांच ट्रिलियन की हो जाए तो आप बच्चों पर ध्यान तो नहीं देंगे न. ऐसे में संपूर्ण विकास की बात कहां हो पाएगी. असली विकास यह है कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो. लेकिन, मोदी सरकार का यह उद्देश्य नहीं है.
आदिवासी, दलित या वंचित समुदायों के लोगों के साथ भेदभाव
भारत में कुपोषण इतना अधिक है. इसमें प्रगति नहीं दिख रही है. नेपाल और दूसरे देशों से भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी इन देशों से ज़्यादा है. तब क्यों इतनी कम प्रगति है. मुझे लगता है कि यहां असमानता और भेदभाव के कारण नुकसान हो रहा है.
मुझे लगता है कि अगर गांव में आंगनबाड़ी चलाना है और वहां ऊंची जाति के बच्चे छोटी जातियों के बच्चों के साथ नहीं खाएंगे, तो आंगनबाड़ी कैसे चलेगा. यही हालत स्वास्थ्य सुविधाओं में भी है. इन सभी जगहों पर जातीय और लैंगिक भेदभाव है. मुझे लगता है कि सामाजिक क्षेत्र में भारत के पिछड़ेपन की मुख्य वजह इसी से संबंधित है.
हंगर वाच के ताजा सर्वे के मायने
हंगर वाच के सर्वे का सबसे बड़ा नतीजा यह है कि लॉकडाउन का प्रभाव अभी भी कई परिवारों पर है. लोग कम खा रहे हैं. बच्चों और मां-बाप की हालत और खराब हो रही है.
हंगर वाच और एनएफएचएस के सर्वे दरअसल एक वेक-अप कॉल हैं. लेकिन, दुख की बात यह है कि न सरकार और न मेन स्ट्रीम मीडिया इस पर ध्यान दे रहा है.
सामाजिक सुरक्षा और भोजन का सवाल
पिछले पांच-छह साल से आर्थिक नीति और सामाजिक नीति में बड़ा गैप बन गया है. सामाजिक नीतियों को किनारे कर दिया गया है. केंद्र सरकार ने सामाजिक नीति को पूरी तरह राज्य सरकारों के भरोसे छोड़ दिया है.
2006 और 2016 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े देखेंगे, तो पता चलेगा कि उस दौरान काफ़ी प्रगति हुई. चाहे स्वास्थ्य की बात करें या फिर शिक्षा की, उस दौर में पहली बार भारत में इतनी तेजी से प्रगति हुई.
इसका कारण यह था कि उस पीरियड में भारत में एक्टिव सोशल पॉलिटिक्स की शुरुआत दिख रही थी. उसी दौरान नरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून, मिड डे मील जैसी योजनाएं लाई गईं. इसके साथ ही आइसीडीएस का विस्तार हुआ.
मतलब तब सामाजिक और आर्थिक नीति का संतुलन दिख रहा था. लेकिन, मौजूदा सरकार में सामाजिक नीतियों को किनारे कर दिया गया है. उसका बजट भी कम किया गया है. तो, इससे बड़ी असमानता पैदा हुई है. नोटबंदी के बाद आर्थिक वृद्धि पर भी असर पड़ा है. इस असमानता का नतीजा अब हमारे सामने है.
ख़ुद बाबा साहब आंबेडकर ने तो गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि जब आप 'भंगी' नहीं हैं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं?
जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर 'भंगियों' के लिए काम करने का एकमात्र आधार यही है कि कोई जन्म से 'भंगी' है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म 'भंगी' के घर में हो.
साल 1955 में डॉक्टर आंबेडकर ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में महात्मा गांधी के साथ अपने संबंधों और मतभेदों पर लंबी बात की थी.
आंबेडकर: मैं 1929 में पहली बार गांधी से मिला था, एक मित्र के माध्यम से, एक कॉमन दोस्त थे, जिन्होंने गांधी को मुझसे मिलने को कहा. गांधी ने मुझे ख़त लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला, ये गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है.
फिर वह दूसरे दौर के गोलमेज़ सम्मेलन में आए, पहले दौर के सम्मेलन के लिए नहीं आए थे. उस दौरान वो वहां पांच-छह महीने रुके. उसी दौरान मैंने उनसे मुलाक़ात की और दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भी उनसे मुलाक़ात हुई. पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उन्होंने मुझसे मिलने को कहा. लिहाज़ा मैं उनसे मिलने के लिए गया.
वो जेल में थे. यही वो वक़्त था जब मैंने गांधी से मुलाक़ात की. लेकिन मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला. मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं, क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी. मैं उस शख़्स के दिल में झांक सकता था.
आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था. लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाज़ा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुक़ाबले बेहतर समझता हूं.
सवाल: आपने जो भी देखा, उसके बारे में संक्षेप में क्या कहेंगे?
आंबेडकर: ख़ैर, शुरू में मुझे यही कहना होगा कि मुझे आश्चर्य होता है जब बाहरी दुनिया और विशेषकर पश्चिमी दुनिया के लोग गांधी में दिलचस्पी रखते हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं. वो भारत के इतिहास में एक प्रकरण था, वो कभी एक युग-निर्माता नहीं थे.
गांधी पहले से ही इस देश के लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो चुके हैं. उनकी याद इसी कारण आती है कि कांग्रेस पार्टी उनके जन्मदिन या उनके जीवन से जुड़े किसी अन्य दिन सालाना छुट्टी देती है. हर साल सप्ताह में सात दिनों तक एक उत्सव मनाया जाता है. स्वाभाविक रूप से लोगों की स्मृति को पुनर्जीवित किया जाता है.
लेकिन मुझे लगता है कि अगर ये कृत्रिम सांस नहीं दी जाती तो गांधी को लोग काफ़ी पहले भुला चुके होते.
सवाल: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने मूलभूत बदलाव किए?
आंबेडकरः नहीं, कभी नहीं. बल्कि, वो हर समय दोहरी भूमिका निभाते थे. उन्होंने युवा भारत के सामने दो अख़बार निकाले. पहला 'हरिजन' अंग्रेज़ी में, और गुजरात में उन्होंने एक और अख़बार निकाला जिसे आप 'दीनबंधु' या इसी प्रकार का कुछ कहते हैं.
यदि आप इन दोनों अख़बारों को पढ़ते हैं तो आप पाएंगे कि गांधी ने किस प्रकार लोगों को धोखा दिया. अंग्रेज़ी समाचार पत्र में उन्होंने ख़ुद को जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता का विरोधी और ख़ुद को लोकतांत्रिक बताया. लेकिन अगर आप गुजराती पत्रिका को पढ़ते हैं तो आप उन्हें अधिक रूढ़िवादी व्यक्ति के रूप में देखेंगे.
वो जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म या सभी रूढ़िवादी सिद्धांतों के समर्थक थे, जिन्होंने भारत को हर काल में नीचे रखा है. दरअसल किसी को गांधी के 'हरिजन' में दिए गए बयान और गुजराती अख़बार में दिए उनके बयानों का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी जीवनी लिखनी चाहिए. गुजराती पेपर के सात खंड हैं.
पश्चिमी दुनिया सिर्फ़ अंग्रेज़ी पेपर पढ़ती है, जहां गांधी लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले पश्चिमी लोगों के सम्मान में ख़ुद को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक आदर्शों की वकालत कर रहे थे. लेकिन आपको ये भी देखना होगा कि उन्होंने वास्तव में अपने स्थानीय पेपर में लोगों से क्या बात की थी.
ऐसा लगता है कि किसी ने इसका कोई संदर्भ नहीं लिया है. उनकी जितनी भी जीवनियां लिखी गई हैं, वो उनके 'हरिजन' और 'युवा भारत' पर आधारित हैं, और गांधी के गुजराती लेखन के आधार पर नहीं.
सवाल: फिर जाति संरचना में हरिजन को भगवान के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे उनका असली इरादा क्या था?
आंबेडकर: वो सिर्फ़ ऐसा चाहते थे. अनुसूचित जाते के बारे में दो चीज़ें हैं. हम अस्पृश्यता समाप्त करना चाहते हैं. लेकिन साथ ही हम ये भी चाहते हैं कि हमें समान अवसर दिया जाना चाहिए ताकि हम अन्य वर्गों के स्तर तक पहुंच सकें. अस्पृश्यता को बिलकुल धो देना कोई अवधारणा नहीं है.
हम पिछले 2000 वर्षों से अस्पृश्यता को ढो रहे हैं. किसी ने इसके बारे में चिंता नहीं की है. हां, कुछ कमियां हैं जो बहुत हानिकारक हैं. उदाहरण के लिए लोग पानी नहीं ले सकते हैं, लोगों के पास खेती करने और अपनी आजीविका कमाने के लिए भूमि नहीं हो सकती है.
लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण अन्य चीज़ें हैं, अर्थात देश में उनकी स्थिति एक समान होनी चाहिए और उनके पास उच्च पदस्थ होने के अवसर भी होने चाहिए, ताकि न केवल उनकी गरिमा बढ़े, बल्कि वो रणनीतिक स्थितियों में रहते हुए अपने लोगों की रक्षा कर सकें. गांधी इस विचार के बिलकुल विरुद्ध थे, बिलकुल ख़िलाफ़.
सवाल: वो (गांधी) मंदिर में प्रवेश होने जैसे मुद्दों से संतुष्ट थे.
आंबेडकरः वो मंदिर में प्रवेश का अधिकार देना चाहते थे. अब हिंदू मंदिरों की कोई परवाह नहीं करता. अस्पृश्य इस बात को अच्छी तरह समझ चुके हैं कि मंदिर जाने का कोई परिणाम नहीं है. वो अस्पृश्य ही बने रहेंगे, चाहे वो मंदिर जाएं अथवा नहीं. उदाहरण के लिए लोग अछूतों को रेलवे में यात्रा करने की इजाज़त नहीं देते.
अब उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि रेलवे उनके लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं करने जा रही. वो ट्रेन में एक साथ यात्रा करते हैं. जब भी रेल में हिंदू और अस्पृश्य साथ यात्रा करते हैं तो वो अपनी पुरानी भूमिका में होते हैं.
सवालः तो क्या आप कहना चाहते हैं कि गांधी रूढ़िवादी हिंदू थे?
आंबेडकरः हां, वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे. वो कभी एक सुधारक नहीं थे. उनकी ऐसी कोई सोच नहीं थी, वो अस्पृश्यता के बारे में सिर्फ़ इसलिए बात करते थे कि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें. ये एक बात थी. दूसरी बात, वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें.
मुझे नहीं लगता कि इससे अधिक उन्होंने अस्पृश्यों के उत्थान के बारे में कुछ सोचा.
सवाल: क्या आपको लगता है कि गांधी के बिना राजनीतिक आज़ादी मिल सकती थी?
आंबेडकरः जी हां. मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं. ये धीरे-धीरे हो सकता था. लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि अगर स्वराज भारत में धीरे-धीरे आता तो ये लोगों के लिए फ़ायदेमंद होता. विकृतियों से ग्रस्त हर समुदाय या लोगों का हर समूह स्वयं को मज़बूत करने में सक्षम होता, अगर ब्रिटिश सरकार से सत्ता हस्तांतरण धीरे-धीरे होता.
आज हर चीज़ एक बाढ़ के समान आ गई है. लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. मुझे अक्सर लगता है कि इंग्लैंड में लेबर पार्टी सबसे वाहियात पार्टी है.
सवाल: क्या गांधी में धीरज नहीं था, या कांग्रेस पार्टी में?
आंबेडकरः मुझे नहीं मालूम कि अचानक एटली आज़ादी देने के लिए तैयार क्यों हो गए. ये एक गोपनीय विषय है, जो मुझे लगता है, कि एटली किसी दिन अपनी जीवनी में दुनिया के सामने लाएंगे. वो उस मुक़ाम तक कैसे पहुंचे. किसी ने अचानक इस बदलाव के बारे में नहीं सोचा था. किसी ने उम्मीद नहीं की थी.
ये मुझे अपने आकलन से लगता है. मुझे लगता है कि लेबर पार्टी ने दो कारणों से ये फ़ैसला किया. पहला है सुभाष चन्द्र बोस की राष्ट्रीय सेना. इस देश पर राज कर रहे ब्रिटिश को पूरा भरोसा था कि देश को चाहे कुछ भी हो जाए और राजनीतिज्ञ चाहे कुछ भी कर लें, लेकिन इस मिट्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता नहीं बदलेंगे.
इस सोच के साथ वो अपना प्रशासन चला रहे थे. उस सोच को बुरी तरह धक्का पहुंचा, जब उन्हें पता चला कि सैनिक एक पार्टी या बटालियन बना रहे हैं, जो ब्रिटिश को उखाड़ फेंकेगी. मुझे लगता है कि ऐसे में ब्रिटिश इस नतीजे पर पहुंचे, कि अगर उन्हें भारत पर शासन करना है तो इसका इकलौता आधार ब्रिटिश सेना से संचालन हो सकता है.
1857 की बात करें, जब भारतीय सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था. उन्होंने पाया कि ब्रिटिश के लिए ये संभव नहीं होगा कि वो भारत में लगातार इतनी यूरोपीय सेना मुहैया कराते रहें, जिसके ज़रिये शासन किया जा सके.
दूसरी बात, जो मुझे लगती है, हालांकि मेरे पास ऐसा सबूत नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूं कि ब्रिटिश सैनिक सेना को फ़ौरन समाप्त करना चाहते थे, ताकि वो नागरिक पेशे अपना सकें. आप जानते हैं कि सेना को धीरे-धीरे कम करने के पीछे कितनी नाराज़गी थी?
क्योंकि जिन्हें सेना से नहीं निकाला गया था, वो सोचते थे, कि जिन लोगों को सेना से निकाल दिया गया है, वो उनका नागरिक पेशा हथिया रहे हैं और उनके साथ कितनी नाइंसाफ़ी हो रही है. लिहाज़ा भारत पर शासन करने के लिए पर्याप्त ब्रिटिश सेना रखना उनके लिए मुमकिन नहीं था.
तीसरी बात, मुझे लगता है कि इसके अलावा उन्होंने सोचा कि भारत से उन्हें सिर्फ़ वाणिज्य चाहिए था और सिविल सर्वेंट की पगार या सेना की आमदनी नहीं. ये तुच्छ चीज़ें थीं. व्यापार और वाणिज्य के रूप में इनका बलिदान करने में कोई हर्जा नहीं था. भारत आज़ाद हो जाए या उसकी स्थिति स्वीकृत डोमेन या उससे कमतर हो.
लेकिन व्यापार और वाणिज्य बना रहना चाहिए. मैं इसके बारे में सुनिश्चित नहीं हूं, लेकिन मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है, लेबर पार्टी की मंशा यही रही होगी.
सवाल: पूना समझौते की बात करते हैं. आप उस समझौते में शामिल थे. क्या आपको याद है कि उस दौरान गांधी से आपकी क्या बातचीत हुई?
आंबेडकर: (हल्के स्वर में) हां... मैं ये बात अच्छी तरह जानता था. ब्रिटिश सरकार ने मैकडोनल्ड के दिए मूल प्रस्ताव में मेरा सुझाव मान लिया था. मैंने कहा था कि हम एक समान निर्वाचित प्रतिनिधि चाहते हैं, ताकि हिन्दुओं और अनुसूचित जातियों के बीच दरार बनी रहे.
हमें लगता है कि अगर आप एक समान निर्वाचन प्रतिनिधि उपलब्ध कराते हैं तो हम समाहित हो जाएंगे और अनुसूचित जाति के नामित वास्तव में हिन्दुओं के ग़ुलाम बन जाएंगे, आज़ाद नहीं रहेंगे. अब मैंने रामसे मैकडोनल्ड से कहा, कि वो इसी विषय को आगे बढ़ाना चाहते हैं, हमें अलग निर्वाचन प्रतिनिधि और आम चुनाव में अलग मत दें.
ताकि गांधी ये नहीं कह सकें कि हम चुनाव के मामले में अलग हैं. पहले मेरी सोच यही थी, कि पहले पांच वर्ष हम हिन्दुओं से अलग रहें, जिसमें कोई व्यवहार, कोई संवाद न हो. ये सामाजिक और आध्यात्मिक क़दम होता. आप एक आम मतदाता में भागीदारी के चक्र में क्या देख सकते हैं?
इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए आप जिस अलगाववाद के बारे में सोचते हैं, वो सदियों से बढ़ी है. ये सोचना मूर्खता है कि यदि दो लोगों के एक साथ मतदान केन्द्रों पर मतदान करने से उनके दिल बदल जाएंगे. ऐसा कुछ भी नहीं है. ये गांधी का पागलपन है. ख़ैर, इसे अलग रखा जाना चाहिए.
इस तरह की व्यवस्था में अस्पृश्यों से मतदान कराते हैं, तो आप उन्हें उसी अनुपात की अपनी आबादी का प्रतिनिधित्व करने देते हैं, ताकि मतदान पर बल मिले और प्रतिनिधि पर नहीं. ताकि गांधी और अन्य लोग शिकायत न कर सकें. रामसे मैकडोनाल्ड ने इसे स्वीकार कर लिया. ये वास्तव में मेरा सुझाव था. मैंने नेपल्स से उन्हें पत्र लिखा था.
मैं चाहता था कि वो यही करें, ताकि कोई समस्या न हो. उन्होंने यही किया, हमें अलग से निर्वाचन क्षेत्र और आम चुनाव में मतदान का अधिकार दिया. लेकिन गांधी नहीं चाहते थे कि हम अपने वास्तविक प्रतिनिधियों को भेजें. लिहाज़ा वो समझौते में अलग निर्वाचन क्षेत्र को नहीं जोड़ना चाहते थे और अनशन पर चले गए. फिर ये मेरे ऊपर आ गया.
ब्रिटिश सरकार ने कहा कि अगर आप समझौता नहीं मानना चाहते तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है. लेकिन हम समझौता स्वयं समाप्त करना चाहते थे. हमने समझौता छोड़ दिया. हमने हर वो चीज़ छोड़ दी, जो सर्वश्रेष्ठ थी.
आपको रामसे मैकडोनल्ड का पत्र पढ़ना चाहिए, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि हमने अलगाववाद को बढ़ावा देने जैसा कुछ भी नहीं किया है. बल्कि हम एक समान निर्वाचन के ज़रिये दोनों गुटों को एक मंच पर लाकर इस खाई को भरना चाहते हैं. लेकिन गांधी का विरोध इस बात पर था कि हमें आज़ादी के साथ प्रतिनिधित्व न मिले.
लिहाज़ा उन्होंने खुलकर विरोध किया कि हमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए. गोलमेज़ सम्मेलन में उनका यही रुख़ था. उन्होंने कहा कि वो सिर्फ़ हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदाय को जानते हैं. संविधान में सिर्फ़ इन्हीं तीन समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.
लेकिन इसाई, एंग्लो-इंडियन्स, अनुसूचित जाति के लिए संविधान में कोई जगह नहीं. उनके मुताबिक़ इन लोगों को आम लोगों के साथ मिश्र कर देना चाहिए. मैं जानता हूं कि उनके सभी दोस्त इस सोच को मूर्खता बता रहे थे. इस विषय पर उनके दोस्तों ने ही उनका विरोध किया.
अगर सिख और मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से हज़ारों गुना बेहतर स्थिति में हैं, तो अनुसूचित जाति और ईसाइयों को कैसे छोड़ा जा सकता है? उनका यही कहना था कि आपलोग हमारी समस्या नहीं समझते. वो, बस, यही कहते थे.
इस मुद्दे पर उनके गहरे मित्र अलेक्जेन्ड्रिया का उनसे खासा झगड़ा हुआ, जैसा उन्होंने मुझे बताया. एक फ्रेंच महिला, जो उनकी अनुयायी थी, मैं उसका नाम भूल गया. उसने भी गांधी से जमकर झगड़ा किया, कि हम इस सोच को समझ नहीं पा रहे. या तो आप कहें कि हम किसी को कुछ नहीं देंगे और एक सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए.
हम इस बात को समझ सकते हैं कि आप इसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया देखते हैं. लेकिन ये कहना कि मुसलमानों और सिखों को प्रतिनिधित्व देना और अनुसूचित जातियों को नहीं, अजीब लगता है. वो कोई जवाब नहीं दे पाए. कोई जवाब नहीं. हमने ये उपाय सुझाया था.
शुरू में उन्होंने भी इसे स्वीकार नहीं किया, जब उन्होंने ख़त में लिखा; रामसे मैकडोनल्ड ने कहा कि अनुसूचित जातियों के पास कुछ भी नहीं है, कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. फिर उनके दोस्तों ने ही कहा कि वो ज़रूरत से ज़्यादा कर रहे हैं, और इसमें कोई उन्हें समर्थन नहीं देगा.
फिर मालवीय और अन्य लोग मेरे पास आए और कहा, कि क्या आप इस समस्या के समाधान में हमारी मदद नहीं कर सकते? मैंने कहा कि हमने ब्रिटिश शासन से जो पाया है, उसकी बलि चढ़ाकर आपकी मदद नहीं करना चाहते.
सवाल: और आप अपने विचार पर टिके रहे.
आंबेडकर: (हल्के स्वर में) जैसा मैंने कहा कि मैंने दूसरा विकल्प सुझाया था. विकल्प ये था कि हम अलग इलेक्टोरेट छोड़ने को तैयार नहीं थे. लेकिन इसके लिए तैयार थे कि आप कुछ भी परिवर्तन कर सकते हैं. अंतिम चुनाव में खड़े होने वाले अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को पहले प्राथमिक चुनाव में अनुसूचित जाति के सदस्य ही चुनते.
उन्हें चार लोगों को चुनना चाहिए. फिर उन चार लोगों को आम चुनाव में खड़ा होना चाहिए. हमारे पास सर्वश्रेष्ठ आना चाहिए, ताकि हम कुछ भरोसा दे सकें कि आप अपने उम्मीदवार को वापस न लें. ऐसे में हम उन लोगों को चुन सकेंगे, जो संसद में हमारी आवाज़ बन सकें. ये प्रस्ताव गांधी को स्वीकार करना था, तो उन्होंने किया.
हमें इस प्रस्ताव का सिर्फ़ एक चुनाव में फ़ायदा मिला, 1937 के चुनाव में. फेडरेशन ने चुनाव में बहुमत हासिल किया. गांधी के एक भी उम्मीदवार को जीत नहीं मिली.
सवालः तो क्या उन्होंने अपनी ओर से भारी मोल-तोल किया?
आंबेडकरः बिलकुल उन्होंने तोल-मोल किया. मैंने कुछ नहीं कहा. मैं आपकी ज़िंदगी बचाने को तैयार हूं, बशर्ते आप अड़ियल मत बनें. लेकिन मैं अपने लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करके आपकी ज़िंदगी बचाने नहीं जा रहा. आप देख सकते हैं कि इसके लिए मैंने कितना परिश्रम किया. मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं.
मैं आपकी सनक के लिए अपने लोगों के हितों का बलिदान नहीं करने जा रहा हूं. ये सिर्फ़ उनकी सनक थी. ये कैसे हो सकता है कि जिस सामान्य चुनाव से स्थितियां बदलने की बात की जा रही है, वो स्थितियां न बदल पाए?
सवालः तो इसपर उन्होंने क्या कहा?
आंबेडकरः ओह. वो कुछ भी नहीं कह सके. उन्हें अनुसूचित जाति को लेकर भारी डर था... कि वो सिख और मुस्लिम की तरह आज़ाद निकाय बन जाएंगे और हिन्दुओं को इन तीन समुदायों के समूह से लड़ना पड़ेगा. ये उनके दिमाग़ में था और वो हिन्दुओं को दोस्तों के बिना छोड़ना नहीं चाहते थे.
सवालः तो शायद ही उन्होंने... उन्होंने पूरी तरह राजनीतिज्ञ की तरह काम किया.
आंबेडकरः राजनीतिज्ञ की तरह. वो कभी महात्मा नहीं थे. मैं उन्हें महात्मा कहने से इनकार करता हूं. मैंने अपनी ज़िंदगी में उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा. वो इस पद के लायक़ कभी नहीं थे, नैतिकता के लिहाज़ से भी.
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