Sunday, 05 January 2025

All Categories

1279::/cck::

कोलेस्ट्रॉल के स्तर को बैलेंस रखने के लिए दी गई बातों का ध्यान रखें.....

::/introtext::
::fulltext::

कोलेस्ट्रॉल के स्तर को बैलेंस रखने के लिए संतुलित आहार लेना काफी जरूरी है. अगर आप भी कोलेस्ट्रॉल से परेशान हो तो नीचे दी गई बातों का ध्यान रखें.

नई दिल्ली: कोलेस्ट्रॉल लेवल को लेकर आजकल हर कोई परेशान है. इसे मेंटेन रखने के लिए कई तरह के तेल और फूड को चुनते वक्त काफी ध्यान रखा जाता है. क्योंकि कोलेस्ट्रॉल के स्तर को बैलेंस रखने के लिए संतुलित आहार लेना काफी जरूरी है. अगर आप भी कोलेस्ट्रॉल से परेशान हो तो नीचे दी गई बातों का ध्यान रखें, इसमें आपको उन फूड्स के बारे में बताया जा रहा है जिसमें ट्रांस फैट की मात्रा अधिक होती है और इन्हें आपको अवॉइड करना चाहिए. ये टिप्स दे रहे हैं जैपफ्रेश में आहार सलाहकार मनोज आचार्य व फिटपास में पोषण व आहार विशेषज्ञ मेहर राजपूत. 

1. केक, समोसे और कुकीज
ज्यादातर केक और कुकीज के लेबल पर मिश्रण में शून्य ग्राम ट्रांस वसा लिखी होती है, लेकिन इसमें एक चाल है. यदि ट्रांस वसा सामग्री 0.5 ग्राम से कम है तो निर्माता इसे शून्य ग्राम लिख सकते हैं. इसकी मात्रा फ्रॉस्टिंग में रखी हुई मिठाई खाने से बढ़ जाती है. औसतन फ्रॉस्टिंग वाले पदार्थों में 2 ग्राम ट्रांस वसा होती है और इतनी ही मात्रा में चीनी होती है.

2. बिस्कुट
इसकी बात करने से बहुत से लोगों को आश्चर्य हो सकता है, लेकिन बिस्कुट में भी 3.5 ग्राम ट्रांस वसा होता है. इसमें रोजाना लिए ज़रूरी सोडियम की आधी मात्रा होती है.

3. कृत्रिम मक्खन
ज्यादा मक्खन निर्माताओं ने अपने अवयवों में से ट्रांस वसा को हटा दिया है. लेकिन आपको इसकी जांच करनी चाहिए.  अभी भी कुछ मक्खनों में 3 ग्राम ट्रांस वसा की मात्रा होती है. 

4. फ्रेंच फ्राइज
फ्रेंच फ्राइज या फ्राइड चिकन को खाने से पहले ध्यान रखें कि वो वनस्पति घी या हाड्रोजनेटेड वसा में तली गई हों.

5. फ्रोजेन फूड​
इसके साथ ही आपको फ्रोजेन खाद्य पदार्थ, आइसक्रीम और पॉपकार्न के सेवन के दौरान भी ट्रांस वसा का स्तर देखना चाहिए.

::/fulltext::

1268::/cck::

फैल रहा है खतरनाक निपाह वायरस, इन फलों को भूलकर भी न खाएं......

::/introtext::
::fulltext::

निपाह वायरस का मुख्य स्त्रोत चमगादड़ हैं, इसलिए पेड़ से गिरे कटे या फटे फलों से निपाह वायरस का खतरा हो सकता है।

फलों को खरीदने और उन्हें खाने के दौरान जरा सी लापरवाही महंगी पड़ सकती है। निपाह वायरस का सबसे बड़ा खतरा अब फलों से भी पैदा हो गया है। स्वास्थ्य विभाग ने इसे लेकर प्रदेश में निर्देश जारी किए हैं। इनमें कहा गया है कि पेड़ से गिरे हुए, कटे या फटे फलों को खाने से निपाह वायरस का खतरा हो सकता है। फलों को निपाह वायरस से पीड़ित चमगादड़ द्वारा चाटा या खाया गया हो सकता है। प्रदेश सरकार के निर्देश के बाद स्वास्थ्य विभाग ने सभी स्कूलों सहित लोक निर्माण विभाग, आइपीएच, पशुपालन विभाग सहित अन्य सभी विभागों में अलर्ट जारी कर दिया है। खासकर स्कूलों में निपाह वायरस से बचाव के लिए बच्चों को जागरूक करने को कहा है। निपाह ऐसा वायरस है जो जानवरों से इंसानों में फैल सकता है। यह जानवरों और इंसानों दोनों में गंभीर बीमारियों की वजह बन सकता है। वायरस का मुख्य स्त्रोत वैसे चमगादड़ हैं जो फल खाते हैं। इसके अलावा पीने के पानी को लेकर भी सावधानी बरतने की जरूरत है। 

 

 
::/fulltext::

1261::/cck::

भारत में बदतर स्वास्थ्य सेवाओं को बीमा कवर का झांसा.....

::/introtext::
::fulltext::

डॉक्टर का मेरिट इस बात में नहीं है कि वह मेडिकल शिक्षा में कितने अंक लाता है, बल्कि इसमें है कि वह उस पढ़ाई को व्यवहार में कितना उतार पाता है.

"भारत में मेडिकल शिक्षा कुछ स्थायी मिथकों से घिर गई है, जिन्हें तोड़ना सबसे ज़रूरी है. ख़ानदानी और कुलीन परिवारों के कब्ज़े से इसे निकालने के लिए व्यापक सामाजिक समूह को भी मेडिकल शिक्षा के दायरे में लाना पड़ेगा. इन लोगों ने जान-बूझकर यह बात लोगों के दिमाग में बिठा दी है कि डॉक्टर होने के लिए दैवीय गुणों से लैस कुशाग्र होना बहुत ज़रूरी है. इसके बिना काबिल डॉक्टर नहीं हुआ जा सकता, जबकि काबिल डॉक्टर का होना इस बात पर निर्भर करता है कि आप में सेवाभाव है या नहीं. यही असली मेरिट है. डॉक्टर का मेरिट इस बात में नहीं है कि वह मेडिकल शिक्षा में कितने अंक लाता है, बल्कि इसमें है कि वह उस पढ़ाई को व्यवहार में कितना उतार पाता है. हमारी मेडिकल शिक्षा में इन बातों को किनारे लगा दिया गया है. दूसरे बायोलॉजिकल साइंस की तरह मेडिकल ज्ञान भी तथ्यात्मक है - FACTUAL है. यह लॉजिकल या अवधारणात्मक नहीं है. मतलब आपको जो करना है, वह तथ्यों से साबित है, न कि आप ईश्वरीय शक्ति से भांपकर उपचार कर देते हैं. ऐसा कुछ नहीं होता है. जहां तक मेडिकल शिक्षा हासिल करने का सवाल है, इसे कोई भी परिश्रम के ज़रिये हासिल कर सकता है, बशर्ते उसे मेडिकल शिक्षा संस्थानों में आने का मौका मिले..."

यह पंक्ति मेरी नहीं, बल्कि दो डॉक्टरों की है. एक का नाम है डॉ अनूप सराया, जो AIIMS के गैस्ट्रोएंटेरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं. सारा जीवन स्वास्थ्य की नीतियों और भारत के अस्पतालों में घूम-घूमकर अध्ययन करने में लगा दिया. दूसरे डॉक्टर का नाम है डॉ विकास बाजपेई, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में पढ़ाते हैं. डॉ विकास रेडिएशन ऑन्कोलॉजिस्ट हैं.इनकी एक किताब आई है, जिसका शीर्षक है HEALTH BEYOND MEDICINE, SOME REFLECTIONS ON THE POLITICS AND SOCIOLOGY OF HEALTH IN INDIA, 995 रुपये की इस किताब को aakarbooks.com ने छापा है. आज सुबह उठते ही इस किताब में प्रवेश कर गया. आज़ादी से लेकर आज तक भारत के लोक स्वास्थ्य की समझ नहीं होने के कारण ही मीडिया सरकारों के बीमा कवरेज को ही स्वास्थ्य समस्या का समाधान मान लेता है. जल्दी ही भारत सरकार स्वास्थ्य बीमा की नौटंकी करने वाली है. इसमें नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना नहीं है, कोई दूसरी सरकार होती, तो वह भी यही करती है.

अस्पताल सिर्फ डॉक्टर से नहीं चलता, बल्कि इसके लिए बड़ी संख्या में टेक्नीशियन, फार्मासिस्ट, लैब सहायक, रेडियोलॉजिस्ट वगैरह की ज़रूरत होती है. भारत के शहरी और ग्रामीण अस्पतालों में इनकी भारी नहीं, महामारी के स्तर पर कमी है. AIIMS भोपाल में ही कई हज़ार नॉन-फैकल्टी स्टाफ की कमी है. जब AIIMS का यह हाल है, तब आप बाकी संस्थानों के बारे में अंदाज़ा लगा सकते हैं. डॉ अनूप सराया और डॉ विकास बाजपेई की यह किताब बताती है कि भारत में चाहे जितनी प्रकार की सरकारें रही हों, जितने दलों की सरकारें रही हों, पिछले 20 साल से स्वास्थ्य नीतियों के मामले में एक जैसी ही साबित हुई हैं. उसके पहले से की जा रही अनदेखी का नतीजा यह हुआ कि इन 20 सालों में स्वास्थ्य सेवाओं की समस्या भयावह हो गई. अस्पतालों की कुछ सुविधाओं - जैसे, नर्सिंग, सफाई, किचन वगैरह - को निजी हाथों में देने का कोई लाभ नहीं हुआ. ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि गुणवत्ता में सुधार हो, बल्कि आप कहीं भी इक्का-दुक्का अस्पतालों को छोड़ यह गिरावट अपने कान से भी देख सकते हैं, अगर राजनीतिक भक्ति में आंखों से नहीं देखना चाहते हों, तो.

भारत के अस्पतालों में साढ़े दस लाख बिस्तर हैं, जिनमें से 8 लाख 33 हज़ार प्राइवेट अस्पतालों के हैं और 5 लाख 40 हज़ार सरकारी अस्पतालों के. प्राइवेट अस्पतालों के बिस्तरों का 70 फीसदी सिर्फ 20 शहरों में केंद्रित है. सरकारी अस्पतालों के बिस्तरों का 60 फीसदी सिर्फ 20 शहरों में है. सरकारी अस्पतालों में सारे बिस्तर काम भी नहीं करते हैं. इनका उपयोग नहीं होता है, क्योंकि डॉक्टर और ज़रूरी स्टाफ नहीं है. आप इतने भर से समझ जाएंगे कि कस्बों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल है और बीमा का कार्ड दे देने से क्या बदल जाएगा. बीमा एजेंट डॉक्टर नहीं होता है. यह बात पर्स में लिखकर रख लें. भारत में 1,000 की आबादी पर 0.3 से 0.5 से ज्यादा डॉक्टर कभी नहीं रहा. जब डॉक्टर ही नहीं है, तो बीमा क्या करेगा. बीमा यह करेगा कि आपको गुड फीलिंग देगा. मूर्ख बनाएगा.

अगर आप तुलना करना चाहें, तो भारत में 1,000 की आबादी पर 0.9 बेड हैं. ज़ाम्बिया भारत से बेहतर है, जहां 1,000 की आबादी पर 2 बेड हैं और GABON नाम के मुल्क में 1,000 की आबादी पर 6.3 बिस्तर हैं. क्यूबा भी भारत की तरह चुनौतियों से भरा रहा, लेकिन उसने अपने रक्षा बजट से समझौता किया और जन स्वास्थ्य को बेहतर बनाया. इस किताब को पढ़ते हुए आप जनस्वास्थ्य के बारे में काफी कुछ पहली बार जानते हैं और आगे इस विषय को समझते रहने का आधार हासिल करते हैं. उड़ीसा, छत्तीसगढ़, राजस्थान के ग्रामीण अस्पतालों में 90 फीसदी विशेषज्ञों की कमी है. उत्तराखंड में 85 फीसदी की कमी है. बिहार और झारखंड में 10,000 की आबादी पर 0.5 फिज़िशियन हैं. तभी आप इन राज्यों में डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर उनसे ज्यादा चाय और खाने-पीने की दुकानों में भीड़ देखते हैं. डॉक्टर अनूप सराया ने कुछ सरकारी अस्पतालों का अनुभव लिखा है. शाम चार बजे के बाद कोई नर्सिंग स्टाफ नहीं होता. एक या दो स्टाफ के भरोसे अस्पताल चलता है. जो नागरिक बाहर हिन्दू-मुस्लिम में बिज़ी रहते हैं, वे अस्पताल में पहुंचकर डॉक्टर को मारने लगते हैं, जबकि उन्हें इसका गुस्सा स्वास्थ्य के लिए नीति बनाने वाले सांसदों और विधायकों पर दबाव बनाकर निकालना चाहिए.

2011 की जनसंख्या के हिसाब से भारत की ग्रामीण आबादी 83 करोड़ से अधिक थी. इन 83 करोड़ लोगों के लिए मात्र 45,062 डॉक्टर हैं. 2007 में भारत में इस आबादी के लिए 27,725 डॉक्टर थे. 2007 में अमेरिका की आबादी थी 30 करोड़, जबकि वहां भारत से 50,000 डॉक्टर जाकर काम कर रहे थे. आज भी यही अनुपात है. भारत से ही सबसे अधिक डॉक्टर अमेरिका जाते हैं और वहां से तिरंगा लेकर 'इंडिया-इंडिया' करते हैं. हम मीडिया वाले उनकी कामयाबी को बढ़-चढ़कर दिखाते हैं कि अमेरिका में तीर मार लिया. तीर मारने की वजह वहां के सिस्टम की दी हुई सुविधाओं और व्यवस्था में भी रही होगी. 1989 से 2000 के बीच AIIMS से 54 प्रतिशत मेडिकल ग्रेजुएट भारत से बाहर चले गए. जो AIIMS बने हैं, उसी का अता-पता नहीं है. वहां सुविधाएं नहीं हैं, मगर AIIMS चूंकि उम्मीद जगाता है, इसलिए नेता अब इस नाम से हर जगह अस्पताल का शिलान्यास कर देते हैं. पब्लिक पहले की तरह लद-फंदकर दिल्ली आती रहती है.

यही नहीं, हर दल की सरकारों ने अपने स्वास्थ्य बजट का 50 फीसदी भी ग्रामीण स्वास्थ्य पर खर्च नहीं किया है. चाहे केंद्र की सरकार रही हो या राज्य की. जहां खर्च हुआ है, वहां भी दूसरी सुविधाएं नदारद हैं और जनता को खास लाभ नहीं मिल रहा है. अब देखिए, 2011 के आंकड़े के अनुसार बिहार के ग्रामीण सरकारी अस्पतालों में 1,830 बेड हैं, तो शहरों के सरकारी अस्पताल में 16,686 हैं. भारत ने 1977 में ही अल्मा आटा घोषणापत्र के तहत लक्ष्य तय किया था कि सन 2000 तक सबको हेल्थ केयर देंगे. आज तक नहीं मिला. अब बीमा को हेल्थ केयर का विकल्प बनाया जा रहा है, यह सिर्फ जनता को मूर्ख बनाकर ही संभव हो सकता है. समस्या है कि प्राइवेट-पब्लिक मिलाकर न तो डॉक्टर हैं, न पर्याप्त अस्पताल, न विशेषज्ञ. लोगों का दबाव इतना है कि अस्पताल में घुसते ही मन्नतों का दौर शुरू हो जाता है. ज्योतिष और पीरों की मज़ार पर चढ़ावा जाने लगता है. डॉक्टर और अस्पताल भी लूटने लगते हैं. हम कभी स्वास्थ्य सेवाओं को समग्र रूप से नहीं देखते. तुरंत अपवादस्वरूप अच्छे अस्पतालों और डॉक्टरों के सहारे इन सवालों को किनारे लगा देते हैं, इसलिए भारत की रैंकिंग हेल्थ केयर के मामले में नीचे आ जाए, तो हैरान न हों. इसमें अचरज की क्या बात. अचरज की बात यह है कि इसके बाद भी आप इन सवालों को महत्व नहीं देते हैं, न देंगे. बेहतर है, आप बीमा कवर ले लें.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं

::/fulltext::

1259::/cck::

रिश्तों पर असर डालते हैं ये हार्मोंस.....

::/introtext::
::fulltext::

ऑक्सीटॉसिन को लव हार्मोन कहा जाता है. जिसके चलते रिश्तों में कनेक्टिविटी महसूस करते हैं. अपर्याप्त ऑक्सीटॉसिन नकारात्मक प्रभाव डालता है.

हार्मोंस का प्रभावसेहत के साथ-साथ रिश्तों पर भी पड़ता है. इन्हें कंट्रोल में रखना बेहद ज़रूरी है. हॉर्मोंस कोशिकाओं व ग्रन्थियों से निकलने वाले केमिकल्स हैं. जो शरीर के दूसरे हिस्से में मौजूद कोशिकाओं या ग्रंथियों को प्रभावित करते हैं. इनका सीधा असर मेटाबॉलिज़्म, इम्यून सिस्टम, रिप्रोडक्टिव सिस्टम, शरीर के विकास, मूड आदि पर पड़ता है. शरीर में कुल 230 तरह के हार्मोंस होते हैं. ये केमिकल मैसेंजर की तरह एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक सिग्नल पहुंचाते हैं. हार्मोंस जब संतुलन में रहते हैं, तो सब कुछ अच्छा रहता है. हार्मोंस का असंतुलन प्रतिकूल प्रभाव डालता है. जिसमें मूड स्विंग्स भी होते हैं. रिश्तों को प्रभावित करने वाले मुख्य हार्मोंस में ऑक्सीटोसिन, टेस्टोस्टेरोन, एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन शामिल हैं. ऑक्सीटॉसिन को लव हार्मोन कहा जाता है. जिसके चलते रिश्तों में कनेक्टिविटी महसूस करते हैं. अपर्याप्त ऑक्सीटॉसिन नकारात्मक प्रभाव डालता है. जिसके चलते चिड़चिड़ापन, अलगाव की भावना, अनिद्रा की समस्याएं होने लगती हैं.

टेस्टोस्टेरॉन मैस्कूलिनिटी की ज़रूरत पूरी करता है. टेस्टोस्टेरॉन का कम स्तर चिड़चिड़ापन और ईगो को जन्म देता है. ये नकारात्मक भावनाएं निजी संबंधों को प्रभावित करती हैं. बढ़ती उम्र, तनाव, पुरानी बीमारियां और हार्मोंस की समस्याएं पुरुषों में कम टेस्टोस्टेरॉन का कारण बन सकती हैं. एस्ट्रोजेन हार्मोन का स्तर महिलाओं में युवावस्था में बढ़ जाता है. जो उनके विकास, यौन गतिविधि और फर्टिलिटी को प्रभावित करता है. एस्ट्रोजेन का स्तर सामान्य होने पर महिलाओं में सेक्स की इच्छा रहती है. एस्ट्रोजेन के अधिक स्तर से भी रिश्ते और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं, सिरदर्द, थकान आदि शिकायतें होती हैं. प्रोजेस्टेरॉन हार्मोन का स्तर गर्भावस्था और मातृत्व के शुरुआती दिनों में अच्छा होता है. यह गर्भवती महिलाओं में बच्चे की देखभाल करने की इच्छा को अधिक बढ़ाता है. इसके कारण बच्चे के जन्म के शुरुआती सालों में यौन आकर्षण कम हो जाता है.

::/fulltext::
RO No 13062/3
RO no 13062/3

 Divya Chhattisgarh

 

City Office :-  Infront of Raj Talkies, Block - B1, 2nd Floor,

                              Bombey Market, GE Road, Raipur 492001

Address     :-  Block - 03/40 Shankar Nagar, Sarhad colony, Raipur { C.G.} 492007

Contact      :- +91 90099-91052, +91 79873-54738

Email          :- Divyachhattisgarh@gmail.com

Visit Counter

Total831143

Visitor Info

  • IP: 18.191.223.30
  • Browser: Unknown
  • Browser Version:
  • Operating System: Unknown

Who Is Online

1
Online

2025-01-05