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हिंदुओं को ग़ुस्सा क्यों आता है, इस विषय पर ज़्यादा बात नहीं की जाती.
ऐसा माना जाता है कि हिंदुओं को शांत और सहिष्णु होना चाहिए. इसलिए जब हिंदुओं को ग़ुस्सा आता है तो लोग चकित हो जाते हैं, स्तब्ध रह जाते हैं. वो समझते हैं कि ये तो हिंदू धर्म का मूल नहीं है. आजकल चारों तरफ़ हिंदुओं का ग़ुस्सा बहुत दिखाई देता है, पर ज़्यादातर लोग इसे समझ नहीं पाते. समझने की कोशिश भी नहीं करते. ये बीमारी 100 साल से धीरे-धीरे बढ़ रही है और अब यह एक ज्वालामुखी की तरह फटा है. इसकी वजह है कि हिंदुओं को लगता है कि देश भर के जो दूसरे धर्म के मानने वाले हैं, या वे लोग जो ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, वे हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. इन लोगों के लिखने में या बोलने में हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह दिखाई देता है.
अगर आपको ईसाइयत को समझना हो तो आप बाइबिल पढ़ सकते हैं, इस्लाम को समझना है तो क़ुरआन पढ़ सकते हैं, लेकिन अगर हिंदू धर्म को समझना है तो कोई शास्त्र नहीं है जो यह समझा सके कि हिंदू धर्म क्या है. हिंदू धर्म शास्त्र पर नहीं बल्कि लोकविश्वास पर निर्भर है. इसका मौखिक परंपरा पर विश्वास है.
हिंदू धर्म के रूप
उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग है. पाँच सौ साल पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग है. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप होते हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. हिंदू धर्म को हज़ारों साल से ग़लत समझा गया है. जब मुसलमान भारत आए तो उन्होंने हिंदुओं को बुतपरस्त कहा और मूर्तिपूजा की निंदा की. उनको लगा कि मूर्तिपूजा ही हिंदू धर्म है. जब अंग्रेज़ आए तो उन्होंने कहा कि यह 'बहुदेववाद' है जिसे उन्होंने झूठ या मिथ्या का दर्ज़ा दिया और एकेश्वरवाद को सत्य बताया.
इससे भारतीय लोग दबाव में आए. अगर आप आज़ादी की लड़ाई के दौरान किया गया लेखन पढ़ें तो भारतीय बुद्धिजीवी एक तरह से बचाव की मु्द्रा में नज़र आते हैं. अंग्रेज़ों के दौर के ज्यादातर बुद्धिजीवी उनकी बात मानते हुए दिखते हैं. उन्होंने हिंदू धर्म को समझने की बजाय उसको सुधारने की कोशिश शुरू की.
उनके लेखन में हम देखते हैं कि सगुण भक्ति की निंदा, निर्गुण भक्ति की प्रशंसा, मूर्ति पूजा की निंदा, रीति-रिवाजों की निंदा - ये सब चलन में आया. उन लोगों ने ऐसा हिंदू धर्म बनाने की कोशिश की जो पाश्चात्य धर्मों से जु़ड़ सकता हो. पाश्चात्य धर्मों में शास्त्र और नियम बहुत स्पष्ट हैं. एक प्रकार का सुधार आंदोलन शुरू हो गया.
हिंदू धर्म की निंदा
हिंदू धर्म को एक ख़ास रूप देने का काम 200 साल पहले अंग्रेज़ों ने किया. और जब वो ये काम कर रहे थे तो उनकी जो पढ़ाई-लिखाई थी वो सब राजनीति से प्रेरित थी, इसलिए वे दिखाना चाहते थे कि हिंदू धर्म ईसाई धर्म से नीचे है. धीरे-धीरे दुनिया जब धर्मनिरपेक्षता की तरफ़ गई तो हम अंग्रेज़ विद्वानों की जगह वामपंथी विचारकों की ओर देखने लगे. वामपंथी लोग धर्म को मानते ही नहीं है इसलिए वे हर धर्म की निंदा करते हैं. हिंदू धर्म की तो ख़ासतौर पर कड़ी निंदा करते हैं. उनके लेखन में ऐसा लगता है कि वे हिंदू धर्म का विश्लेषण कर रहे हैं या उसके बारे में लोगों को समझा रहे हैं, लेकिन किताबों के माध्यम से एक तरह का सुधार आंदोलन चलाया जाता है.
इस विचार में हिंदू धर्म को केवल स्त्री-विरोधी और जातिवादी मान लिया जाता है और हिंदू धर्म की बड़ी चीज़ों जैसे कि वेदांत को सिर्फ़ एक छलावा समझा जाता है. वामपंथी विचारक समझाते हैं कि वेदांत और भारतीय दर्शन तो हाथी के दांत की तरह दिखाने के लिए हैं, हिंदू धर्म की सच्चाई तो जातिवाद ही है.
बदलते पर्व और त्योहार
समानतावादी और धर्मनिरपेक्षवादी दुनिया में हर धर्म को एक जैसा नहीं देखा जाता. पैग़म्बर को ऐतिहासिक और अवतारों को काल्पनिक माना जाता है. सोशल मीडिया में भगवान की लीलाओं का मज़ाक उड़ाया जाता है. हर विश्वास अंधा होता है, लेकिन हिंदुओं को लगता है कि केवल हिंदू धर्म की क्रियाओं और मान्यताओं को अंधविश्वास का दर्जा दिया जा रहा है.
दुनिया भर में यह बातें फैली हुई हैं. आप कहीं भी चले जाएं, हिंदू धर्म के बारे में लोग दो ही बातें करते हैं. एक तो ये कि हिंदू मूर्तिपूजक हैं और दूसरे वे जातिवादी हैं. या फिर नागा बाबाओं या संन्यासियों से जोड़ देते हैं. एक तरह से हिंदू धर्म को विचित्र दिखाने की कोशिश होती है जिससे उस पर विश्वास करने वाले लोगों को बुरा लगता है.
अगर आप अख़बार देखें तो जब हिंदू त्योहार आते हैं तो लोग हिंदुओं की बुराइयां करते हैं, जैसे दीपावली के दौरान प्रदूषण बढ़ने की बात आ जाती है. लगभग हर पूजा के मामले में ऐसा होता है. वे यह नहीं समझते कि औद्योगीकरण की वजह से पर्वों का रूप बहुत बदला है. पहले ज़माने में फूल-पत्तों से पूजा होती थी, अब प्लास्टिक आ गया है, प्लास्टर ऑफ़ पेरिस आ गया है, बारूद आ गया है. त्योहारों का जो आधुनिक रूप है वो पर्यावरण के अनुकूल नहीं है. समस्या औद्योगीकरण और व्यावसायीकरण की है, धर्म की नहीं है. लेकिन लिखने वाले हमेशा धर्म की निंदा करते हैं.
स्त्रीविरोधी है हिंदू धर्म?
हिंदू व्रतों के बारे में कहा जाता है कि वे स्त्री-विरोधी हैं. कहा जाता है कि सभी परंपराएं पुरुषों के वर्चस्व को बढ़ावा देती हैं, लेकिन ऐसा तो सभी धर्मों में है. जैसे इस्लाम में सब कुछ पुरुष प्रधान है, स्त्री पैग़ंबर की बात ही नहीं होती. मदर मेरी के अपवाद को छोड़कर और कहीं स्त्रियों का ज़िक्र नहीं होता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता. धर्म की बात होती है तो कहा जाता है कि भारत का सबसे अच्छा धर्म बौद्ध धर्म था जिसे ब्राह्मणों ने नष्ट कर दिया, इस्लाम ने तोड़ दिया. लेकिन कोई ये नहीं बताता कि बौद्ध धर्म भी पुरुष प्रधान है. विनय पिटक में समलैंगिकों (पालि भाषा में उन्हें पंडक कहा गया है) और स्त्रियों की निंदा की गई है.
एक बात और कही जाती है कि हिंदू धर्म में मौलिक विचार नहीं हैं, सभी विचार यूनानियों, तुर्कों, फ़ारसियों और अंग्रेज़ों से आए हैं. ये भी बुद्धिजीवियों का एक विचार है कि भारत में मौलिक कुछ है ही नहीं. अब तो अमरीका योग पर दावा जताने लगा है, कहा जाने लगा है कि योग का हिंदू धर्म या भारत से कोई संबंध ही नहीं है. जब आपके विश्वासों को जान-बूझकर और लगातार ग़लत समझा जाता रहे तो ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है. जो अकादमिक बुद्धिजीवी मानते हैं कि हिंदू धर्म में दूसरों को पाप करने से रोकने का प्रावधान ही नहीं है तो फिर इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि आपको ग़लत समझा जा रहा है या नहीं.
अगर हिंदू समझते हैं कि उनके विश्वासों को जान-बूझकर ग़लत समझा जा रहा है तो ये एक तरह की विडंबना ही है और सच को नकारने जैसा है. ऐसी बातें सुनकर हिंदुओं का ग़ुस्सा और भड़कता है.
तो कुल मिलाकर ये कि इन्हीं बातों से लोगों को ग़ुस्सा आता है कि हिंदू धर्म को लोग ग़लत समझते हैं और उसे समझने की कोशिश करने कि बजाय उसे सुधारने का प्रयास करते रहते हैं. कभी न कभी लोगों को गुस्सा तो आना ही था, पिछले 100 साल से जो बीमारी चल रही थी वो आज बहुत ज़ोरदार तरीक़े से सामने आई है. लेकिन भगवद्गीता में लिखे को याद रखना चाहिए:
'जब क्रोध आता है तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और यही हमें चारों तरफ़ दिखाई दे रहा है.' (इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.
::/fulltext::रायपुर. भगवान विश्वकर्मा की जयंती के अवसर पर गांधी चौक स्थित जिला सिविल कॉन्टेक्टर वेलफेयर एसोसिएशन की ओर से जयंती समारोह का आयोजन किया गया था। मुख्य अतिथि धर्मस्व एवं कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल उपस्थित थे। इस दौरान उन्होंने एसोसिएशन की तरफ से विभिन्न निर्माण क्षेत्र से जुड़े श्रमवीरों को पुरस्कृत व सम्मानित भी किया।
जयंती समारोह में उपस्थित नागरिकों को संबोधित करते हुए बृजमोहन अग्रवाल ने कहा कि हमारी भारत भूमि धन्य हैं। यहां कण-कण में ईश्वर विराजमान हैं। हम आज उस भगवान विश्वकर्मा की जयंती मना रहे है जिन्होंने सृष्टि का निर्माण किया है। आज भी भगवान विश्वकर्मा के स्वरुप में लाखों-करोड़ों श्रमवीर सृष्टि के उत्तरोत्तर विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे है।
बृजमोहन ने कहा कि हमारे धर्म ग्रंथ प्रामाणिकता के आधार पर रचित है। हजारों वर्ष पूर्व हमारे धर्म ग्रंथों में उल्लेखित रामसेतु के अस्तित्व को आज विज्ञान भी स्वीकार कर रहा है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विश्वकर्मा ने हर महत्वपूर्ण निर्माण किया है।
उन्होंने कहा कि लंका व सुदामापुरी का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने किया था। हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता निर्माण को पूजती है। विध्वंस का संस्कार हमारे धर्म में नहीं हैं। इस अवसर पर नगर निगम रायपुर के एमआईसी मेंबर एजाज ढेबर विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे।
कार्यक्रम में जिला सिविल कांट्रेक्टर वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रभु साहू , शिवनारायण ताम्रकार, जोगीराम, जीतू साहू, आनंदमूर्ति, खगेश सोना, संतकुमार, मंगल, तपेश बोहरा, गणेश महानंद, वीके शुक्ला आदि मौजूद थे।
रायपुर. राग के सूक्ष्म धागे से तन और मन बंधे हैं। लाखों-लाखों शत्रुओं को जीतने वाला व्यक्ति भी इस राग के बंधनों को नहीं काट पाता है। ऐसे तो हम स्वतंत्र कहलाते हैं लेकिन आत्मा और मन को ये राग बांध कर रखता है। मोक्षार्थी पापभीरू होता है। सामने मौत भी आ जाए तो भी नहीं डरता लेकिन पाप से डरता है। राग बहुत बड़ा पाप है। राग से पापों को प्राण,ऊर्जा, शक्ति मिलती है। हम राग के पाप से मुक्त नहीं, हमारे भीतर अनुकूलता का आकर्षण होता है। उक्त बातें आज मंगलवार को पचपेढ़ी नाका स्थित नाकोड़ा भवन में जारी चातुर्मासिक प्रवचन में अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी शांत क्रांति जैन संघ के आचार्य विजयराज महाराज ने कही।
00 रागी की चार आकांक्षाएं होती है :
आचार्यश्री ने कहा कि रागी की कुछ आकांक्षाएं होती है। रागी सबसे पहले सुविधा चाहता है। गर्मी में ठंडा-ठंडा और सर्दी में गर्म-गर्म की इच्छा ही अनुकूलता की सुविधा है। सुविधा अनुकूल हो तो रागी संतुष्ट होता है। यदि अनुकूलता में असुविधा हो ता उसके मन में द्वेष पैदा हो जाएगा। अनुकूलताओं में निरंतर परिवर्तन होते रहता है। आपके पुण्य उदय में है तो ही अनुकूलता होगी, नहीं है तो कितना भी चाह रखो कुछ नहीं होगा। पुण्य के भोग में कर्म का बंध और पुण्य के राग में कर्म की निर्झा होती है। पाप जीव को किसी न किसी जन्म में भोगना पड़ेगा।
आचार्यश्री ने कहा कि रागी सम्मान चाहता है। कोई यदि अपमान कर दे तो रागी को बर्दाश्त नहीं होता। रागी चाहता है कि घर वाले, परिवार-नाते रिश्तेदार और बाहर वाले सभी सम्मान दें। तीसरी आकांक्षा रागी चाहता है ख्याति। रागी चाहता है कि उसकी समृद्धि का गुणगान, स्तुति, पूजा-प्रतिष्ठा होनी चाहिए। चौथी आकांक्षा पदार्थों का उपभोग। रागी चाहता है सभी अनुकूल सामग्री मिले। इन इच्छाओं की पूर्ति ना हो तो आर्तध्यान पैदा होता है। जैसे सांप के शरीर से केचुली निकल गई तो वो मुड़कर केचुली की तरफ नहीं देखता। ये केचुली उसके लिए बंधन थी। वैसे ही जिसे ज्ञान हो जाए राग मेरे लिए बंधन है तो इस बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
00 राग को जीतने वाला मस्त रहता है :
आचार्यश्री ने कहा कि जिसने राग को जीत लिया या जीतने का प्रयास करता है वो मस्त रहता है। जो नहीं करता उसके सामने कभी राग के रंगीन चित्र आते हैं। कभी-कभी द्वेष की भयावह बाते आती है। आप पिक्चर हॉल जाते हैं तो सामने कितने चित्र आते हैं। व्यक्ति सोचता है ये बनावटी-दिखावटी है। ये केवल हमारे मनोरंजन करने के लिए दिखाए जा रहे हैं। जैसे व्यक्ति यहां तटस्थ रहता है, वैसे संसार में आप तटस्थ रहें। ज्ञानी कहते हैं राग के पाप से मुक्त होने के लिए राग के दोषों पर चिंतन करें।
00 दो काम राग से मुक्त करते हैं :
आचार्यश्री ने कहा कि राग का त्याग या त्याग का राग करो। राग से मुक्त होने के ये दो काम है। इन दो में से एक तो करना पड़ेगा। तब हम राग के पाप से मुक्त हो जाएंगे। ऐसा सोचो ये संसार मेरा नहीं, मैं इसका नहीं। ये शरीर मेरा नहीं, मैं इसका नहीं। आपका त्याग-वैराग्य से कनेक्शन जुड़ गया तो आप ऐसे पाप नहीं करोगे जिसका प्रायश्चित बड़ा हो। राग की फुलावट हम संसारी में बहुत हैं। किसी भी घर में चले जाएं वहां पुरानी वस्तुएं देखने को मिलेगी, चाहे कुछ काम की ना हो। जितना हमारा संग्रह होगा उतनी ममता पैदा होती है। ये ममता ही राग को बढ़ावा देती है। राग की प्रवृत्ति, वृत्ति और पुनरावृत्ति करते चलोगे तो ये खराब है। कल जिस राग को हमने खराब समझा था, आज उसी को करने लगे। जिसको अभी समझा था कुछ देर बाद करने लगते हैं।
00 राग का सुख क्षण भर :
आचार्यश्री ने कहा कि शहद लिपटी छुरी को चाटने से थोड़ा सा सुख मिलता है लेकिन परिणाम गंभीर आते हैं। लोगों की जुबान कट जाती है। इसका दर्द जीवन भर चलता रहता है। ज्ञानी कहते हैं कि राग का सुख क्षण भर का होता है और राग का दुख अनंत समय तक रहेगा,हम दूसरा जन्म क्यों न ले लें। राग का मतलब जो रास्ता गिरावट का और वैराग्य का मतलब जो रास्ता ऊपर उठा दे। ये राग का खंभा इतना गहरा गड़ा हुआ है कि इसको उखाडऩे में समय लगेगा।
00 हमें काम राग का त्याग करना होगा :
आचार्यश्री ने कहा कि हमें काम राग का त्याग करना चाहिए। साध्वी प्रियदर्शनाजी मसा के संसार पक्षीय भाई और भाभी देवेन्द्र और सरोज कोठारी ने कुशील के त्याग का नियम दिलाने की विनती की है। ये अब आजीवन सदाचारी बनना चाहते हैं। हालांकि ये सदाचारी ही हैं, गृहस्थ जीवन का सदाचार है इनमें। ये दोनों एक पति-पत्नी निष्ठ हैं। आचार्यश्री के प्रवचन के पश्चात दोनों ने कुशील सेवन नहीं करने का पच्खाण लिया। रायपुर संघ की तरफ से सभी ने अनुमोदना की। बड़ी तपस्या के लिए धन्यवाद दिया।
00 साढ़े 4 वर्ष के बालक ने त्यागा रात्रि भोजन :
आचार्यश्री से आज साढ़े 4 वर्ष के बालक आगम सोनु पारेवाल इंदौर निवासी ने रात्रि भोजन के त्याग का पच्खाण लिया। इसी तरह तेला तप का पच्खाण शिवाजी हलवाई, बेला तप का प्रशांत मालू और उपवास का प्रकाश गोलछा ने पच्खाण लिया। मासखामण की लड़ी में आज करण गोलछा ने 20 और मितीषा गोलछा ने 13 उपवास का प्रत्याख्यान लिया। इसी तरह अन्य तपस्याओं का क्रम भी जारी है।