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कुछ लोग यह सवाल करते हैं कि अगर हिन्दू धर्म कई हजार वर्ष पुराना है तो फिर भारत के बाहर इसका प्रचार-प्रसार क्यों नहीं हुआ? आओ जानते हैं इसका संक्षिप्त में उचित उत्तर। If hindu religion is old by all religions, then why did not it spread outside of India?
पहले दिन वाली जन्माष्टमी (Janmashtami 2018) मंदिरों और ब्राह्मणों के घर पर मनाई जाती है. दूसरे दिन वाली जन्माष्टमी वैष्णव सम्प्रदाय के लोग मनाते हैं. इस बार श्रीकृष्ण (Lord Krishna) की 5245वीं जयंती है. भगवान श्री कृष्ण ने कई ऐसे चमत्कार किए, जिसको आज भी सुनाया जाता है. ऐसा ही एक चमत्कार है, जब श्री कृष्ण ने भगवान इंद्र का घमंड तोड़ने के लिए एक लीला रची थी.
Janmashtami 2018: गोवद्धन पर्वत को अंगुली पर उठाया
कथा के मुताबिक भगवान इंद्र को अपनी शक्तियों और पद पर घमंड हो गया था जिसे चकनाचूर करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने एक लीला रची. उन्होंने वृंदावन के लोगों को समझाया कि भगवान इंद्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करें. जिसके बाद भगवान इंद्र गुस्सा हो गए और वृंदावन पर मूसलाधार बारिश की. इंद्र के प्रकोप से बचने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अपने बाएं हाथ की कनिष्ठ उंगली यानी छोटी उंगली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठा लिया. लोग पर्वत के नीचे आ गए और खुद को बचा लिया. 7 दिन तक लगातार इंद्र ने वर्षा की लेकिन आखिर में उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ. भगवान इंद्र खुद धरती पर उतरे और श्री कृष्ण से माफी मांगी.
कलिया नाग दमन भगवान कृष्ण के असंख्य कारनामों में से एक है. कालिया सर्प का असली घर रामनका द्वीप था, गरुड़ के भय के कारन वो वहासे अपनी पत्नियों के साथ वृन्दावन में आ बसा. वो यमुना नदी में रहने लगा था. नदी इतनी जहरीली हो गई थी कि पानी से बुलबुले निकलने लगे थे. एक बार कृष्ण अपने दोस्तों के साथ गेंद खेलने गए थे. खेलते-खेलते गेंद नदी में चली गई. श्री कृष्णा कदम्ब के वृक्ष पर से चढ़कर नदी में कूद गए. कलिया नाड अपनी दस भुजासे जहर को बहार निकलता था और कृष्ण के शरीर के चारों ओर से लपेट लिया था. श्री कृष्ण ने कालिया के हर प्रहार का मुकाबला किया और विवश होक कालिया नाग को शरणागति करनी पड़ी. कालिया नाग ने श्री कृष्ण से माफ़ी मांगी और जीवनदान के लिए विनती की.
कृष्णा जन्माष्टमी 2018: अर्जुन को जब गीता का उपदेश दिया
जब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं, तब उन्होंने ये भी बोला था कि ये उपदेश पहले वे सूर्यदेव को दे चुके हैं. तब अर्जुन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि सूर्यदेव तो प्राचीन देवता हैं तो आप सूर्यदेव को ये उपदेश पहले कैसे दे सकते हैं. तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि तुम्हारे और मेरे पहले बहुत से जन्म हो चुके हैं. तुम उन जन्मों के बारे में नहीं जानते, लेकिन मैं जानता हूं. इस तरह गीता का ज्ञान सर्वप्रथम अर्जुन को नहीं बल्कि सूर्यदेव को प्राप्त हुआ था.
माता यशोदा को मुंह खोलकर जब कृष्ण ने कराए ब्रह्मांड के दर्शन
भगवान श्री कृष्ण की बाल लीला की कथा है, एक सुबह कृष्ण अपने मित्रों के संग खेल रहे थे. बलराम ने देखा कि कृष्ण ने मिट्टी खा ली है. वे और उनके मित्र मां यशोदा से इसकी शिकायत करने पहुंचे -"जल्दी चलो माँ, कृष्ण मिट्टी खा रहा है." यशोदा माता तुरंत दौड़ कर गईं और कृष्ण का हाथ पकड़कर करीब लाकर पूछा- "क्या तुमने मिट्टी खाई?" कृष्ण ने मां की ओर देखा और मासूमियत से कहा, "नहीं तो! मित्र झूठ बोल रहे हैं. देखो मेरा मुंह, क्या मैंने मिट्टी खाई है?" ऐसा कहकर कृष्ण ने अपना मुंह खोल दिया. माता यशोदा को मिट्टी तो नज़र नहीं आई, इसके स्थान पर कृष्ण के मुंह में यशोदा माता को संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन हो गए- पर्वत, द्वीप, समुद्र, ग्रह, तारे.सम्पूर्ण सृष्टि दिखाई दी.
कृष्ण के चमत्कार से बचा द्रौपदी के चीरहरण
महाभारत में द्युतक्रीड़ा के समय युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रोपदी को जीत लिया. उस समय दुशासन द्रौपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया. देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रौपदी की साड़ी उतारना शुरू कर दी. सभी मौन थे, पांडव भी द्रौपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए. तब द्रौपदी ने आंखें बंद कर वासुदेव श्रीकृष्ण का आव्हान किया. श्रीकृष्ण उस वक्त सभा में मौजूद नहीं थे. द्रौपदी ने कहा, ''हे गोविंद आज आस्था और अनास्था के बीच जंग है. आज मुझे देखना है कि ईश्वर है कि नहीं''.तब श्री कृष्ण ने सभी के समक्ष एक चमत्कार प्रस्तुत किया और द्रौपदी की साड़ी तब तक लंबी होती गई जब तक की दुशासन बेहोश नहीं हो गया और सभी सन्न नहीं रह गए. सभी को समझ में आ गया कि यह चमत्कार है.
::/fulltext::हिंदू धर्म में स्वास्तिक का बहुत महत्व है, कोई भी मंगल कार्य के शुभारम्भ से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाने के बाद ही मंगल कार्य का शुभारम्भ किया जाता है।
स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द का उद्भव संस्कृत के 'सु' और 'अस्ति' से मिलकर बना है। यहां 'सु' का अर्थ है शुभ और 'अस्ति' से तात्पर्य है होना। स्वास्तिक का अर्थ है 'शुभ हो', 'कल्याण हो'। स्वास्तिक के चिन्ह का इस्तेमाल कई सदियो से हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म में होता आ रहा है। प्राचीन समय में एशिया आने वाले पश्चिमी यात्रियों इस चिन्ह के सकारात्मकता से प्रभावित होकर घर लौटने पर अपने घरों पर इसका इस्तेमाल करने लगे। 20 वीं शताब्दी आते आते स्वास्तिक पूरे विश्व में सौभाग्य और मंगल कामना के रुप में इस्तेमाल होने लगा। स्वास्तिक के चिन्ह का इतिहास बहुत ही पुराना है।
हिंदू धर्म के अलावा दुनिया के कई कोनों में इसका इस्तेमाल कई हजारों सालों से होता आ रहा है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।
चार रेखाओं का महत्व
मान्यता है कि स्वास्तिक की यह रेखाएं चार दिशाओं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।
चार देवों का प्रतीक
इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है।
मध्य स्थान का महत्व
हिंदू धर्म में माना जाता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।
स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।
बौद्ध धर्म में स्वास्तिक
हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।
जैन धर्म में स्वास्तिक
वैसे तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।
सिंधु घाटी खुदाई में भी मिले थे स्वास्तिक
सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में सिंधु घाटी से प्राप्त मुद्रा और और बर्तनों में स्वास्तिक का चिन्ह खुदा हुआ मिला उदयगिरि और खंडगिरि की गुफाओं में भी स्वास्तिक के चिन्ह मिले हैं। ऐसा माना जाता है हड़प्पा सभ्यता के लोग भी सूर्य पूजा उपासक रहें होंगे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध ईरान से भी था। जेंद अवेस्ता में भी सूर्य उपासना का उल्लेख पढ़ने को मिलता है। इसके अलावा ऐतिहासिक साक्ष्यों जैसे मोहनजोदड़ो हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में स्वास्तिक का अनेकों बार उल्लेख मिलता है।
जर्मनी में स्वास्तिक
सिर्फ हिंदू धर्म और भारत में ही स्वास्तिक का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक जर्मनी में स्वास्तिक का इस्तेमाल किया जाता है। 19वीं सदी में कुछ जर्मन विद्वान, भारतीय साहित्य का अध्ययन कर रहे थे तो उन्होंने पाया कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएं हैं। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीयों और जर्मन लोगों के पूर्वज एक ही रहे होंगे और ये लोग आर्यन नस्ल के वशंज है। यहूदी विरोधी समुदायों ने स्वास्तिक का आर्यन प्रतीक के तौर पर चलन शुरू किया। जिसका परिणाम ये हुआ कि 1935 के दौरान जर्मनी के नाज़ियों ने स्वास्तिक के निशान का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन यह हिन्दू मान्यताओं के बिलकुल विपरीत था। यह निशान एक सफेद गोले में काले 'क्रास' के रूप में उपयोग में लाया गया, जिसका अर्थ उग्रवाद या फिर स्वतंत्रता से सम्बन्धित था। युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
15000 साल पुराना स्वास्तिक
मध्य एशिया के देशों में भी स्वास्तिक के प्रतीक को सौभाग्य से जोड़कर माना जाता है। प्राचीन इराक में अस्त्र शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वास्तिक के चिन्ह का प्रयोग किया जाता था प्राचीन ग्रीस के अलावा पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक से बाल्कन तक में स्वास्तिक के इस्तेमाल के बारे में उल्लेख हैं। यूरोप के पूर्वी भाग में बसे यूक्रेन में 1 नेशनल म्यूजियम स्थित है इस म्यूजियम में कई तरह के स्वास्तिक चिन्ह देखे जा सकते हैं जो कि 15000 साल तक पुराने हैं।
इंग्लैंड और अमेरिका में भी स्वास्तिक
इंग्लैंड के आयरलैंड के कई स्थानों पर प्राचीन गुफाओं में स्वास्तिक के चिन्ह मिले है , बुल्गारिया की देवेस्तेश्का गुफाओं (Devetashka cave) में 6000 वर्ष पुराने स्वास्तिक के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। अमरीकी सेना ने पहले विश्व युद्ध में इस प्रतीक चिह्न का इस्तेमाल किया। ब्रितानी वायु सेना के लड़ाकू विमानों पर स्वास्तिक चिह्न का इस्तेमाल 1939 तक होता रहा था।
कोका कोला तक इस चिन्ह का इस्तेमाल कर चुका है। कार्ल्ज़बैर्ग बियर की बोतलों पर इस चिन्ह का इस्तेमाल किया गया था। 'द ब्वॉय स्काउट्स' ने इसे अपनाया और 'गर्ल्स क्लब ऑफ़ अमरीका' ने अपनी मैगज़ीन का नाम स्वास्तिक रखा। यहां तक कि उन्होंने पाठकों को इनाम के तौर पर स्वास्तिक चिह्न भेंट किए।
विभिन्न देशों में
नेपाल में हेरंब, मिस्र में एक्टोन तथा बर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजा जाता हैं। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों भी स्वास्त्कि को मंगल प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।
::/fulltext::हर साल, जन्माष्टमी के रूप में भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन मनाया जाता है। पूरी दुनिया में इस जन्मोत्सव को सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता है। हर जगह लोग बहुत खुशी और उल्लास से सारे कार्यक्रमों और पूजाओं को आयोजित करते हैं। READ: जन्माष्टमी पर जरुर बनाइये ये स्पेशल दही के व्यंजन इस दिन कई स्थानों पर झांकी लगती हैं तो कहीं मटकी फोड़ी जाती है, इस तरह सब लटखट भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिवस मनाते हैं। अगर आपने नई गृहस्थी बसाई है और आप भी इस वर्ष कृष्ण जन्मोत्सव मनाना चाहते हैं तो निम्न विधि से पूजा शुरू करें। जानिए जन्माष्टमी की पूजा का विधि-विधान
1. जानिए भगवान कृष्ण के बारे में:
सबसे पहले आपको भगवान श्री कृष्ण के बारे में संक्षिप्त जानकारी होनी चाहिए। इसके लिए आपको कुछ किताबों या इंटरनेट या टीवी पर उनकी कहानियों को पढ़ना व देखना चाहिए। इससे आपको पूजा करते समय फील आएगा। वैसे जन्माष्टमी के दिन सिर्फ बालगोपाल (कृष्णजी के बचपन के रूप) की पूजा की जाती है। उनका जन्म किया जाता है और उन्हे परिवार का पहला सदस्य माना जाता है।
अधिकांश स्थानों पर जन्माष्टमी के दिन व्रत रखा जाता है। इस दिन रोटी, चावल, नमक और अनाज से बनी खाद्य सामग्री खाना मना होता है। आप फलाहार ग्रहण कर सकते हैं। दूध भी पिया जा सकता है।
इस प्रकार का व्रत थोड़ा कठिन होता है। इस व्रत में पानी भी नहीं पिया जाता है। पूजा करने के बाद ही व्यक्ति कुछ खा पी सकता है।
अपने मंदिर या पूजास्थल को अच्छी तरह सजाएं। पूजा सामग्री को एकत्रित कर लें।
लड्डू गोपाल को खीरे में रखें और ठीक 12 बजे उस खीरे को चीरकर लड्डू गोपाल को निकाल लें। उन्हे दूध और दही को गंगाजल में मिलाकर उससे स्नान करवाएं। इसके बाद, अच्छे से वस्त्र उन्हे पहना दें।
गंगाजल, तुलसी के दल, चंदप का लेप, पंचामृत, खुशबु वाला तेल, रूई, शीशा, कपड़े, फूल, अगरबत्ती, घी, लैम्प, भोग और प्रसाद। इन सभी को पहले ही तैयार कर लेना चाहिए।
नहलाने और कपड़े पहनाने के बाद, लड्डू गोपाल को मुकुट लगा दें, उन्हे गले में मोतियों की माला पहनाएं। माथे पर टीका लगा दें।
तैयार करने के बाद, भोग लगाएं। इसके लिए आपको पहले से ही भोग तैयार रखना होगा।
भोग लगाने के पश्चात् आरती करनी होती है। इसमें आरती का भजन करना होता है। परिवार के सभी लोग खड़े होकर भगवान कृष्ण के भजन और आरती गाते हैं। आप चाहें तो हरे राम हरे कृष्ण का जाप भी कर सकते हैं।
कहा जाता है कि इस दिन रखा जाने वाला व्रत, एकादशी के व्रत से कहीं ज्यादा लाभप्रद होता है। इस दिन के बारे में माना जाता है कि भगवान नारायण प्रकट हुए, उनसे युधिष्ठिर ने पूछा कि जन्माष्टमी व्रत का क्या लाभ है, तो उन्होने कहा कि इस दिन जो भी व्यक्ति व्रत रखता है उसे धन, स्वास्थ्य और खाने की कभी कमी नहीं होती है।