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नई दिल्ली : आज से शारदीय नवरात्रि शुरू हो गए हैं. यह 25 अक्टूबर तक चलेंगे. इन पूरे नौ दिनों में हर दिन मां दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा होगी. यह हिंदुओं का प्रमुख त्यौहार है, इसलिए यह पूरे भारत वर्ष और विदेशों में भी कुछ जगहों पर यह बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. नवरात्रि (Navratri) के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है. दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी, तीसरे दिन चंद्रघंटा, चौथे दिन कूष्माण्डा, पांचवे दिन स्कंदमाता, छठवें दिन कात्यायनी, सातवें दिन कालरात्रि, आठवें दिन महागौरी और नौवें दिन सिद्धिदात्री को पूजा जाता है. मां के हर रूप से जुड़ी अलग कथा और अलग मंत्र है. यहां जानें मां दुर्गा के प्रथम यानि शैलपुत्री रूप की पूरी कहानी, मंत्र और पूजा विधि...
मां के शैलपुत्री रूप की पूरी कहानी
मां दुर्गा के पहले स्वरूप को 'शैलपुत्री' के नाम से जाना जाता है. यह नवरात्रि में पूजी जाने वाली सबसे पहली माता हैं. इनके नाम को लेकर मान्यता है कि शैल का अर्थ होता है पर्वत. पर्वतों के राजा हिमालय के घर में पुत्री के रूप में यह जन्मी थीं, इसीलिए इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है. इन माता के हाथ के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का फूल होता है.
देवी शैलपुत्री की उत्पत्ति की पौराणिक कथा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अपने पूर्वजन्म में देवी शैलपुत्री प्रजापति दक्षराज की कन्या थीं और तब उनका नाम सती था. आदिशक्ति देवी सती का विवाह भगवान शंकर से हुआ था. एक बार दक्षराज ने विशाल यज्ञ आयोजित किया, जिसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन शंकरजी को नहीं बुलाया गया. रोष से भरी सती जब अपने पिता के यज्ञ में गईं तो दक्षराज ने भगवान शंकर के विरुद्ध कई अपशब्द कहे. देवी सती अपने पति भगवान शंकर का अपमान सहन नहीं कर सकीं. उन्होंने वहीं यज्ञ की वेदी में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए. अगले जन्म में देवी सती शैलराज हिमालय की पुत्री बनीं और शैलपुत्री के नाम से जानी गईं. जगत-कल्याण के लिए इस जन्म में भी उनका विवाह भगवान शंकर से ही हुआ. पार्वती और हेमवती उनके ही अन्य नाम हैं.
देवी शैलपुत्री की आराधना के प्रभावशाली मंत्र
दुर्गा के पहले रूप शैलपुत्री की शक्तियां अपरम्पार हैं. यहां पढ़ें उनका मंत्र:
वंदे वांछितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम् ।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम् ॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता ॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुंग कुचाम् ।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम् ॥
कैसे करें शैलपुत्री की पूजा
- नवरात्रि के पहले दिन स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें.
- पूजा के समय पीले रंग के वस्त्र पहनना शुभ माना जाता है.
- शुभ मुहूर्त में कलश स्थापना करने के साथ व्रत का संकल्प लिया जाता है.
- कलश स्थापना के बाद मां शैलपुत्री का ध्यान करें.
- मां शैलपुत्री को घी अर्पित करें. मान्यता है कि ऐसा करने से आरोग्य मिलता है.
- नवरात्रि के पहले दिन शैलपुत्री का ध्यान मंत्र पढ़ने के बाद स्तोत्र पाठ और कवच पढ़ना चाहिए.
- शाम के समय मां शैलपुत्री की आरती कर प्रसाद बांटें.
- फिर अपना व्रत खोले
मां शैलपुत्री स्तोत्र पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।
मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
शैलपुत्री कवच
ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
महालया से ही दुर्गा पूजा की शुरुआत हो जाती है. बंगाल के लोगों के लिए महालया का विशेष महत्व है. महालया के साथ ही जहां एक तरफ श्राद् खत्म हो जाते हैं, वहीं मान्यताओं के अनुसार इसी दिन मां दुर्गा कैलाश पर्व से धरती पर आगमन करती हैं और अगले 10 दिनों तक यहीं रहती हैं. महालया के दिन ही मूर्तिकार मां दुर्गा की आंखें तैयार करते हैं. महालया के बाद ही मां दुर्गा की मूर्तियों को अंतिम रूप दिया जाता है और वह पंडालों की शोभा बढ़ाती हैं.
कब है महालया?
पितृ पक्ष की आखिरी श्राद्ध तिथि को महालया पर्व मनाया जाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि यानी अमावस्या को महालया अमावस्या (Mahalaya Amavasya 2020) कहा जाता है. पितृ पक्ष में महालया अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार महालया पर्व हर साल सितंबर या अक्टूबर के महीने में मनाया जाता है. लेकिन, इस साल दुर्गापूजा कुछ अलग होगी. आमतौर पर महालया के दूसरे दिन यानी पितर तर्पण के बाद से ही देवी पाठ की शुरुआत हो जाती है.
लेकिन इस साल महालया के एक माह के बाद यानी 17 अक्टूबर से दुर्गापूजा की शुरुआत हो रही है. वहीं, विजयादशमी 26 अक्टूबर को मनायी जाएगी. हर वर्ष महालया, सर्व पितृ अमावस्या के दिन ही होता है. हिन्दू शास्त्रों में दुर्गापूजा आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में होती है लेकिन इस बार दो अश्विन माह हैं. एक शुद्ध तो दूसरा पुरुषोत्तम यानी अधिक मास. 18 सितंबर से 16 अक्टूबर तक अधिक मास है. वहीं, 17 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक शुद्ध आश्विन माह होगा. इस दौरान ही 17 अक्टूबर से 26 अक्टूबर तक मां दुर्गा की पूजा की जाएगी.
क्या है महालया का इतिहास?
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अत्याचारी राक्षस महिषासुर के संहार के लिए मां दुर्गा का सृजन किया. महिषासुर को वरदान मिला हुआ था कि कोई देवता या मनुष्य उसका वध नहीं कर पाएगा. ऐसा वरदान पाकर महिषासुर राक्षसों का राजा बन गया और उसने देवताओं पर आक्रमण कर दिया. देवता युद्ध हार गए और देवलोकर पर महिषासुर का राज हो गया. महिषासुर से रक्षा करने के लिए सभी देवताओं ने भगवान विष्णु के साथ आदि शक्ति की आराधना की. इस दौरान सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य रोशनी निकली जिसने देवी दुर्गा का रूप धारण कर लिया. शस्त्रों से सुसज्जित मां दुर्गा ने महिषासुर से नौ दिनों तक भीषण युद्ध करने के बाद 10वें दिन उसका वध कर दिया. दरसअल, महालया मां दुर्गा के धरती पर आगमन का द्योतक है. मां दुर्गा को शक्ति की देवी माना जाता है.
महालया कैसे मनाया जाता है ?
वैसे तो महालया बंगालियों का प्रमुख त्योहार है, लेकिन इसे देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है. बंगाल के लोगों के लिए महालया पर्व का विशेष महत्व है. मां दुर्गा में आस्था रखने वाले लोग साल भर इस दिन का इंतजार करते हैं. महालया से ही दुर्गा पूजा की शुरुआत मानी जाती है. यह नवरात्रि और दुर्गा पूजा की के शुरुआत का प्रतीक है. मान्यता है कि महिषासुर नाम के राक्षस के सर्वनाश के लिए महालया के दिन मां दुर्गा का आह्वान किया गया था. कहा जाता है कि महलाया अमावस्या की सुबह सबसे पहले पितरों को विदाई दी जाती है. फिर शाम को मां दुर्गा कैलाश पर्वत से पृथ्वी लोक आती हैं और पूरे नौ दिनों तक यहां रहकर धरतीवासियों पर अपनी कृपा का अमृत बरसाती हैं.
महालया के दिन ही मूर्तिकार मां दुर्गा की आंखों को तैयार करते हैं. दरअसल, मां दुर्गा की मूर्ति बनाने वाले कारिगर यूं तो मूर्ति बनाने का काम महालया से कई दिन पहले से ही शुरू कर देते हैं. महालया के दिन तक सभी मूर्तियों को लगभग तैयार कर छोड़ दिया जाता है. महालया के दिन मूर्तिकार मां दुर्गा की आंखें बनाते हैं और उनमें रंग भरने का काम करते हैं. इस काम से पहले वह विशेष पूजा भी करते हैं. महालया के बाद ही मां दुर्गा की मूर्तियों को अंतिम रूप दे दिया जाता है और वह पंडालों की शोभा बढ़ाती हैं.
महालया पितृ पक्ष का आखिरी दिन भी है. इसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहा जाता है. इस दिन सभी पितरों को याद कर उन्हें तर्पण दिया जाता है. मान्यता है कि ऐसा करने से पितरों की आत्मा तृप्त होती है और वह खुशी-खुशी विदा होते हैं. वहीं जिन पितरों के मरने की तिथि याद न हो या पता न हो तो सर्व पितृ अमावस्या के दिन उन पितरों का श्राद्ध किया जाता है.