पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को
तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही
पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।...'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'- यजुर्वेद
श्राद्ध और तर्पण का अर्थ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता, पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह पितृयज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति और सन्तान की सही शिक्षा-दीक्षा से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।
वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं- (1) ब्रह्म यज्ञ (2) देव यज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त पाँच यज्ञ में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।
श्राद्ध कर्म के प्रकार : नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिंडन, गोष्ठ, शुद्धि, कर्मांग, दैविक, यात्रा और पुष्टि।
तर्पण कर्म के प्रकार : पुराणों में तर्पण को छह भागों में विभक्त किया गया है:- 1.देव-तर्पण 2.ऋषि-तर्पण 3.दिव्य-मानव-तर्पण 4.दिव्य-पितृ-तर्पण 5.यम-तर्पण 6.मनुष्य-पितृ-तर्पण।
श्राद्ध के नियम : श्राद्ध पक्ष में व्यसन और मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। पूर्णत: पवित्र रहकर ही श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। रात्रि में श्राद्ध नहीं किया जाता। श्राद्ध का समय दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अन्न का अंश निकालते हैं क्योंकि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं।
लाभ :
।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छादम्।।
भावार्थ : श्रद्धा से श्रेष्ठ संतान, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
व्याख्या : वेदों अनुसार इससे पितृऋण चुकता होता है। पुराणों के अनुसार श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते हैं। संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं।
1.पिंडदान : पितृ पक्ष में पिंडदान का भी महत्व है। सामान्य विधि के अनुसार पिंडदान में चावल, गाय का दूध, घी, गुड़ और शहद को मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं और उन्हें पितरों को अर्पित किया जाता है।
2. तर्पण : पिंडदान के साथ ही जल में काले तिल, जौ, कुशा, सफेद फूल मिलाकर तर्पण किया जाता है। पिंड बनाने के बाद हाथ में कुशा, जौ, काला तिल, अक्षत् व जल लेकर संकल्प करें। इसके बाद इस मंत्र को पढ़े. “ॐ अद्य श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त सर्व सांसारिक सुख-समृद्धि प्राप्ति च वंश-वृद्धि हेतव देवऋषिमनुष्यपितृतर्पणम च अहं करिष्ये।।'
3. ब्राह्मण भोज : पिंडदान और तपर्ण करने के बाद ब्राह्मण भोज कराया जाता है। ब्राह्मण नहीं हो तो अपने ही रिश्तों के निर्वसनी और शाकाहार लोगों को भोजन कराएं।