भारतीय धर्म और संस्कृति में स्वर्ग, नरक और
पितृलोक आदि लोकों की धारणा या सिद्धांत अन्य पश्चिमी धर्मों से भिन्न है। यह सारे लोक आत्मा की कर्म और भाव की गति से जुड़े हैं। वेद से अलग पुराणों में इस संबंध में भिन्न सिद्धांत है जो वैदिक सिद्धांत का ही विस्तार माना जाता है। आओ जानते हैं इस संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी।
पहले समझे गति : जब भी कोई देह छोड़ता है तो वह अपने सूक्ष्म शरीर से मन, वचन और कर्म से निर्मित चित्त वृत्ति के अनुसार 1. उर्ध्व गति, 2. स्थिर गति और 3. अधोगति प्राप्त करता है। मतबल नीचे या उपर उठता है या वहीं पड़ा रहता है। नीचे गिरता है तो नीचे के लोक में और उपर उठता है तो उपर के लोक में पहुंच जाता है। स्थिर रहना संभव है तो वह निंद्रा में या प्रेत योनि में पड़ा रहता है। उक्त श्रेणियों को दो भागों में विभक्त किया गया है गति और अगति।
जब भी कोई अपने मृतकों की अंत्येष्टि कर्म करने जाता है तो रास्ते में वह कहता है:- राम नाम सत्य है। सत्य बोलो गत्य है। अर्थात राम का नाम ही सत्य है और सत्य बोलने और सत्य के साथ रहने से ही गति मिलती है।
गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं: 1.ब्रह्मलोक, 2.देवलोक, 3.पितृलोक और 4.नर्कलोक। उक्त लोकों में जाने के लिए तीन मार्ग है- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥- गीता
भावार्थ : क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।)- जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी।) फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥26॥
अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है। अगति के चार प्रकार है- 1.क्षिणोदर्क, 2.भूमोदर्क, 3. अगति और 4.दुर्गति। क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है। भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है। अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है। गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है।
अब समझें लोक : जिस तरह वेदों में इस ब्रह्मांड को पंचकोश वाला बताया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यहीं पर आत्मा जन्म लेती और मरकर पुन: जन्म लेती है। इसे पुराणों में कृतक त्रैलोक्य कहा गया है।
पुराणों के अनुसार 3 लोक हैं- 1. कृतक त्रैलोक्य, 2. महर्लोक, 3. अकृतक त्रैलोक्य।
पहले कृतक त्रैलोक्य में 3 लोक हैं:- 1.भू लोक, 2.भुवर्लोक, 3.स्वर्लोक (स्वर्ग)। कृतक त्रैलोक्य के यह तीनों ही लोक नश्वर है। अर्थात नष्ट हो जाने, भस्मरूप या भस्मीभूत हो जाने वाले हैं। इस कृतक त्रैलोक्य में ही सूर्य, धरती, चंद्र, ग्रह-नक्षत्र और तारे विद्यमान हैं। यहीं पर अनगिनत आत्माएं किसी भी आकार-प्रकार में रहकर निवास करती है।....हमारी पृथ्वी सहित और भी कई पृथ्वियां हैं। इसे भूलोक कहते हैं। जितनी दूर तक धरती, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है। भूलोक में ही पाताल आदि कई लोक विद्यमान हैं। इसके बाद पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है। इसके बाद सूर्य और ध्रुव के बीच जो 14 लाख योजन का अंतर है, उसे स्वर्लोक या स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है।
उपरोक्त कृतक त्रैलोक्य के बाद महर्लोक है और उसके उपर अकृत त्रैलोक्य है। इस अकृतक त्रैलोक्य के भी 3 प्रकार है- 1.जनलोक, 2.तपलोक और 3.सत्यलोक। यहां धरती, चांद, सितारे आदि नहीं हैं। बस प्रकाश ही प्रकाश है। उपरोक्त ऐसी ही प्रतिरूप स्थिति धरती पर भी है जैसे हिमालय के दक्षिण में मृत्युलोक और उत्तर में स्वर्गलोक मध्य में पितृलोक और नदी एवं समुद्र के भीतर और इनके तट पर नरक एवं पाताललोक है।
पितृलोक :
पुराणों के अनुसार पितृलोक को मृत्युलोक (भूलोक) के ऊपर दक्षिण में 86,000 योजन दूरी पर माना गया है। एक लाख योजन में फैले यमपुरी या पितृलोक का उल्लेख गरूड़ पुराण और कठोपनिषद में मिलता है। कहते हैं कि मरने के बाद उर्ध्व गति आत्माएं पितृलोक में 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितरों का निवास चन्द्रमा के उर्ध्व भाग में माना गया है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है।
कैसे नीचे आते हैं पितर?
सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को वस्य अर्थात चन्द्र का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चन्द्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं। इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतिपात, गजच्दाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
कौन रहता है पितृ लोक में?
पुराण अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।
यमराज की गणना भी पितरों में होती है। इसके बाद काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।
इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है। भगवान चित्रगुप्तजी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल हैं। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलता है।
दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।