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चतुर्थी व्रत महीने में दो बार आते हैं. कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन संकष्टी चतुर्थी होती है और शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहा जाता है. वैशाख माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को विकट संकष्टी चतुर्थी का पूरे विधि-विधान से व्रत रखा जाता है. विकट संकष्टी चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश की पूजा की जाती है और मान्यतानुसार उनको सुपारी, पान, मोदक, दूर्वा अर्पित किया जाता है. मान्यता है कि जो लोग विकट संकष्टी चतुर्थी का व्रत रखते हैं और सच्चे भाव से व्रत कथा का पाठ करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. कहा जाता है कि विकट संकष्टी चतुर्थी व्रत में चंद्रमा के दर्शन करना जरूरी होता है. बिना चंद्रमा के दर्शन किए व्रत पूरा नहीं होता.
विकट संकष्टी चतुर्थी की पूजा
पंचांग के मुताबिक, चतुर्थी तिथि की शुरुआत 19 अप्रैल को शाम 4:38 पर हो रही है. यह तिथि 20 अप्रैल को दोपहर 1:52 पर समाप्त होगी. इस व्रत में चंद्रमा का खास महत्व होता है इसलिए चतुर्थी तिथि पर चंद्रमा 19 अप्रैल को उदय होगा. इसी आधार पर विकट संकष्टी चतुर्थी व्रत 19 अप्रैल को रखा जाएगा. संकष्टी चतुर्थी के दिन शुभ समय 11:55 से दोपहर 12:46 तक माना जा रहा है. संकष्टी चतुर्थी के शुभ मुहूर्त में मान्यता है कि इस दौरान आप कोई भी मांगलियक या शुभ कार्य कर सकते हैं.
विकट संकष्टी चतुर्थी पर सूर्योदय
विकट संकष्टी चतुर्थी के दिन चंद्रमा के दर्शन करने की विशेष मान्यता है, इसे बहुत शुभ माना जाता है. दरअसल पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रदेव ने गणेश जी को ऐसा वरदान दिया था कि संकष्टी चतुर्थी के व्रत में उनका दर्शन करना महत्वपूर्ण होगा. संकष्टी चतुर्थी वाले दिन बहुत देर तक चंद्रोदय (Moon Rising) का इंतजार करना पड़ता है. कृष्ण पक्ष का चंद्रमा देर से नजर आता है. इस बार चंद्रमा के उदय का समय रात 9:50 पर माना जा रहा है. देश के अलग-अलग हिस्सों में जगह के आधार पर चंद्रोदय के समय में थोड़ा बहुत बदलाव हो सकता है.
संकष्टी चतुर्थी का महत्व
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक विकट संकष्टी चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश की पूरे विधि-विधान से पूजा करने पर भक्तों की सभी बाधाएं दूर होती हैं. शास्त्रों में भगवान श्री गणेश को विघ्नहर्ता कहा जाता है. यही वजह है कि विकट संकष्टी चतुर्थी के दिन भक्त सच्चे मन से बप्पा की पूजा करते हैं और फिर चंद्र दर्शन करने के बाद उन्हें अर्घ्य देकर व्रत पूरा किया जाता है.
खास बातें
हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को हनुमान जयंती मनाई जाती है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार ये तिथि इस बार 16 अप्रैल 2022 को पड़ रही है. संयोग से इस दिन शनिवार भी है. चैत्र माह में रामनवमी मनाई जाती है. यानी विष्णु के अवतार भगवान श्रीराम और शिव के रुद्रावदार बजरंगबली का जन्म चैत्र माह में ही माना गया है. माना जा रहा है इस वर्ष इस दिन सुबह 2 बजकर 25 मिनट से तिथि शुरू हो रही है जो रात 12 बजकर 24 मिनट तक मनाई जाएगी. इसी समय अंतराल में बजरंगबली की पूजा अर्चना करना शुभ फलदायी माना गया है. आइए जानते हैं मान्यतानुसार अलग-अलग राशि के श्रद्धालु अपने बजरंगबली (Bajrangbali) की कृपा पाने के लिए भोग में क्या चढ़ाएं.
राशि अनुसार बजरंगबली का भोग
मान्यता है कि हनुमान जयंती के दिन भक्तों को अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान को भोग अर्पित करना चाहिए, इससे उनके सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं. राशि अनुसार लगाए गए भोग विशेष फलदायी भी माने गए हैं. चलिए जानते हैं पौराणिक कथाओं के अनुसार किस राशि को कौन सा भोग (Bajrangbali Bhog) अर्पित करना चाहिए.
मेष- मेष राशि को बजरंग बली की पूजा करते हुए बेसन के लड्डू का भोग लगाना शुभ बताया गया है.
वृषभ- मान्यतानुसार इस राशि के जातक हनुमान जी को तुलसी (Tulsi) के बीज का भोग लगाएंगे तो विशेष फल मिल सकता है.
मिथुन- तुलसी दल भगवान को चढ़ा कर मान्यतानुसार मिथुन राशि वाले मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना कर सकते हैं.
कर्क- माना जाता है कि कर्क राशि वालों को शुद्ध देसी घी में बेसन का हलवा बनाकर भगवान को भोग लगाना चाहिए.
सिंह- मान्यतानुसार सिंह राशि वाले इच्छा पूर्ति के लिए बजरंगबली को जलेबी का भोग लगाएं.
कन्या- कहते हैं कि कन्या राशि (Virgo) वालों को इस खास दिन बजरंगबली को चांदी के अर्क का भोग लगाना चाहिए.
तुला- बजरंगबली को लड्डू बहुत प्रिय हैं. मान्यतानुसार तुला राशि वाले इस दिन भगवान को मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाएं.
धनु- माना जाता है धनु राशि वाले भी भगवान को मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाएं साथ में तुलसी दल भी रखें.
मकर- मान्यतानुसार मकर राशि वालों के लिए भी यही प्रसाद उत्तम है. वो भगवान को मोतीचूर के लड्डू अर्पित करें.
कुंभ- कुंभ राशि के जातक अपनी इच्छा से भोग लगा सकते हैं. लेकिन, उससे पहले मान्यतानुसार उन्हें बजरंगबली को सिंदूर का लेप करना चाहिए.
मीन- मीन राशि वाले लौंग का भोग लगाकर इच्छापूर्ति की कामना कर सकते हैं.
नई दिल्ली: मंदार पर्वत हिन्दुओं के लिए पवित्र स्थलों में से एक है. मंदार पर्वत को तीन धर्मों का संगम कहा जाता है. हिंदू धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म और सफा धर्म को मानने वाले लोगों के लिए भी यह एक बड़ा तीर्थ स्थल है. 700 फीट ऊंचे इस पर्वत के बारे में पुराणों और महाभारत में कई कहानियां प्रचलित हैं. बिहार के भागलपुर से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर बसे बांका जिले में 'मंदार पर्वत' स्थित है. मंदार पर्वत से संबंधित एक कथा यह भी है कि देवताओं ने अमृत प्राप्ति के लिए दैत्यों के साथ मिलकर मंदार पर्वत से ही समुद्र मंथन किया था, जिसमें हलाहल विष के साथ 14 रत्न निकले थे. बताया जाता है कि इस पहाड़ से देवता और असुर दोनों ने मिलकर मथनी की तरह महके रत्नों के साथ अमृत प्राप्त किया था. धार्मिक ग्रंथों में समुद्र मंथन का विस्तार से वर्णन किया गया है.
कहा जाता है कि राजा बलि जब तीनों लोकों के स्वामी बने थे, उस दौरान स्वर्ग के देवता इंद्र समेत सभी देवता और ऋषियों ने भगवान श्री हरि विष्णु से तीनों लोकों की रक्षा की प्रार्थना की थी. देवों द्वारा याचना करने पर श्री हरि ने उन्हें समुद्र मंथन करने की युक्ति दी थी. भगवान विष्णु ने देवों को कहा कि समुद्र मंथन से अमृत की प्राप्ति होगी, जिसके पान से देवता अमर हो जाएंगे. कालांतर में क्षीर सागर में वासुकी नाग और मंदार पर्वत की सहायता से समुद्र मंथन किया गया. बताया जाता है कि इस मंथन से 14 रत्न, विष और अमृत प्राप्त हुए थे. मंथन के समय अमृत का पान देवताओं ने किया और विष का पान भगवान शिव ने. कहते हैं मंथन के बाद दानवों और देवताओं के बीच महासंग्राम भी हुआ, जिसमें देवताओं की विजय हुई. कालांतर में जिस पर्वत पर समुद्र मंथन हुआ, वर्तमान में वह बिहार के बांका जिले में अवस्थित है.
मंदार पर्वत के पृथ्वी पर अवस्थित होने की अनोखी कथा
चिरकाल में मधु और कैटभ नामक दो दैत्य थे, जिनके अत्यचार से तीनों लोकों पर हाहाकार मचा हुआ था. भगवान श्री हरि विष्णु ने मधु और कैटभ राक्षस को पराजित कर उनका वध कर दोनों के धड़ को दो विपरीत दिशा में फेंक दिया, जिसके बावजूद दोनों के धर एकजुट होकर मधु और कैटभ बन गए. इसके उपरांत वापस से तीनों लोकों में इनका आतंक शुरू हो गया. पुराणों के अनुसार, यह लड़ाई लगभग दस हजार साल तक चली थी. इस दौरान श्री हरि विष्णु ने आदिशक्ति का आह्वान किया और मां दुर्गा ने मधु और कैटभ का वध कर दिया.
कालांतर में भगवान नारायण ने मधु और कैटभ को पृथ्वी लोक पर लाकर मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया, ताकि वह फिर से उत्पन्न न हो सके. कहा जाता है कि मधु और कैटभ श्री हरि से मकर संक्रांति के दिन उनसे दर्शन देने का वरदान मांगा. दानवों के इस वरदान को श्री हरि ने स्वीकार कर लिया. मान्यता है कि कालांतर से भगवान नारायण मकर संक्रांति के दिन मंदार पर्वत दानवों को दर्शन देने आते हैं.
बौद्ध और सफा धर्म का तीर्थ स्थल है मंदार पर्वत
जैन धर्म के भगवान वाशु पूज्य का निवास स्थल मंदार पर्वत माना जाता है. बता दें कि मंदार पहाड़ पर बने मंदिर में जैन धर्म के गुरुओं के पद चिन्ह विद्यमान हैं. जैन धर्म के 12 में तीर्थंकर वाशु पूज्य का मंदिर है, जिसमें करीब 3 सहस्त्र साल पुरानी चरण पादुका मौजूद है. जिनके दर्शन के लिए लोग देश-विदेश से यहां आते हैं. इसी तरह 1920 में सफा धर्म के गुरु चंद्र दास जी महाराज ने यहां रहना शुरू किया था. कहते हैं उन्हें यहीं ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. यहां उन्होंने 1934 में एक कुटिया का निर्माण कराया था.
मंदार पर्वत में है सीता कुंड
बता दें कि मंदार पर्वत पर ही सीता कुंड भी है. सीता कुंड से संबंधित कई कहानियों प्रचलित हैं. कहा जाता है कि भगवान श्री राम जब वनवास गए थे, तब वह मंदार पर्वत पर भी रुके थे. कहते हैं यहीं माता सीता ने भगवान भास्कर की उपासना की थी. माना जाता है कि पर्वत के जिस जलकुंड में माता सीता ने भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया था, उसका नाम सीताकुंड पड़ गया.
मंदार पर्वत पर स्थित है पापहरणी तालाब
मंदार पर्वत पर पापहरणी तालाब स्थित है. प्रचलित कहानियों के अनुसार, कर्नाटक के एक कुष्ठपीड़ित चोलवंशीय राजा ने मकर संक्रांति के दिन इस तालाब में स्नान किया था, जिसके बाद से उनका स्वास्थ ठीक हो गया था, तभी से इसे पापहरणी के रूप में जाना जाता है. बता दें कि इसके पूर्व पापहरणी 'मनोहर कुंड' कुंड के नाम से जाना जाता था.
तालाब के बीच स्थित है लक्ष्मी-विष्णु मंदिर
बता दें कि पापहरणी तालाब के बीचों-बीच माता लक्ष्मी और भगवान श्री हरि विष्णु का मंदिर है. हर मकर संक्रांति पर यहां मेले का आयोजन होता है. मेले के पहले यात्रा भी होती है, जिसमें लाखों लोग शामिल होते हैं.
(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है.
नई दिल्ली: आस्था के महापर्व छठ के चौथे दिन उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया गया. इसी के साथ चार दिनों तक चले छठ पर्व का समापन हुआ. बिहार समेत देश के कई राज्यों में सूर्य की उपासना के त्योहार छठ पर्व के पावन अवसर पर आज गुरुवार की सुबह सूर्य को अर्घ्य दिया गया. कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्य को संध्या अर्घ्य देते हैं और छठी मैय्या की पूजा करते हैं. आज यानी 11 नवंबर के दिन सुबह फिर से उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया गया और इसके बाद प्रसाद बांटा गया. इन सब के बाद व्रती महिलाओं ने व्रत का पारण किया. बता दें कि छठ पर्व का समापन सुबह के समय सूर्य अर्घ्य के बाद किया जाता है. छठ पर्व पर सूर्य देव और उनकी बहन छठ मैय्या की उपासना की जाती है. संतान के जीवन में सुख की प्राप्ति और संतान प्राप्ति के लिए छठ का व्रत रखा जाता है. 36 घंटे निर्जला व्रत रखने के बाद उगते सूरज को अर्घ्य देने के बाद ही व्रत का समापन किया जाता है. सूर्योदय के साथ छठ महापर्व का प्रात:कालीन अर्घ्य देश के कई हिस्सों में किया गया.
बता दें कि सूर्योपासना का यह पर्व कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी से सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है. इस वर्ष छठ पर्व की शुरुआत सोमवार को स्नान यानी नहाय-खाय के साथ हुई. इसके बाद मंगलवार को व्रतियों ने 'खरना' का प्रसाद ग्रहण किया था. 'खरना' के दिन व्रती उपवास कर शाम को स्नान के बाद विधि-विधान से रोटी और गुड़ से बनी खीर का प्रसाद ग्रहण करते हैं. इसी के साथ व्रती महिलाओं का दो दिवसीय निर्जला उपवास शुरू हो जाता है. इसके बाद आज बुधवार की शाम डूबते सूरज को अर्घ्य दिया गया. यह उपवास कल बृहस्पतिवार को उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने के साथ समाप्त हो गया.