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क्या बच्चे को सुबह उठाकर स्कूल भेजना आपके लिए एक बड़ा टास्क है, और जगाने के घंटों बाद भी बच्चा नींद में या आलस में ही रहता हैं। लेकिन क्या आपने इसके पीछे की वजह जानने की कोशिश की। दरअसल मानव शरीर के लिए पर्याप्त नींद बहुत जरूरी है और अगर बात बच्चों की हो तो उनके लिए नींद उतनी ही जरूरी है जितना खाना। क्यूंकि अच्छी नींद से बच्चे की शारीरिक और मानसिक ग्रोथ भी अच्छी होती है। इससे इम्यूिन सिस्ट म मजबूत बनता है और बच्चा मौसमी बीमारियों की चपेट में नहीं आता। लेकिन वर्तमान समय में टीवी और मोबाइल जैसे गैजेटस बच्चों की नींद के दुश्मन बन गए है। क्यूंकि देर रात तक इनमें लगे रहने के कारण बच्चों के नींद का शेडयूल बिगड़ रहा है। यहां हम आपको बताएंगे कि बच्चे की उम्र के हिसाब से उसे कितने घंटे सोना चाहिए और अच्छी नींद के लिए कौन-से टिप्स कारगर है।
उम्र के हिसाब से कितने घंटों की नींद है आवश्यक
बच्चों की नींद उनकी उम्र के हिसाब से होती है। नवजात बच्चों की बात करें तो वो दिन के 24 घंटों में कम से कम 18 घंटे की नींद लेता है। वहीं जब बच्चा 4 से 12 महीने का हो जाता है तो वो 12 से 16 घंटे की नींद लेता है। 1 से 2 साल की उम्र के बच्चे को 11 से 14 घंटे सोना चाहिए। जिन बच्चों की उम्र 3 से 5 साल होती है उन्हें कम से कम 10 से 13 घंटे की नींद लेनी चाहिए। वहीं 6 से 12 साल के बच्चे के लिए 9 से 12 घंटे की नींद जरूरी है। 13 से 18 साल के बच्चों को 8 से 10 घंटे की नींद लेनी चाहिए।
बच्चों की नींद पूरी करने के उपयोगी टिप्स
- बच्चा जो भी सीखता है वो अपने आसपास के माहौल से ही सीखता है। इसलिए सिर्फ बच्चे को ही नहीं बल्कि पूरे परिवार को भी अच्छी नींद का महत्व समझना होगा। और सभी को समय पर सोने की आदत ड़ालनी होगी।
- हर एक चीज का शेडयूल बनाए। क्यूंकि समय पर उठने, समय पर खाने का, नैप लेने, बाहर खेलने जैसी एक्टिविटीज तभी हो सकती हैं जब हर चीज का टाइम फिक्स होगा।
- बच्चे को किसी ना किसी एक्टिविटीज में एंगेज रहें। इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि बच्चा इंडोर और आउटडोर गेम्स में फिजिकली इनवॉल्व हो। क्यूंकि यदि बच्चे ने दिनभर में बहुत सारी एक्टिविटीज की हैं तो रात में उसे आरामदायक नींद आएगी।
घर बहुत मुश्किल से बनते हैं. घर बनाने में कई बार लोगों की उम्र निकल जाती है. उनमें लोग ही नहीं रहते, स्मृतियां भी रहती हैं. वे धीरे-धीरे हमारे साथ जीवित होते चलते हैं. गीतांजलि श्री के जिस उपन्यास 'रेत समाधि' को इस साल का बुकर मिला है, उसमें दरवाज़े और दीवारें तक जैसे किरदारों का काम करते हैं. प्रत्यक्षा के उपन्यास 'बारिशगर' में घर भी सांस लेता है. यह बात सबको समझ में नहीं आएगी. जीवन इतना रुक्ष और उसका अनुभव इतना सपाट हो चुका है कि घर के बारे में इस तरह सोचना भी अतिरिक्त रोमानी और भावुकतापूर्ण लग सकता है. कुछ उदार लोग इस बात को एक भावुक कविता की तरह देख सकते है, इससे ज़्यादा नहीं. लेकिन इसके बावजूद इलाहाबाद में राजनीतिक सामाजिक तौर पर सक्रिय एक परिवार का घर ढहा दिए जाने पर जो राष्ट्रीय उल्लास दिख रहा है, वह डरावना है. इसे बहुसंख्यक आबादी न्याय की तरह देख रही है. उसका कहना है कि यह किसी शरीफ़ आदमी का घर नहीं था, एक पत्थरबाज़ का घर था, जिसने इलाहाबाद का माहौल बिगाड़ने की कोशिश की.
लेकिन वस्तुस्थिति क्या है? शुक्रवार सुबह के जावेद अहमद के ट्वीट देख जाइए. उनसे पता चलता है कि वह माहौल बिगाड़ने की नहीं, सुधारने की कोशिश कर रहे थे. वे भीड़ तक जुटाए जाने के ख़िलाफ़ थे. फिर सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार क्यों कर लिया? क्यों बाक़ी लोगों ने ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया कि वे तो पत्थरबाज़ और उपद्रवी हैं. क्योंकि जावेद अहमद कभी नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में शामिल थे. दरअसल बीते दो वर्षों में बहुत सारे लोग अलग-अलग आरोपों के नाम पर इसलिए सलाखों के पीछे भेजे गए कि उन्होंने कभी सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन किया था. यह प्रतिशोधी राजनीति आज जावेद मोहम्मद के ख़िलाफ़ अपनाई जा रही है तो उनको पराया मान कर बहुत खुश न हों, व्यवस्थाएं धीरे-धीरे आपकी ओर भी आएंगी, आपके घर के लिए बुलडोज़र लगाएंगी.
लेकिन इसको भी छोड़ते हैं. कुछ देर के लिए सरकार का तर्क ही मंज़ूर कर लेते हैं. जावेद अहमद पत्थरबाज़ थे. लेकिन उनको सज़ा देने का हक़ किसको था? क़ानून को. इसकी एक पूरी प्रक्रिया थी. सरकार उन्हें अदालत में पेश करती, सबूत देती, अदालत सज़ा देती. लेकिन यह सबकुछ नहीं किया गया. क्योंकि अदालतें दावों से नहीं, सबूतों से फ़ैसला करती हैं और इस मामले में सबूत शायद जावेद मोहम्मद के साथ होते.
जब सत्ताएं खुद न्याय करने निकलती हैं तो ऐसे ही करती हैं. वे पहले विरोध का एक माहौल तैयार करती हैं, एक विराट जन अदालत मीडिया की मार्फ़त अपने ढंग से जुर्म तय करती है और सज़ा भी तय कर लेती है. जावेद मोहम्मद को यही सज़ा दी गई है. सरकार ने भीड़तंत्र के सरदार की तरह काम किया है. इसके लिए भी झूठ का सहारा लिया है. पुलिस कह रही है कि जावेद मोहम्मद का घर गिराने से उसका कोई वास्ता नहीं है. यह प्रयागराज विकास प्राधिकरण का फ़ैसला है जिसने अवैध निर्माण पर एक महीने पहले ही नोटिस दिया था. यह दावा संदिग्ध है, यह सबको मालूम है. सब जान ही नहीं, बता भी रहे हैं कि पत्थरबाज़ का घर ढहा कर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दंगाइयों को कितना कड़ा संदेश दिया है.
यही बात सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली है. इस पूरी कार्रवाई में न केवल प्रशासनिक तौर-तरीक़ों की अवहेलना हुई है बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जियां भी उड़ाई गई हैं. बल्कि इस प्रक्रिया में जो बहुत गहरी संवेदनहीनता है और उसके समर्थन में लग रहा जो दानवी अट्टहास है, वह हमारे नागरिक विवेक पर कठघरे में खड़ा करता है.
कुछ देर के लिए यह भी मान लें कि योगी आदित्यनाथ का न्याय इसी तरह काम करता है. चुस्त प्रशासनिक कार्रवाइयों के लिए वे क़ानूनी औपचारिकताओं की परवाह नहीं करते. लेकिन क्या यह सच है? क्या वाकई ग़ैरक़ानूनी कार्रवाइयों से वे इतने विचलित होते हैं? ज्यादा दिन नहीं हुए जब यूपी के लखीमपुर में एक मंत्री पुत्र पर अपनी गाड़ी से चार लोगों को कुचल देने का इल्ज़ाम लगा. मुख्यमंत्री का न्याय चलता तो वह भी किसी गाड़ी से कुचला जाता. लेकिन पुलिस उसे बचाने में लगी रही. कई दिन उसे गिरफ्तार नहीं किया गया. जब गिरफ़्तार किया गया तो अदालत में उसकी जमानत का विरोध नहीं किया गया. जिस मामले में चार लोग मारे गए, वहां किसी का घर नहीं ढहाया गया, जहां कुछ पत्थर चले, वहां एक घर ढहा दिया गया. यह यूपी और बीजेपी सरकार का न्याय है.
इस न्याय की सबसे विचलित करने वाली बात एक पूरे समुदाय के साथ दुश्मनी भरा रवैया है. पिछले पांच साल में इस देश में ऐसे कई आंदोलन हुए जिनमें इससे ज़्यादा जानमाल का नुक़सान हुआ. जो हार्दिक पटेल आज कांग्रेस से होते हुए बीजेपी की शोभा बढ़ा रहे हैं, उनके नेतृत्व में हुए पाटीदार आंदोलन के दौरान अगस्त 2015 में गुजरात में दस लोगों की मौत हुई. वहां किसके घर ढहाए गए?
फरवरी 2016 में जाट आंदोलन चला. बहुत सारे लोगों के भीतर उसकी भयावह स्मृतियां हैं. तीस लोग उसकी चपेट में आकर मारे गए. वहां किसी का घर नहीं ढहाया गया. इसके अलावा हिंसा और दंगों की दूसरी वारदातों की गाज़ भी किन्हीं औरों के घर पर नहीं गिरी.
ध्यान से देखिए तो इलाहाबाद का माहौल जावेद मोहम्मद ने खराब नहीं किया, बल्कि अब सरकार कर रही है. बल्कि वह इलाहाबाद का ही नहीं, पूरे देश का माहौल खराब कर रही है. जो लोग इसे मुसलमानों को सबक सिखाए जाने की घटना की तरह देख रहे हैं, वे बहुत खुश न हों. देर-सबेर ऐसी आक्रामकता उनके घर में भी दाख़िल होगी. दुनिया भर में राजनीतिक बरताव के अनुभव यही बताते हैं. भारत को लोकतंत्र बने रहना है, सभ्यताओं और संस्कृतियों का घर बने रहना है तो उसे घरों की परवाह करनी होगी. किसी का घर तोड़ना दरअसल अपना देश ही तोड़ने की शुरुआत होता है. सरकारों को जोड़ने का काम करना चाहिए तोड़ने का नहीं.
इस सिलसिले में सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात कांग्रेस-सपा-बसपा जैसे राजनीतिक दलों की निष्क्रियता है. उन्होंने ख़ुद को सोशल मीडिया के बयानों तक सीमित क्यों रखा है. क़ायदे से इन तमाम दलों को अपने कार्यकर्ताओं के साथ जावेद मोहम्मद के घर के आगे खड़ा हो जाना चाहिए था. दिल्ली में गरीबों की झुग्गी के सामने खड़ी हो गई वृंदा करात ने यह संभव किया ही कि झुग्गियां बचा लीं. क्या यही काम देश को आठ-आठ प्रधानमंत्री देने वाला इलाहाबाद नहीं कर सकता था?
लेकिन ऐसा लग रहा है कि सांप्रदायिकता की आंधी में जैसे सब कुछ उड गया है. इस देश में घरों और दिलों के भीतर इतने सूराख हैं कि हम सबकुछ तोड़ने पर तुले हैं. जिस टूट पर हमें दुखी होना चाहिए, उस पर ताली बजा रहे हैं. निजी तौर पर मैं जावेद मोहम्मद के आगे शर्मिंदा हूं- उस बेबस नागरिक समाज का हिस्सा होने की वजह से, जो उनका घर टूटता चुपचाप देखता रहा.
अरब देशों के दबाव में चंद घंटे के भीतर बीजेपी ने दो प्रवक्ताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी पड़ गई. एक प्रवक्ता को पार्टी से निकाल दिया तो दूसरे को छह साल के लिए निलंबित किया.अरब देशों का दबाव नहीं होता तो इन प्रवक्ताओं के बयान को दस दिन हो गए थे, इनकी निंदा हो रही थी, मगर बीजेपी ने कभी एक्शन नहीं लिया. इस कार्रवाई के बाद भी रविवार को तीन देशों ने भारतीय राजदूतों को बुलाकर एतराज़ जताया और कुछ देशों में सोशल मीडिया पर भारतीय उत्पादों के बहिष्कार का भी आंदोलन चलने लगा. आतंरिक मामलों में बाहरी दबावों को ठुकराने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने आंतरिक मामलों में दबाव स्वीकार कर लेगी, इससे समर्थक से लेकर आलोचक भ्रमित हैं. जो ख़बर पूरी दुनिया में साझा हो रही है, उस ख़बर को हिन्दी के अख़बारों ने कैसे छापा है उसका भी अध्ययन ज़रूरी है. संपादकीय स्वतंत्रता अख़बारों का आंतरिक मामला है लेकिन ख़बर के अंदर ही कुछ न हो या कुछ इस तरह से हो जिससे बड़ी बातें हल्की हो जाएं तब यह केवल आतंरिक मामला नहीं है.
दैनिक भास्कर का पहला पन्ना है. आप देख सकते हैं कि यहां नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के खिलाफ कार्रवाई की ख़बरें किस आकार में और किस स्थान पर छपी हैं.पहले पन्ने पर दस ख़बरें छपी हैं. इन दस खबरों में से सबसे छोटी ख़बर है नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के निकाले जाने की.क्या यह ख़बर इतनी मामूली है? अब आप इंडियन एक्सप्रेस का पहला पन्ना देखिए,जिसकी हेडलाइन चीख रही है कि खाड़ी के देशों की नाराज़गी के कारण बीजेपी ने अपने प्रवक्ताओं के खिलाफ कार्रवाई की. दैनिक भास्कर की तुलना में दैनिक जागरण ने इसी ख़बर को प्रथम स्थान पर और बड़े आकार में छापा है लेकिन हेडलाइन ऐसी है जैसे किसी सत्संग में बाबा जी का दिया प्रवचन हो. क्या इस बात के लिए यह ख़बर इतनी बड़ी हेडलाइन के साथ पहले स्थान पर लगनी चाहिए थी?
इसी बात को लेकर अंग्रेज़ी अख़बार टेलीग्राफ ने कैसे सवाल किया है,अब वो देखिए. टेलीग्राफ लिखता है, ओह, क्या पता था कि बीजेपी में सभी धर्मों का सम्मान होता है? क्या आपको पता था कि बीजेपी उस विचारधारा के ख़िलाफ है जो किसी धर्म या संप्रदाय का अपमान करती है? इतने बड़े स्टेट सीक्रेट को किसने लीक कर दिया? प्रधानमंत्री मोदी ने? ना ना. अमित शाह ने? ना ना. अरुण सिंह ने, हां हां.अरुण सिंह का चेहरा नहीं छापा गया है.अब इसके नीचे एक और बड़ी ख़बर लिखी है कि पश्चिम एशिया के आगबबूला होते ही बीजेपी ने अपने प्रवक्ता को फ्रिंज कहा. एक बार फिर से हिन्दी के दो बड़े अखबारों को स्क्रीन पर एक साथ देखिए. क्या यह ख़बर कहीं से भी बहुत ध्यान देने लायक लगती है,अब आप अंग्रेज़ी के दोनों अख़बारों को देखिए, यहां भी संपादकीय साहस में ज़मीन आसमान का अंतर है लेकिन दोनों की हेडलाइन हिन्दी की तुलना में सभी बड़ी सूचनाओं को प्रमुखता दी गई है. अब आप मंगलवार के हिन्दी अखबार देखिएगा पाकिस्तान के खिलाफ भारत के बयान को कैसे बड़ा सा छापा जाएगा.
ख़बरों को मैनेज कर लेने से ख़बरें मर नहीं जाती हैं, लेकिन यह सही है कि हिन्दी अख़बारों ने करोड़ों हिन्दी पाठकों तक इस ख़बर को पहुंचाते-पहुंचाते इसे मट्ठा बना कर पतला कर दिया. उन बातों को प्रमुखता से नहीं बताया कि गोदी मीडिया के कारण भारत को शर्मिंदा होना पड़ा और उसका असर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी के आंतरिक फैसलों पर पड़ गया. दो दिन पहले भारत ने अमेरिका को झिड़का था कि आंतरिक मामलों में दखल न दें.यूरोप को नसीहत दी थी कि अपनी मानसिकता से बाहर आए. एक ऐसे वक्त में जब लग रहा था कि भारत अमरीका और यूरोप को खरी-खरी सुना दे रहा है,अरब देशों के दबाव में भारत कैसे आ गया कि कतर और कुवैत के भारतीय राजदूतों ने कैसे लिख दिया कि जो बयान दिए गए हैं वो फ्रिंज हैं.
एक दिन में कई चैनलों पर कई बार आपने बीजेपी के इन प्रवक्ताओं को देखा होगा जो हर बहस में बीजेपी और सरकार का चेहरा बन कर बैठे रहते हैं. परंपरा है कि चैनल वाले पार्टी से मांगते हैं कि प्रवक्ता दें, पार्टी आपस में तय कर बताती है कि किस चैनल में कौन प्रवक्ता जाएंगे. कई बार अपवाद होता है, मगर आम तौर पर यही फोलो होता है. अब इनमें से किसी को फ्रिंज नहीं कहा जा सकता. यह भी आम बात है कि कई बार पार्टी किसी प्रवक्ता के बयान से किनारा कर लेती है लेकिन कभी नहीं कहती कि वह फ्रिंज है. ये प्रवक्ता हर दिन टीवी पर करोड़ों दर्शकों के सामने मोदी सरकार और बीजेपी का चेहरा होते हैं. इन्हें बीजेपी भेजती है तो भारत सरकार कैसे इन्हें फ्रिंज कह सकती है? क्या दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को प्रवक्ता बनाने के लिए फ्रिंज से सामान उठाकर लाना पड़ता है? नुपुर शर्मा ने यह तस्वीर खुद ट्विट किया है, मई 2019 को प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित थीं. क्या प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भीड़ जुटाने के लिए फ्रिंज का सहारा लेना पड़ा ?
दो-दो भारतीय राजदूतों ने अपने बयान में एक सावधानी बरती है. ट्वीट करने वाले को फ्रिंज बताया है, जिनके ट्वीट पर हंगामा हुआ और कार्रवाई हुई वे कहीं से फ्रिंज नहीं हैं.नवीन कुमार जिंदल दिल्ली बीजेपी के मीडिया विभाग के प्रमुख थे. नुपुर शर्मा का नाम नहीं लिया न पार्टी पदाधिकारी कहा गया, मगर राजदूत ने individuals कहा है.यानी एक से अधिक व्यक्ति की तरफ इशारा है. कतर के बयान में पार्टी पदाधिकारी ही कहा गया है. माना जा सकता है कि नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल को फ्रिंज कहा गया है.अगर नहीं तो राजदूत फिर से बयान जारी कर कह सकते हैं कि नुपूर शर्मा फ्रिंज नहीं हैं.तब तक कहीं ऐसा न हो जाए कि इन राजदूतों को ही फ्रिज बताकर इनका तबादला फिजी और फिलिस्तिन कर दिया जाए. यहां पर रविशंकर प्रसाद को याद करना ज़रूरी है.3 जून को पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बोल दिया कि प्रधानमंत्री मोदी ने युद्ध रुकवा दिया तब जाकर यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों को बाहर निकाला जा सका. जबकि विदेश मंत्रालय पहले ही बोल चुका था कि ये सब बे-सिर-पैर की बातें हैं और सर के ऊपर से गुज़र जाती हैं. तब भी रविशंकर प्रसाद ऐसा बयान देते हैं. जब दुनिया में भारत का इतना नाम हो रहा है तो झूठ बोलने की क्या ज़रूरत पड़ी थी?
भारत में मुसलमानों के खिलाफ हुई हिंसा को लेकर प्रमुख रुप से अमेरिका ही बोलता रहा है लेकिन खाड़ी देश चुप थे. कतर,कुवैत, सऊदी अरब और ईरान ने कभी इतना मुखर होकर कुछ कहा. भारत के चार बड़े व्यापारिक साझादीर हैं. अमरीका और चीन के बाद संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब का नंबर आता है. खाड़ी के देशों ने हमेशा भारत के साथ धंधे को ऊपर रखा.धर्म को पीछे रखा. 2019 तक सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन सहित छह ऐसे देशों ने प्रधानमंत्री मोदी को सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाज़ा जिन्हें मुस्लिम देश कहा जाता है. इनमें से कतर और सऊदी एक दूसरे के विरोधी माने जाते हैं. सऊदी और ईरान के बीच भी दुश्मनी चलती है. तब भी सबने मिलकर इन प्रवक्ताओं के बयान की निंदा की है और माफी मांगने की बात कही है. यह ट्वीट दूरदर्शन news का है. है तो 5 जून का लेकिन 2016 का है. रविवार को भी 5 जून ही था जब कतर भारत को लेकर आपा खो रहा था.
इस ट्वीट के अनुसार 5 जून 2016 को प्रधानमंत्री दोहा में थे, वहां उन्होंने कतर को दूसरा घर कहा था. क्या आपको पता था कि कतर, प्रधानमंत्री का दूसरा घर है और यह बात प्रधानमंत्री ने ही कही है. आखिर ऐसा क्या हुआ कि जिन देशों के साथ भारत के संबंध बहुत अच्छे हैं, उन देशों में भारत को लेकर नाराज़गी जताई जाने लगी. दुकानों से भारतीय उत्पादनों के हटाए जाने की ख़बरें आने लगीं? कतर, कुवैत, ईरान जैसे देश भारत के राजदूत को बुलाकर अपनी नाराज़गी का नोटिस थमाने लगे और माफी मांगने की बात कर रहे हैं. क़तर के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा कि भारत के सत्ताधारी दल के प्रवक्ता ने पैगंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ जो बातें कही हैं, क़तर उसकी पूरी तरह से खारिज और निंदा भी करता है. आज विदेश मंत्रालय ने कतर में भारत के राजदूत डॉ दीपक मित्तल को बुलाकर आधिकारी नोट सौंपा और अपनी निराशा ज़ाहिर की.
क़तर ने भारत के सत्ताधारी दल के इस फैसले का स्वागत भी किया है कि उसने प्रवक्ताओं को पद से हटा दिया है. कतर उम्मीद करता है कि भारत सरकार की तरफ से निंदा होगी और सार्वजनिक माफी मांगी जाएगी. इस तरह के इस्लामोफोबिया वाले बयानों को नहीं रोकने से हिंसा और नफ़रत का चक्र पैदा होता रहता है. सऊदी अरब ने बयान जारी कर निंदा की है. वैसे तो इन देशों में भी मानवाधिकारों के कुछ कम उल्लंघन नहीं है मगर बीजेपी और सरकार ने उस बात को नहीं छेड़ा. बीजेपी के पास आई टी सेल की सशक्त सेना भी है लेकिन बीजेपी ने खुद पर ही कार्रवाई कर ली और सरकार ने बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता को फ्रिंज बता दिया. क्या इसलिए कि भारत के लिए बचाव करना मुश्किल हो गया था? प्रधानमंत्री मोदी हर साल पैंगबर मोहम्मद के जन्मदिन पर ट्विट करते हैं, उनके बारे में उनकी ही पार्टी के प्रवक्ता अनाप-शनाप बोल रहे थे और दस दिनों तक पार्टी कोई एक्शन तक नहीं ले सकी. यही संदेश जा रहा था कि पार्टी ऐसे बयानों और प्रवक्ताओं के साथ खड़ी है.
इतनी बड़ी पार्टी की हालत देखिए. जब रविवार को अरुण सिंह ने प्रेस रिलीज जारी कि तो उसमें लिखा ही नहीं कि क्यों जारी की जा रही है. ललित निबंध सा लिखा आया कि भाजपा सभी धर्मों का सम्मान करती है. क्या भाजपा जो रुटीन काम करती है, उसका भी बयान जारी करेगी,जैसे भाजपा सभी चुनाव लड़ती है. पत्रकारों ने अपनी तरफ से मेहनत की और लिखा कि नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के बयानों ने बीजेपी ने दूर किया जबकि दोनों का नाम तक नहीं है इसमें. बाद में ज़रूर दो और पत्र जारी होते हैं जिसमें नुपुर और नवीन को निलंबित और निष्कासित करने की बात है. अरुण सिंह का इंसाफ़ देखिए. नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल की बातों में बहुत अंतर नहीं है लेकिन नुपुर शर्मा केवल छह साल के लिए निलंबित होती है और नवीन पार्टी से ही निकाल दिए जाते हैं.
इस बहस में अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रश्न भी आ सकता था लेकिन भारत सरकार और बीजेपी ने इस्लामिक देशों के साथ अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला नहीं छेड़ा. सीधे प्रवक्ता को निलंबित किया, निष्कासित कर दिया. यानी भारत सरकार और बीजेपी इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के मामले के रूप में नहीं देखते हैं. यह कितना दुखद है कि भारत में भी लोग ऐसे बयानों पर लगाम लगाने की बात कर रहे थे मगर सरकार और बीजेपी ने कोई कार्रवाई नहीं की मगर अरब देशों की तीन घंटे की नाराज़गी से उन प्रवक्ताओं के खिलाफ कार्रवाई हो गई. काश भारत सरकार अपने लोगों की आलोचना पर ज़्यादा भरोसा कर लेती.ओमान, क़तार और कुवैत ने अक्षय कुमार की फिल्म पर बैन लगाया है, भारत इसके लिए भी इन देशों को ललकार सकता था. अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर आपत्ति दर्ज करा सकता था. क्या ऐसा हुआ है, मुझे इसकी जानकारी नहीं है. आइये अब इस प्रश्न से जूझते हैं कि 23 अप्रैल को सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने सभी न्यूज़ चैनलों को एक चेतावनी जारी की थी तब क्यों नहीं इस चेतावनी के अनुसार टाइम्स नाउ और ऐंकर नवीका कुमार पर कार्रवाई हुई. मुझसे प्रतिशत में गलती हो जाती है तो नोटिस आते हैं. मुझसे नाम और जगह में बोलते हुए ग़लती हो जाए तो नोटिस की आशंका घेर लेती है, रात भर नींद नहीं आती है,भारत को दुनिया के मानचित्र पर शर्मसार कर गोदी मीडिया को नींद कैसे आती है
इनके विज्ञापनदाताओं को नींद कैसे आती है? सवाल है सूचना प्रसारण मंत्रालय 23 अप्रैल की उस चेतावनी का कब इस्तेमाल करेगा? यूक्रेन युद्ध में गोदी मीडिया की रिपोर्टिंग से दुनिया में भारत का मज़ाक उड़ रहा था. खुद सूचना प्रसारण मंत्रालय ने अपने नोटिस में ज़िक्र किया है कि एक चैनल ने लिखा था कि यूक्रेन में एटमी हड़कंप, रुस यूक्रेन पर अगले कुछ दिनों में परमाणु हमले की तैयारी कर रहा है. एक ने आधारहीन बातें लिखीं कि परमाणु पुतिन से परेशान ज़ेलेंस्की.परमाणु एक्शन की चिन्ता में ज़ेलेंस्की को डिप्रेशन.एक चैनल ने लिखा कि न्यूक्लियर निशाना! हैरतअंगेज़ खुलासा वर्ल्ड वॉर का. एंटम बम गिरेगा, तीसरा विश्व युद्ध शुरू होगा? इस एडवाइज़री में चैनलों का नाम तक नहीं लिया गया. जबकि नाम लेकर बताना चाहिए कि कौन से चैनल हैं जिन्होंने दिल्ली में हिंसा के मामले में, भड़काऊ सुर्खियों और हिंसा के वीडियो वाले समाचार प्रसारित किए हैं, जो समुदायों के बीच सांप्रदायिक घृणा को भड़का सकते हैं तथा शांति एवं कानून-व्यवस्था को बाधित कर सकते हैं.मंत्रालय ने निजी टीवी चैनलों को असंसदीय, भड़काऊ और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य भाषा, सांप्रदायिक टिप्पणियों और अपमानजनक संदर्भों के प्रसारण के खिलाफ चेतावनी दी है, जो दर्शकों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाल सकते हैं और सांप्रदायिक वैमनस्य को भी भड़का सकते हैं और बड़े पैमाने पर शांति भंग कर सकते हैं. 23 अप्रैल की इस चेतावनी को लगता है चैनलों पर कोई असर नहीं पड़ा.
सूचना प्रसारण मंत्रालय के पास काफी मौका था कि वह समय रहते इस चेतावनी के आधार पर टाइम्स नाउ के खिलाफ कार्रवाई कर सकता था. 23 अप्रैल को चेतावनी जारी हुई थी, 26 मई के दिन टाइम्स नाउ के न्यूज़आवर में ज्ञानवापी फाइल्स के टाइटल से शो चल रहा था,इसी में नुपुर शुर्मा प्रवक्ता बनकर आई थीं. जिसमें उन्होंने पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में आपत्तिजनक बयान दे डाले. ऐंकर के बारे में आरोप लग रहा है कि उन्होंने प्रवक्ता को नहीं टोका और न ही शो के तुरंत बाद चैनल ने कोई माफी मांगी. टाइम्स नाउ ने अगले दिन 27 मई को शाम 4 बजे एक ट्वीट किया और कहा कि नुपुर शर्मा ने जो कहा है उनका अपना मत है. टाइम्स नाउ अपने शो के वक्ताओं की बातों का समर्थन नहीं करता है.अब 1 जून की यह तस्वीर देखिए. खुद न्यूज़आवर की ऐंकर नविका कुमार ने चार तस्वीरें ट्वीट की हैं.इस तस्वीर में उनके साथ सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर और रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव भी हैं.अन्य ऐंकरों के साथ नविका कुमार भी खड़ी हैं.
मौका है अक्षय कुमार की फिल्म के प्रीमियर शो का. जब सूचना प्रसारण मंत्री नविका कुमार और अन्य के साथ फिल्म के प्रीमियर पर हैं, तब 23 अप्रैल की चेतावनी के आधार पर मंत्रालय का कौन सा अधिकारी 26 मई के शो के लिए नविका कुमार के खिलाफ कार्रवाई कर सकता था? अगर एक्शन हुआ होता तो प्रधानमंत्री मोदी और भारत को दुनिया के मंच पर शर्मिंदा नहीं होना पड़ता. बीजेपी को अपने ही प्रवक्ता नहीं निकालने पड़ते. पिछले साल 28 सितंबर को नविका कुमार ने लाइव शो के दौरान राहुल गांधी को अंग्रेज़ी में गाली दे दी, कांग्रेसी सरकारों ने मुकदमे की चेतावनी दी तब जाकर उन्होंने माफी मांगी. जो लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर बीजेपी को अपने प्रवक्ताओं को निकाल सकती है निलंबित कर सकती है तब सरकार चैनल के ख़िलाफ़ और चैनल ऐंकर के ख़िलाफ़ कोई एक्शन क्यों नहीं ले सकता? 9 मई को भारत के चार पत्रकारों को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला.
दानिश सिद्दीकी, अदनान आबिदी, सना इरशान मट्टू, अमित दवे को. पुलित्ज़र पत्रकारिता का बड़ा पुरस्कार माना जाता है, प्रधानमंत्री ने बधाई तक नहीं दी.जिनसे भारत का नाम होता है उन्हें प्रधानमंत्री बधाई तक नहीं देते, जिनसे भारत का अपमान होता है, उनके साथ उनके मंत्री फिल्म के प्रीमियर पर नज़र आते हैं. अब ज़रा बीजेपी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता की बात कर लेते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर हमला हुआ था.इसमें शामिल आठ लोग गिरफ्तार हुए थे. जब ये लोग ज़मानत पर बाहर आए तब 14 अप्रैल को बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने ट्वीट किया कि हिंदू विरोधी केजरीवाल के खिलाफ प्रदर्शन करते वक्त जेल गए भाजपा युवा मोर्चा के 8 कार्यकर्ताओं को 14 दिनों बाद कोर्ट द्वारा जमानत मिली. आज प्रदेश कार्यालय में अपने इन युवा क्रांतिकारियों का स्वागत किया. हमारा प्रत्येक कार्यकर्ता हिंदू विरोधी ताकतों के खिलाफ सदैव लड़ता रहेगा. ये हैं वो नौजवान जो तोड़फोड़ के आरोप में जेल गए थे और बीजेपी में क्रांतिकारी बताए जा रहे हैं. तोड़फोड़ करने वालों का स्वागत क्रांतिकारी बता कर हो रहा है और प्रवक्ता को निकालने का काम प्रेस रिलीज़ से हो रहा है. जिन्हें फ्रिंज कहना चाहिए था,उन्हें क्रांतिकारी कहा जा रहा है.
इन्हीं आदेश गुप्ता ने दिल्ली भाजपा के नेता नवीन कुमार जिंदल को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निकाल दिया,पार्टी से निकाले जाने के बाद नवीन कुमार जिंदल ने जय श्री राम ट्विट किया है.क्या वे बीजेपी को जय श्री राम के नारे से चुनौती दे रहे हैं या अरब देशों को दे रहे हैं? नवीन कुमार जिंदल दिल्ली बीजेपी में मीडिया सेल के प्रमुख थे. न्यूज़ चैनलों पर लगातार इस तरह के कार्यक्रम हो रहे हैं जिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाने की बात होती है. पिछले आठ साल में हर दिन एक नया रिकार्ड टूटता है. अभद्रता अपना विस्तार करती जा रही है. चैनलों के ज़हरीले डिबेट को हर दिन नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.
विरासत से किसका विश्वासघात. घाटी में ग़द्दार इसलिए हिन्दू नरसंहार बंद बहाना, हिंदुत्व है निशाना. शुक्रवार को स्कूलों की छुट्टी क्यों, क्योंकि आपको नमाज़ पढ़नी है, भयानक गर्म हो गयी बहस. इस तरह के टाइटल लगाकर आठ साल से तमाम चैनलों पर दिन रात बहस होती है. इन बहसों में दो पक्ष बनाया जाता है. दूसरे पक्ष को पूरा करने के लिए कई प्रकार के मौलाना और इस्लामिक विद्वान लाए जाते हैं.ये लोग भी कम अभद्र तरीके से बात नहीं करते हैं. मौलानाओं की मौजूदगी और बातों ने भी ऐसी तकरारों को हवा दी है. ये लोग हैं जो आग में घी बनने के लिए चैनलों में जाते हैं. ऐसे तत्वों से भी सावधान रहने की ज़रूरत है. 2020 में जब कोरोना आया तब न्यूज़ चैनलों ने एक खतरनाक खेल खेला. कोरोना को तब्लीग जमात से जोड़ दिया.फर्ज़ी आधार पर कवरेज का तूफान खड़ा किया और फल सब्ज़ी बेचने वाले ग़रीब मुसलमानों पर हमले होने लगे. उनका बहिष्कार होने लगा. 25 अगस्त 2020 के प्राइम टाइम का एक हिस्सा दिखाना चाहता हूं ताकि याद रहे कि इस दिन की चेतावनी हमने हर दिन दी है.आज भी दे रहा हूं, पहले भी दे चुका हूं.
जैसे...
-विदेशी पैसा हजम, मौलाना का खेल ख़त्म
-कोरोना की रफ्तार का जमाती ड्राईवर
-कोरोना वाले मौलाना पर वार, नोटिस 4 बार
-जमात से गिरे, रोहिंग्या पर गिरे
-देश में कोरोना की कितनी जमात? कोरोना बम
-अब कोरोना के नाम पर जिहाद करेंगे
-क्या ख़ून देने से जमातियों के पाप धुल जाएंगे?
-कोरोना की आग में जमात का घी
-कोरोना से जंग में जमात को रोड़ा
-मरकज़ की ज़िद बनी महामारी
-लाकडाउन का दुश्मन है जमाती
-लुटेरा साद देश करेगा बरबाद
“धर्म के नाम पर जानलेवा अधर्म.”
न्यूज़ चैनलों के सांप्रदायिक एंकर ज़हर उगलने लगे थे. उनके कार्यक्रम में इस तरह की सुर्खियां टीवी के स्क्रीन धमाके की आवाज़ के साथ फ्लैश करने लगी थीं. गोदी मीडिया पर ये लाइनें आपके दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रही थी. “आख़िर निज़ामुद्दीन का विलेन कौन.” आपको लगा होगा कि वहां कोई विलेन है जो कोरोना फैलाने आया है.“कोरोना जिहाद से देश बचाओ.” इसे जिहाद का नाम दिया कि कोई कोरोना फैलाने के लिए जिहाद कर रहा है. कोई प्रमाण नहीं कोई सबूत नहीं लेकिन चैनलों ने इन पंक्तियों के ज़रिए करोड़ों लोगों के दिमाग़ में ज़हर ठूंस दिया. तबलीग के पीछे पुलिस भागने लगी. जहां उनके होने की सूचना आती उस सूचना को न्यूज़ चैनल ऐसे पेश करते थे. लिखते थे “देवबंद में 500 कोरोना बम.” तबलीग के लोगो को बम कहा जाने लगा. आज आप एक धर्म के बारे में जो भी सोचते हैं उसके पीछे इन पंक्तियों का बड़ा योगदान है. “निज़ामुद्दीन में कोरोना वालों की जमात” लिखा जाने लगा. निज़ामुद्दीन और जमात के साथ जिहाद, बम और विलेन जोड़ कर इन्हें आतंकवादी की तरह पेश किया गया. इन चैनलों के सांप्रदायिक अफीम को पत्रकारिता और राष्ट्रभक्ति समझ चेतना शून्य होने लगे. मीडिया के नाम पर ट्विटर पर भी कुछ लोगों ने इस माहौल को विस्तार दिया. उस समय के कुछ हैशटैग भी याद कीजिए. #कोरोना जिहाद, #BanTablighiJamat, #jihadi_corona_virus
#jihadi_virus, #मस्जिदोंमेंसरकारीतालेलगाओ
ये सारे टाइटल असली हैं और गोदी मीडिया के कार्यक्रमों के हैं. इस तरह के आपको अनगिनत उदाहरण दे सकता हूं. जब गोदी मीडिया के ज़रिए नफरत भरा जाता है.इसी नफरत को हाउसिंग सोसायटी के व्हाट्स एप ग्रुप और रिश्तेदारों के व्हाट्स एप ग्रुप में फैलाया जाता है. उस समय इसके कारण नफरत की आग कोरोना के मुकाबले कहीं ज़्यादा रफ्तार से फैल गई थी जगह जगह से तब्लीग जमात के लोग गिरफ्तार हुए और महीनों तक के लिए जेल में डाल दिए गए. 21 अगस्त 2020 को बांबे हाई कोर्ट का एक फैसला आया था. जस्टिस टी वी नलवाड़े और जस्टिस एम जी सेविलकर की बेंच ने जो कहा,उसके बारे में फिर से याद दिलाता हूं.अगर वो याद रहता और एक्शन होता तब 23 अप्रैल 2022 को सूचना प्रसारण मंत्रालय को चेतावनी जारी नहीं करनी पड़ती. बांबे हाईकोर्ट ने कहा कि दिल्ली में मरकज़ के कार्यक्रम में जो विदेशी नागरिक आए थे उनके ख़िलाफ प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में बड़ा प्रोपेगैंडा चला और यह छवि बनाने का प्रयास किया गया कि ये विदेशी भारत में कोविड-19 के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं. तमाम हालात इस संभावना की ओर इशारा करते हैं कि विदेशियों को बली का बकरा बनाने के लिए चुना गया.
भारत में संक्रमण के ताज़ा आंकड़े दिखाते हैं कि मौजूदा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ ऐसी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी. समय आ गया है कि विदेशियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने वाले प्रायश्चित करें और इससे जो नुकसान हुआ है उसे ठीक करने का सकारात्मक कदम उठाएं. हमारी संस्कृति अतिथि देवो भव की है. क्या हम वाकई अपनी महान परंपरा के अनुसार मौजूदा मामले में काम कर रहे हैं?
बांबे हाईकोर्ट की बेंच ने साफ कहा कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने प्रोपेगैंडा फैलाया. नवंबर 2020 में सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम यूपीएससी जिहाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई थी. जामिया के छात्र यूपीएससी परीक्षा में सफल होते हैं, जैसे इस साल वहां की ट्रेनिंग सेंटर की श्रुति शर्मा टॉप कर गईं.रेजिडेंशियल कोचिंग एकेडमी, जामिया मिलिया इस्लामिया में एडमिशन के लिए छात्रों के बीच होड़ रहती है. लेकिन तब जामिया के सफल छात्रों को यह चैनल जिहाद के रूप में देख रहा था. कि सिविल सर्विस में मुसलमान घुसना चाहते हैं, इस तरह का भय पैदा किया जा रहा था. तब भी सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि यह कार्यक्रम भड़काऊ है और अच्छे मकसद से नहीं बनाया गया है. इससे सांप्रदायिक भावना भड़क सकती है. सूचना प्रसारण मंत्रालय ने यह भी कहा कि चैनल ने प्रोग्राम कोड के नियमों की भी परवाह नहीं की हैसुदर्शन टीवी की तरफ से संविधान के बड़े वकील श्याम दीवान पैरवी कर रहे थे. उन्होंने एक सुनवाई के दौरान जब जवाब देने के लिए कुछ समय मांगा तब न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, "आपका मुवक्किल राष्ट्र के प्रति असंतोष पैदा कर रहा है और यह स्वीकार नहीं कर रहा है कि भारत विविध संस्कृति का एक महत्वपूर्ण बिंदु है. आपके मुवक्किल को सावधानी के साथ अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग करने की आवश्यकता है."
जस्टिस के एम जोसेफ ने इसी मामले में बहस के दौरान एक ज़रूरी सवाल उठाया कि चैनलों को विज्ञापन कहां से आ रहा है, उन्होंने कहा, “हमें दृश्य मीडिया के स्वामित्व को देखने की जरूरत है. कंपनी का संपूर्ण शेयरहोल्डिंग पैटर्न जनता के लिए साइट पर होना चाहिए. उस कंपनी के राजस्व मॉडल को यह जांचने के लिए भी रखा जाना चाहिए कि क्या सरकार एक में अधिक विज्ञापन डाल रही है और दूसरे में कम." जस्टिस जोसेफ के इस सवाल को मीडिया ने ही किनारे लगा दिया क्योंकि अब फर्क करना मुश्किल है कि कौन सा चैनल नफरत फैलाता है, कौन सा नहीं. कोई खुलकर अभद्र भाषा में यह काम करता है कोई यही काम शालीन तरीके से डिबेट के नाम पर करता है. हम प्राइम टाइम के एक और शो का पुराना हिस्सा आपको दिखाना चाहते हैं. 2020 के साल में अमेरिकी बिज़्नेसवुमन और मॉडल किम कार्डैशीयन ने अपना फेसबुक और इंस्टाग्राम पेज एक दिन के लिए बंद कर दिया था. इंस्टाग्राम पर लिखा था कि मैं खड़े खड़े नहीं देख सकती कि सोशल मीडिया पर फैलाई जाने वाली ग़लत ख़बरें किस तरह हमारे देश में फूट डाल रही हैं. इनका हमारे चुनावों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और ये हमारे लोकतंत्र को कमज़ोर बनाता है.
इस अभियान का नाम था STOP HATE FOR PROFIT, यानी मुनाफे के लिए नफरत मत फैलाओ. अभिनेता लियोनार्डो डिकापरिओ और कुछ अन्य लोगों के भी इस अभियान के समर्थन में अपने पेज बंद कर दिए थे. इस अभियान के तहत फ़ेसबुक से कहा गया है कि हेट स्पीच और फ़ेक न्यूज़ को लेकर और गंभीर हो. अमरीका में जुलाई 2020 से सिविल राइट्स ग्रूप्स ने यह अभियान शुरू किया था. जिसके बाद अमरीका में 1200 से भी ज़्यादा छोटी और बड़ी कम्पनियों ने फ़ेस्बुक को ऐड देना बंद कर दिया. इस से फ़ेस्बुक को ख़ास नुक़सान नहीं हुआ. चैनल नफरत फैला रहे हैं, सांप्रदायिक विद्वेष फैला रहे हैं,इसके बारे में सरकार को भी पता है.विज्ञापन देने वाली एजेंसियों को भी पता है.सरकार खुद सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है. लेकिन दिन रात गोदी मीडिया नफरत फैलाने का एजेंडा चलाता है, इसका राजनीतिक लाभ किसे मिलता है, आप जानते हैं.अब तो नफरत फैलाने वाले चैनलों और पत्रकारों को पत्रकारिता का पुरस्कार भी मिलने लगा है. ऐसे कार्यक्रम में लोग जाते भी हैं, पुरस्कार मिलने पर लोग बधाइयां भी देते हैं. उन्हें किसी बात की शर्म नहीं, जबकि मैंने एक ऐसे ही कार्यक्रम में जब गोदी मीडिया पर सवाल उठा दिया था, तो उसे लेकर मेरा ही मज़ाक उड़ाया जाता है.
आज उसी गोदी मीडिया के कारण भारत का मज़ाक उड़ रहा है. इन बातों को बोल देने से भी मीडिया में कुछ नहीं बदला. वो दिन जल्दी आएगा जब आप मेरी इन बातों को लेकर मेरा पीछा करने लगेंगे और यह नहीं देख पाएंगे कि मीडिया के शहर में अंधेरे का लाभ उठाकर कौन-कौन अपना चोल बदल चुके हैं, कौन-कौन बदलने की तैयारी में हैं.अनैतिकता से भरे इस समाज में नैतिकता के लिए पांव धरने की जगह नहीं है, आप ही बता दीजिए कि कोई कहां पांव रखे. जिसके भीतर भी पत्रकार ज़िंदा है, वह दिन रात इसी सवाल का जवाब ढूंढ रहा है कि वह पांव कहां रखे. जो गोदी मीडिया है या हाफ गोदी मीडिया वह जीवन के सबसे अच्छे दौर में है.देश का नाक कटाकर, अपनी जेब भर रहा है. गोदी मीडिया के कारण आप कहीं भी सर उठाकर नहीं चल सकते, अमेरिका और लंदन तो छोड़िए, आप अपने गांव में सर उठाकर नहीं चल सकते हैं. इस बात को लिख कर पर्स में रख लीजिए.
असम में बाढ़ और भूस्खलन के कारण वहां के लोगों का जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है. राज्य के 22 जिलों में सैलाब के कारण 7.2 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हैं. चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ है. लोगों के घर तबाह हो चुके हैं. कई लोग बाढ़ में बह गए. फसलें बर्बाद हो गई. जिलों में राहत शिविर और वितरण केंद्र चलाए जा रहे हैं. इसी बीच लोगों के बीच एक महिला आईएएस अधिकारी की काफी चर्चा हो रही है. जो दफ्तर में बैठकर मीटिंग करने के बजाय ग्राउंड पर जाकर लोगों की मदद करने के लिए हालातों का जायजा ले रही है.
सोशल मीडिया पर कछार जिले की उपायुक्त आईएएस कीर्ति जल्ली की तस्वीरें खूब वायरल हो रही हैं. हर कोई सोशल मीडिया पर इनके काम की सराहना कर रहा है. आप तस्वीरों में देख सकते हैं कि उन्होंने साड़ी पहनी हुई है और बिल्कुल आम महिलाओं की तरह ही लोगों के बीच जाकर हालातों का जायजा ले रही हैं. वो उनके साथ खड़े होकर उनकी परेशानियां सुन रही हैं.
आईएएस की सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हुी थी जिसमें वो नाव में बैठकर बाढ़ प्रभावित इलाकों का जायजा लेने जा रही है. उनका कहना है कि असम के लोगों ने बताया कि पिछले 50 साल से वो इसी तरह से बाढ़ से परेशान हो रहे हैं. ऐसे में बतौर अधिकारी वो अपने काम को सही तरीके से करने के लिएग्राउंड पर उतरी हैं. सोशल मीडिया पर आईएएस अधिकारी अवनीश शऱण ने उनकी एक तस्वीर शेयर की है.. फोटो में वो एक महिला के साथ खड़ी दिख रही हैं. ये फोटो देखने के बाद हर कोई उनकी तारीफ कर रहा है.
लोगों का कहना है कि इतने सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि है कोई आईएएस अधिकारी उनके पास आकर उनकी परेशानियां सुन रहा है. बता दें कि कीर्ति जल्ली को असम में काफी पसंद किया जाता है. वो कोरोना काल में भी चर्चा में रही थी. वो 2013 बैच की IAS हैं. कोरोना काल में वो शादी के अगले ही दिन ड्यूटी पर आ गई थीं.