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कई घर के मालिक अपने बगीचों में तालाब, फव्वारे और अन्य पानी की सुविधाएं जोड़ते हैं। ये अच्छी बात हैं, लेकिन अगर ठीक से इनको मैंटेन नहीं किया जाता है, तो ये मच्छरों के लिए प्रजनन स्थल बन सकते हैं। मादा मच्छर ठहरे हुए पानी में अंडे देती हैं। फिर, लार्वा कार्बनिक मलबे (शैवाल की तरह) पर फ़ीड करते हैं। एक बार जब लार्वा दो सप्ताह तक पानी में रह जाते हैं, तो वे प्यूपा बनाते हैं, जो आगे चलकर वयस्क मच्छर बन जाते हैं। और जो सीजनल वायरल स्वास्थ्य समस्याओं जैसे डेंगू, मलेरिया, जीका वायरस और वेस्ट नाइल वायरस जैसी गंभीर बीमारियों को प्रसारित करते हैं। मच्छरों को काटने से रोकना मुश्किल हो सकता है, इसलिए इन समस्याओं को प्रबंधित करने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है मच्छरों के मौसम मेंइनके प्रजनन यानी ब्रीडिंग को रोकना है।
पानी के कलेक्शन वाले पैन को प्रतिदिन बदलें पौधे के बर्तनों में आमतौर पर एक प्लेट होती है जिसमें बारिश या सिर्फ पानी से बचा हुआ सारा पानी होता है। सप्ताह में कम से कम एक बार उन्हें खाली करें।
यदि आपके घर में पहले से ही मच्छरों का आतंक है, तो सबसे अच्छा उपाय यह हो सकता है कि अपने बगीचे में धुंध और स्प्रे करें और रुके हुए पानी के किसी भी स्रोत का उपचार करें। यह न केवल मच्छरों को पनपने से रोकने में मदद करेगा।
कभी-कभी हम यह नोटिस नहीं कर सकते हैं कि घर के बाहर रिसाव हो रहा है, या फिर एयरकंडीशनर की वजह से पानी का तालाब बन जाता है। यह जिससे, मच्छरों के लिए प्रजनन स्थल बन सकता है। ऐसे में पानी को इक्ट्ठा होने से बचाएं ।
स्विमिंग पूल को साफ रखें
यह सुनिश्चित करने के लिए कि पूल साफ रहता है, स्विमिंग पूल पर क्लोरीन के स्तर की नियमित रूप से निगरानी करें।
बारिश के नाले और नालियां आमतौर पर बारिश के बाद मलबे से भर जाती हैं और पानी फंसा देती हैं। इस रुके हुए पानी में मच्छर पनप सकते हैं। बारिश के गटरों को पत्तियों और मलबे से साफ रखने और रुकावटों से मुक्त रखने से न केवल आपके घर के रख-रखाव में मदद मिलेगी, बल्कि यहां मच्छरों को पनपने से भी रोका जा सकेगा।
कूड़ेदानों को ढक कर रखें
अधिकांश कूड़ेदान बारिश के पानी को इकट्ठा करते हैं, यहां तककि ढक्कन वाले कूड़ेदान भी। आप तल में छेद कर सकते हैं ताकि पानी जमा न हो।
हालांकि मच्छर ऊंचे लॉन में प्रजनन नहीं करते हैं, वे इसका इस्तेमाल आराम करने के लिए करते हैं। जितनी बार हो सके अपने लॉन को घास काटना।
पानी की टंकी की सील का ध्यान रखें
पानी की टंकियों में कुछ साल पुराने होने पर उनमें छेद और रिसाव होने लगता है। ध्यान रखें कि किनारों पर पानी जमा न हो जहां मच्छर पनप सकें और टैंक को सील कर दें।
गर्मी का प्रकोप धीरे धीरे बढ़ने लगा है। ऐसे में घर के बाहर ही नहीं लोग घर के अंदर भी परेशान रहते हैं। चिलचिलाती धूप, तेज गर्म हवा इंसानों के साथ जानवरों के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर देती है। इस बार गर्मी का कहर तो मार्च के महीने में ही बढ़ने लगा है। लोगों ने अपने घरों में रखे एसी और कूलर का इस्तेमाल करना भी शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं बाजारों में एसी, कूलर और पंखों की दुकानों पर लोगों की लंबी कतारे भी देखने को मिल रही है। हालांकि गर्मी के दिनों में घर में लगे पंखों से भी गर्म हवा निकलती है। साथ ही एसी और कूलर हर किसी के बजट में नहीं होते।
1.रोजाना छत पर पानी डालें
गर्मी में घर की छतों पर लगे हुए पंखों में से गर्म हवा इसलिए निकलती है क्योंकि तेज धूप के कारण पूरी छत गर्म हो जाती है। ऐसे में रोज शाम को सूरज डूबने के बाद आप पूरे छत पर ठंडे पानी का छिड़काव करें। इससे छत ठंडी रहेगी और रात को पंखों से भी ठंडी हवा निकलेगी।
2. बालकनी में ठंडे पौधे
अगर आपके घर में बालकनी है तो गर्मी के मौसम में आप उसे रोजाना शाम को जरूर धोएं। इससे बालकनी से ठंडी हवाएं आपके घर के अंदर आएगी। इसके अलावा आप अपने प्रवेश द्वार, लिविंग रूम, बेडरूम आदि में भी पौधे लगा सकते हैं। इससे आपके घर के तापमान में भारी गिरावट आ सकती है।
आजकल लोग अपने घरों को मॉडर्न लुक देने के पीओपी कराते हैं। इससे घर की सुंदरता में चार चांद लग जाते हैं, लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि पीओपी से सिर्फ घर का लुक नहीं बदलता बल्कि इससे गर्मी के मौसम घर भी ठंडा रहता है। जिस तरह पीओपी से गर्मी में घर का वातावरण ठंडा रहता है ठीक उसी तरह जाड़े में यह घर को गर्म रखता है।
4. खिड़कियों को रखें बंद
गर्मी के मौसम में घर की खिड़कियों को बंद रखें और हल्के कॉटन के पर्दों का इस्तेमाल करें। इससे गर्म हवा और धूप अंदर नहीं आएगी, साथ ही आपको ठंडक का एहसास होगा। जितने हल्के रंग के पर्दे होंगे उतना ही ठंडा आपका घर रहेगा।
अगर आपके घर में टेबल फैन है तो गर्मी के सीजन में आप उसे अपना एसी या कूलर बना सकते हैं। जी हां, आपको बस एक बर्तन में बर्फ के टुकड़े डालकर उसे पंखे के आगे रखना होगा फिर देखिएगा कैसे आपका टेबल फैन आपको एसी जैसी हवा देता है। इसके अलावा आप अपने टेबल फैन के साथ एक और एक्सपेरिमेंट कर सकते हैं। टेबल फैन को ऑन करके खिड़की की ओर कर दें, इससे बाहर की ठंडी हवा अंदर आएगी।
हज़ार दुखों से गुज़र रही भारत की पत्रकारिता का दुख आज हज़ार गुना गहरा लग रहा है. जिस पेश को अपने पसीने से कमाल ख़ान ने सींचा वो अब उनसे वीरान हो गया है. कमाल ख़ान हमारे बीच नहीं हैं. हम देश और दुनिया भर से आ रही श्रद्धांजलियों को भरे मन से स्वीकार कर रहे हैं. आप सबकी संवेदनाएं बता रही हैं कि आपके जीवन में कमाल ख़ान किस तरीके से रचे बचे हुए थे. कमाल साहब की पत्नी रुचि और उनके बेटे अमान इस ग़म से कभी उबर तो नहीं पाएंगे लेकिन जब कभी आपके प्यार और आपकी संवेदनाओं की तरफ उनकी नज़र जाएगी, उन्हें आगे की ज़िंदगी का सफर तय करने का हौसला देगी. उन्हें ग़म से उबरने का सहारा मिलेगा कि कमाल ख़ान ने टीवी की पत्रकारिता को कितनी शिद्दत से सींचा था. एनडीटीवी से तीस साल से जुड़े थे. एक ऐसे काबिल हमसफर साथी को अलविदा कहना थोड़ा थोड़ा ख़ुद को भी अलविदा कहना है.
उनकी तस्वीरों में एक हसीन शख्सियत का जादू है और ज़हीन तबीयत की रौनक. किसी को उम्र का अंदाज़ा नहीं हो सकता क्योंकि तमाम मसरूफ़ियत के बीच कमाल की फिटनेस कई बार कमाल की लगती थी. 13 जनवरी की रात बड़ा भयंकर दिल का दौरा आया और कमाल ख़ान को हमसे छीन ले गया. आपको कमाल की तस्वीरों में एक खास किस्म की सतर्कता और सावधानी दिख रही होगी. उनके स्वभाव में केवल नरमी नहीं थी, पुराने ज़माने की शख्सियतों का अक्खड़पन भी था. होना भी चाहिए, हर काम दो मिनट में और दो लाइन में निपटा देने वाली टीवी की पत्रकारिता हो चुकी है. उसके बीच कमाल ख़ान दो मिनट की बात कहने और लिखने के लिए दिन दिन भर लगा देते थे. ऐसे शख्स को हक़ है कि उसमें कुछ अक्खड़पन हो. ना कहने और टाल देने की अदा हो वर्ना टीवी की रफ्तार कब किस हुनरमंद को अपनी सुरंग में खींच लेती है और उसे ज़हीन से ज़हर में बदल देती है, मैं समझता हूं. अच्छी बात है कि कमाल उन चंद लोगों में शामिल थे जिन्हें साफ-साफ ना कहने और बहुत मुश्किल से हां कहने की आदत थी. उनकी इस अदा से आहत हो जाने वाले लोग भी आज रो रहे हैं कि कमाल सर नहीं है. यह बात वाकई हैरानी की है कि इतने लंबे समय तक कमाल ख़ान ने ख़ुद को कीचड़ में बदल चुकी टीवी पत्रकारिता में कैसे कमल की तरह बचाए रखा. अब यह सब पूछने के लिए कमाल नहीं हैं और न कमाल ख़ुद बताया करते थे. उनकी बताई गई तकलीफें बेहद रूटीन किस्म थीं. कि कई दिनों से काम कर रहा हूं. वक्त नहीं मिल रहा है कि फलां स्टोरी को ठीक से कर सकूं. काफी पढ़ना है वगैरह वगैरह. आप दर्शकों के साथ बहुत ज़ुल्म हुआ है कि एक इंसाफ़ पसंद पत्रकार बेईमान हो चुकी पत्रकारिता की दुनिया से चला गया है.
कमाल की शान में कुछ कमी रह जाए तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा. उनकी विदाई का यह स्क्रिप्ट कम से कम उतनी मेहनत से तो लिखा ही जाना चाहिए जिस मेहनत से कमाल अपनी दो मिनट की रिपोर्ट का स्क्रिप्ट लिखा करते थे. चालीस पचास पंक्तियों की रिपोर्ट लिखने से पहले कई सौ पन्नों की किताबें पढ़ जाया करते थे. कुछ कहने से पहले आधिकारिक रूप से जांच परख लिया करते थे. तब जाकर लिखा करते थे, बोला करते थे. इस पूरी प्रक्रिया में एक संवेदनशील पत्रकार को कितने अंधेरों से गुज़रना पड़ता है, इसका अंदाज़ा वही लगा सकते हैं जो टीवी की दुनिया में बचे हुए हैं और उसी अंधेरे से गुज़रते हुए काम कर रहे हैं. कमाल ख़ान की भाषा पत्रकारिता की पुरानी भाषा है जो हमेशा नई लगती है. पुरानी से मतलब बीत चुके ज़माने की नहीं है, पुरानी से मतलब सही भाषा से है जिसे अब टीवी ने सत्ता की गुलामी में छोड़ दिया. हैरानी की बात यह है कि कमाल की स्क्रिप्ट हमेशा रोमन में आती थी. जब न्यूज़ चैनल शुरुआत कर रहे थे तब साफ्टवेयर की कमी के कारण सबने रोमन में हिन्दी लिखना सीखा. कमाल को एक बार आदत लग जाए तो कमाल से छूटती नहीं थी. उर्दू और हिन्दी के इस महारथी के लिखे स्क्रिप्ट को जब अपने ईमेल के इनबाक्स में देख रहा था तो इस पर नज़र पड़ गई. फिर लगा कि कमाल साहब कभी बदले ही नहीं. हम सब जब एनडीटीवी में आए थे तो किसी भी स्क्रिप्ट में इस तरह से लिखने की हिदायत दी गई थी. सबने इस तरह से लिखना छोड़ दिया मगर कमाल अपनी पहली तालीम को आज तक नहीं भूले. जो पत्रकार क्रेडिट लाइन पहले लिखता है वो वाकई इस पेशे को बहुत चाहता होगा. कैमरामैन का नाम लिखा है और रिपोर्ट दिल्ली में एडिट होगी या लखनऊ में इसका भी ज़िक्र है.
हर हिस्से में कमाल ख़ान ने निर्देश लिखा है कि घंटों के फुटेज में बाइट का हिस्सा कहां मिलेगा ताकि एडिटर का समय बच जाए. इसे हम काउंटर कहते हैं. कमाल खान ने इस हिस्से में (00:07)(00:19) लिखा है जिससे सटीक जानकारी मिलती है कि यह बाइट मात्र 11 सेकेंड की है. ये कमाल ख़ान थे. मतलब अनुशासन के पक्के शख्स थे हमारे कमाल. आपके भी कमाल. जैसे इस स्क्रिप्ट के पहले VO I लिखा है. मतलब वायस ओवर वन. यह कमाल की आखिरी स्क्रिप्ट है और अंत अंत तक उन्होंने टीवी की पहली ट्रेनिंग नहीं भूली. और बात कहने का फ़न देखिए कम से कम शब्दों में सारी बात. जैसे - V/O: (1)Yogi sarkar ke Ayush mantri Dharm Singh Saini bhi aj BJP chhor Samajwadi party mein shamil ho gaye. Dharam Singh Saini pichhdi jaati se aate hain.धर्म सिंह सैनी पिछड़ी जाति से हैं. इसके बाद कुछ नहीं लिखा. यह काफी था बता देना कि उनके जाने का महत्व क्या है और कैसे देखा जाना चाहिए. हम चाहते हैं कि आप कमाल की आखिरी रिपोर्ट को पूरा देखें.
जब भी उनसे किसी रिपोर्ट के लिए बात होती थी तो पूछा करते थे कि समय कितना है. उन्हें लंबी रिपोर्ट में भी मज़ा आता था और वे छोटी रिपोर्ट के माहिर तो थे ही. कमाल ख़ान को हमारे दर्शक बहुत याद कर रहे हैं. दरअसल टीवी की दुनिया के तमाम दर्शकों के पास कमाल ख़ान की अपनी यादें हैं. भले वो हमारे चैनल के दर्शक न हों. एक दर्शक ने हमें लिखा है कि
शुभ प्रभात महोदय,
जबसे सुना है, रो रहा हूँ. यकीन नहीं कर पा रहा की एक इतने अच्छे इंसान हमारे बीच से अचानक चले गए. शायद खुदा को उनसे ज़्यादा ही मोहब्बत हो गई, हमसे भी ज़्यादा. कल उनका कार्यक्रम देखा था प्राइम टाइम में, कितनी सहजता से उन्होंने misogony पर, पितरात्मक सोच पर अपने विचार रखे थे और समझाया था. हमेशा उन्हे एक ही सहज भाव में देखा, कभी विचलित होते, गुस्सा होते नहीं देखा. परमेश्वर ने उन्हे हमसे अपने पास बुला लिया, परमेश्वर उनके परिवार को, चाहने वालों को हिम्मत और हौसला दे.
उन्हे सादर नमन
13 जनवरी को मैं नहीं था.नग़मा सहर के साथ कमाल ख़ान प्राइम टाइम में थे.कमाल ख़ान को याद करते वक्त उनके काम करने की प्रक्रिया के बिना आप याद ही नहीं कर सकते. कितना और कब कहना है इसके लिए वे घंटों मेहनत करते थे. एक और बात कहना चाहता हूं. कमाल की इन तमाम मेहनत से टीवी की पत्रकारिता ने कुछ नहीं सीखा ये और बात है कि कमाल जैसे लोगों से खराब और बर्बाद हो चुकी पत्रकारिता जीवन भर दर्शकों के बीच अपना भरोसा कमाती रही. जहां है, जो है, जैसा है के आधार पर लिखा करते थे. पर थे तो शायर तबीयत के तो अपनी पीटूसी में कमाल कुछ और भी हो जाया करते थे. पत्रकार भी और पत्रकार से ज़्यादा भी.
यह सोचना पूरी तरह से ग़लत होगा कि शायरी और दोहे के इस्तेमाल से कमाल ने दर्शकों में पैठ बनाई. कई लोग ऐसा कहते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यह कमाल के काम को ठीक से समझने का तरीका नहीं है. कमाल जानते थे कि उनके दर्शकों के जीवन में बहुत से दोहे हैं शायरी हैं कविता हैं और भजन हैं. इसके लिए भी वे काफी पढ़ते थे. बहुत सावधानी से चुनाव करते थे कि उनका पीस टू कैमरा यानी रिपोर्ट के अंत में जब रिपोर्ट अपनी बात कहता है, उसे कभी वे ताली बजाने का माध्यम नहीं बनाते थे बल्कि शायरी और दोहे के इस्तेमाल से अपनी रिपोर्ट को व्यापक बनाते थे. उसमें जान डालते थे ताकि देखने वाला एक पत्रकार की मेहनत का मर्म समझ पाए. कमाल ने हमेशा इनका इस्तेमाल धर्म के नशे में चूर होकर हैवान हो चुकी यूपी की सियासत को निकल आने का रास्ता भी दिखाते थे. बताते थे कि आप तो ऐसे न थे.
कमाल ख़ान बहुत पढ़ते थे. अपने शहर लखनऊ पर उन्हें बहुत नाज़ था जिस शहर की बदली सियासी फिज़ा ने कमाल खान जैसे नाम वाले पत्रकारों को अकेला कर दिया था. नफरत की सियासत से लैस वही नेता और हुक्मरान उनसे दूरी बनाने लगे थे जो कभी कमाल ख़ान की हर बात पर दाद दिया करते थे. लखनऊ की भाषा बिगड़ने लगी थी. ठोंक देने से लेकर सीधे लोक में भेज देने की भाषा पर लखनऊ दुनिया की किस बिरादरी में सर उठाएगा, ये लखनऊ जानता है लेकिन कमाल ख़ान को पता था कि जिस लखनऊ को वे देख रहे हैं वो उन्हें शर्मसार कर रहा है.
एनडीटीवी का न्यूज़ रुम आज अदब से वीरान हो गया. कमाल ख़ान अब नहीं हैं. टीवी की दुनिया बदल गई है. अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं आएगा.उसके दो कारण है. अब इस मुर्दा समाज में वो ताकत नहीं बची है कि उसके घरों से कोई ऐसा पत्रकार निकले और दूसरा एनडीटीवी जैसा चैनल भी नहीं जहां किसी को तीस साल तक अपनी ज़िद औऱ हुनर पर चलते हुए कमाल खान बनने का मौक़ा मिले. इतने बड़े देश में इस ख़ालीपन की बात करना कमाल को भी शर्मसार करता और उनके सहयोगियों और साथियों को भी.
यह कोई बड़ी बात नहीं है और न ही कमाल ख़ान को इससे फर्क पड़ता था योगी आदित्यनाथ भी कमाल ख़ान को मिस कर रहे होंगे. जिन्होंने कभी कमाल ख़ान को इंटरव्यू नहीं दिया. यह बात उनकी श्रद्धांजलि के साथ भी दर्ज की जानी चाहिए कि उस शहर का एक वरिष्ठ पत्रकार को सत्ता ने अपनी परिधि से दूर रखा लेकिन जनता ने उसे सीने से लगाए रखा.
नियति ने कमाल ख़ान को अपनी बात कहने का वक्त नहीं दिया. पर उनकी बातों में यह बातें दबी दबी चली आती थीं कि कमाल ख़ान एक पत्रकार को लोग कमाल ख़ान एक मुसलमान के रूप में देख रहे हैं. आज के इस हिंसक दौर में कई मुस्लिम पत्रकारों की यह दुविधा और पीड़ा है. कमाल ने खुद को कई बार संभाला और अपनी बात कहने के लिए कलम की निब सीधी रखी. वे जानते थे कि यूपी की राजनीति धर्म की आड़ में क्या-क्या गुनाह कर रही है फिर भी वे धर्म की बातें रखते वक्त बेहद सावधानी से अपनी बात कहा करते थे ताकि लोगों को आईने में चेहरा दिखता रहे.
कमाल ख़ान ने अयोध्या से अनगिनत रिपोर्ट की है. वे अयोध्या को कवर करते करते अयोध्या में रच बस गए थे. लखनऊ की तरह अयोध्या शहर भी याद करेगा कि किस कमाल से कमाल ने उसकी बात दुनिया के सामने रखी. गर्व के नाम पर नफरत के नारों से घिरी अयोध्या को कमाल ख़ान किस खूबसूरती से बचा लेते थे, जैसे कोई माली किसी टूटी हुई पंखुड़ी को उठाकर हथेली में रख लेता है.
हमारे दर्शक आज सदमे में हैं. उनके संदेश लगातार मिल रहे हैं. सबका जवाब मुश्किल है मगर पता चल रहा है कि आज आप कितने उदास हैं. कमाल के बिना आपको दर्शक होना अधूरा अधूरा सा लग रहा है.आप भी याद करेंगे कि कोई कमाल ख़ान था जिसने इस मुल्क की मिट्टी और हवाओं से इतना प्यार किया. और उस प्यार को बहुत हिफाज़त से अपने लिखने और बोलने में धरा करता था.
आप दर्शकों ने कमाल के लिए कितना प्यार भेजा है. एक दर्शक ने लिखा है कि मुझे अच्छे से याद है एक बार जब लखनऊ में नई सरकार के शपथ हो रहा था तब कमाल खान ने कैमरे के सामने एक शेर कहा था: "तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था, उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था". कमाल का पढ़ा हबीब जालिब का यह शेर आज भी आने वाले कल का भविष्य बताता है.
मैं हमेशा उनकी रिपोर्ट देखने को लालायित रहता था,ओर किसी दिन उनकी रिपोर्ट नही आती थी, तो लगता था, आज समाचार पूरे नही हुए.
कमाल का पत्रकार,
बाकमाल अंदाज,
कमाल ही कर गया,
चला गया, वो
कमाल करके.
अच्छे और सच्चे लोग जो भारत को जोड़े रखना चाहते है , कम होते चले हैं.... कैसे होगा.... कुछ समझ नहीं रहा, Allah उन्हें बेहतरीन मुकाम अता करे और उनके घर के सब ही लोगो को सबर और इस नुकसान से उभरने की ताकत दे.... Aameen
एक कमाल की आवाज़ अचानक खामोश हो गईं.... अल्लाह कमाल भाई की मग़फ़िरत करे और उन्हें जन्नतुल फिरदौस में आला मक़ाम अता करे...... आमीन
बहुत अफसोस की बात हमारे बीच कमाल खान नहीं रहे जो एक वरिष्ठ पत्रकार थे मैं अल्लाह से दुआ करता हूं आला से आला मुकाम जन्नतुल फिरदोस में जगह आता फरमाए और सच्चे पत्रकार को इज्जत अता फरमाए.
बार बार क्यों ऐसा लग रहा है कि कमाल ख़ान के बारे में कुछ बातें छूट गईं या हमने ठीक से नहीं कही. दरअसल उनका काम इतना विशाल और गहरा है कि आज के दिन बहुत सी बातें छूटने ही वाली हैं. उनकी बात याद आती है कि कैसे किसी स्टोरी को करने से साफ मना कर देते थे. दरअसल मना करना ही एक अच्छे रिपोर्टर की पहली निशानी है. उसे पता होना चाहिए कि कब ना कहना है. यह उसके काम के प्रति वफादारी है. वफादारी काम के प्रति होनी चाहिए किसी हुज़ूर के प्रति नहीं. उनके मना करने के कारण हमेशा पत्रकारिता के उसूलों के हिसाब से होते थे.
कमाल की यह विदाई हम सब पर भारी पड़ रही है. परिवार के सदस्यों की तकलीफें तो इस वक्त यहां दर्ज नही है. अपने बेटे और अपनी पत्नी रुचि को बेहद प्यार करने वाले और उनके बारे में बात करते वक्त इस नफ़ासत से उनका नाम लेते थे कि लगता था कि बात करने की शालीनता यही है. इतना तो कहना बनता ही है कि बंदा बेहद खुद्दार था. उसकी पत्रकारिता का मेयार बहुत ऊंचा था. उसकी शोहरत आसमान तक पहुंचती थी मगर उसकी शख्सियत हमेशा मिट्टी के करीब रही.
कई सारे राजनेताओं ने कमाल के निधन पर श्रद्धांजलि अपर्ति की है. हम उन सभी के शुक्रगुज़ार हैं कि उन्होंने आज कमाल को याद करते वक्त पत्रकारिता के कुछ उसूलों को महसूस किया होगा जिसे उनकी ही बिरादरी के लोग सरेआम रौंद रहे हैं. आप दर्शकों की तरफ से भेजे गए हम तमाम संदेशों का एहतराम करते हैं. स्वीकार करते हैं कि आपके बीच उन उसूलों की समझ है जिसे कभी बारीक तरीके से तो कभी बेदर्द तरीके से रौंदा जा रहा है. पाकिस्तान के पत्रकार भी दुखी हैं. कमाल के काम की हवा उन्हें भी तालीम दिया करती थी कि सनक से भरे हुक्मरानों के सामने कैसे अपनी बात कहनी है और कैसे जनता की आवाज़ बनना है.
कोई दस साल पहले की बात होगी जब दुनिया भर में सोशल मीडिया प्लेटफार्म को लोकतंत्र का नया सवेरा कहा जा रहा था लेकिन देखते देखते इस प्लेटफार्म से आने वाला सवेरा अंधेरा में बदल गया. सरकारों ने अपनी तरह से इस पर कंट्रोल किया ताकि प्रोपेगैंडा फैला सकें तो दूसरी ओर धर्म, रंग, जाति के नाम पर सर्वोच्चता की सनक से लैस नफरती तबके ने इस पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया. अब कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि किसी खास समुदाय के खिलाफ हुए नरसंहार में सोशल मीडिया पर चले नफरती अभियान की भी भूमिका थी. पूरी दुनिया में अलग-अलग नाम से चलने वाले नफरती अभियान एक दूसरे से प्रेरणा लेते रहते हैं. एक दूसरे से भाषा, रंग और शब्द उधार लेते रहते हैं. पूरी दुनिया में आपको इसका पैटर्न दिखाई देगा. इन प्लेटफार्म के ज़रिए आबादी के एक बड़े हिस्से को ज़ॉम्बी में बदला जा रहा है. ज़ॉम्बी उस भीड़ का नाम है जो किसी की हत्या को गलत नहीं मानती है.
मंगेश नारायण राव काले, विक्रम नायक और सार्थक बागची की बनाई कृतियों के सहारे हम ज़ॉम्बी के बारे में बात करना चाहते हैं. आज कल की एनिमेशन फिल्मों में इस तरह की शक्लों वाले किरदार खूब होते हैं जिनका शरीर इंसान की तरह होता है लेकिन दिमाग़ में लोहा लक्कड़ भरा होता है. चेहरे पर आंखें नहीं होती हैं तो कभी चेहरा ही रबर के जैसा बना होता है. इनकी अपनी इच्छा नहीं होती, ये दूसरे के काबू में होते हैं. शहर के शहर तबाह कर देते हैं और इंसानों को लाशों के ढेर में बदल देते हैं. ऐसे अनगिनत कार्टून फिल्में अब हमारे बीच मौजूद हैं जिनमें ज़ॉम्बी की कल्पना साकार की गई है. इन्हें किसी के मरने और किसी को मारने का दुख नहीं होता है. अमरीकी फिल्मकार जॉर्ज ए रोमेरे ने अपनी कई फिल्मों में ज़ॉम्बी की इस कल्पना को साकार किया है. इन फिल्मों के नाम पर Night of the living dead, Day of the dead, Land of the dead और अब अनेक प्रकार की एनिमेशन फिल्मों में आपको ज़ॉम्बी का किरदार दिखेगा. 2018 में Overlord फिल्म आई थी. जिसे नाज़ी ज़ॉम्बी हॉरर फिल्म कहा जाता है. इसमें दिखाया गया है कि नात्ज़ी जर्मनी के प्रयोग से बहुत सारे ज़ॉम्बी निकल आए हैं. ब्रिटानिका के अनुसार ज़ॉम्बी का इस्तेमाल अलग अलग काल्पनिक जंतुओं के लिए किया जाता है लेकिन उन सबमें एक बात होती है. उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती है. वे हमेशा दूसरों की इच्छा के अनुसार चलते हैं. गुलाम होते हैं.
टेक-फॉग एप की सामग्री का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि ज़ॉम्बी का समाज भारत में बनाने की कोशिश चल रही है और एक हिस्से को ज़ॉम्बी में बदल दिया गया है. इनकी सोच की बुनावट ऐसी कर दी गई है कि उसमें जोश तभी आता है जब नफरती मैसेज आता है. इन मैसेजों के ज़रिए पहले लोगों को समर्थक बनाया गया, फिर उन्हे भक्त में बदला गया, फिर वे अंध भक्त में बदल गए और अब उन्हें ज़ाम्बी बनाया जा रहा है. टेक-फॉग एप समय समय पर ऐसी ही सामग्री की सप्लाई कर चेक करता है कि समाज ज़ॉम्बी बनने की दिशा में कितना आगे बढ़ा है. 2020 में तब्लीग जमात के नाम पर एक समुदाय से नफरत की आंधी चली थी वो टेक -फॉग एप की बड़ी कामयाबी में से एक है.
आप सोच नहीं सकते कि फूलगोभी की तस्वीर नफ़रत के इस सियासी कारोबार में इस्तमाल की जाएगी. पश्चिम बंगाल के चुनाव के समय में गोभी की तस्वीर के साथ ट्विट किए गए कि क्या बंगाल में गोभी की कमी है. कई हैडलों के नाम में कॉलीफ्लावर फार्मर जोड़ दिया गया. गोभी को राष्ट्रीय फूल बनाने की मांग होने लगी. आप कहेंगे कि इक्का दुक्का लोग हैं लेकिन इन्होंने गोभी के फूल को प्रतीक के तौर पर क्यों चुना? यह जानेंगे तो सिहर जाएंगे कि हत्या और हिंसा के ख़्याल को किस तरह पाला पोसा जा रहा है. गुजरात से कांग्रेस के नेता सरल पटेल ने इसे पकड़ा और अपने ट्विटर पर इस गोभी का संदर्भ ज़ाहिर किया था. संदर्भ यह है कि बिहार के भागलपुर में हुए दंगों के मामले में बीस साल बाद जब फैसला आया तो अदालत ने 14 हिन्दुओं को सज़ा दी. क्योंकि उन्होंने 114 मुस्लिमों की हत्या के बाद उनके शवों को गोभी के पत्तों से ढंक दिया था. वहां से इनके बीच गोभी राजनीतिक कोड के रूप में प्रवेश करती है और इसके ज़रिए हिंसा की बातें करते हैं.
धर्मसंसद के नाम पर जमा लोग सीधे सीधे नरसंहार की बात कर रहे हैं तो कुछ लोग पर्दे के बीच गोभी के बहाने नरसंहार के ख़्याल को हवा दे रहे हैं. ऑनलाइन और ऑफलाइन अलग अलग ऐप, अलग अलग संगठन के बहाने इसे परवान चढ़ाया जा रहा है. नफरत और नरसंहार के बीच सिर्फ एक कदम की दूरी होती है, ठीक उसी तरह जैसे हथियार और हत्या के बीच की दूरी एक ट्रिगर दबाने की होती है.
टेक-फॉग एप, सुल्ली और बुल्ली बाई ऐप के ज़माने में हम बड़ी संख्या में लोगों को ज़ॉम्बी बनते हुए देख रहे हैं. एक समुदाय के खिलाफ नफरत और नफरत के नाम पर एक धर्म के गौरव की राजनीति की खेप तैयार की गई और अब उसी खेप में से एक दूसरी खेप तैयार की जा रही है. इसे TRAD कहते हैं. TRADITIONALISTS का संक्षिप्त रूप है. दक्षिणपंथ के भीतर नफरत की दुनिया में यह एक नई कैटगरी है. इसकी बुनियाद में सोच वही है जो सॉफ्ट और हार्ड हिन्दुत्व की सोच में है. TRAD हार्ड हिन्दुत्व के समर्थकों को उदार और नरम मानता है और उन्हें रायता बुलाता है. एक बात और इनके बीच कई बार साफ साफ अंतर दिखता है और कई बार आपस में सब घुला मिला भी लगता है. TRAD को सबसे पहले हिन्दू राष्ट्र चाहिए. रायता की तरह विकास और हिन्दू राष्ट्र में उसका यकीन नहीं है.
इस तरह की तस्वीरों से पता चलता है कि ट्रैड की सोच क्या है. ट्रैड हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए मुसलमानों के लिए मलेच्छ का इस्तमाल करता है. कई सदी पहले के इस शब्द को लाया गया. इसमें छुआछूत का भाव है इसलिए जातिसूचक होने के कारण असंवैधानिक भी है. मगर यहां आप देख सकते हैं कि सभी मलेच्छ के मारने का नारा लिखा है. ट्रैड ओला और ऊबर का इस्तमाल भी एक धार्मिक नारे के समानार्थी तौर पर करता है. इस तस्वीर में हिन्दू राष्ट्र की मुद्रा का चित्रण है. इसमें लोगों से कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया अकाउंट की डीपी कैसी होनी चाहिए. पूरे देश को भगवा रंग में रंगा दिखाया गया है, हिन्दू राष्ट्र की कल्पना साकार की गई है. इसके निशाने पर मुस्लिम ही नहीं हैं बल्कि दलित भी तादाद में हैं. बल्कि हिन्दू राष्ट्र के समर्थक दलितों से भी ये नफरत करते हैं. ब्राहमणवाद की सर्वोच्चता चाहते हैं और आरक्षण को खत्म करते हैं. ये दोनों ही तत्व हिन्दुत्व के समर्थकों की धारा में ऑफलाइन भी मौजूद है लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के कारण ऊपर नहीं आता मगर ट्रैड सीधा हमला करते हैं. पत्रकार नील माधव ने ट्रैड की दुनिया में दलितों के चित्रण पर काफी काम किया है.
राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर नफरत की धारा के मूल में ब्राहमण जाति की सर्वोच्चता को समेटने का काम किया जाता रहा था लेकिन ट्रैड ने आकर उसके बंडल को खोल दिया है और बताना शुरू कर दिया कि हम असल में यही थे और ऐसे ही हैं. इस भ्रम में न रहें कि ये इक्का दुक्का ट्वीट हैं. एक पूरा इकोसिस्टम तैयार हो चुका है. इनके पीछे की पहचान छिपी रहती है लेकिन काम करने वाले सब एक दूसरे से जुड़े रहते हैं. ट्रैड को लेकर आर्टिकल 14, द वायर, न्यूज़लौंड्री, अल जज़ीरा पर कुछ रिपोर्ट छपी हैं जिसे प्रतीक गोयल, आलीशान जाफरी, ज़फ़र आफ़ाक, नील माधव और नयोमी बार्टन ने इस पर काम किया है. टेक फॉग की रिपोर्ट के बाद आलीशान जाफ़री और नयोमी बार्टन ने एक लंबी रिपोर्ट भी लिखी है. इनका कहना है कि यह इकोसिस्टम बहुत प्रभावशाली हो चुका है. इससे जुड़े लोगों की संख्या इतनी भी कम नहीं कि इक्का दुक्का कहा जा सके. ट्रैड नाम के ये ज़ॉम्बी जंतु ट्विटर से लेकर टेलीग्राम पर बड़ी संख्या में मौजूद हैं और आपस में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.
रायता और ट्रैड में फर्क है लेकिन दोनों एक ही बिरादरी के लोग हैं. ट्रैड रायता का इस्तमाल तब करता है जब राइटविंग नरम पड़ता है. दोनों एक ही तरह के राजनीतिक समाज का हिस्सा हैं. देखने से लगता है कि रायता और ट्रैड अलग हैं मगर हैं ये एक परिवार और एक ही मकसद के लिए. दोनों के मकसद एक हैं. बस ट्रैड अब किसी तरह का समझौता नहीं चाहता है. मनुस्मृति की वकालत करता है. दलितों और आरक्षण से नफरत करता है. जाति के वंशवाद को सही मानता है. ब्राह्मण को सर्वोच्च मानता है. मानता है कि मुसलमानों को भारत में रहने का अधिकार नहीं है. नरसंहार की भाषा का इस्तमाल करता है. ट्रैड उसी एंटी मुस्लिम इको सिस्टम का एक उग्र चेहरा है जिसमें रायतावादी दूसरे तरीके से नफरत की बात करते हैं. यह आंदोलन सिर्फ सिर्फ नफरत से चलता है. ट्रै़ड स्टेट में यकीन नहीं करता है. संविधान से चलने वाला राज्य का विरोधी है. इसलिए ट्रैड पकड़े जा रहे हैं क्योंकि ये अब रायता के लिए चुनौती बन गए हैं. ये कई बार आरएसएस और बीजेपी को भी निशाने पर ले लेते हैं.
हमने आपको बंगाल के चुनाव के संदंभ में गोभी का इस्तमाल दिखाया. आप सोच भी नहीं सकते कि ये लोग गोभी के रूपक से एक समुदाय के खिलाफ हिंसा की बात को बढ़ावा दे सकते हैं. छवियों और तस्वीरों के सहारे बात करने की इनकी शैली है. इस संदर्भ में एक और उदाहरण देना चाहता हूं.
कार्टून किरदार पेपे द फ्राग का उदाहरण. 2005 तक अमरीकी समाज में इस कार्टून का एक कॉमिक के माध्यम से आगमन होता है. एक आलसी किरदार के रूप में. धीरे धीरे लोकप्रिय होने लगता है और लोग अपने हिसाब से इस किरदार में जोड़ने घटाने लगते हैं. कुछ साल के बाद पेपे द फ्राग अमरीका में व्हाईट लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाता है और वह ब्लैक से श्रेष्ठ होने का दावा करने लगता है. फिर इसमें जर्मनी के नात्ज़ी दौर के हिंसक ख़याल जुड़ने लगते हैं. गार्डियन और बिजनेस इंसाइडर ने पेपे द फ्राग की विकास यात्रा का विश्लेषण किया है, आप उसकी साइट पर जाकर इस रिपोर्ट को देख सकते हैं. इसके रचनाकार मैट फ्यूरी चाहते थे कि लोग मेंढक से घिन न करें. उसे प्यार करें लेकिन हो गया उल्टा. पेपे द फ्राग दुनिया के अलग अलग हिस्सो में इंसानी आबादी के एक बड़े हिस्से से नफरत का प्रतीक बन गया. 2017 में इसे बनाने वाले अमरीका के मैट फ्यूरी ने पेपे बचाओ अभियान भी चलाया था लेकिन तब तक मामला हाथ से निकल चुका था. फ्यूरी आज भी अपने पेपे द फ्राग को नफरत की दुनिया से निकालने की कोशिश कर रहे हैं. द वायर में लिखने वाले आलीशान जाफरी ने हमें बताया कि भारत में भी पेपे द फ्राग को अपनाया गया. ट्रैड ने इसे हरा से भगवा कर दिया. मतलब वैसे दक्षिणपंथी जो रायतावादी हैं जिनसे ट्रैड नफरत करते हैं उन्हें भगवा मेंढक कर देते हैं, इन्हें अंबेडकरवादियों से भी नफरत हैं तो उसे ज़ाहिर करने के लिए मेंढक का रंग नीला कर देते हैं. मुसमलानों से नफरत का इज़हार करते वक्त मेंढक का रंग हरा कर देते हैं. पेपे द फ्राग के रूपक पर कई रिसर्च हुए हैं. नफरत के खिलाफ काम करने वाले विद्वान मानते हैं कि पेपे द फ्राग नात्ज़ी के प्रतीक चिन्ह स्वास्तिका की बराबरी का प्रतीक है. अब यह नफरत का सबसे प्रचलित प्रतीक बन गया है. बेचारा मेंढक. इसे क्या पता कि इसके नाम पर दुनिया में इंसान हैवानियत का कोड रच रहे हैं. I feel sad for the frog.
यह वो दक्षिणपंथ हैं जो हत्या और सत्यानाश के ज़रिए अपनी सर्वोच्चा स्थापित करने का ख्वाब देख रहा है. इसकी चपेट में आपके बच्चे आ रहे हैं, और बच्चों को इन तक पहुंचाने में समाज के कई लोगों की भूमिका है. ट्रैड पर काम करने वाले बताते हैं कि अब महिलाओं को भी उग्र और हिंसक नफरत की राह में धकेला जा चुका हैं, कई बार वे भी मुस्लिम महिलाओं के बलात्कार या हत्या को सही ठहराती रहती हैं.
जम्बूद्वीप के ये नए जंतु हैं. ज़ॉम्बी जंतु. अच्छे खासे स्वस्थ्य दिमाग़ को बीमार दिमाग़ में बदला जा रहा है. नफरत और हिंसा के अलावा इनकी भाषा ही नहीं है. इसका मतलब है कि ये सोच नहीं सकते. तर्क नहीं कर सकते. ऐसे लोग कहीं बदल न जाएं इसके लिए समय समय पर नफरत के मुद्दे लाए जाते हैं. कभी टेक फॉग एप के ज़रिए तो कभी गोदी मीडिया के ज़रिए. इस पूरी प्रक्रिया में लोगों के भीतर करुणा खत्म हो जाती है. दया और दर्द खत्म हो जाता है. सोशल मीडिया के दौर में ऐसे भी सोचने समझने की शक्ति कम होती जा रही है. हर कोई दो मिनट से कम का वीडियो देखना चाहता है. यानी जिज्ञासा और धीरज खत्म हो रहा है. इस बेचैनी का फायदा उठाकर आपके दिमाग में ऐसी सामग्री भरी जाती है जिससे आपका सोचना बंद हो जाता है. सही गलत का फर्क करना बंद हो जाता है. आप ज़ॉम्बी बन जाते हैं. जम्बूद्वीप के ज़ॉम्बी. मत बनिए. ट्रैड पर काम करने वाले आल्ट न्यूज़ के ज़ुबैर और प्रतीक का कहना है कि इनकी अपनी वेबसाइट होती हैं. जिस तरह से अमरीका में 8 चैन और 4 चैन चलता है उसी तर्ज पर भारत में भी इंडिया चैन चलता था जिस पर ट्रैड अपनी बात लिखते थे. अब इसे बंद कर दिया गया है.
ट्रैड को लेकर इधर उधर लिखा तो जा रहा था लेकिन इसके खतरे को अभी तक लोग कम आंक रहे थे. जब सुल्ली और बुल्ली बाई एप के मामले में विशाल झा, मयंक रावत, नीरज विश्नोई, अंशुमान ठाकुर और श्वेता सिंह की गिरफ्तारी हुई तब से ट्रैड की चर्चा फिर से सरेआम हुई है. कितने ऐसे नौजवानों को नफरत की सुरंग में धकेला जा चुका है, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. हमें इसके पीछे के लोगों और इन बातों के मनोविज्ञान को समझना ही होगा. इन लड़कों को नफरत की दुनिया में कौन धकेल रहा है, ये किस राजनीतिक बिरादरी के लोग हैं, आज अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो एक के उकसाने पर न जाने कितने लोग हत्यारे बन चुके होंगे.
इनके पकड़े जाने पर आलीशान ने ट्विटर अपना एक पुराना लेख साझा किया था जो उन्होंने और ज़फर आफ़ाक़ ने आर्टिकल 14 पर लिखा था. मई 2021में. इस लेख में दोनों ने बताया है कि फरज़ामा बेगम, ज़ालिम हिन्दू, पाकिज़ा मोमिना अलीमा, सायरा बेशरम, अर्जुन पंडित नाम से कई ट्विटर हैंडल बने हैं जिनसे नफरती बातें फैलाई जाती हैं. मुसलमानों के खिलाफ तरह तरह की हिंसक और नफरती बातें फैलाई जाती हैं. इनके ज़रिए पॉर्न वीडियो भी साझा होता है. समय समय पर इन अकाउंट को बंद किया जाता रहता है लेकिन ये किसी और नाम से कहीं और उग आते हैं. इस लेख में फेसबुक पर एक समूह का ज़िक्र है बहू लाओ बेटी बचाओ जिससे 48000 से अधिक लोग जुड़े थे. इस पर मुस्लिम लड़कियों से शादी की वकालत की जाती है. मुख्य धारा के नेता इन्हीं सब बातों को दूसरे तरीके से बोलते हैं. आपको याद होगा धारा 370 के हटने के बाद हरियाणा के मुख्यममंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा था कि धारा 370 हट गया है अब लोग वहां से लड़कियां ला सकते हैं.
सरकार समय समय पर संसद में जानकारी देती रहती है कि फर्ज़ी और भड़काऊ सामग्री वाले प्लेटफार्म को बंद किया गया है लेकिन क्या उसमें इस तरह के डिटेल होते हैं जिससे पता चले कि ट्रैड के अकाउंट बंद किए जा रहे हैं या नहीं. हरिद्वार में धर्म संसद में जिस तरह से नरसंहार की बातें कही गईं उसे लेकर इसलिए भी सतर्क होने की ज़रुरत है क्योंकि ऐसी बात करने वाले नरसिंहानंद ट्रैड के बीच बहुत पसंद किए जाते हैं. हिंसा की बात की निंदा करना कितना मुश्किल हो गया है. बीबीसी के अनंत जणाने ने एक सवाल क्या पूछ लिया यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या ने माइक ही उतार दी और वीडियो डिलिट करने के आदेश दे दिए. अनंत जणाने के मास्क को भी उतार दिया गया.
आप देख सकते हैं कि हिंसा की बात की निंदा करने में कितनी तकलीफ हो रही है. आईआईएम अहमदाबाद, आईआईएम बंगलुरु में पढ़ाने वाले प्रोफेसर और छात्रों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है कि धर्मसंसद में हिंसा की बात पर उनकी चुप्पी सही संदेश नहीं देती है.
ट्रैड के सामने सब चुप हैं क्योंकि ट्रैड उनके अपने भी हैं और उन्हीं के दुश्मन भी हैं. धर्म के नाम पर नफ़रत की सोच को एक खतरनाक मुकाम पर ले जाने वाला यह आंदोलन कभी भी बोतल में बंद जिन्न की तरह बाहर निकल सकता है.
ज़ॉम्बी तैयार हो चुके हैं. ये कब कहां और किस रूप में भगदड़ मचा देंगे किसी को पता नहीं है. अपने बच्चों को ज़ॉम्बी बनने से बचा लीजिए. नफरत की पॉलिटिक्स से आपको जीरो मिलने वाला है और जो आपके पास है वो भी ज़ीरो हो जाएगा. इतना तो जानते ही होंगे कि भारत का एक नाम जम्बूद्वीप है. तो अपने जम्बूद्वीप को ज़ॉम्बीद्वीप होने से बचा लीजिए.