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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत का यह वक्तव्य निश्चय ही स्वागतयोग्य है कि अगर भारत में मुस्लिम नहीं रहेंगे, तो हिन्दुत्व नहीं रहेगा, लेकिन कई वाक्यों की तरह यह एक आदर्श वाक्य भर है - या संघ परिवार के दर्शन और व्यवहार में इसकी कोई वास्तविक-लोकतांत्रिक झलक भी मिलती है...? यह सवाल इसलिए अहम है कि पिछले 50 वर्षों में संघ परिवार और उसके संगठनों ने मध्यवर्गीय भारत के बड़े हिस्से में मुस्लिम-घृणा के जो बीज बोए हैं, उसकी फसल हम अब काटने को मजबूर हैं. मोहन भागवत अगर वाकई मानते हैं कि उनका हिन्दुत्व भारत में इस्लामी उपस्थिति के बिना अधूरा है, तो उन्हें यह बात अपने उन संगठनों और सहयोगियों को कहीं ज़्यादा संजीदगी से समझानी चाहिए, जो हर मौके पर मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तान जाने की सलाह देने में हिचकते नहीं, उनको बस उनकी टोपी और दाढ़ी के आधार पर देशद्रोही से लेकर आतंकवादी तक ठहरा देते हैं.
वैसे हिन्दुत्व और इस्लाम के इस रिश्ते पर मोहन भागवत की टिप्पणी को कुछ और सावधानी से देखने की ज़रूरत है. उनके वक्तव्य से कम से कम दो भ्रम पैदा होते हैं. पहला तो यह कि हिन्दुस्तान का मसला बस दो पहचानों - हिन्दुत्व और इस्लाम का मसला है. हिन्दुत्व इतना सहनशील है कि उसकी वजह से इस्लाम को भी यहां जगह मिल गई है. लेकिन क्या हिन्दुत्व के भीतर अपनी समस्याएं नहीं हैं...? क्या धर्म के भीतर सवर्ण हिन्दू के जो अधिकार हैं, क्या वही पिछड़ों के भी हैं...? क्या हिन्दुत्व को जातियों ने इस बुरी तरह विभाजित नहीं कर रखा है कि उसकी अलग से कोई पहचान ही नहीं बची है...? हिन्दुत्व और संविधान की बात करते हुए मोहन भागवत जिस अम्बेडकर को याद कर रहे थे, हिन्दुत्व के बारे में उन्हीं की राय पढ़ लेते, तो अपने समाज के अंतर्विरोध को पहचानने में उन्हें कुछ आसानी होती. अम्बेडकर ने साफ कहा था कि जातियों के बिना हिन्दुत्व कुछ नहीं है - हिन्दू तभी एक होता है, जब उसे मुसलमान का विरोध करना होता है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
EPFO ने फिर से नौकरियों को लेकर डेटा जारी किया है. सितंबर 2017 से जुलाई 2018 के बीच नौकरियों के डेटा को EPFO ने कई बार समीक्षा की है. इस बार इनका कहना है कि 11 महीने में 62 लाख लोग पे-रोल से जुड़े हैं. इनमें से 15 लाख वो हैं जिन्होंने EPFO को छोड़ा और फिर कुछ समय के बाद अपना खाता खुलवा लिया. यह दो स्थिति में होता है. या तो आप कोई नई संस्था से जुड़ते हैं या बिजनेस करने लगते हैं जिसे छोड़ कर वापस फिर से नौकरी में आ जाते हैं.
EPFO लगातार अपनी समीक्षा के पैमाने में बदलाव कर रहा है. लगता है कि वह किसी दबाव में है कि किसी भी तरह से अधिक संख्या दिखा दें ताकि सरकार यह कह सके कि देखो कितनी नौकरियां दे दी. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के महेश व्यास ने कहा है कि जल्दबाज़ी में EPFO के डेटा से समझौता किया जा रहा है. 24 प्रतिशत लोग अगर EPFO से अलग होकर फिर से जुड़ रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि नई नौकरियां नहीं बन रही हैं. इन लोगों को नई नौकरियों के खाते में नहीं डाला जा सकता है. महेश व्यास रोज़गार पर लगातार लिखते रहते हैं.
जो लोग नौकरी की आस में हैं, उनकी दुनिया में यह ख़बर है कि कितनी नौकरियां आ रही हैं और उनमें से कितनी दी जा रही हैं. इन नौजवानों को सब पता है. आप उनसे पूछिए कि बैंकिंग में कितनी वैकेंसी कम हो गई. साल दर साल गिन कर बता देंगे. रेलवे से लेकर सिविल परीक्षाओं के हिसाब हैं उनके पास. हम पत्रकारों को भले न पता हो लेकिन स्टाफ सलेक्शन कमिशन की परीक्षाओं के बारे में नौजवानों के पास सब हिसाब है. वो झट से बता देते हैं कि कैसे हर साल नौकरियों में गिरावट आ रही है. परीक्षा पास कर नौजवान बैठे हैं मगर ज्वाइनिंग नहीं मिल रही है.
नौजवान बताएं कि लगातार देखने के बाद सिस्टम और सियासत के बारे में उनकी क्या समझ बनी है? क्या उनके सवालों की सूची में इन सब बातों का स्थान होगा या फिर वे जाति देखेंगे, धर्म देखेंगे, अपना अपना फायदा देखेंगे? इम्तहान इन नौजवानों को देना है. मुझे नहीं. अत मित्रों मुझे मुक्ति दें. मुझे व्हाट्सएप करना बंद करें. इनबॉक्स करना बंद करें.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.