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न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक आंकलन कर बताया है कि इस साल जनवरी तक भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या 42 लाख से भी अधिक हो सकती है. दूसरी लहर की गिनती नहीं है. राहुल गांधी ने इस खबर का लिंक ट्विटर पर साझा कर दिया तो स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन नाराज़ हो गए. उन्होंने लिख दिया कि लाशों पर राजनीति कांग्रेस स्टाइल. पेड़ों पर से गिद्ध भले ही लुप्त हो रहे हों, लेकिन लगता है उनकी ऊर्जा धरती के गिद्धों में समाहित हो रही है. राहुल गांधी को दिल्ली से अधिक न्यूयार्क टाइम्स पर भरोसा है. लाशों पर राजनीति करना कोई धरती के गिद्धों से सीखें. गिद्धों को लेकर स्वास्थ्य मंत्री की जानकारी ठीक नहीं है. उन्हें पता नहीं है कि उन्हीं की सरकार ने गिद्धों को बचाने के लिए पांच साल का एक एक्शन प्लान बनाया है. यह कार्यक्रम 2006 से चल रहा है. स्वास्थ्य मंत्री ने गिद्धों के प्रति जिस घृणा का प्रदर्शन किया है वह अफसोसनाक है.
आसमान में उड़ते गिद्धों को नहीं मालूम कि मोदी सरकार के मंत्री डॉ हर्षवर्धन उनके बारे में क्या राय रखते हैं. ठीक उसी तरह डॉ हर्षवर्धन को नहीं मालूम कि उनके सरकार के पर्यावरण मंत्री ने गिद्धों को बचाने और उनकी संख्या बढ़ाने के लिए पांच साल का एक एक्शन प्लान बनाया है. 16 नवंबर 2020 को इसे लांच किया गया और जावडेकर ने ट्वीट भी किया था. मालूम होता तो डॉ हर्षवर्धन राहुल गांधी के ट्वीट की आलोचना में गिद्धों पर ऐसी टिप्पणी नहीं करते. एक्शन प्लान वाली रिपोर्ट में पर्यावरण राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो लिखते हैं कि भारत में गिद्धों के सामाजिक और सांस्कृति महत्व को कम शब्दों में इस तरह से रखा जा सकता है कि वे मृत जानवरों के मांस को खाकर पर्यावरण को साफ रखने का काम करते हैं. तो इस तरह कोविड की इस दूसरी लहर में टीका और मरने वालों की संख्या को लेकर तरह तरह के बयानों से अगर कोई झूठ साफ करने का काम करता है तो वह गिद्ध है और गिद्ध होकर भारत की संस्कृति की रक्षा करता है. कोई भी व्यक्ति जो सरकार के झूठे दावों को चुनौती देता है भारत की संस्कृति की रक्षा करने वाला गिद्ध कह सकता है और गौरव कर सकता है. एक्शन प्लान के अनुसार देश के पांच राज्यों में गिद्धों के प्रजनन केंद्र बनाएं जाएंगे जिनमें से एक राज्य उत्तर प्रदेश भी है.
अभी कुछ दिन पहले डॉ हर्षवर्धन ने वैज्ञानिक चेतना की चिन्ता में रामदेव को पत्र लिखा था, लेकिन गिद्धों के प्रति उनका नज़रिया बता रहा है कि उन्हें भी वैज्ञानिक नज़रिए को बेहतर करने की ज़रूरत है. Hope he doesn't mind and starts reading something about vultures. और ट्विटर पर गिद्ध वाली ट्वीट को pinned किया है उस पर विचार कर लें. वैसे थाली बजाना साइंटिफिक टेंपर नहीं था बल्कि साइंटिफिक टेंपर का पंचर कर देना था. अभी बात खत्म नहीं हुई है. शुरू हो रही है.
इस ट्वीट में डॉ हर्षवर्धन कहते हैं कि राहुल गांधी को न्यूयॉर्क टाइम्स पर भरोसा है दिल्ली पर नहीं. क्या स्वास्थ्य मंत्री यह कह रहे हैं कि जो दिल्ली कहे उसे सच मानना ही होगा? तो यही बात वो भारतीय मीडिया को भी कहना चाहेंगे? सबसे पहले दूसरी लहर में कोविड से मरने वालों की सरकारी संख्या को चुनौती तो भारतीय भाषाई अखबारों ने दी है. गुजरात के अखबारों ने दी. इसी को आधार बनाकर दुनिया भर के विद्वान मरने वालों की सही संख्या और सरकार के झूठ का विश्लेषण कर रहे हैं. क्या डॉ हर्षवर्धन भारतीय अखबारों की रिपोर्ट पर भरोसा करना चाहेंगे? किस दिल्ली पर भरोसा करें, खुद प्रधानमंत्री को ही आंकड़ों पर भरोसा नहीं लगता. क्या डॉ हर्षवर्धन को नहीं मालूम कि 15 मई को प्रधानमंत्री ने राज्यों से कहा है कि संख्या ज़्यादा है तो बताने से पीछे न हटें. ख्वाहमख्वाह गिद्धों को बदनाम कर दिया. डॉ हर्षवर्धन को कोई इतना ही बता दे कि पारसी समाज गिद्धों को कितनी आदरणीय निगाह से देखता है. जानना हो तो गुजरात के नवसारी ही चले जाएं. जहां पारसी समाज अंतिम संस्कार के लिए जाना पसंद करना है. वहां गिद्धों की कमी से चिन्तित रहता है.
मरने वालों की सही संख्या का पता लगाना गिद्ध होना नहीं है बल्कि सत्यमेव जयते के आदर्शों का पालन करना है. बालमीक रामायण के अरण्य कांड के पचासवें सर्ग का श्लोक संख्या तीन की याद दिलाना चाहता हूं. जिसमें जटायु कहते हैं हे दस मुख रावण मैं प्राचीन सनानत धर्म में स्थित, सत्य प्रतिज्ञ और महाबलवान गिद्धराज हूं. मेरा नाम जटायु है. भैया, इस समय मेरे सामने तुम्हें ऐसा निंदित कर्म नहीं करना चाहिए. गिद्धराज सत्य प्रतिज्ञ हैं, सत्य के साथ खड़े हैं और निंदित कर्म का विरोध कर रहे हैं. सबको पता है कि सरकार ने मरने वालों की संख्या सही नहीं बताई है. हर किसी को गिद्ध बन कर उस पर सवाल करना चाहिए. दुनिया भर के विद्वान सरकारी दावों से अलग अखबारों में छपी खबरों और अन्य माध्यमों से आंकड़ा लेते हैं. क्योंकि सरकारें झूठ बोलती हैं. फर्ज़ी डेटा देती हैं. इसे लेकर इमोशनल होने की क्या ज़रूरत है.
केरल एक ऐसा राज्य है जहां के अख़बारों में मरने वालों की सूचना और श्रद्धांजलि छापने की परंपरा है. इसके लिए किसी से पैसा नहीं लिया जाता है. हिन्दी प्रदेशों से निकलने वाले हिन्दी और अग्रेज़ी के अखबारों में श्रद्धांजलि छपवाने के पैसे देने होते हैं. मलयालम भाषा के अखबार वर्षों से प्रिट और आनलाइन संस्करणों में मुफ्त में श्रद्धांजलियां छापते रहे हैं. अख़बारों के हर ज़िला संस्करण में एक पन्ना श्रद्दांजलि और मरने वालों की सूचना का होता ही है. केरल के पाठकों के लिए यह देख कर रख देने वाला पन्ना नहीं होता है बल्कि उनकी नज़र इस पन्ने पर जाती ही जाती है. आप चाहें तो मलयालम मनोरमा, माध्यमम, मातृभूमि, केरला कौमुदी के किसी भी संस्करण को उठा कर देख सकते हैं. माध्ययम अखबार के एक पत्रकार ने बताया कि केवल सूचना देनी होती है, मरने वालों की सूचना छपेगी ही. मना कर ही नहीं सकते. यह एक तरह से केरल के अखबारों की पब्लिक सर्विस है. अगर परिवार चाहता है कि मौत का कारण कोविड लिखे तो अखबार लिखते हैं. नहीं बताता तो नहीं लिखते हैं. हमें इसकी जानकारी नहीं है कि इन अखबारों ने सरकारी आंकड़ों की तुलना में छपने वाली श्रद्धाजंलियों की संख्या को अधिक पाया या सही पाया.
डॉ हर्षवर्धन चाहें तो इनकी गिनती कर केरल सरकार के आंकड़ों को चुनौती दे सकते हैं लेकिन जानबूझ कर कोई इस मामले की तह तक नहीं जाना चाहता है. मगर रिसर्चर तो गिनती करेंगे. क्योंकि सही संख्या से ही आप कोविड या किसी भी महामारी से लड़ने की बेहतर तैयारी कर सकते हैं. Do you get my point. खराब प्लानिंग से कितने लोग मर गए और मार दिए गए यह जानना ज़रूरी है तभी आप आगे की सही प्लानिंग कर पाएंगे.
इंडियन एक्सप्रेस में चिन्मय तुंबे का एक लेख छपा है. चिन्मय बता रहे हैं कि 1918 में जब भारत में स्पेनिश फ्लू नाम की महामारी आई थी तब कितने लोग मरे थे उसकी संख्या को लेकर आज तक शोध हो रहे हैं. उस वक्त के सैनिटरी कमिश्नर नॉर्मन व्हाइट में इतनी ईमानदारी तो थी कि उसने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भारत में साठ लाख लोग मरे होंगे, और संख्या इससे भी अधिक हो सकती है. 1921 में जब जणगनना हुई तो सर्वे करने वालों ने देखा कि गांव के गांव ख़ाली हो चुके हैं. तब अंदाज़ा लगाया गया कि साठ लाख नहीं, एक करोड़ से अधिक लोग मरे थे. चिन्मय तुंबे ने अपने शोध के दौरान पाया कि भारतीय उपमहाद्वीप में दो करोड़ लोग स्पेनिश फ्लू से मरे थे. सरकारी आंकड़ों से तीन गुना ज़्यादा. आबादी का छह प्रतिशत गायब हो गया.
दिव्य भास्कर ने 1 मार्च से 14 मई के बीच का डेटा खंगाल दिया. अखबार ने पाया कि पिछले साल के इन्हीं दिनों की तुलना में इस बार गुजरात में 65000 अधिक मौतें हुई हैं जबकि सरकारी आंकड़े के अनुसार इस दौरान 4000 ही मरे हैं. चिन्मय ने इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए जब 2019 का डेटा देखा तो पाया कि उस साल की तुलना में इस साल के मार्च अप्रैल और मई के कुछ महीनों में 43,000 अधिक लोग मरे हैं. सोचिए सरकार 3,992 बताती है और मरने वालों की संख्या 43000 है. मरने वालों की सरकारी संख्या को लेकर गंभीर चुनौती नहीं मिलती अगर गुजराती भाषा के अखबारों में शानदार रिपोर्टिंग न की होती. संदेश, दिव्य भास्कर, गुजरात समाचार और सौराष्ट्र समाचार ने धुन के रिपोर्टिंग की है. आज वही रिपोर्टिंग दुनिया भर की यूनिवर्सिटी में डेटा के अध्ययन के काम आ रही है. संदेश ने अपना मॉडल बना लिया और इसी के साथ पत्रकारिता के इतिहास में एक नई लकीर खींच दी.
संदेश अखबार में अप्रैल के महीने में श्रद्धांजलि की संख्या अचानक बढ़ गई. जहां पहले मुश्किल से एक पन्ना भी नहीं भरता था, आठ से दस पन्ने केवल श्रद्दांजलियों के छपने लगे. अखबार ने सही समय पर नोट कर लिया कि कोविड से मरने वालों की सरकारी संख्या सही नहीं. संवाददाताओं की टीम सिविल अस्पताल और शहर के तमाम श्मशानों में लगा दी गई. कोविड प्रोटोकोल से अंतिम संस्कार किए जाने वाले शवों की गिनती होने लगी और श्मशान के रिकार्ड छापे जाने लगे. इसके अलावा अखबार ने अपने सभी संवाददाता, ब्यूरो चीफ और वितरण के नेटवर्क से जुड़े लोगों को मरने वालों की संख्या की गिनती में लगा दिया. हर दिन एक ज़िले के पांच गांवों का चुनाव होता था और डेटा लिया जाने लगा. हर दिन संदेश ने तीन तरह का डेटा छापा. अस्पताल से बताया जाता था कि कोविड से इलाज के दौरान कितने मरे. फिर ज़िले में बनी डेथ ऑडिट कमेटी समीक्षा करती थी और कोविड से होने वाली मौतों को प्रमाणित करती थी. इस कमेटी की संख्या अस्पताल से काफी कम होती थी. और जब श्मशान में कोविड प्रोटोकोल से अंतिम संस्कार की गिनती होती थी तो वह संख्या अस्पताल और ऑडिट कमेटी की संख्या से अधिक होती थी. अप्रैल के महीने में राजकोट सिटी के चार श्मशान गृहों का डेटा डराने वाला था. ये श्मशान कोविड शवों के अंतिम संस्कार के लिए बने थे. संदेश अखबार ने पाया कि अप्रैल महीने में इन चार श्मशानों में 4000 से अधिक शवों का अंतिम संस्कार हुआ है. जबकि राजकोट सिटी का सरकारी डेटा 300 से भी कम का है. कई बार संवाददाताओं ने पाया कि 100 लोग मरते थे और सरकार बताती थी कि 10 लोग मरे हैं. 100 लोग को बताया जाता था 10 मरे, कई बार इससे भी कम. इस हिसाब से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अगर कोविड से देश भर में तीन लाख मरे हैं तो मरने वालों की संख्या तीस लाख हो जाती है. इस बात को लेकर न्यूयार्क टाइम्स से नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं बल्कि अपनी करतूत पर शर्मिंदा होने की राष्ट्रीय ज़रूरत है.
गुजराती अख़बारों के साथ गुजराती पाठकों की भी तारीफ़ बनती है. बेशक वहां के अखबार अपने पाठकों के साथ खड़े थे लेकिन उनके पाठकों ने भी अपने अख़बारों से गोदी मीडिया टाइप खबरों को बर्दाश्त नहीं किया. गुजराती पाठकों ने एक पाठक और नागरिक होने का स्वाभिमान बचाए रखा. क्या संदेश की इस रिपोर्टिंग पर मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन गर्व करना चाहेंगे? सोच लीजिएगा छह करोड़ गुजरातियों के स्वाभिमान का सवाल है 28 अप्रैल को डॉ हर्षवर्धन ने कहा था कि कोविड से दुनिया भर में सबसे कम भारत में लोग मर रहे हैं.
19 अप्रैल को संदेश ने छापा कि 48 घंटे के भीतर गुजरात के सात बड़े शहरों में कोविट प्रोटोकोल से 1495 शवों का अंतिम संस्कार किया गया जबकि सरकार ने बताया कि इस दौरान 220 लोग मरे थे. 20 अप्रैल को संदेश ने छापा कि गुजरात के सात शहरों के कोविड श्मशान गृहों में 672 लोगों का अंतिम संस्कार हुआ जबकि सरकार ने बताया है 88. सरकार ने 7 गुना कम बताया है.
आपको यह भी बता दें कि न्यूयार्क टाइम्स ने भारत मे कोविड से मरने वालों की संख्या का अनुमान जनवरी महीने तक के आंकड़ों के आधार पर निकाला है कि भारत में कोविड से 42 लाख लोग मरे होंगे. नीति आयोग के सदस्य डॉ वी के पॉल ने कहा है कि न्यूयार्क टाइम्स के विश्लेषण का आधार ग़लत है.
ऐसा नहीं है कि अमरीका में आधिकारिक आंकड़ों को चुनौती नहीं दी जाती. वहां की कई यूनिवर्सिटियां ऐसा करती हैं. वाशिंगटन यूनिवर्सिटी की संस्था Institute for health metrics and health evaluation की वेबसाइट पर जाकर देख सकते हैं कि न्यूयार्क स्टेट में मरने वालों की संख्या 64000 होगी जबकि आधिकारिक आंकड़ा 42,000 का है. न्यूयार्क टाइम्स ने हवा में सर्वे नहीं किया है. अखबार के एक्सपर्ट ने साफ साफ कहा है कि सीरो सर्वे ही एकमात्र आधार नहीं है. भारत में कई कारणों से मौत की कम रिपोर्टिंग होती है. अखबार ने यह भी लिखा है कि भारत में 5 में से 4 मौतों की चिकिस्तीय जांच नहीं होती है. क्या ये सही नहीं है कि भारत में टेस्टिंग नहीं होता है. दिल्ली में ही लोगों को अप्रैल के महीने में टेस्टिंग कराने में दिक्कत हुई और कई लोग नहीं करा सके. क्या यह सही नहीं है कि भारत में मृत्यु का आंकड़ों को चुनौती न्यूयार्क टाइम्स से पहले संदेश और दिव्य भास्कर जैसे अखबारों ने दी. हमारे ही सहयोगी अनुराग द्वारी ने भोपाल के श्मशान और कब्रिस्तान के रिकार्ड से सरकारी आंकड़ों के सामने बड़ी संख्या पेश कर दी. क्या सरकार सीरो सर्वे पर भरोसा करती है? इसी आलोचना में कहती है कि मरने वालों की संख्या सही है, सीरो सर्वे में संक्रमित मरीज़ों की संख्या के बढ़ने से नहीं बदलती है. क्या ऐसा हो सकता है? वी के पॉल संदेश के उस डेटा पर क्या कहना चाहेंगे, जिसमें बताया गया है कि 19 अप्रैल को 48 घंटे के भीतर कोविड प्रोटोकोल से 1495 शवों का अंतिम संस्कार होता है और सरकार मरने वालों की संख्या 220 बताती है. 6 गुना कम. संदेश के राजकोट संस्करण के संपादक जयेश ठकरार से बात करते हैं.
गुजरात में जब अखबारों के कारण सवाल ज़ोर पकड़ा कि गांवों में भी लोग मर रहे हैं तो सरकार ने कोविड सेंटर खोलने की घोषणा कर दी. करीब हज़ार सेंटर खोलने के दावे किए गए हैं. वहां के अखबार लिख रहे हैं कि बहुत सारे सेंटर तो स्कूल के कमरे खोल कर बना दिए गए जहां कुछ भी सुविधा नहीं थी.
यह वीडियो भी ऐसे ही एक ग्रामीण कोविड सेंटर का है. संदेश न्यूज़ चैनल का है. आप देख सकते हैं कि कोविड सेंटर के नाम पर यह सेंटर बिहार और यूपी से आने वाली प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की तस्वीरों को भी मात दे रहा है. फाइव ट्रिलियन इकानमी बनने की जल्दी में हम गांवों में यही इंतज़ाम कर पाए हैं. गुजरात मॉडल पर देश के गांव गांव में लोग आज भी फिदा हैं. यह सेंटर भी गुजरात के एक गांव का ही हैं. गोदाम के बगल में ही सुविधा दे दी गई है. यकीन हो रहा है कि कोविड से हम मिल कर लड़ रहे हैं. कभी मौका मिले इन ग्रामीणों से मिल आइयेगा. तारीफ करने के इंतज़ार में बेकरार हैं. पता भी बता देता हूं, राजकोट ज़िले के चरानिया गांव है, जेतपुर के पास है.
सत्यमेव जयते वाले भारत में झूठ की विजय पताका लहरा रही है. आपके परिचितों में लोग मरे हैं सरकार उनकी गिनती कोविड से होने वाली मौतों मे नहीं गिन रही है. यह कितना भयावह है. मौत की जानकारी आपको है, सरकार कहती है आपकी जानकारी गलत है. इस झूठ के साथ क्या आप अपनों को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं? है जवाब आपके पास..
हिंडन श्मशान से निकलने पर रास्ता भटक गया. गूगल मैप की अनाउंसर की बात समझने के लिए कार धीमी कर ली. ठहर सी गई है. हिंडन नदी के उस पर श्मशान में जलती चिताएं नज़र आ रही हैं. मैं नदी के दूसरी तरफ हूं. झुरमुट में पति-पत्नी अपने बेटे के साथ किसी चिता को प्रणाम कर रहे हैं और हाथों को हल्का सा हिलाते हुए गुडबाय. उनका छोटा सा बेटा भी साथ में है. वे श्मशान तक आए हैं लेकिन चिता के करीब नहीं जा सके हैं. मैंने ठीक उनके पीछे अपनी कार रोक दी है और उस पार जलती चिताओं को देखने लगा हूं. इतनी चिताएं हैं कि कोई कैसे जान गया है कि कौन सी चिता उसके परिजन की है. शायद श्मशान के भीतर से किसी ने फोन पर बताया है. कोरोना के संक्रमण के ख़तरे ने इस परिवार को यहां तक ले आया है. कितना प्यार रहा होगा जाने वाले के प्रति. तमाम भय के बाद भी तीनों ख़ुद को यहां तक लाने से रोक नहीं सके हैं. यह दृश्य ऐसे दर्ज हो गई है कि जब तब याद आती रहती है. दर्ज तो यही होगा कि कोविड के पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार में दस लोग से अधिक नहीं आए हैं. यह तीन लोग मरने वालों की तरह सरकारी आंकड़ों से बाहर हैं. अलविदा कहने का फर्ज़ अदा कर रहे हैं.
श्मशान में भी कोविड के नियम हैं. मैं जिनके अंतिम संस्कार में गया हूं, उन्हें कोविड हुआ था लेकिन वेंटिलेटर पर इतने दिन रहीं कि उस दौरान कोविड खत्म हो गया. कोविड की मार ख़त्म नहीं हुई. श्मशान में बताया गया कि इनका संस्कार ग़ैर कोविड घाट पर होगा. विद्युत शवदाह गृह में केवल कोविड के मरीज़ों के ही पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार होगा. समझ आता है कि कोविड और नॉन कोविड मरीज़ों की गिनती में कितना झोल है. जो मरा तो है कोविड के होने से लेकिन मरने के एक दिन पहले निगेटिव हो गया तो नॉन कोविड में गिना जा रहा है.
श्मशान में जिसे पर्ची देने का काम दिया गया है वह इस वक्त ख़ुद को कलक्टर समझ रहा है. किसी से ठीक से बात नहीं कर रहा है. इस बात पर स्पष्टीकरण लेने के लिए वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों की तरफ बढ़ता हूं तो ऊंची आवाज़ में रोक देता है. कुर्सी पर बैठे पुलिस के लोग देखते तक नहीं कि कोई नज़दीक आकर क्या कहना चाहता है. शायद उस जगह पर बैठे बैठे उनका भी दिमाग़ सुन्न हो गया है. वर्दी के भीतर वे इंसान ही तो हैं. बिना वर्दी के मैं भी तो इंसान हूं और वो बच्चा जिसकी मां नहीं रही है. प्रशासन के किसी अधिकारी से फोन पर बात होती है. काफी अच्छे से बात करते हैं. इस बात का ख़्याल रखते हुए कि ठेस न पहुंचे. मगर वहां मौजूद कर्मचारी अधिकारी मुद्रा में है. पीछे से आवाज़ देता रहा कि आपका ही नाम फलाना है. मुड़ कर नहीं देखता है.
श्मशान में आधार कार्ड की एक फोटी कॉपी मांगी गई है. अस्पताल से डिस्चार्ज समरी की फोटो कॉपी भी मांगी गई है, जिस पर मौत की सूचना छपी है. जिनकी मौत घर पर हुई होगी उनके लिए अलग नियम होगा. मुझे जानकारी नहीं है. श्मशान के लोग उस डिस्चार्ज समरी का क्या करेंगे जिसमें मौत की तारीख़ लिखी है. क्या कभी कोई उसे पढ़ेगा या कुछ समय के बाद उन काग़ज़ों को जला दिया जाएगा? अंतिम संस्कार के लिए गंगा जल और चंदन की छोटी लकड़ी के अलावा आधार कार्ड अनिवार्य हो गया है. आधार नंबर लेकर भी इंसान निराधार हो चुका है.
श्मशान वाले ने पहले ही कह दिया है कि आधार कार्ड की कॉपी चाहिए. मेरा प्रिंटर ख़राब है. मेरे पड़ोस की एक लड़की को आधार कार्ड फार्वड किया जा रहा है. वह अपने प्रिंटर निकाल कर दरवाज़े के बाहर आधार कार्ड की कापी छोड़ गई. उसे प्रिंट आउट लेते वक्त कैसा लगा होगा, इस पर बात ही नहीं हुई. जो सरकार मरने का सही आंकड़ा नहीं देती है वह मरने वालों का आधार कार्ड की फोटोकॉपी श्मशान में जमा करवा रही है. एक दिन सरकार हर किसी के शरीर में आधार नंबर गोदवा देगी ताकि मरने पर फोटो कॉपी लेने की ज़रूरत न पड़े. मैं सोच रहा हूं कि जिस घर में किसी की मौत हुई हो, उसे अगर आधार कार्ड न मिल पाए तो क्या होगा. ऐसे हालात में आधार कार्ड खोजना क्या आसान होगा?
बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसे लिखूं या न लिखूं. लोग अपने करीबी के मर जाने पर श्रद्धांजलियों में बेईमानी कर रहे हैं. पूरी सूचना ग़ायब कर दे रहे हैं कि जो मरा है क्या तड़पा तड़पा कर मारा गया है, आक्सीज़न मिला कि नहीं, डॉक्टर देखने आया कि नहीं, सरकारी अस्पताल में ज़मीन पर रख दिया था या कहां रखा था, क्या उसे इलाज मिला था, क्या समय पर दवा मिली थी? बहुत कम श्रद्धांजलियों में इस तरह की सूचना दिखाई देती है.बीते दिनों की एक हंसती तस्वीर लगा कर लोग जाने वालो को मिस कर रहे हैं. कैसे गया है, उसे ग़ायब कर दे रहे हैं. बेईमान लोग. क्या इस दौर में इन सूचनाओं के बग़ैर श्रद्धांजलियां पूरी हो सकती हैं?
आंध्र प्रदेश के तिरुपति के रुइया अस्पताल में आक्सीज़न की सप्लाई में बाधा आने से 11 मरीज़ों की मौत हो गई. तेलंगाना के भी एक दो अस्पतालों से ऐसी खबर आई है लेकिन प्रशासन ने पुष्टि नहीं की है. न जाने कहां कहां इस तरह से नरसंहार जारी है. आम तौर पर नरसंहार की खबरें बिना पुष्टि के बाहर आ जाती हैं मगर आक्सीजन की कमी से मरने वालों को प्रशासन की पुष्टि का इंतज़ार करना पड़ता है. रुइया अस्पताल की तस्वीरें इतनी भयावह हैं कि हम नहीं दिखा रहे हैं.
उधर बिहार के बक्सर और यूपी के गाज़ीपुर ज़िले के गहमर के पास गंगा में कई लाशें बहती हुई मिली हैं. इनकी संख्या 40 से लेकर 100 तक बताई जा रही है. ये सिर्फ कहीं से बहती चली आ रही लाशें नहीं हैं बल्कि एक आंकड़ा भी हैं जो मुमकिन है सरकारी रिकार्ड से गायब हो. दो राज्यों के प्रशासनों के बीच इस बात को लेकर विवाद है कि लाशें उनके यहां से नहीं बहाई गई हैं कहीं और से बहाई गई हैं. इसलिए कहता हूं कि आज के भारत में आंकड़े श्मशान में मिलते हैं, सरकार में नहीं. क्या पता कोई आर्थिक तंगी की वजह से अंतिम संस्कार न कर पाया हो. बिहार सरकार ने कहा है कि 71 लाशों को अंतिम संस्कार कर दिया गया है. यूपी सरकार को सतर्क रहना चाहिए.
यह भी मुमकिन है कि इतनी मौत हो गई हो कि जलाने की जगह और सामग्री कम पड़ गई हो और लोगों ने लाशों को बहा दिया हो. यूपी की सीमा से सटे बिहार के सारण जिले के मांझी प्रखंड में एक पुल है जिसका नाम है जयप्रभा सेतु. यहां देखा गया है कि लोग कोविड संक्रमित शवों को नदी में फेंक रहे हैं.
आए दिन एंबुलेंस से यहां शवों को लाया जाता है और फेंक दिया जाता है. स्थानीय लोगों ने कहा कि दोनों राज्यों की तरफ से लोग ऐसा कर रहे हैं. पुल के नीचे लाशों को फेंक कर भाग जाते हैं. 1918 के स्पेनिश फ्लू के समय यही हुआ था. भारत में इतने लोग मरे थे कि लाशों से नदियां भर गई थीं. 102 साल बाद हम उसी हालात में पहुंच गए हैं. क्या इन शवों को मरने वालों में गिना जा रहा है? मशहूर कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने उस दौर को बयां करते हुए लिखा है, मैं दालमऊ में गंगा के तट पर खड़ा था. जहां तक नज़र जाती थी गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं. काश इस तरह का सच कोई कवि गंगा के किनारे खड़ा होकर लिख रहा होता. इस लिए मरने वालों की संख्या का सरकारी आंकड़ा झूठा है. सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल भी कह रहे हैं कि लाशों को नदी में फेंका जा रहा है. छपरा पुलिस चेक करे.
कैसा समय है जो ज़िंदा है वो झूठ बोल रहा है और लाशें कभी श्मशान में तो कभी गंगा में बहती हुई सच बोल रही हैं.
अमरीका की ब्राउन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डॉ आशीष झा का कहना है कि भारत में कोरोना से हर दिन 25 हज़ार मौतें तो हुई ही होंगी. जबकि बताया जा रहा है कि 4000 मौतें हुई हैं. डॉ आशीष झा को कई चैनलों पर बुलाया जाता है. उम्मीद है उनकी इस गणना को लेकर भी बुलाया जाएगा.
आपको याद होगा पिछले साल जब महामारी ने दस्तक दी थी तो दो बातें कही जाती थीं. टेस्टिंग, टेस्टिंग, टेस्टिंग. वेंटिलेटर वेंटिलेटर वेंटिलेटर. एक साल बाद भारत में टेस्टिंग का हाल यह है कि दिल्ली एनसीआर में अप्रैल के महीने में खुद मैंने टेस्ट के लिए बुक किया तो सैंपल लेने के लिए चार दिन बाद का समय मिला. एक दो तो पैसे लेकर आए ही नहीं. कई ऐसे मामले सामने आए कि कोविड का मरीज़ मर गया, उसके बाद रिपोर्ट आई है. बहुतों का तो टेस्ट ही नहीं हुआ. जब अप्रैल में ही टेस्टिंग नहीं हो रही थी तो मई की इस खबर का क्या किया जाए कि टेस्टिंग कम कर दी गई है. अब आते हैं वेंटिलेटर की बात पर. इस दौरान आक्सीज़न के बाद दूसरी अपील वेंटिलेटर की आई. वेंटिलेटर को लेकर जिस तरह पिछले साल दावे किए गए हैं वो बताने जा रहा हूं ताकि फ्लैश बैक में आपको पता चले कि आपको किस तरीके से बुद्धिमान बनाया जा रहा था. बुद्धू ठीक नहीं लगता है क्योंकि आज कल बुद्धिमान भी इसी ग्रेड के मिलते हैं. अब आपको पता चलेगा कि कैसे वेंटिलेटर के नाम पर इस देश में वेंटिलेटरी हो रही थी.
आप अमिताभ कांत हैं. आप नीति आयोग के चीफ हैं. आपने 25 जून 2020 को एक ट्वीट किया है. इसमें लिखा है कि भारत हर दिन 1000 वेंटिलेटर बना रहा है. जल्दी ही निर्यात करने लगेगा. फोकस निर्यात पर है ताकि प्रोपेगैंडा मास्टर इस ट्वीट को लेकर आपको बता सकें कि भारत इस स्थिति में आ गया कि वेंटिलेटर निर्यात करने लगा है. अगर आप सीरीयस हैं और हंसेंगे नहीं तो इन्हीं अमिताभ कांत का इसी साल के 8 मई का ट्वीट दिखाना चाहता है. निर्यात का गौरव गान करने वाले कांत अब आयात की तारीफ कर रहे हैं.
8 मई - भारतीय कस्टम ने ब्रिलिएंट जॉब कर दिया है, सभी वेंटिलेटर, आक्सीजन कंस्ट्रेटर, और दवाओं को मंज़ूरी दे दी है जो विदेशी मदद के रुप में भारत आए हैं. उन्होंने काफी तेजी से काम किया. सराहना करता हूं.
जो व्यक्ति पिछले साल जून में भारत में हर दिन 1000 वेंटिलेटर बनाने की बात कर रहे थे वो इस साल अप्रैल में विदेशी मदद के तौर पर आए वेंटिलेटर का स्वागत कर रहे हैं. कस्टम की मंज़ूरी मिलने की बधाई दे रहे हैं. अमिताभ कांत को बताना चाहिए कि हर दिन बनने वाला 1000 वेंटिलेटर कहां गया? उनके हिसाब तो अब तक भारत में ढाई लाख से अधिक वेंटिलेटर बन गए होंगे. सब निर्यात कर दिया?
हिन्दू बिज़नेस लाइन की 24 मार्च की रिपोर्ट है. इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ICMR का एक शोध पत्र है कि उस समय किए गए सबसे ख़राब अनुमान के अनुसार दिल्ली में 90 लाख लोगों को हल्के लक्षण वाला संक्रमण होगा और 4.5 लाख लोगों को वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ेगी.
सिर्फ दिल्ली के लिए यह अंदाज़ा था वो भी पिछले साल का. इस साल कितने लोगों को वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ी और कितनों को मिला और कितनों को नहीं मिला जिसके कारण वे मर गए, इसकी कोई गिनती नहीं है. do you get my point. हम फ्लैशबैक में आपको यही बताना चाहते हैं कि कैसे अलग अलग समय में आंकड़े जारी होते हैं और बाद में पता चलता है कि जितना दावा किया गया था उतना वेंटिलेटर आया ही नहीं. 22 मार्च को स्वास्थ्य सचिव लव अग्रवाल का बयान आता है कि 1200 वेंटिलेटर के ऑर्डर दिए गए हैं. पांच दिन बाद 27 मार्च को बयान आया है कि 40,000 वेंटिलेटर चाहिए.
लव अग्रवाल 27 मार्च - “हमारे एक PSU को हमने 10 हज़ार वेंटिलेटर की आपूर्ति करने के आदेश जारी किए हैं. इसके साथ ही भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड से भी एक से दो महीने के अंतर्गत 30 हज़ार एडिशनल वेंटिलेटर ख़रीदने का अनुरोध किया गया है. जैसा कि आपको मालूम होगा कि भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड रक्षा मंत्रालय का एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है. सरकार देश में वेंटिलेटर की उपलब्धता बढ़ाने के लिए सभी required कार्य कर रही है.”
स्वास्थ्य सचिव मार्च में 40,000 वेंटिलेटर लगाने की बात कर रहे थे तो अप्रैल में नीती आयोग के चीफ अमिताभ कांत 50,000 वेंटिलेटर के लिए उद्योग जगत से बात कर रहे थे. 6 अप्रैल 2020 को इंडियन एक्सप्रेस में अमिताभ कांत वाली खबर छपी है. 1 मई 2020 को एम्पावर्ड ग्रुप की प्रेस कांफ्रेंस होती है जिसमें कहा जाता है कि 60,884 वेंटिलेटर के लिए ऑर्डर दे दिया गया है. संसद को एक कानून बनाना चाहिए कि काम करना काम नहीं है बल्कि बात करना काम है. इससे देश की जो तरक्की होगी किसी और चीज़ से नहीं होगी. क्योंकि बात में कोई चालीस हज़ार वेंटिलेटर का डेटा दे रहा है तो कोई पचास हज़ार का.
4 अगस्त 2020 को लाइव मिंट की एक खबर दिखाना चाहता हूं जो दूसरी जगहों पर भी छपी है. एक प्रेस कांफ्रेस में स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण कहते हैं कि 60,000 वेंटिलेटर का आर्डर दिया गया था. 96 प्रतिशत मेक इन इंडिया का है. इसमें से 50,000 वेंटिलेटर पीएम केयर फंड से खरीदने का आर्डर हुआ है जिसके लिए 2000 करोड़ दिया गया है. राज्यों को 18,000 वेंटिलेटर की सप्लाई हो गई है.
14 अगस्त को बिज़नेस स्टैंडर्ड में खबर छपती है कि भारत इलेक्ट्रीकल लिमिटेड ने एलान किया है कि 30,000 वेंटिलेटर बनाकर दे दिए गया है.
अब 29 अप्रैल 2021 की बिज़नेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट देखिए. इसमें कहा जा रहा है कि 35,179 वेंटिलेटर ही खरीदा गया. लेकिन दिसंबर के अंत में पीटीआई के हवाले से खबर छपती है सरकारी अस्पतालों में 36,433 वेंटिलेटर लगाए गए हैं. 50 हज़ार के वादे के हिसाब से देखें तो कुल 13,567 वेंटिलेटर कम ही आए. 60,000 हज़ार के हिसाब से जितना आर्डर दिया गया था उससे काफ़ी कम सप्लाई है. कब नंबर गोल हो जाता है कब नंबर आधा हो जाता है पता नहीं चलता.
थोड़े आंकड़े ज़्यादा हैं लेकिन इसी से आपको समझना है तभी आप समझ पाएंगे कि आपके अपने वेंटिलेटर की कमी से मर गए या मार दिए गए. लेकिन 9 अगस्त 2020 को बीजेपी अध्यक्ष नड्डा कहते हैं कि 50,000 वेंटिलेटर उपलब्ध है और 20,000 वेंटिलेटर पीएम केयर के तहत पाइप लाइन में है.
9 अगस्त 2020 - “उस समय वेंटिलेटर की व्यवस्था नहीं थी. आज 50,000 से ज़्यादा हमारे पास उपलब्ध है. और PM CARES के माध्यम से लगभग 20,000 और pipeline में है. कोई भी ICU बेड की कमी नहीं है. कोई भी बेड की कमी नहीं है. ये व्यवस्था आपके नेतृत्व में हुआ है.”
फ्लैशबैक बेहद डरावना है. पिछले साल महामारी शुरू होते ही यह बात सामने आने लगी कि पहले से भारत में चालीस हज़ार वेंटिलेटर हैं. अब नड्डा जी के बयान की जांच का कोई तरीका हमारे पास नहीं है कि उनके हिसाब से पचास हज़ार नए वेंटिलेटर अगस्त तक हो गए थे या पहले से जो चालीस हज़ार थे उसमें दस हज़ार जोड़े गए थे. भारत में आकंड़े श्मशान में मिलते हैं. फिर दिसबंर की ख़बर क्या झूठी थी कि सरकार ने पचास हज़ार वेंटिलेटर के आर्डर दिए थे और मिला 36,433 वेंटिलेटर.
24 सितंबर 2020 के इंडिया टुडे की रिपोर्ट कहती है कि सरकार ने जो डेटा जारी किया है उससे पता चलता है कि 60,948 वेंटिलेटर के आर्डर दिए गए थे. इसमें से अभी तक अलग अलग राज्यों के सरकारी अस्पतालों में 23,699 वेंटिलेटर ही लगा है. इस रिपोर्ट में गर्वनमेंट डेटा लिखा है, गर्वनमेंट के किस डिपार्टमेंट का डेटा है यह नहीं लिखा है.
जब कि 31 अक्तूबर को प्रधानमंत्री इकोनमिक टाइम्स को इंटरव्यू देते है और कहते हैं कि पहले की सरकारो में 15-16 हज़ार वेंटिलेटर काम करने की हालत में थे. हम हम तेजी से इसमें 50,000 वेंटिलेटर और जोड़ने जा रहे हैं. क्या प्रधानमंत्री सिर्फ पीएम केयर फंड के प्रधानमंत्री हैं? ऐसा तो हो नहीं सकता, लिहाज़ा वे भारत सरकार के आर्डर की ही बात कर रहे होंगे.
PM CARES की वेबसाइट पर लिखा है कि 2000 करोड़ रुपये 50,000 ‘Made-in India' वेंटिलेटर की सप्लाई के लिए हैं जिनको केंद्र/राज्य/UT के सरकारी अस्पतालों को दिया जाएगा. पीएम केयर फंड इतना पारदर्शी फंड है कि आप सूचना के अधिकार से भी कोई सवाल नहीं कर सकते और प्रधानमंत्री प्रेस कांफ्रेंस तो करते नहीं तो सवाल नहीं कर सकते. सात साल में एक भी प्रेस कांफ्रेंस प्रधानमंत्री ने नहीं की है. लेकिन ये पचास हज़ार आज किस हाल में हैं इसकी कोई अधिकृत जानकारी नहीं है.
अब यहां पर रुकते हैं और देखते हैं कि पिछले साल स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन वेंटिलेटर को लेकर क्या क्या बयान दे रहे हैं. वैसे इस डार्क टाइम में उनका यह सुझाव कहीं ज़्यादा सालिड है कि कोविड के तनाव से बचने के लिए थोड़ी मात्रा में डार्क चाकलेट लें. काश मंत्री जी यह भी बता पाते कि वेंटिलेटर न मिलने से अपनों के मरने के वक्त जो तनाव होता है उस समय कौन सा चाकलेट खाना चाहिए. अगर ये इतना काम का आइडिया है तो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गेंहूं चावल के साथ साथ डार्क चाकलेट भी दिया जाए.
फ्रांस की महारानी ने केक खाने की बात कही थी, गरीब मुल्क बट विश्व गुरु भारत के स्वास्थ्य मंत्री डार्क चाकलेट खाने की बात कर रहे हैं. इससे डार्क क्या हो सकता है. मेरा सुझाव है कि अगर डार्क चाकलेट न मिले तो आप कोई भी चॉकलेट खरीद लें और बत्ती बुझाकर कमरे में डार्क कर लें फिर उस चाकलेट को खा लें कोविड का तनाव दूर हो जाएगा. और डॉ हर्षवर्धन के ट्विटर अकाउंट पर एक फोटो टैग कर दें जैसे गजेंद्रा विद डार्क चाकलेट. खैर हम आते हैं कि पिछले साल स्वास्थ्य मंत्री वेंटिलेटर को लेकर क्या बात कर रहे थे?
29 अप्रैल 2020 का बयान है कि कोविड के मरीज़ों का मात्र 0.33 प्रतिशत ही वेंटिलेटर पर हैं जो बताता है कि कोविड के रोकथाम और देखभाल की क्वालिटी कितनी अच्छी है.
तो क्या इस साल कोविड केयर की क्वालिटी अच्छी नहीं थी जिसके कारण लोगों को वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ गई और उसकी तलाश में उनके अपने मर गए. डॉ हर्षवर्धन से पूछिए but guys, please have some dark chocolate first. पिछले साल भारत में वेंटिलेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी लेकिन ऐसा नहीं था कि भारत में कहीं भी वेंटिलेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी थी. दुनिया के स्तर पर सबने देखा था कि इटली और न्यूयार्क में वेंटिलेटर की कमी के कारण कितने लोग मर गए थे. 0.33 प्रतिशत का आंकड़ा सुनकर लगेगा कि चिन्ता की बात नहीं लेकिन उसी समय मुंबई में सारे आईसीयू और वेंटिलेटर बेड भर गए थे.
मुंबई से हमारी सहयोगी पूर्वा चिटनिस रिपोर्ट कर रही थीं कि आईसीयू के 99 प्रतिशत बेड भरे हुए थे और वेंटिलेटर के 94 प्रतिशत बेड भरे हुए थे. 13 जून 2020 की यह रिपोर्ट है. अगर हम मुंबई में वेंटिलेटर औऱ आईसीयू की तंगी से सतर्क हुए होते तो शायद आज कई लोगों की जान बच जाती. यही नहीं लाइव मिंट की रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 तक आते आते वेंटिलेटर पर जाने वाले मरीज़ों की संख्या 0.33 से बढ़ कर 4.16 प्रतिशत हो चुकी थी. लिहाज़ा कोई बहाना चल ही नहीं सकता कि वेंटिलेटर की तैयारी इसलिए पर्याप्त नहीं हुई कि ज़रूरत नहीं थी. अगर भारत सरकार ने वेंटिलेटर की तैयारी ठीक से की होती तो 29 अप्रैल को केंद्र सरकार के तहत आने वाले दिल्ली के लेडी हार्डिंग अस्पताल का दौरा करने के बाद हर्षवर्धन को यह नहीं कहना पड़ता कि कुछ ही दिनों में 400 से अधिक आक्सीजन बेड की सुविधा होगी और अधिकांश पर वेंटिलेटर की सुविधा होगी. वेंटिलेटर की सही संख्या उन्होंने नहीं बताई. अधिकांश कहा.
हम जानते हैं और समझते हैं कि आप बहुत ज़्यादा वेंटिलेटर नहीं लगा सकते लेकिन दक्षिण कोरिया जिसकी आबादी भारत से काफी कम है उसके पास भारत से ज्यादा वेंटिलेटर हैं. सोचिए हमारे यहां वेंटिलेटर की कितनी कमी है. पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने पिछले साल ही यह बात अपने लेख में लिखा था. वेंटिलेटर कितना हो इस पर बहस हो सकती है लेकिन एक दम से न हो, इतना कम हो कि लोग दम तोड़ दें क्या इस पर बहस होनी चाहिए? एक वेंटिलेटर कई स्टाफ की ज़रूरत होती है. इसकी जानकारी कोई नहीं देगा कि 36000 वेंटिलेटर लगाए गए तो इसे चलाने के लिए कितने स्टाफ और डाक्टर की नियुक्ति की गई?
स्क्रोल ने इसी एक मई को बिहार के अररिया ज़िले से एक रिपार्ट की है. इस ज़िले में केवल छह वेंटिलेटर हैं लेकिन उन्हें चलाने वाला कोई स्टाफ नहीं है. डिलिट, अब तो आपके अपने मर गए क्या अब भी आप मेरी बात हिन्दी में नहीं समझेंगे? आपके अपने को मारा गया है. नरसंहार हुआ है. कई ज़िलों में वेंटिलेटर नहीं है, है तो चलाने वाला नहीं है. चलता है तो एक दो चलता है.
फ्लैशबैक में देखने से पता चलता है कि काम के नाम पर कितनी बातें हुई हैं. झूठ का कोर्स रिवाइज़ करा रहा हूं. आंकड़े श्मशान में मिलते हैं. सरकार नहीं देती. अब आपको ले चलते हैं निर्यात के गेम की तरफ. शुरूआत में हमने बताया कि 25 जून 2020 को नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत ट्विट करते हैं कि भारत में हर दिन एक हज़ार वेंटिलेटर बनता है और जल्दी ही निर्यात करने लग जाएगा. जुलाई 2020 के महीने में उनकी यह इच्छा वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल पूरी कर देते हैं.
30 जुलाई 2020 की खबर है हिन्दू बिज़नेस लाइन की. पीयूष गोयल कहते हैं कि वेंटिलेटर के निर्यात से रोक हटाई जाने वाली है. मार्च 2020 में वेंटिलेटर के निर्यात पर रोक लगा दी गई थी. अगस्त 2020 के पहले हफ्ते में वेंटिलेटर के निर्यात से रोक हटाने की घोषणा होती है.
निर्यात वाली खबर से गोदी मीडिया में जोश आ जाता है, आपको बताने लगता कि भारत निर्यात करने लगा है. लेकिन गोदी मीडिया आपको बताना भूल गया कि भारत अपनी ज़रूरत के मुताबिक वेंटिलेटर लगा लिया है या नहीं. ज़ाहिर है पिछले साल मार्च से जुलाई के बीच हमारी हालत अच्छी नहीं थी फिर भी निर्यात पर रोक हटाने का एलान हो गया. अब यह कौन बताए और कैसे माने कि सही है कि कितना वेंटिलेटर एक साल में बना, कितना भारत में खरीदा गया और कितना निर्यात हुआ.
26 अक्तूबर 2020 को फाइनेंशियल एक्सप्रेस में खबर छपती है कि कोई National Supermodel of Covid-19 हुआ है जिसके मुताबिक 26 लाख एक्टिव केस होंगे तो भारत को 78,000 वेंटिलेटर की ज़रूरत होगी. 30 अप्रैल को 31 लाख एक्टिव केस थे. आपके पास जानने का कोई ज़रिया नहीं कि 30 अप्रैल को कितने वेंटिलेटर देश भर के अस्पतालों में थे और कितने काम कर रहे थे.
इस बीच इस साल फरवरी और मार्च की खबर छपने लगती हैं कि वेंटिलेटर बनाने वाली कंपनियों का माल बिक नहीं रहा है. कोई खरीदार नहीं है. इस उद्योग से जुड़ी कंपनियां घाटे में जा रही हैं.
ऐसी रिपोर्ट राजस्थान, मुंबई बंगलुरू न जाने कहां कहां से पिछले आठ दस महीने से छप रही हैं. अभी एग्वा कंपनी का एक्सप्रेस में बयान छपा है कि मारुति के साथ मिलकर दस हज़ार वेंटिलेटर बनाए थे. मगर सरकार ने 5000 वेंटिलेटर ही लिए. इस वेंटिलेटर को लेकर मुंबई और एलएनजेपी ने शिकायत की थी. छपी हुई खबर है. भारत की तीन कंपनियों के वेंटिलेटर को लेकर शिकायतें आई हैं जिन्हें पीएम केयर से फंड मिला है.
जून 2020 की मुंबई मिरर की ख़बर है. मुंबई के दो बड़े अस्पताल, जेजे अस्पताल और सेंट जॉर्ज अस्पताल ने पीएम केयर्स के तहत डोनेट किए गए 81 वेंटिलेटर वापिस कर दिए थे. सेंट जॉर्ज को 39 और जेजे को 42 वेंटिलेटर मिले थे. अस्पतालों का आरोप था कि पीएम केयर के एगवा वेंटिलेटर कोविड के मरीज़ों को दिए जाने वाले इलाज में कारगर नहीं थे. ये मरीज़ को 100% ऑक्सिजन नहीं दे रहे थे और वेंटिलेटर के बाद भी मरीज़ का ऑक्सिजन सैचुरेशन नहीं बढ़ पा रहा था.
जून 2020 में ही समर्थ बंसल और अमन सेठी ने हफ़पोस्ट के लिए रिपोर्ट किया था कि दो सरकारी कमिटियों ने एगवा हेल्थकेयर के वेंटिलेटर की विश्वसनीयता और क्षमता पर सवाल उठाते हुए लिखा था कि एगवा के वेंटिलेटर को tertiary-care ICU के High-end वेंटिलेटर का विकल्प ना समझा जाए. जुलाई 2020 की एक्सप्रेस की ख़बर है. 175 वेंटिलेटर मिले PM cares के तहत. 155 Mysore-based Skanray Technologies के और 20 AgVa Healthcare के थे. अस्पताल ने कहा इनमें bipap mode नहीं है. 250 और वेंटिलेटर दिए जाएं. दिवाकर वेश ने यही कहा था कि हमारे वेंटिलेटर सरकार के नियमानुसार हैं. bipap भी है. कहा था कि अस्पताल ने ठीक से इंस्टॉल नहीं किया होगा.
सरकार को एक सूची देनी चाहिए। कितने वेंटिलेटर पिछले एक साल में खरीदे गए. किस किस ज़िले में और कहां कहां भेजे गए. इन वेंटिलेटर को चलाने के लिए कितने लोगों को नियुक्त किया गया. इतना ही पूछ दीजिए जो व्हाट्स ग्रुप के रिश्तेदार आपको ब्लाक कर देंगे. आप मोदी जी को लेकर सवाल कैसे कर सकते हैं.