Owner/Director : Anita Khare
Contact No. : 9009991052
Sampadak : Shashank Khare
Contact No. : 7987354738
Raipur C.G. 492007
City Office : In Front of Raj Talkies, Block B1, 2nd Floor, Bombey Market GE Road, Raipur C.G. 492001
दिवाली की पूर्व संध्या पर केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज़ कम करके लोगों को दिवाली की सौगात दे डाली. पेट्रोल पांच रुपये और डीज़ल दस रुपये सस्ता कर दिया. उसकी देखादेखी कुछ राज्यों ने भी वैट घटाया. लेकिन इस सौगात के बावजूद ज़्यादातर शहरों में पेट्रोल 100 रुपये के पार बिक रहा है. जिस शाम पेट्रोल-डीज़ल सस्ते होने की ख़बर आई, उस शाम एनडीटीवी इंडिया के हमारे सहयोगी सुनील सिंह एक पेट्रोल पंप पर जा पहुंचे. उन्होंने वहां पेट्रोल भरा रहे लोगों से पूछा कि उन्हें इस कटौती से कितनी राहत मिली है? लगभग सबने बताया कि पेट्रोल 115 रुपये लीटर है, अब 110 रुपये का हो जाएगा, लेकिन यह 100 रुपये लीटर हो जाता तो सचमुच राहत होती.
तो यह हिंदुस्तान में महंगाई का 'न्यू नॉर्मल' है. लोग अब सौ रुपये लीटर तक पेट्रोल के दाम पर संतोष करने को तैयार हो गए हैं. यह ‘न्यू नॉर्मल' उन लोगों ने बनाया है जो कल तक 35 रुपये लीटर पेट्रोल-डीज़ल बेचने का दावा करके सत्ता में आए थे. ये वही लोग हैं जो पहले पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दामों पर चुटकुले बनाया करते थे, इसे प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की उम्र से जोड़ने का लगभग अभद्र मज़ाक करते थे. लेकिन वही लोग अब महंगाई की शिकायत करने वालों पर चुटकुले बना रहे हैं. वे बता रहे हैं कि देश बुलेट ट्रेन के लिए पैसे जुटा रहा है और ये आलू-गोभी के दाम पूछ रहे हैं. बीजेपी अब अपने लोगों को यह समझा रही है कि पेट्रोल के दाम बढ़ाना विकास के लिए ज़रूरी है. सीधा और मोटा तर्क है- ज़्यादा टैक्स आएगा तो सरकार के पास ज़्यादा पैसा आएगा. ज़्यादा पैसा आएगा तो सरकार विकास के लिए ज़्यादा पैसे ख़र्च कर सकेगी.
सरकार के पास कितना पैसा आ रहा है, यह पता नहीं. लेकिन लोगों की जेब कटने की हालत है. और गरीबों को तो पेट काट कर रहना पड़ रहा है. पिछले दिनों गोभी 120 रुपये किलो तक बिकी है. टमाटर-प्याज़ का न्यू नॉर्मल साठ रुपये किलो के आसपास का है. जिनका काम नून-तेल से चल जाता था, वे अब पा रहे हैं कि सरसों तेल ढाई सौ रुपये लीटर तक पहुंच गया है.
संकट यह है कि आप यह सब लिखें तो मोदी विरोधी मान लिए जाएंगे. यह आरोप लगेगा कि आपको ग़रीबों की फ़िक्र नहीं है, आप बस मोदी जी के विरोध के लिए ग़रीबों को याद कर रहे हैं.
चलिए मान लिया. हम पाखंडी लोग हैं. आपके मुताबिक लुटियन्स गैंग या खान मार्केट गैंग के समर्थक हैं. लेकिन आप तो ग़रीबों की फ़िक्र कीजिए. किसी को तो उनकी फ़िक्र करनी होगी? यह देखना होगा कि उनकी थाली में कम से कम रोटी-दाल, सब्ज़ी पहुंचती रहे. उनके घर का चूल्हा जलता रहे. कोई तो इस बात की सुध लेगा कि लॉकडाउन के बाद दर-बदर भटकने वाले मज़दूरों के परिवारों के बच्चे अब स्कूल छोड़ कर सड़कों पर भटक रहे हैं और भीख मांगने की कला सीख रहे हैं.
लेकिन सरकार के समर्थन में और महंगाई के पक्ष में बेशर्मी से चुटकुले गढ़ रहा भारत का उच्च मध्य वर्ग जैसे ख़ुद एक चुटकुला हो गया है. उसने एक विचारधारा के समर्थन से ख़ुद को इस तरह जोड़ लिया है कि उसे वास्तविक संकट भी नहीं चुभ रहे. उसे न बेरोज़गारी डरा रही है, न महंगाई सता रही है, न शिक्षा और स्वास्थ्य के बिल्कुल लचर हो चुके बुनियादी ढांचे की सच्चाई हिला रही है. सच तो यह है कि इन वर्षों में उसने पैसा भी मोटा कमा लिया है और खाल भी मोटी कर ली है. अब बहुत सारी चिंताएं करने की ज़रूरत उसे नहीं है. लेकिन यह बहुत छोटा सा भारत है. जो बड़ा भारत है, वह इसी अव्यवस्था और असुरक्षा में जीता है जिसे वह देखने को तैयार नहीं है. जब कोरोना की दूसरी लहर जैसी कोई मारक घड़ी आती है तो रोज़ ईमानदारी का जाप करने वाला यही छोटा सा तबका लाख रुपये ब्लैक में ऑक्सीजन सिलिंडर और रेमडिसिविर जुटाता है और बाक़ी को सड़क पर मरने के लिए छोड़ जाता है. इसी कोरोना काल में हमने ऐसी रेजिडेंट्स वेलफेयर सोसाइटी देखीं जो अपने लोगों के लिए बेड और ऑक्सीजन जुटा कर रख रही थीं और ऐसे अमीरों के बारे में भी सुना जो कोरोना के अंदेशे में पहले से अस्पतालों में बिस्तर बुक करा कर बैठे हुए थे. उस दूसरी लहर ने बताया कि हमारी सेहत का बुनियादी ढांचा कितना लचर है. लेकिन उसके बीतने के बाद सरकार स्वास्थ्य पर नहीं, दीए जलाने पर पैसे खर्च कर रही है. इस दौरान उसने सांप्रदायिकता की जो नई हवा बनाई है, उसने बहुत बड़ी आबादी को अपने नशे में ले लिया है और यह मार्क्स द्वारा बताई गई धर्म वाली अफीम से भी ज़्यादा ख़तरनाक है. इस सांप्रदायिकता को धार्मिकता से कोई मतलब नहीं है. उसके लिए धार्मिक पहचान का मतलब अपने लिए एक अवैध सत्ता और बल का निर्माण भर है जो तरह-तरह के संगठनों और कृत्यों में नज़र आ रहा है.
बहरहाल, बीजेपी की इस मूल स्थापना पर लौटें कि सरकार ज्यादा टैक्स लेगी तो उसके पास विकास के लिए ज़्यादा पैसे आएंगे. यह विकास कहां हो रहा है? दिलचस्प यही है कि विकास के नाम पर ही पैसे जुटाने के लिए सरकारी संसाधन औने-पौने दामों पर बेचे जा रहे हैं. विकास अब बड़ी पूंजी की जेब में है. कोई हवाई अड्डे संवार रहा है, कोई रेलवे स्टेशन, कोई प्लैटफॉर्म देख रहा है, कोई रेलें चला रहा है, कोई सड़कों पर पुल बनवा रहा है और कोई बिजली बना-बांट रहा है. शिक्षा और स्वास्थ्य पहले ही इस बड़ी पूंजी के हवाले कर दिए गए हैं.
डीज़ल-पेट्रोल के बढ़ते दामों और विकास के बीच कोई संबंध होता तो यूपीए के समय देश को बहुत पीछे चले जाना चाहिए था. क्योंकि जब कच्चा तेल 112 डॉलर बैरक तक चला गया था तब भी भारत में डीज़ल-पेट्रोल अस्सी पार नहीं हुए थे. लेकिन हम पा रहे हैं कि विकास के लगभग सभी पैमानों पर यूपीए के दौर में जो रफ़्तार रही, एनडीए उसे हासिल करने में विफल रहा है. इसमें कोरोना काल को छोड़ दें तब भी विकास की रफ़्तार यही निकलती है. उल्टे हम पाते हैं कि सामाजिक-शासकीय मोर्चे पर मनमोहन सिंह के दस सालों में जैसे नीतिगत फ़ैसले हुए, उनकी अब आठ साल को छूने जा रहे इस दौर में बराबरी नहीं दिखती. मनरेगा- यानी रोज़गार गारंटी, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भूमि अधिग्रहण क़ानून दरअसल वे बड़े बदलाव थे जिन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए काफ़ी कुछ बदल दिया. मोदी सरकार की आयुष्मान योजना को इस कड़ी में बेशक एक माना जा सकता है, लेकिन इसके अलावा उसकी कोई ऐसी बड़ी पहल नहीं दिखती जिसे देर तक याद रखा जा सके. उल्टे उसने पांच साल जिस जीएसटी का विरोध किया, उसको रातों-रात लागू करने की हड़बडी ने एक ज़रूरी योजना को अरसे तक कारोबारियों का दु:स्वप्न बना डाला. इसी तरह नोटबंदी वह फैसला है जिसे बीजेपी खुद भूल जाना चाहती है.
महंगाई बढ़ने का विकास के बुनियादी ढांचे के विकास से कोई संबंध नहीं है. जो अर्थशास्त्री यह पाठ पढ़ा रहे हैं, उनसे पूछना चाहिए कि फिर वे अरसे तक महंगाई को समस्या क्यों मानते रहे. बीजेपी से भी पूछना चाहिए कि महंगाई को लेकर उसका नज़रिया अचानक क्यों बदल गया है. क्या पहले उसको विकास की समझ नहीं थी या अब राजनीति की ज़्यादा समझ आ गई है?
लेकिन यह सवाल पूछे कौन. सब यह समझाने में लगे हैं कि महंगाई अच्छी चीज़ है, सौ के ऊपर बिकता पेट्रोल आम लोगों का सौभाग्य है. बहरहाल, एक ज़रूरी मुद्दे का यह बदनीयत भाष्य देश को बहुत महंगा न पड़े.
नई दिल्ली: हममें से कई लोग गोल्ड की खरीदारी या तो गहने-आभूषणों के रूप में या फिर निवेश के उद्देश्य से कर चुके हैं. अगर आप भी गोल्ड खरीदने की प्लानिंग कर रहे हैं तो आपको कुछ बातों का पता होना बहुत जरूरी है. आपको ये पता होना चाहिए कि गोल्ड कैरेट क्या होते हैं और कितने तरह के गोल्ड कैरेट होते हैं. सोने की खरीदारी करते वक्त हमें ये तो पता होता है कि हमारा लिया हुआ गोल्ड 22 कैरेट का है या फिर 24 कैरेट का लेकिन हम से ये चंद लोगों को ही पता होगा कि 22 कैरेट, 23 कैरेट या 24 कैरेट के बीच महत्वपूर्ण अंतर क्या है. इन्वेस्टमेंट के लिए अगर गोल्ड खरीदना है तो कौन से कैरेट का गोल्ड खरीदना चाहिए. अगर आप भी इन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं तो यहां आपके सभी सवालों का जवाब है.
सोना खरीदते वक्त सबसे पहले आपको 22 और 24 कैरेट सोने के बीच का फर्क मालूम होना चाहिए. असल में कैरेट से ही गोल्ड की प्योरिटी की पहचान होती है. जितना अधिक कैरेट का गोल्ड होगा उतना ही प्योर होगा. गोल्ड को 0 से 24 के पैमाने पर मापा जाता है. इसमें 24 कैरेट का गोल्ड सबसे ज्यादा शुद्ध माना जाता है.
अगर 23 कैरेट गोल्ड की बात करें तो यह भी उच्च शुद्धता वाला असली सोना होता है 23 कैरेट गोल्ड शुद्ध सोना है जिसमें 95.8 परसेंट सोना और 4.2 परसेंट बाकी के धातु मिले हुए होते हैं. 23 कैरेट गोल्ड 958 गोल्ड के नाम से जाना जाता है. 23 कैरेट गोल्ड थाईलैंड में काफी ज्यादा पॉपुलर है लेकिन ज्यादातर देशों में अभी भी 22 या 24 कैरेट गोल्ड ही लिया जाता है. 23 कैरेट गोल्ड उन लोगों के लिए एक अच्छा ऑप्शन है जिन्हें हाई क्वालिटी गोल्ड चाहिए. इसके भी आभूषण बनते हैं और प्रचलित होते हैं. हालांकि निवेश के उद्देश्य से ज्यादातर लोग 24 कैरेट और आभूषण बनवाने के लिए 22 कैरेट गोल्ड ही खरीदते हैं.
जमा हुआ पानी सबसे आम जगहों में से एक है जहां आप मच्छरों के लार्वा को छिपाते हुए पाएंगे क्योंकि पानी वह जगह है जहां मादा मच्छर अंडे देती हैं। प्रत्येक मादा मच्छर में अंडे देने की क्षमता होती है जो संभावित रूप से 1,000 से अधिक मच्छरों में बदल सकती है।
ऑलिव ऑयल
मच्छर के लार्वा को नेचुरल तरह से मारने का सबसे अच्छा तरीका एक्स्ट्रा वर्जिन ऑलिव ऑयल और पानी का कॉम्बिनेशन है। इसके लिए एक गैलन पानी में एक चम्मच एक्स्ट्रा वर्जिन ऑलिव ऑयल मिलाएं और इसे लार्वा वाली जगह पर छिड़क दें।
दालचीनी की खुशबू
अगर आपको अपनी पानी की टंकी में लार्वा दिख रहे हैं तो टंकी को पहले खाली कर दें इसके बाद इसे एक साफ कपड़ से अच्छी तरह से साफ करें। इसके बाद टंकी के अंदर दालचीनी का तेल डालकर सतह पर अच्छी तरह से लगा दें। दालचीनी की खुशबू में लार्वा नहीं टिकते हैं। इसके बाद पानी की टंकी भरी जा सकती है।
कुछ ऐसी मछलियां होती हैं जो मच्छरों का लार्वा खाती हैं। ऐसी 1-2 मछलियों को आप अपनी टंकी में रख सकते हैं। कई ऐसे पेस्टिसाइड्स होते हैं जो मच्छरों के लार्वा को 1 दिन में ही खत्म कर सकते हैं। आप किसी एक्सपर्ट की मदद से ऐसे पेस्टिसाइड्स लाकर अपनी टंकी में डाल सकते हैं।
जमें पानी में एप्पल साइडर विनेगर मिलाएं
साबुन से मच्छरों के लार्वा को मारना वास्तव में सरल है क्योंकि प्रत्येक गैलन पानी के लिए केवल एक मिलीलीटर साबुन की आवश्यकता होती है। साबुन का एक मिलीलीटर जोड़ें और मच्छर के लार्वा को एक दिन में कम से कम मार दिया जा सकता है।
यदि आप सभी मच्छरों के लार्वा को मारने का एक त्वरित तरीका ढूंढ रहे हैं, तो आप पानी में डिश सोप या तेल की एक बूंद मिला सकते हैं। पानी की एक बड़ी कटोरी में डिश सोप या तेल की एक बूंद मच्छरों को घंटों के भीतर मार देगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि मच्छर पानी पर तैरने के बजाय साबुन या तेल के साथ पानी में डूब जाएंगे।
ऐसे पहचानें
मच्छर का लार्वा छोटे बालों वाले कीड़े की तरह दिखते हैं और इनका साइज लगभग 1/4 इंच होता है। लार्वा को पहचानने का सबसे आसान तरीका ये है कि जब आप पानी की टंकी या पानी से भरे गमलों को गौर से देखेंगे तो लार्वा आपको पानी की सतह के पास उल्टे लटकते हुए एक घुमावदार पोजिशन में दिखेंगे। लार्वा का ऊपरी हिस्सा नीचे की तुलना में डार्क होता है और पीछे का हिस्सा पूंछ की तरह दिखता है। अगर किसी दिन आपकी पानी की टंकी या गमलों के आसपास डेंगू मच्छर मिला है तो आपको उसके 7 से 8 दिन बाद लार्वा को जरूर चेक करना चाहिए। क्योंकि मच्छर केअंडा को फूटने में करीब 1 हफ्ते का वक्त लगता है और उसके बाद उसमें से लार्वा निकलता है। लार्वा पानी में कितने दिन रहेगा यह पानी के तापमान पर निर्भर करता है। वैसे लार्वा 4 से 14 दिन तक रह सकता है।