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अगर आप सरकार से सवाल करना चाहते हैं, आलोचना करना चाहते हैं तो पहले एक काम कीजिए. आयकर विभाग और प्रत्यर्पण निदेशालय जिसे ED कहते हैं उनके अधिकारियों से पूछ लीजिए कि कितना तक लिखें तो छापा पड़ेगा और कितना तक न लिखें तो छापा नहीं पड़ेगा. अभी तक चुनावों के समय विपक्षी दलों के नेताओं और उनसे जुड़े लोगों के यहां छापेमारी होने लग जाती थी लेकिन अब ख़बर छापने और दिखाने के कारण भी छापेमारी होने लगी है. आपातकाल शब्द इतना घिस चुका है कि आप इसके इस्तमाल से कुछ भी नहीं कह पाते हैं. काल के नए नए रूप आ गए हैं. दूसरी लहर के दौरान हिन्दी ही नहीं अंग्रेज़ी अखबारों में भास्कर अकेला ऐसा अख़बार है जिसने नरसंहार को लेकर सरकार से असहज सवाल पूछे. उन बातों से पर्दा हटा दिया जिन्हें ढंकने की कोशिश हो रही थी. इस दौरान भास्कर के पत्रकारों ने केवल अच्छी रिपोर्टिंग नहीं की बल्कि महामारी की रिपोर्टिंग में नए-नए पहलू भी जोड़े. भास्कर समूह के गुजराती अख़बार दिव्य भास्कर ने जब कोरोना की दूसरी लहर में मरने वालों की सरकारी संख्या के सामने नए नए दस्तावेज़ पेश किए तो न्यूयार्क टाइम्स से लेकर कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने भास्कर की तरफ देखा. रिसर्चरों ने भास्कर के इस्तमाल किए गए डेटा के आधार पर भारत में मरने वालों की संख्या का आंकलन किया. बताया कि जो संख्या बताई जा रही है उससे कई गुना लोगों की मौत हुई है. क्या ऐसा करने की कीमत यह होगी कि आयकर और प्रत्यर्पण विभाग का छापा पड़ेगा?
गोदी मीडिया के दौर में पाठक और पत्रकारिता पर नज़र रखने वाले भी हैरान थे कि दूसरी लहर के समय भास्कर को क्या हुआ है, इतना कैसे लिख रहा है. यहां ज़िक्र करना ज़रूरी होगा कि भास्कर के साथ गुजरात के अख़बार गुजरात समाचार, संदेश, सौराष्ट्र समाचार, कच्छ समाचार जैसे अख़बार भी खुल कर रिपोर्टिंग कर रहे थे. पेगसस जासूसी कांड की खबर पहले दिन कई हिन्दी अख़बारों से नदारद थी लेकिन भास्कर के पहले पन्ने पर पूरे विस्तार से मौजूद थी. उसके बाद भी भास्कर ने इस खबर को पहले पन्ने से नहीं हटाया. दूसरी लहर में भास्कर की आक्रामक हेडलाइन को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. सूरत के सांसद सी आर पाटिल ने कहा कि उनके पास रेमडिसिवर हैं और जनता इस दवा के लिए त्राही त्राही कर रही थी तब भास्कर ने सांसद का नंबर ही प्रकाशित कर दिया कि उन्हें फोन कर लें. इस तरह के साहसिक प्रयोग भास्कर ने खूब किए. जो कि उस दौरान या कभी भी किसी मीडिया संस्थान को करना ही चाहिए था. भास्कर का गुजराती संस्करण दिव्य भास्कर का पहला पन्ना ग़ैर गुजराती पाठकों के बीच साझा होने लगा लेकिन भास्कर की रिपोर्टिंग किसी एक सरकार तक सीमित नहीं रही. सूरत से लेकर जयपुर, भोपाल से लेकर प्रयागराज और लखनऊ से लेकर पटना तक में फैले उसके संवाददाताओं ने श्मशान, मुर्दाघरों और मृत्युपंजीकरण की व्यवस्था को खंगाल दिया. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है लेकिन वहां भी भास्कर ने सरकार के खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा. पटना में भास्कर के संवाददाताओं ने कई श्मशान घाटों और गांवों का दौरा कर बताया कि मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़े से कई गुना ज्यादा है. माना जा सकता है कि इस रिपोर्टिंग का भी दबाव रहा होगा कि राज्य सरकार को मरने वालों की संख्या में बदलाव करना पड़ा. उस दौर में नए नए तथ्यों को सामने लाना किसी की भी ज़िम्मेदारी थी ताकि लोग देख सकें कि उनके जीवन के साथ किस तरह का खिलवाड़ हुआ है. भास्कर की इस साहसिक रिपोर्टिंग के सामने हिन्दी के कई अखबार पिछड़ने लगे. पाठकों के संसार में एक अंतर प्रमुखता से दिखने लगा कि कोरोना को लेकर क्या हुआ है. कुछ और हिन्दी अखबारों ने भी रिपोर्टिंग की लेकिन डर कर और बच-बचा कर. शायद इसी वजह से भास्कर के संस्थानों पर छापे पड़े हैं. सरकार बेशक छापों को सही ठहराने के लिए सौ तर्क बता देगी लेकिन यह केवल संयोग नहीं है. आज भी भोपाल भास्कर की यह खबर देख सकते हैं जिसमें बताया गया है कि सरकार कहती है आक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा लेकिन लेकिन मध्य प्रदेश में ही 15 हादसों में साठ लोगों की मौत आक्सीजन की कमी से हुई है.
इस तरह की रिपोर्टिंग से लोग यह भी चर्चा कर रहे थे कि जल्दी ही भास्कर के संस्थानों में छापे पड़ेंगे और छापे पड़ भी गए. एक दलील दी जाती है कि काले कारनामे होंगे तो छापे पड़ेंगे तो यह छापे तभी क्यों पड़ते हैं जब कोई मीडिया हाउस सवाल करने लगता है. सरकार के झूठ को चुनौती देने लगता है. क्या इसी तर्क से यह भी माना जाए कि गोदी मीडिया इसलिए बना क्योंकि उसके अपने काले कारनामे हैं और छापे पड़ सकते हैं. जब रफाल विमान सौदे में भ्रष्टाचार की खबर छपती है तब तो सरकार जांच नहीं करती, जब पीएम केयर्स के वेंटिलेटर के खराब होने को लेकर डॉक्टर सवाल उठाते हैं तब तो पत्रकार जांच नहीं करती और न कोई एजेंसी अपना काम करती है. जब पत्रकारों की जासूसी होती है तब तो सरकार जांच नहीं करती. जब सरकार खुद भ्रष्टाचार के मामलों का अपना राजनीतिक इस्तमाल करती है तब तो जांच एजेंसियां अपना काम नहीं करती हैं. ये जांच एजेंसियां तभी क्यों काम करती हैं जब कोई अखबार या चैनल थोड़ा सा काम करने लगता है.
21 जुलाई को न्यूज़लौंड्री वेबसाइट पर आयुष तिवारी और बसंत कुमार की एक रिपोर्ट छपी है. यह रिपोर्ट एक RTI के आधार पर है जो DD News के पत्रकार उमाशंकर दूबे ने लगाई थी. न्यूज़लौंड्री की इस रिपोर्ट में लिखा है कि यूपी सरकार ने अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच न्यूज़ चैनलों को 160 करोड़ से अधिक का विज्ञापन दिया. इस सूची में वही चैनल हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि सरकार से सवाल नहीं करते हैं. अगर सरकार पत्रकारिता का समर्थन कर रही होती तो उसे भी विज्ञापन देती जो उससे सवाल करते हैं. साफ है सरकार की प्राथमिकता पत्रकारिता को प्रोत्साहित करने की नहीं बल्कि विज्ञापन के डंडे से चुप कराने की है.
क्या यह सही नहीं है कि विपक्ष के विधायकों को तोड़ने के लिए एजेंसियों का इस्तमाल हुआ है. मुकुल राय का उदाहरण सबसे बड़ा है. पहले उन पर घोटाले का आरोप लगाया गया फिर बीजेपी में लाकर उपाध्यक्ष बनाया गया. इसलिए कारनामों को पकड़ने की यह डिज़ाइन कारनामों से ज़्यादा आवाज़ दबाने की ही लगती है. जिस समय सरकार पत्रकारों और विपक्षी नेताओं के फोन की जासूसी के आरोप से घिरी हो उसी समय ये छापे बता रहे हैं कि वह इस दिशा में कितना आगे बढ़ चुकी है.
भारत समाचार के ब्रजेश मिश्र, इस चैनल के स्टेट हेड वीरेंद्र सिंह के घर और दफ्तर पर भी छापे पड़े हैं. भारत समाचार पर भी लगातार उन सवालों को लेकर कवरेज़ हुआ है जिनमें यूपी सरकार से सीधे सवाल किए गए हैं. इस चैनल के संपादक अपने ट्विटर हैंडल पर लगातार यूपी के मुख्यमंत्री की आलोचना कर रहे थे. यही नहीं, जब छापे पड़ रहे थे तब भी भारत समाचार फ्लैश कर अपने दर्शकों को बता रहा था कि संपादक ब्रजेश मिश्र और वीरेंद्र सिंह के घर पर छापे पड़ रहे हैं और चैनल दावा करता रहा कि वह इन छापों से डरने वाला नहीं है. इस चैनल पर पड़े छापों को यूपी चुनाव से भी जोड़ा जा रहा है ताकि बाकी चैनलों की तरह ये भी सरकार की आलोचना छोड़ दे.
छापों और मुकदमों से किसी को भी अपराधी साबित कर देना मुश्किल काम नहीं है. जब इस देश में किसी डॉक्टर पर अवैध रूप से NSA लग सकता है, मणिपुर के एक्टिविस्ट एरेड्रो ने इतना लिख दिया कि कोरोना का इलाज गौमूत्र नहीं है तो उन्हें NSA लगाकर दो महीना जेल में बंद किया जा सकता है तो कुछ भी हो सकता है. सरकार हर छापे को सही ठहरा सकती है. पत्रकारों के फोन की जासूसी हो रही है, फिर सरकार की कोई एजेंसी अपना काम नहीं कर रही है न सरकार जांच कर रही है. बुधवार को एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर पत्रकारों की जासूसी की निंदा की है औऱ कहा है कि एडिटर्स गिल्ड इस बात से हैरान है कि कथित रूप से सरकारी एजेंसियां पत्रकारों पर इस तरह से निगरानी रख रही हैं. सामाजिक कार्यकर्ता, बिज़नसमैन और राजनेताओं के फोन पर भी नज़र रखी जा रही है. चूंकि पेगसस सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी NSO दावा करती है कि केवल सरकार को ही बेचती है इससे और भी संदेह होता है कि भारत सरकार अपने नागरिकों की जासूसी में शामिल है. यह पूरी तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रेस की आज़ादी पर प्रहार है. जासूसी से यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि पत्रकारिता और राजनीतिक असहमति को आतंक समझा जाएगा.
एक अख़बार के साथ केवल एक पत्रकार खत्म नहीं होता है, एक पत्रकार के साथ एक अखबार खत्म नहीं होता है, एक अखबार और एक पत्रकार के साथ लाखों की संख्या में पाठक भी ख़त्म हो जाते हैं. दर्शक भी ख़त्म हो जाते हैं. ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले NRI अंकिलों को याद दिलाइये 21 अक्तूबर 2019 का दिन, जब वहां का प्रेस एक छापे के खिलाफ एकजुट हो गया था. इसे देखने के बाद शुक्रवार की सुबह के हिन्दी अखबारों को देखिएगा, मुमकिन है कई अखबार छापों के समर्थन में संपादकीय लिख रहे होंगे.
21 अक्तूबर 2019 की सुबह ऑस्ट्रेलिया के अखबार “The Daily Telegraph, Financial Review, The Australian, The Sydney Morning Herald, The Canberra Times, The herald sun, The age का पहला पन्ना इस तरह छपा था. कोई ख़बर नहीं थी. पन्ना ख़ाली तो नहीं था लेकिन इस तरह से छापा जैसे लिखी हुई ख़बरों को स्याही से पोत दिया गया हो. पहले पन्ने पर ही कोने में एक लाल रंग का स्टैंप लगा है जिस पर सीक्रेट लिखा है और किनारे पर लिखा है नॉट फॉर रिलीज़. इसके ज़रिए अखबारों ने बताया कि हर अख़बार की एक दूसरे से प्रतियोगिता है लेकिन उन्होंने यह कदम ऑस्ट्रेलिया के नागरिकों के जानने के अधिकार की रक्षा के लिए उठाया है. किसी भी देश में मीडिया का स्वतंत्र होना बहुत ज़रूरी है. वर्ना सत्ता में बैठे लोग सनक जाते हैं. विदेशी कंपनियों के साथ लैंड डील हो रही है, जनता की जासूसी हो रही है, लेकिन जब पत्रकार इसकी खबरें लिखता है तो छापे पड़ते हैं, गिरफ्तारियां होती हैं और मुकदमों में घसीटकर उसके करियर को बर्बाद कर दिया जाता है. ऑस्ट्रेलिया के अख़बारों का कहना है कि अगर फ्री प्रेस नहीं होता तो बैंक में हुए घोटाले और बुज़ुर्गों के केयर सेक्टर में धांधली की ख़बरें कभी बाहर ही नहीं आ पातीं. इसका असर भी हुआ. इस अभियान का असर हुआ और ऑस्ट्रेलिया की फेडरल पुलिस को कहना पड़ा कि वह पत्रकारों के छापे के मामले में सतर्कता बरतेगी. 2019 में ऑस्ट्रेलिया की फेडरल पुलिस ने न्यूज़ कोर के राजनीतिक पत्रकार अन्निका स्मेथर्स्ट के यहां छापा मारा था. एबीसी के सिडनी मुख्यालय में भी छापे पड़े थे. अटार्नी जनरल क्रिश्चियन पोर्टर को आदेश देना पड़ा कि बग़ैर उनकी अनुमति के किसी पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी. वे किसी पत्रकार पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देना चाहेंगे. यह जनहित में ज़रूरी है.
ऑस्ट्रेलिया के मीडिया संस्थानों ने एक वेबसाइट भी बनाई है yourrighttoknow.com.au. इस पर लिखा है “When government keeps द truth from you, what are they covering up?” अगर सरकार आपसे सच छुपाना चाहती है तो छुपा क्या रही है. एक छापे को लेकर ऑस्ट्रेलिया के सारे छोटे बड़े अखबार, चैनल एक साथ आ गए थे. ऑस्ट्रेलियन बिजनेस रिव्यू ने लिखा कि you have a right to be -suspicious and concerned. यानी संदेह करना और चिन्तित होना आपका अधिकार है. राष्ट्रीय सुरक्षा और सीक्रेट के नाम पर वर्षों से सरकारें, अदालतें और संस्थाएं अपनी दीवार ऊंची करती जा रही हैं. कानून बना रही हैं ताकि मीडिया को मुकदमे में फंसाकर आपको बताने से रोक सकें. 2001 से 75 ऐसे कानून बने हैं जिनके कारण पता चलना मुश्किल हो गया है कि देश में चल क्या रहा है. पत्रकारों को देश का दुश्मन बना कर नया चलन शुरू हुआ है. आपको लगातार व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के रिश्तेदार मैसेज भेजते ही होंगे कि फलां पत्रकार देश का दुश्मन है.
Journalists are not दि enemy पत्रकार दुश्मन नहीं है, इसी नाम से 16 अगस्त 2018 को अमरीका के 300 से अधिक अखबारों ने एक बड़ा अभियान चलाया. उस दिन 300 से अधिक अखबारों ने संपादकीय छापा था कि कैसे प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित हो रही है. इस अभियान का नेतृत्व 146 साल पुराने अखबार द Boston Globe ने किया था. बॉस्टन ग्लोब ने अपनी वेबसाइट पर उन सभी संपादकीयों को छापा था. ऐसा बहुत कम होता है जब एक अखबार 300 से अधिक दूसरे अखबारों के संपादकीय को अपने यहां जगह दे. यह बताने के लिए कि कैसे राष्ट्रपति ट्रंप मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला कर रहे हैं. वे अक्सर मीडिया को फेक न्यूज़ कहते रहते हैं. पत्रकारों को जनता का शत्रु कहते रहते हैं जबकि पत्रकार शत्रु नहीं हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में 1964 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला दिया कि सार्वजनिक बहस खुलेमन से होनी चाहिए. कई बार सरकार और सरकारी अधिकारियों पर जमकर हमले होने चाहिए भले ही वह किसी को अच्छा न लगे. न्यूज़ मीडिया की आलोचना ठीक है. कुछ गलत छपा हो तो उसकी आलोचना ठीक है. न्यूज़ रिपोर्टर और संपादक इंसान हैं. उनसे गलतियां हो सकती हैं. उन्हें ठीक करना हमारे पेशे का अहम हिस्सा है. लेकिन जो सत्य पसंद नहीं है उसे फेक न्यूज़ कहना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.
ऑस्ट्रेलिया और अमरीका का यह उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि आपसे एक सवाल पूछना है. जब भारत में पत्रकारों पर मुकदमे होते रहे, संगीन धाराओं में जेल में बंद किया गया, उनके फोन की जासूसी हुई, छापे पड़े तब क्या आपने ऐसा कुछ सोचा, सोचा कि आपका क्या होगा. इस वक्त जब ज़्यादातर पत्रकार चुप हैं और सरकार के साथ हैं या ऐसे तर्क खोज रहे हैं जिससे सरकार को सही बता सकें फिर भी कुछ पत्रकार हैं जो बोल रहे हैं.
अजित अंजुम, आरफ़ा ख़ानम शेरवानी, दीपल त्रिवेदी, राणा अय्यूब, रोहिणी सिंह, अवधेश अकोदिया, अभिसार शर्मा, मोहम्मद ज़ुबेर, श्माय मीरा सिंह, पुण्य प्रसून वाजपेयी, सुप्रिया शर्मा कई पत्रकारों ने भारत समाचार और दैनिक भास्कर समूह के दफ्तरों में पड़े छापे का विरोध किया है. कहा है कि इन छापों के खिलाफ खड़े होने का वक्त है. भास्कर को दूसरी लहर के दौरान खबर करने की कीमत चुकानी पड़ी है और भारत समाचार को भी जो यूपी में अकेला योगी सरकार से सवाल पूछ रहा था. प्रेस क्लब ऑफ डंडिया ने भी ट्वीट किया है कि जांच एजेंसियों का इस्तमाल कर स्वतंत्र मीडिया को जिस तरह से डराया धमकाया जा रहा है, उसे लेकर काफी चिन्तित है.
सवाल सिर्फ छापे का नहीं है, पत्रकारो के फोन की जासूसी का है, उन पर किए जा रहे मुकदमों का है. मारने पीटने का है. सरकार से सवाल करने वालों को फर्ज़ी सबूतों के ज़रिए संगीन आरोपों में फंसा कर जेल में बंद कर दने का सवाल है. अगर आप व्यापक संदर्भ में देखें तो आज भारत में पत्रकारिता की स्थिति कहीं ज़्यादा बदतर हुई है. प्रेस की आज़ादी के मामले में भारत का रैंक लगातार गिरता जा रहा है.
गुरुवार को प्रेस क्लब आफ इंडिया में एक बैठक हुई. संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड, प्रेस एसोसिएशन, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट, वर्किंग न्यूज़ कैमरामैन एसोसिएशन, इंडियन विमेन प्रेस कोर दिल्ली, और तमाम अन्य संगठनों की बैठक में फैसला लिया गया कि पत्रकारों, जजों और विपक्ष के नेताओं के फोन की जासूसी के मामले में क्या करना है. सवाल है कि जब फ्रांस के राष्ट्रपति ने जांच के आदेश दिए हैं तब भारत क्यों पीछे हट रहा है. फ्रांस के राष्ट्रपति ने जांच के आदेश इसलिए दिए हैं कि फ्रांस के नागरिकों के फोन की जासूसी हुई है तो फिर भारत सरकार क्यों चुप है. लेकिन पत्रकारों के यहां पहुंचने से पहले ही दैनिक भास्कर और भारत समाचार के दफ्तरों और संपादकों के घर में छापे पड़ने की खबर फैल चुकी थी.
पुलित्ज़र पत्रकार दानिश सिद्दीकि की तालिबान के हाथों हत्या को लेकर प्रधानमंत्री ने एक शब्द नहीं कहा. कोरोना की दूसरी लहर के दौरान दैनिक भास्कर ने गहलोत सरकार की खूब आलोचना की और राज्य सरकार के दावों से अलग रिपोर्टिंग की. आज भी जयपुर भास्कर में ऐसी खबर छपी है जो राजस्थान सरकार के खिलाफ समझी जा सकती है लेकिन वो खबर है राजस्थान की जनता के हक में. इसके बाद भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भास्कर समूह के दफ्तरों में पड़े छापों का विरोध किया है और ट्वीट किया है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि आज का छापा मीडिया को डराने का प्रयास है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इन छापों की निंदा की है और कहा है कि मीडिया में सभी को मिलकर मुकाबला करना चाहिए. डरना नहीं चाहिए.
मुमकिन है इन छापों को सही ठहराने के लिए व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वाले रिश्तेदार पचास बातें फैला चुके हों लेकिन आप खुद से एक सवाल पूछिए कि आपके जानने वालों में जो ऑक्सीजन की कमी से मर गए उन्होंने मरने का नाटक किया था ताकि विदेशों में सरकार बदनाम हो जाए, क्या उसकी रिपोर्टिंग की इस तरह कीमत चुकानी पड़ेगी. आज संसद में भी विपक्ष के सांसदों ने जासूसी और छापों को लेकर सवाल उठाए हैं.
आप पाठक और दर्शक अगर छापे और मुकदमे की इन खबरों को देखकर बहुत डर गए हैं तो एक बात बताता हूं. अखबार पढ़ना छोड़ दीजिए. न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दीजिए. जब ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा है तो ऑक्सीजन भी लेना छोड़ दीजिए. दैनिक भास्कर से सैकड़ों संवाददाता और संपादक आज ट्वीट करते रहे कि मैं स्वतंत्र हूं क्योंकि मैं भास्कर हूं. भास्कर में चलेगी पाठकों की मर्ज़ी.
'Prime Time With Ravish Kumar' के ताजा एपिसोड (19 जुलाई, 2021) में वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने पेगासस जासूसी कांड को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है और कहा है कि यह बोगस बात है कि भारत को बदनाम करने के लिए दुनिया के 10 देशों के 16 अख़बार और न्यूज़ वेबसाइट के 80 पत्रकार मेहनत कर रहे हैं. भारत ही नहीं दुनिया भर के लोगों के फ़ोन हैक हुए हैं. कई देश इस खेल में शामिल हैं. उनके यहाँ भी खुलासे हो रहे हैं. यह भी कि अभी सारे नंबरों का पता नहीं चला है. किसी को पता नहीं कि कितने नंबरों की निगरानी की गई है.
'द वायर' की रिपोर्ट के हवाले से उन्होंने कहा कि देश में 300 फोन नंबरों की जासूसी की एक संभावित लिस्ट बनाई गई थी, जिसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी के भी दो नंबर शामिल हैं. इस सूची में राहुल से जुड़े नौ और नंबर भी डाले गए थे लेकिन राहुल गांधी ने अपना नंबर बदल दिया था. राहुल गांधी के अलावा उनके सहयोगियों अलंकार सवाई और सचिन राव के नंबर भी इस लीक हुए लिस्ट में शामिल हैं. इनके अलावा राहुल गांधी के गैर राजनीतिक दोस्तों के भी नाम इस लीक हुई डेटाबेस में हैं.
रवीश ने कहा, "ये हुआ है और ये हो रहा है इस देश में. संकटग्रस्त आर्थिक हालात वाले देश में विपक्ष और पत्रकारिता करने वालों की निगरानी करने की यह खबर भयानक है." उन्होंने बताया कि जिनकी निगरानी हुई है या हो रही है, उस लिस्ट में पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का भी नाम शामिल है, जिन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आचारसंहिता उल्लंघन के मामले में आयोग के एक फैसले में अलग राय दी थी.
वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निजी सचिव, उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के नंबर भी जासूसी करने वाले मालवेयर की लिस्ट में है. उन्होंने कहा कि बीजेपी नेता प्रह्लाद सिंह पटेल की भी जासूसी हुई है जो केंद्रीय मंत्री हैं. रवीश ने तंज कसा, "बताइए केंद्रीय राज्यमंत्री की भी जासूसी उनकी ही सरकार करा रही है."
रवीश कुमार ने हिन्दी अखबारों में पेगासस से जुड़ी छपी खबरों पर भी निशाना साधा और कहा कि ज्यादाातर अखबारों में इस तरह छापा गया है कि यह छप भी जाय और छुप भी जाय. उन्होंने कहा, "दुनिया के कई न्यूज संगठनों के 80 से ज्यादा पत्रकार इतने बड़े पर्दाफाश के नाम पर हवा में मिठाई नहीं बना रहे थे." उन्होंने बताया कि बिना मुनाफे की पत्रकारिता कर रही पेरिस की 'फॉरबिडन स्टोरीज' और 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' के मुताबिक दुनियाभर में 50 हजार से ज्यादा फोन नंबर्स की सूची मिली है जिसकी इजरायली सॉफ्टवेयर से निगरानी की जा रही थी और की जानेवाली थी.
रवीश ने बताया कि 'एमनेस्टी' ने इनमें से 1000 नंबरों की जांच अपने फॉरेंसिक लैब में की है और दुनिया के 15 समाचार संगठनों से उस रिपोर्ट को साझा किया है. अन्य समाचार संगठनों ने भी अपने स्तर पर सूची का परीक्षण किया है. 50,000 फोन नंबर्स की सूची में भारत, अजरबैजान, बहरीन, कज़ाकिस्तान, मैक्सिको, मोरक्को, रवांडा, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लोगों के फोन नंबर शामिल हैं.
वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि भारत में 'द वायर' ने इस पर खोजी काम किया है, तो अमेरिका में 'वाशिंगटन पोस्ट' 'पीवीएस फ्रंटलाइन', ब्रिटेन में 'द गार्डियन', फ्रांस के 'ला मोडे', रेडियो फ्रांस, जर्मनी के बड़े अखबार 'ज़ू डायसे शायटू' , बेल्जियम के 'ले सोर' ने भी इस पर काम किया है और इससे जुड़ी खबरों को प्रमुखता से छापा है. इनके अलावा इज़रायल, लेबनान, हंगरी के भी अखबरों में यह खबर विस्तार से छपी है, जबकि भारत में कई अख़बारों ने इसे आधा-अधूरा ही छापा है.
उन्होंने पूछा है कि हिन्दी अख़बारों या भारतीय अख़बारों में इस खबर के न छापने से क्या होता है? या आधे-अधूरे तरीके से छापने से क्या होता है? रवीश ने कहा, "यह ख़बर जिस तरह से दुनिया के अख़बारों में छपी है, उससे भारत की छवि बेहतर नहीं हुई है. आप नहीं कह सकते कि 10 देशों के अख़बार और 80 से ज्यादा पत्रकार मिलकर भारत को बदनाम कर रहे हैं क्योंकि यह पर्दाफाश केवल भारत की सरकार के बारे में नहीं है. 50 देशों के फोन नंबरों के बारे में है. पिछले ही दिनों अमेरिका के आर्सेनल लैब की रिपोर्ट छपी, जिसे हिन्दी अख़बारों और न्यूज चैनलों ने मिलकर भारत की जनता तक नहीं पहुंचने दिया."
उन्होंने कहा कि आर्सेनल लैब की रिपोर्ट में कहा गया था कि भीमा कोरेगांव केस के आरोपी रोना विल्सन्स, सुरेंद्र गाडलिंग, अनिल तिलतुंडे और स्टेन स्वामी के कम्प्यूटर को हैक किया गया और फिर उनमें फर्जी दस्तावेज डाले गए और फिर इन सभी को भारत के खिलाफ साजिश रचने और प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने के आरोप में जेल में सड़ा दिया गया. स्टेन स्वामी की तो मौत भी हो गई. पैगासस जासूसी की लिस्ट में इन सबके नाम भी हैं.
रवीश ने कहा, "यह खबर दांत चियारनेवाली नहीं है बल्कि ऐसी खबर है कि हलख सूख जानी चाहिए. यह कहानी चोर दरवाजे से लोकतंत्र को रौंदकर मिट्टी में मिला देने की है. अगर आपने अभी नहीं सुनी और हिन्दी प्रदेश के गांव-गांव में नहीं सुनाई तो 20 साल बाद भी बैकडेट में कुछ भी सुनाने को नहीं बचेंगे."
हुक्मरान जब नौजवानों के मुकाबले वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुके अथवा उसे भी पार कर चुके नागरिकों से ज्यादा खतरा महसूस करने लगें तो क्या यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि सल्तनत में सामान्य से कुछ अलग चल रहा है? जीवन भर आदिवासियों के हकों की लड़ाई लड़ने वाले और शरीर से पूरी तरह अपाहिज हो चुके चौरासी बरस के स्टेन स्वामी की अपनी ही जमानत के लिए लड़ते-लड़ते हुई मौत उन नौजवानों के लिए कई सवाल छोड़ गई है जो नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष को अपने जीवन का घोषणा पत्र बनाने का इरादा रखते होंगे। स्टेन स्वामी की मौत की कहानी और उनकी ही तरह राज्य के अपराधी घोषित किए जाने वाले अन्य लोगों की व्यथाएं किसी निरंकुश होती जाती सत्ता की ज़्यादतियों के अंतहीन ‘हॉरर’ सीरियल की तरह नज़र आती हैं।
पांच जुलाई की दोपहर मुंबई हाईकोर्ट में जैसे ही गंभीर रूप से बीमार स्टेन स्वामी की जमानत के आवेदन पर सुनवाई शुरू हुई, होली फैमिली हॉस्पिटल, बांद्रा (मुंबई) के चिकित्सा अधीक्षक ने न्यायमूर्तिद्वय एसएस शिंदे और एनजे जामदार को सूचित किया कि याचिकाकर्ता (स्टेन स्वामी) का एक बजकर बीस मिनट पर निधन हो गया है।दोनों ही न्यायमूर्तियों ने इस जानकारी पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा : हम पूरी विनम्रता के साथ कहते हैं कि इस सूचना पर हमें खेद है।यह हमारे लिए झटके जैसा है।हमारे पास उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शब्द नहीं हैं।
इसके पहले तीन जुलाई (शनिवार) को जब अदालत स्टेन स्वामी की जमानत याचिका पर विचार करने बैठी थी तब उनके वकील ने कहा था कि उनके मुवक्किल की हालत गंभीर है। उसके बाद अदालत ने याचिका पर सुनवाई छह जुलाई तक के लिए स्थगित कर दी थी।स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों के चलते 28 मई को मुंबई हाईकोर्ट के निर्देशों के बाद स्टेन स्वामी को होली फैमिली अस्पताल में भर्ती करवाया गया था, जहां उन्होंने जमानत मिलने के पहले ही अंतिम सांस ले ली। स्टेन स्वामी की मौत पर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मदन लोकुर ने कहा कि उनका निधन एक बड़ी त्रासदी है। मैं इस मामले में अभियोजन और अदालतों से निराश हूं।यह अमानवीय है।
एक काल्पनिक (हायपोथेटिकल) सवाल है कि आतंकवाद के आरोपों के चलते नौ माह से जेल में बंद और वेंटीलेटर पर सांसें गिन रहे स्टेन स्वामी को अगर उनकी मौत से दो दिन पहले हुई अदालती सुनवाई में ही जमानत मिल जाती और तब हम यह नहीं कह पाते कि उनकी मौत हिरासत में हुई है तो क्या व्यवस्था, अभियोजन और अदालतों के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता?
सोनिया गांधी, शरद पवार, ममता बनर्जी और हेमंत सोरेन सहित देश के दस प्रमुख विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर मांग कि है कि ‘आप अपनी सरकार को’ उन तत्वों पर कार्रवाई करने को निर्देशित करें जो स्टेन स्वामी के खिलाफ झूठे प्रकरण तैयार करने, उन्हें हिरासत में रखने और उनके साथ अमानवीय बर्ताव करने के लिए जिम्मेदार हैं।
ऐसे तत्वों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए।कानून के ज्ञाता ही हमें ज्यादा बता सकते हैं कि इस तरह के पत्र और शिकायतें, जो देशभर से भी लगातार पहुंचती होंगी, के निराकरण के प्रति राष्ट्रपति भवन की मर्यादाओं का संसार कितना विस्तृत अथवा सीमित है। साथ ही यह भी कि पत्र में जिस ‘सरकार’ का ज़िक्र किया गया है उसका इस तरह की शिकायतों के प्रति अब तक क्या रवैया रहा है और उससे आगे क्या अपेक्षा की जा सकती है?
राष्ट्रपति को प्रेषित पत्र में जिन जिम्मेदार तत्वों की जवाबदेही तय करने का ज़िक्र किया गया है वे अगर कोई अदृश्य शक्तियां नहीं हैं तो पत्र लिखने वाले हाई प्रोफाइल लोग साहस दिखाते हुए, शंकाओं के आधार पर ही सही, उनकी कथित पहचानों का उल्लेख कम से कम देश को आगाह करने के इरादे से तो कर ही सकते थे। हम जानते हैं कि स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी और हिरासत में हुई मौत के लिए किसी एक की जवाबदेही तय करने का काम असंभव नहीं है तो आसान भी नहीं है।दूसरे यह कि क्या इस तरह की घटनाओं को उनके किसी निर्णायक परिवर्तन पर पहुंचने तक नागरिक याद रख पाते हैं?
अमेरिका में पिछले साल घटी और दुनियाभर में चर्चित हुई एक घटना है। छियालीस वर्षीय अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की गर्दन को जब एक गोरे पुलिस अफसर ने अपने घुटने के नीचे आठ मिनट और पंद्रह सेकंड उसकी सांस उखड़ जाने तक दबाकर रखा था तो उस अपराध की गवाही देने के लिए कुछ नागरिक उपस्थित थे। ये नागरिक गोरे पुलिस अफसर को हाल ही में साढ़े बाईस साल की सजा सुनाए जाने तक अभियोजन के साथ खड़े रहे। जॉर्ज फ्लायड की मौत ने अमेरिका के नागरिक जीवन में इतनी उथल-पुथल उत्पन्न कर दी कि एक राष्ट्रपति चुनाव हार गया।अब वहां समाज में पुलिस की जवाबदेही तय किए जाने की बहस चल रही है।
स्टेन स्वामी प्रकरण की जवाबदेही इस सवाल के साथ जुड़ी हुई है कि किसी भी नागरिक की हिरासत या सड़क पर होने वाली संदिग्ध मौत या मॉब लिंचिंग को लेकर हमारे नागरिक जीवन में क्या किसी जॉर्ज फ्लायड क्षण की आहट मात्र भी सुनाई पड़ सकती है? ऐसे मौके तो पहले भी कई बार आ चुके हैं। अपनी मौत के साथ ही स्टेन स्वामी तो सभी तरह की सांसारिक हिरासतों से मुक्त हो गए हैं।अब यही कोशिश की जा सकती है कि इस तरह की किसी अन्य मौत की प्रतीक्षा नहीं की जाए। इस बात का ध्यान तो राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखने वाले लोगों को ज़्यादा रखना पड़ेगा।
अंत में : स्टेन स्वामी की मौत से उपजे विवाद पर विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने अपने वक्तव्य में सरकार की ओर से सफ़ाई दी कि भारत की प्रजातांत्रिक और संवैधानिक शासन-विधि, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, मानवाधिकारों के उल्लंघनों पर निगरानी रखने वाले केन्द्रीय और राज्य स्तरीय मानवाधिकार आयोगों, स्वतंत्र मीडिया और एक जीवंत और मुखर नागरिक समाज पर आधारित है। भारत अपने समस्त नागरिकों के मानवाधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के प्रति कटिबद्ध है।
सवाल यह है कि देश के जो सभ्य और संवेदनशील नागरिक इस समय स्टेन स्वामी की मौत का दुःख मना रहे हैं, उन्हें इस वक्तव्य पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहिए? और क्या मौत सिर्फ स्टेन स्वामी नामक एक व्यक्ति की ही हुई है?
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं।)
यूपी सरकार कानून में इतना लिख दे कि जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे वे नए कानून लागू होने के बाद चुनाव नहीं लड़ सकेंगे तो फिर देखिए क्या होता है. सिर्फ इतना लिख देने भर से चौक-चौराहों की पान की गुमटियों पर जितने लोग आबादी को लेकर बहस कर रहे होंगे, बहस छोड़ भाग खड़े होंगे. यही नहीं उनके विधायक जी भी कानून के इन समर्थकों को अपने बोलेरो से नीचे उतार देंगे. टाइम्स आफ इंडिया में अतुल ठाकुर और रेमा नागराजन की रिपोर्ट छपी है कि बीजेपी के पचास फीसदी विधायक ऐसे हैं जिनके तीन या तीन से अधिक बच्चे हैं. क्या इसी कारण प्रस्तावित कानून में ऐसे विधायकों के चुनाव लड़ने पर रोक की बात नहीं है.
कुछ दिन भी नहीं हुए जब कई चैनलों को यूपी के पंचायत चुनावों की इन भयावह तस्वीरों को न दिखाने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ी. इसके बाद भी यहां वहां से हिंसा के वीडियो वायरल होकर आप तक पहुंचते रहे. लखीमपुरी खीरी में पुलिस महिला समर्थक की साड़ी खींच रही थी तो इटावा में पुलिस के अधिकारी शिकायत कर रहे थे कि बीजेपी के समर्थकों ने थप्पड़ मारा और बम लेकर आए थे. पंचायत चुनावों को हिंसा के इस प्रकोप से बचाने की ज़्यादा ज़रूरत है न कि आबादी के प्रकोप से. ऐसे लोगों के पंचायत चुनाव में न लड़ने पर रोक होनी चाहिए थी. यह जो आप देख रहे हैं वह जनसंख्या विस्फोट नहीं है बल्कि कानून व्यवस्था का विस्फोट है जिससे संवैधानिक मर्यादाएं धुआं धुआं हो चुकी है. नए प्रस्तावित कानून में पंचायत चुनावों की दूसरी चिन्ता है. जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे.
इस प्रस्तावित कानून में कई बातें ऐसी हैं जिनसे संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का हनन होता है. कोई सरकार इस तरह के कानून कैसे बना सकती है कि दो से अधिक बच्चे होने पर सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी. ऐसा लगता है कि पुरुषों को ध्यान में रखकर ही कानून बनाया गया है.
आप प्रस्तावित कानून को एक महिला की निगाह से देखिए. वह पढ़ी लिखी नहीं है या पढ़ी लिखी है तब भी, बच्चा पैदा करने के मामले में उसके अधिकार कम होते हैं. उस पर परिवार अनेक तरह के दबाव डालता है. जिस फैसले में उसकी हां न हो, उसके लिए क्या इतनी बड़ी सज़ा दी जा सकती है? मुमकिन है महिला को कानून के बारे में ही पता न हो. अब अगर यही महिला शादी के कुछ साल बाद अपना जीवन बनाने का फैसला करती है, किसी सरकारी परीक्षा की तैयारी करती है या सरकारी योजनाओं के सहारे अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है तो क्या उसे इस आधार पर रोकना उचित होगा कि उसके दो से अधिक बच्चे हैं? अगर तीन बच्चे के बाद पति की किसी कारण मौत होती है तो क्या उस महिला को इतनी बड़ी सज़ा दी जा सकती है? यह कानून महिलाओं को कितना कमज़ोर कर देगा, क्या किसी ने सोचा है. यही नहीं इसकी गारंटी कौन देगा कि किसी विवाहित महिला को बेटे की चाह में पहले से ज्यादा ज़बरन गर्भपात के लिए मज़बूर किया जाएगा जो उसकी जिंदगी के लिए भी घातक हो सकता है. क्या यह कानून एक महिला का उसके शरीर पर अधिकार पहले से कमज़ोर नहीं करता है?
जिस समाज में रोटी कच्ची रह जाने या दाल में नमक ना होने पर महिला पीट दी जाती है या छोड़ दी जाती है वहां अगर दो बेटियों के बाद पति ने छोड़ कर दूसरी शादी कर ली तो क्या उससे पति का रिकार्ड अच्छा हो जाएगा? वह चुनाव लड़ सकेगा? दो से अधिक बच्चे होने पर विधायक का चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन क्लर्क से लेकर बीडीओ नहीं बन सकते हैं. जबकि तमाम आंकड़े बता रहे हैं कि यह कानून बना तो समाज के गरीब तबकों के बच्चे सरकारी नौकरी से वंचित हो सकते हैं. क्या यह अवसरों की समानता के संवैधानिक अधिकार का हनन नहीं है?
सरकार के ही आंकड़े हैं कि उन महिलाओं के ही दो से अधिक बच्चे हैं जो कभी स्कूल नहीं गईं. यही नहीं नेशनल फैमिली सैंपल सर्वे का डेटा बताता है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों में प्रजनन दर अधिक है और इसका सीधा संबंध उनकी गरीबी और अशिक्षा से है. शादियां भी कम उम्र में हो जाती हैं. तो क्या इस आधार पर इस तबके को सरकारी नौकरी से वंचित करना सही होगा? जानते सब हैं कि कानून बनाने की जगह औरतों को सक्षम बनाने से आबादी में कमी आती है. उसके लिए ज़रूरी है कि सरकार स्वास्थ्य और शिक्षा पर ढंग से खर्च करे.
कानून का प्रस्ताव आ गया है, हेडलाइन बन गई है लेकिन किसी के पास आंकड़े नहीं है कि यूपी में ही कितने लोगों के दो से अधिक बच्चे हैं. उन परिवारों की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति क्या है. यही नहीं प्रस्तावित कानून में लिखा है कि सरकारी कर्मचारी के दो से अधिक बच्चे होने पर स्वास्थ्य बीमा का लाभ नहीं मिलेगा. क्या ये बड़ी सज़ा नहीं है? अगर ये ज़रूरी सज़ा है तो फिर विधायकों और सांसदों के लिए क्यों नहीं है? प्रस्तावित कानून में लिखा है कि दो बच्चों के बाद जो सरकारी कर्मचारी परिवार नियोजन कराएंगे उन्हें अतिरिक्त वेतन वृद्धि दी जाएगी, दो बार. ज़मीन या घर ख़रीदने के लिए सब्सिडी मिलेगी. पानी, बिजली और गृह कर में छूट मिलेगी. नेशनल पेंशन स्कीम के तहत नियोक्ता की हिस्सेदारी तीन प्रतिशत अधिक होगी. पति या पत्नी को मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा और बीमा मिलेगा. तब तो दो या दो से कम बच्चे वाले परिवारों को भी पानी बिजली और गृह कर में छूट मिलनी चाहिए. सरकार का मौलिक कर्तव्य है कि वह सभी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थायी रोज़गार उपलब्ध कराए.
दुनिया भर में यही देखा गया है कि जिन देशों ने स्वास्थ्य और शिक्षा में ज़्यादा निवेश किया है वहां आबादी कम हुई है और जीवन स्तर भी अच्छा हुआ है. आप अमेरिका में अपने NRI अंकल से वीडियो कॉल कर पूछ सकते हैं कि वहां के सरकारी स्कूल यूपी के ज़िला स्कूल से अच्छे हैं या ख़राब हैं. रही बात स्वास्थ्य की तो आपने कोरोना की दूसरी लहर के समय देख लिया. आयुष्मान योजना का ढिंढोरा पीटा जाता है लेकिन कई खबरें छपीं कि कोरोना के दौरान बहुत से लोगों को आयुष्मान योजना का लाभ नहीं मिला. बीमा योजनाओं की इस हालत के दम पर सरकार आबादी नियंत्रण को प्रोत्साहित करना चाहती है.
गोदी मीडिया की हेडलाइन को ध्यान से देखा कीजिए ताकि पूरा सत्यानाश न हो. कुछ बच भी जाए. 110 रुपये लीटर पेट्रोल मिल रहा है, गोदी मीडिया इसे आफत नहीं लिखेगा लेकिन दो दिन दाम नहीं बढ़े तो राहत लिख रहा है. मंगलवार के प्राइम टाइम में बताया था कि स्टेट बैंक आफ इंडिया ने एसबीआई कार्ड धारकों का एक अध्ययन किया है जिससे पता चलता है कि पेट्रोल महंगा होने के कारण वे स्वास्थ्य और राशन पर खर्चा कम कर रहे हैं. परिवारों की क्या हालत हो गई है इस पर भी मीडिया लिखता है कि दाम नहीं बढ़े तो राहत है.
केरल में यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ता कन्याकुमारी से त्रिवेंद्रम के राजभवन तक सौ किमी की साइकिल यात्रा पर निकले हैं. बिना मास्क पहने साइकिल सवार कार्यकर्ता बताना चाहते हैं कि पेट्रोल का दाम 100 रुपया लीटर हो गया है इसलिए सौ किमी की साइकिल यात्रा करेंगे. आपने एक चीज़ ग़ौर की होगी. आईटी सेल की फौज जब चाहती है, अभियान चला देती है कि लिबरल कहां हैं, कांग्रेसी कहां हैं, वामपंथी कहां हैं, चुप क्यों हैं लेकिन पेट्रोल के दाम को लेकर यही आईटी सेल और इसके समर्थक चुप हैं. किसी से सवाल नहीं कर रहे हैं. ऐसा लगता है महंगाई से कांग्रेस ही परेशान है, बीजेपी वाले नहीं.
क्या आपने पेट्रोल और डीज़ल के बढ़ते दामों पर नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप पुरी का कोई बयान सुना है? पेट्रोलियम मंत्री बनने के बाद उन्होंने कहा था कि उनकी ट्रेनिंग है कि पहले तथ्यों को जमा करते हैं फिर बात करते हैं. क्या अभी तक उन्होंने सारे तथ्यों को नहीं देखा होगा? हमने हरदीप पुरी के ट्वीटर हैंडल को खंगाला तो आज का ट्वीट मिला तो पता चला कि मंत्री जी भी फ्लैशबैक के शौकीन हैं. आज का उनका यह ट्वीट फ्लैशबैक की तर्ज पर ही है, पुरानी तस्वीरों को साझा करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने ट्वीट किया है कि प्रधानमंत्री जी की उज्ज्वला योजना कितनी सुविधाजनक और लोकप्रिय है इसका पता उन्हें 26 अप्रैल 2018 को चला था जब वे पंजाब के पास एक गांव में रुके थे. महिलाओं ने गैस के कनेक्शन की मांग की थी.
एक ट्वीट आज का ही है जिसमें मंत्री जी भारतीय खिलाड़ी अर्जुन लाल की मां के बयान को ट्वीट करते हुए लिख रहे हैं दिल में इंडिया, दिल से इंडिया. 14 जुलाई का ट्वीट है कि प्रधानमंत्री जी ने टोक्यो जाने वालों में शामिल भारत की टेबल टेनिस खिलाड़ी मनिका बत्रा से बात की. टोक्यो ओलंपिक जाने वाले खिलाड़ियों से प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई सारे ट्वीट को हरदीप पुरी ने ट्वीट किए हैं. 13 जुलाई को ट्वीट करते हैं कि लोक सभा अध्यक्ष ओम बिड़ला जी से मुलाकात की. उनकी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद किया और मार्गदर्शन प्राप्त किया. हरदीप पुरी ने कई सारे ट्वीट किए हैं जिनसे पता चला है कि उन्होंने बीजेपी के किन किन लोगों से मुलाकात की है. उनसे मिलकर उन्हें कितनी खुशी हुई है. पेट्रोलियम मंत्री की तमाम गतिविधियां उनके ट्वीटर पर मौजूद हैं लेकिन पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ने पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है.
दिल्ली में ही गैस का सिलेंडर एक साल में 594 से बढ़कर 834.5 रुपये हो गया है. इन पर मंत्री जी की कोई प्रतिक्रिया नहीं है. तीन महीने से थोक महंगाई दर 10 प्रतिशत से अधिक है जो बहुत ज़्यादा है. पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी आज तो कम से कम पेट्रोल डीज़ल और गैस के दाम पर बात कर ही सकते थे क्योंकि आज ही सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों को एक जुलाई से महंगाई भत्ता देने का फैसला किया है. अखबारों को देखिएगा. जो पेट्रोल के 110 रुपये होने पर छोटी हेडलाइन लगा रहे थे वे महंगाई भत्ते वाली खबर की कितनी बड़ी हेडलाइन बनाएंगे.
अब आते हैं दिल्ली दंगों की जांच पर. अदालत के एक फैसले से फिर से पोल खुली है कि दिल्ली पुलिस दंगों की जांच किस तरह से कर रही है. दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट ने दिल्ली पुलिस पर 25000 का जुर्माना कर दिया है. क्योंकि पुलिस अपने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रही थी.
19 मार्च 2020 को मोहम्मद नासिर ने शिकायत दर्ज कराई कि 24 फरवरी 2020 को उसकी आंख में गोली लगी है और इसमें नरेश त्यागी,सुभाष त्यागी,उत्तम त्यागी, सुशील, नरेश गौर शामिल हैं. पुलिस ने जांच नहीं की और इस शिकायत को दूसरी FIR में जोड़ दिया जिसका इस मामले से कोई लेना देना नहीं था. FIR के लिए नासिर को कोर्ट जाना पड़ा. 21 अक्टूबर 2020 को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने मोहम्मद नासिर की शिकायत पर FIR दर्ज़ करने का आदेश दिया लेकिन पुलिस इस फैसले के खिलाफ सत्र न्यायालय पहुंच गई. इसी मामले में सत्र न्यायालय ने कहा कि पुलिस ने बिना जांच किए आरोपियों को क्लीन चिट कैसे दे दी. दिल्ली पुलिस ने इस पूरे मामले की जांच बहुत ढिलाई और निष्ठुर होकर की है .पूरे मामले को देखने पर समझ आता है कि पुलिस ही आरोपियों को बचाने काम कर रही थी. कोर्ट ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को भी निर्देशित किया कि ऐसे मामलों में जांच बहुत सही तरीक़े से की जाए.
डीसीपी वेद प्रकाश सूर्य ने प्रेसिडेंट मेडल के लिए आवेदन किया है. एक तरफ जुर्माना लग रहा है एक तरफ मेडल की अर्ज़ी लग रही है. इस तरह से दिल्ली दंगों की जांच हो रही है. सुभाष त्यागी, नरेश त्यागी, उत्तम त्यागी नरेश गौड़ के खिलाफ गोली मारने की शिकायत की जाती है, पुलिस FIR तक नहीं करती है. नासिर को इंसाफ़ मिलेगा आप कह नहीं सकते. अदालत की टिप्पणी याद कीजिए कि पुलिस ही आरोपियों को बचाने का काम कर रही है. आप कहते हैं कि जांच कर रही है.