Owner/Director : Anita Khare
Contact No. : 9009991052
Sampadak : Shashank Khare
Contact No. : 7987354738
Raipur C.G. 492007
City Office : In Front of Raj Talkies, Block B1, 2nd Floor, Bombey Market GE Road, Raipur C.G. 492001
यूपी सरकार कानून में इतना लिख दे कि जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे वे नए कानून लागू होने के बाद चुनाव नहीं लड़ सकेंगे तो फिर देखिए क्या होता है. सिर्फ इतना लिख देने भर से चौक-चौराहों की पान की गुमटियों पर जितने लोग आबादी को लेकर बहस कर रहे होंगे, बहस छोड़ भाग खड़े होंगे. यही नहीं उनके विधायक जी भी कानून के इन समर्थकों को अपने बोलेरो से नीचे उतार देंगे. टाइम्स आफ इंडिया में अतुल ठाकुर और रेमा नागराजन की रिपोर्ट छपी है कि बीजेपी के पचास फीसदी विधायक ऐसे हैं जिनके तीन या तीन से अधिक बच्चे हैं. क्या इसी कारण प्रस्तावित कानून में ऐसे विधायकों के चुनाव लड़ने पर रोक की बात नहीं है.
कुछ दिन भी नहीं हुए जब कई चैनलों को यूपी के पंचायत चुनावों की इन भयावह तस्वीरों को न दिखाने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ी. इसके बाद भी यहां वहां से हिंसा के वीडियो वायरल होकर आप तक पहुंचते रहे. लखीमपुरी खीरी में पुलिस महिला समर्थक की साड़ी खींच रही थी तो इटावा में पुलिस के अधिकारी शिकायत कर रहे थे कि बीजेपी के समर्थकों ने थप्पड़ मारा और बम लेकर आए थे. पंचायत चुनावों को हिंसा के इस प्रकोप से बचाने की ज़्यादा ज़रूरत है न कि आबादी के प्रकोप से. ऐसे लोगों के पंचायत चुनाव में न लड़ने पर रोक होनी चाहिए थी. यह जो आप देख रहे हैं वह जनसंख्या विस्फोट नहीं है बल्कि कानून व्यवस्था का विस्फोट है जिससे संवैधानिक मर्यादाएं धुआं धुआं हो चुकी है. नए प्रस्तावित कानून में पंचायत चुनावों की दूसरी चिन्ता है. जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे.
इस प्रस्तावित कानून में कई बातें ऐसी हैं जिनसे संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का हनन होता है. कोई सरकार इस तरह के कानून कैसे बना सकती है कि दो से अधिक बच्चे होने पर सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी. ऐसा लगता है कि पुरुषों को ध्यान में रखकर ही कानून बनाया गया है.
आप प्रस्तावित कानून को एक महिला की निगाह से देखिए. वह पढ़ी लिखी नहीं है या पढ़ी लिखी है तब भी, बच्चा पैदा करने के मामले में उसके अधिकार कम होते हैं. उस पर परिवार अनेक तरह के दबाव डालता है. जिस फैसले में उसकी हां न हो, उसके लिए क्या इतनी बड़ी सज़ा दी जा सकती है? मुमकिन है महिला को कानून के बारे में ही पता न हो. अब अगर यही महिला शादी के कुछ साल बाद अपना जीवन बनाने का फैसला करती है, किसी सरकारी परीक्षा की तैयारी करती है या सरकारी योजनाओं के सहारे अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है तो क्या उसे इस आधार पर रोकना उचित होगा कि उसके दो से अधिक बच्चे हैं? अगर तीन बच्चे के बाद पति की किसी कारण मौत होती है तो क्या उस महिला को इतनी बड़ी सज़ा दी जा सकती है? यह कानून महिलाओं को कितना कमज़ोर कर देगा, क्या किसी ने सोचा है. यही नहीं इसकी गारंटी कौन देगा कि किसी विवाहित महिला को बेटे की चाह में पहले से ज्यादा ज़बरन गर्भपात के लिए मज़बूर किया जाएगा जो उसकी जिंदगी के लिए भी घातक हो सकता है. क्या यह कानून एक महिला का उसके शरीर पर अधिकार पहले से कमज़ोर नहीं करता है?
जिस समाज में रोटी कच्ची रह जाने या दाल में नमक ना होने पर महिला पीट दी जाती है या छोड़ दी जाती है वहां अगर दो बेटियों के बाद पति ने छोड़ कर दूसरी शादी कर ली तो क्या उससे पति का रिकार्ड अच्छा हो जाएगा? वह चुनाव लड़ सकेगा? दो से अधिक बच्चे होने पर विधायक का चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन क्लर्क से लेकर बीडीओ नहीं बन सकते हैं. जबकि तमाम आंकड़े बता रहे हैं कि यह कानून बना तो समाज के गरीब तबकों के बच्चे सरकारी नौकरी से वंचित हो सकते हैं. क्या यह अवसरों की समानता के संवैधानिक अधिकार का हनन नहीं है?
सरकार के ही आंकड़े हैं कि उन महिलाओं के ही दो से अधिक बच्चे हैं जो कभी स्कूल नहीं गईं. यही नहीं नेशनल फैमिली सैंपल सर्वे का डेटा बताता है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों में प्रजनन दर अधिक है और इसका सीधा संबंध उनकी गरीबी और अशिक्षा से है. शादियां भी कम उम्र में हो जाती हैं. तो क्या इस आधार पर इस तबके को सरकारी नौकरी से वंचित करना सही होगा? जानते सब हैं कि कानून बनाने की जगह औरतों को सक्षम बनाने से आबादी में कमी आती है. उसके लिए ज़रूरी है कि सरकार स्वास्थ्य और शिक्षा पर ढंग से खर्च करे.
कानून का प्रस्ताव आ गया है, हेडलाइन बन गई है लेकिन किसी के पास आंकड़े नहीं है कि यूपी में ही कितने लोगों के दो से अधिक बच्चे हैं. उन परिवारों की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति क्या है. यही नहीं प्रस्तावित कानून में लिखा है कि सरकारी कर्मचारी के दो से अधिक बच्चे होने पर स्वास्थ्य बीमा का लाभ नहीं मिलेगा. क्या ये बड़ी सज़ा नहीं है? अगर ये ज़रूरी सज़ा है तो फिर विधायकों और सांसदों के लिए क्यों नहीं है? प्रस्तावित कानून में लिखा है कि दो बच्चों के बाद जो सरकारी कर्मचारी परिवार नियोजन कराएंगे उन्हें अतिरिक्त वेतन वृद्धि दी जाएगी, दो बार. ज़मीन या घर ख़रीदने के लिए सब्सिडी मिलेगी. पानी, बिजली और गृह कर में छूट मिलेगी. नेशनल पेंशन स्कीम के तहत नियोक्ता की हिस्सेदारी तीन प्रतिशत अधिक होगी. पति या पत्नी को मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा और बीमा मिलेगा. तब तो दो या दो से कम बच्चे वाले परिवारों को भी पानी बिजली और गृह कर में छूट मिलनी चाहिए. सरकार का मौलिक कर्तव्य है कि वह सभी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थायी रोज़गार उपलब्ध कराए.
दुनिया भर में यही देखा गया है कि जिन देशों ने स्वास्थ्य और शिक्षा में ज़्यादा निवेश किया है वहां आबादी कम हुई है और जीवन स्तर भी अच्छा हुआ है. आप अमेरिका में अपने NRI अंकल से वीडियो कॉल कर पूछ सकते हैं कि वहां के सरकारी स्कूल यूपी के ज़िला स्कूल से अच्छे हैं या ख़राब हैं. रही बात स्वास्थ्य की तो आपने कोरोना की दूसरी लहर के समय देख लिया. आयुष्मान योजना का ढिंढोरा पीटा जाता है लेकिन कई खबरें छपीं कि कोरोना के दौरान बहुत से लोगों को आयुष्मान योजना का लाभ नहीं मिला. बीमा योजनाओं की इस हालत के दम पर सरकार आबादी नियंत्रण को प्रोत्साहित करना चाहती है.
गोदी मीडिया की हेडलाइन को ध्यान से देखा कीजिए ताकि पूरा सत्यानाश न हो. कुछ बच भी जाए. 110 रुपये लीटर पेट्रोल मिल रहा है, गोदी मीडिया इसे आफत नहीं लिखेगा लेकिन दो दिन दाम नहीं बढ़े तो राहत लिख रहा है. मंगलवार के प्राइम टाइम में बताया था कि स्टेट बैंक आफ इंडिया ने एसबीआई कार्ड धारकों का एक अध्ययन किया है जिससे पता चलता है कि पेट्रोल महंगा होने के कारण वे स्वास्थ्य और राशन पर खर्चा कम कर रहे हैं. परिवारों की क्या हालत हो गई है इस पर भी मीडिया लिखता है कि दाम नहीं बढ़े तो राहत है.
केरल में यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ता कन्याकुमारी से त्रिवेंद्रम के राजभवन तक सौ किमी की साइकिल यात्रा पर निकले हैं. बिना मास्क पहने साइकिल सवार कार्यकर्ता बताना चाहते हैं कि पेट्रोल का दाम 100 रुपया लीटर हो गया है इसलिए सौ किमी की साइकिल यात्रा करेंगे. आपने एक चीज़ ग़ौर की होगी. आईटी सेल की फौज जब चाहती है, अभियान चला देती है कि लिबरल कहां हैं, कांग्रेसी कहां हैं, वामपंथी कहां हैं, चुप क्यों हैं लेकिन पेट्रोल के दाम को लेकर यही आईटी सेल और इसके समर्थक चुप हैं. किसी से सवाल नहीं कर रहे हैं. ऐसा लगता है महंगाई से कांग्रेस ही परेशान है, बीजेपी वाले नहीं.
क्या आपने पेट्रोल और डीज़ल के बढ़ते दामों पर नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप पुरी का कोई बयान सुना है? पेट्रोलियम मंत्री बनने के बाद उन्होंने कहा था कि उनकी ट्रेनिंग है कि पहले तथ्यों को जमा करते हैं फिर बात करते हैं. क्या अभी तक उन्होंने सारे तथ्यों को नहीं देखा होगा? हमने हरदीप पुरी के ट्वीटर हैंडल को खंगाला तो आज का ट्वीट मिला तो पता चला कि मंत्री जी भी फ्लैशबैक के शौकीन हैं. आज का उनका यह ट्वीट फ्लैशबैक की तर्ज पर ही है, पुरानी तस्वीरों को साझा करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने ट्वीट किया है कि प्रधानमंत्री जी की उज्ज्वला योजना कितनी सुविधाजनक और लोकप्रिय है इसका पता उन्हें 26 अप्रैल 2018 को चला था जब वे पंजाब के पास एक गांव में रुके थे. महिलाओं ने गैस के कनेक्शन की मांग की थी.
एक ट्वीट आज का ही है जिसमें मंत्री जी भारतीय खिलाड़ी अर्जुन लाल की मां के बयान को ट्वीट करते हुए लिख रहे हैं दिल में इंडिया, दिल से इंडिया. 14 जुलाई का ट्वीट है कि प्रधानमंत्री जी ने टोक्यो जाने वालों में शामिल भारत की टेबल टेनिस खिलाड़ी मनिका बत्रा से बात की. टोक्यो ओलंपिक जाने वाले खिलाड़ियों से प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई सारे ट्वीट को हरदीप पुरी ने ट्वीट किए हैं. 13 जुलाई को ट्वीट करते हैं कि लोक सभा अध्यक्ष ओम बिड़ला जी से मुलाकात की. उनकी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद किया और मार्गदर्शन प्राप्त किया. हरदीप पुरी ने कई सारे ट्वीट किए हैं जिनसे पता चला है कि उन्होंने बीजेपी के किन किन लोगों से मुलाकात की है. उनसे मिलकर उन्हें कितनी खुशी हुई है. पेट्रोलियम मंत्री की तमाम गतिविधियां उनके ट्वीटर पर मौजूद हैं लेकिन पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ने पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है.
दिल्ली में ही गैस का सिलेंडर एक साल में 594 से बढ़कर 834.5 रुपये हो गया है. इन पर मंत्री जी की कोई प्रतिक्रिया नहीं है. तीन महीने से थोक महंगाई दर 10 प्रतिशत से अधिक है जो बहुत ज़्यादा है. पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी आज तो कम से कम पेट्रोल डीज़ल और गैस के दाम पर बात कर ही सकते थे क्योंकि आज ही सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों को एक जुलाई से महंगाई भत्ता देने का फैसला किया है. अखबारों को देखिएगा. जो पेट्रोल के 110 रुपये होने पर छोटी हेडलाइन लगा रहे थे वे महंगाई भत्ते वाली खबर की कितनी बड़ी हेडलाइन बनाएंगे.
अब आते हैं दिल्ली दंगों की जांच पर. अदालत के एक फैसले से फिर से पोल खुली है कि दिल्ली पुलिस दंगों की जांच किस तरह से कर रही है. दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट ने दिल्ली पुलिस पर 25000 का जुर्माना कर दिया है. क्योंकि पुलिस अपने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रही थी.
19 मार्च 2020 को मोहम्मद नासिर ने शिकायत दर्ज कराई कि 24 फरवरी 2020 को उसकी आंख में गोली लगी है और इसमें नरेश त्यागी,सुभाष त्यागी,उत्तम त्यागी, सुशील, नरेश गौर शामिल हैं. पुलिस ने जांच नहीं की और इस शिकायत को दूसरी FIR में जोड़ दिया जिसका इस मामले से कोई लेना देना नहीं था. FIR के लिए नासिर को कोर्ट जाना पड़ा. 21 अक्टूबर 2020 को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने मोहम्मद नासिर की शिकायत पर FIR दर्ज़ करने का आदेश दिया लेकिन पुलिस इस फैसले के खिलाफ सत्र न्यायालय पहुंच गई. इसी मामले में सत्र न्यायालय ने कहा कि पुलिस ने बिना जांच किए आरोपियों को क्लीन चिट कैसे दे दी. दिल्ली पुलिस ने इस पूरे मामले की जांच बहुत ढिलाई और निष्ठुर होकर की है .पूरे मामले को देखने पर समझ आता है कि पुलिस ही आरोपियों को बचाने काम कर रही थी. कोर्ट ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को भी निर्देशित किया कि ऐसे मामलों में जांच बहुत सही तरीक़े से की जाए.
डीसीपी वेद प्रकाश सूर्य ने प्रेसिडेंट मेडल के लिए आवेदन किया है. एक तरफ जुर्माना लग रहा है एक तरफ मेडल की अर्ज़ी लग रही है. इस तरह से दिल्ली दंगों की जांच हो रही है. सुभाष त्यागी, नरेश त्यागी, उत्तम त्यागी नरेश गौड़ के खिलाफ गोली मारने की शिकायत की जाती है, पुलिस FIR तक नहीं करती है. नासिर को इंसाफ़ मिलेगा आप कह नहीं सकते. अदालत की टिप्पणी याद कीजिए कि पुलिस ही आरोपियों को बचाने का काम कर रही है. आप कहते हैं कि जांच कर रही है.
रल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन पिछले साल हाथरस में हुए बलात्कार और हत्या के एक केस को कवर करने जा रहे थे. पिछले साल अक्टूबर में सिद्दीक कप्पन और तीन अन्य को शांति भंग करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और बाद में उन पर UAPA की दो धाराएं लगा दी गईं. राजद्रोह की भी धारा लगाई गई है. इस केस में अतीक उर्र रहमान, मसूद अहमद और आलम को भी गिरफ्तार किया गया है. सिद्दीक कप्पन की मां 18 जून को गुजर गईं. सिद्दीक ने मथुरा कोर्ट में जमानत याचिका लगाई है जिसकी सुनवाई 5 जुलाई को होगी. अपने आवेदन में कप्पन ने कहा है कि मैं पत्रकार हूं. मैंने भारतीय प्रेस परिषद के परिभाषित दायरे से बाहर जाकर कुछ भी गलत नहीं किया है, मैं निर्दोष हूं.
सिद्दीक कप्पन 8 महीने 22 दिन से जेल में बंद हैं. इन पर शांति भंग करने का भी आरोप लगा था कि कप्पन, अतीक-उर-रहमान, मसूद अहमद, और आलम, दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे. छह महीने में भी पुलिस ये नहीं बता पाई कि ये लोग किस तरह शांति भंग कर रहे थे. सबूत न होने पर मथुरा कोर्ट ने इस आरोप को रद्द कर दिया. क्या अब भी आपको प्रमाण की जरूरत है कि किस तरह से UAPA का इस्तेमाल लोगों को बिना जमानत के जेल में सड़ाने के लिए किया जा रहा है. असम में भी अखिल गोगोई को इसी तरह के आरोप से NIA कोर्ट ने बरी कर दिया है.
इस कहानी को समझने के लिए पहले फ्लैशबैक में जाना होगा. 2019 के नवंबर-दिसंबर और 2020 की जनवरी-फरवरी में. असम की यूनिवर्सिटी में आक्रोश फैल गया कि नागरिकता कानून के ज़रिए बांग्लादेश से आए हिन्दुओं को नागरिकता दी जा रही है जबकि उनकी लड़ाई इस बात को लेकर थी कि सभी विदेशी नागरिक चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान हों, असम से जाएं. असम के मूल निवासियों को लगा कि यह कानून सांप्रदायिक है. असम का प्रदर्शन अलग कारणों से हिंसक हो उठा. मंत्रियों के घर पर भी हमले हुए. इस कारण प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री के बीच होने वाला शिखर सम्मेलन तक रद्द हो गया. लंबे समय तक गृह मंत्री भी असम का दौरा नहीं कर सके थे. देश के दूसरे हिस्सों में नागरिकता कानून के प्रदर्शन को उकसाने की बहुत कोशिश हुई, गोलियां चलवाई गईं लेकिन आंदोलन शांतिपूर्ण रहा. उत्तर भारत और शेष भारत में यह आंदोलन संवैधानिक प्रदर्शन का नायाब उदाहरण बनता जा रहा था. भारत के किसी भी आंदोलन में इतने व्यापक पैमाने पर संविधान की प्रस्तावना का पाठ नहीं किया गया होगा. उत्तर भारत का गोदी मीडिया इस आंदोलन को केवल मुसलमानों का बता रहा था जबकि असम के आंदोलन के कारणों पर चुप्पी लगा गया. दिल्ली में चल रहे आंदोलन को भड़काने की कितनी कोशिश हुई, शाहीन बाग के आंदोलन पर गोली चलाने की कोशिश हुई, उसे लेकर तरह-तरह की भड़काऊ बातें हुईं लेकिन हिंसा नहीं हुई.आंदोलनकारी जानते थे कि हिंसा से उनका मकसद पूरा नहीं होता है इसलिए वे संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे थे. उनके आंदोलन का प्रतीक संविधान की किताब थी. वहां से कई किलोमीटर दूर पूर्वी दिल्ली के इलाके में दंगा होता है. दिल्ली में जो दंगा हुआ उससे किसका मकसद पूरा हुआ आप समझ सकते हैं और उस दंगे के बहाने जो गिरफ्तारियां हुईं उससे किसका मकसद पूरा हुआ. इस आंदोलन के खिलाफ गोली मारो के नारे लगाने वाले भी थे जिनकी न तो गिरफ्तारी हुई और न UAPA लगा. लेकिन हिंसा के बहाने उन छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया जो इस आंदोलन के समर्थक थे और प्रदर्शन में शामिल थे. उनमें से कइयों पर UAPA लगा दिया गया.
दशकों हिंसक संघर्ष के बाद जिस असम के लिए नागरिकता कानून लाया गया उस कानून के आने के बाद जब असम में पहला विधानसभा चुनाव हुआ तो कानून लाने वाली बीजेपी ने घोषणा पत्र में इसका ज़िक्र तक नहीं किया. चुनावी भाषणों में इससे दूर ही रही. चुनावी मजबूरी आई तो तमिलनाडु में नागरिकता कानून का विरोध करने वाले लोगों को मुकदमे दर्ज करने वाली बीजेपी की सहयोगी एआईडीएमके के मुख्यमंत्री ने 1500 केस वापस ले लिए. ऐसा तो बाकी राज्यों में हो ही सकता है लेकिन नहीं हो रहा है. बहरहाल असम में हुई हिंसा के बहाने कई ऐसे लोगों पर UAPA लगा दिया गया जिन्हें बाद में सबूतों के अभाव में बरी करना पड़ रहा है.
अखिल गोगोई के मामले में NIA कोर्ट के जज प्रांजल दास ने अपने फैसले में कहा है कि रिकार्ड पर जो दस्तावेज़ पेश किए गए हैं और जिन पर चर्चा हुई है, मैं सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इन सभी साक्ष्यों के आधार पर नहीं कहा जा सकता कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को ख़तरा पहुंचाने के इरादे से आतंकी कार्रवाई की गई या लोगों को आतंकित करने के इरादे से आतंकी कार्रवाई की गई. इसलिए अखिल गोगोई के खिलाफ आरोप तय करने का कोई मामला नहीं बनता है.
पूरे देश को पता था कि नागरिकता कानून का विरोध हो रहा है. प्रदर्शन हो रहे हैं, फिर भी आतंक से जोड़ा गया ताकि इसके बहाने गोदी मीडिया आपको डिबेट में उलझाए रखे और आयोजकों को लंबे समय तक जेल में रखकर आंदोलन को खत्म कर दिया जाए. अखिल गोगोई पर छाबुआ थाना और चांदमारी थाना में केस दर्ज हुआ था. दोनों में UAPA के तहत आरोप लगाए गए थे. छाबुआ थाना केस में NIA कोर्ट ने अखिल गोगोई, जगजीत गोहेन और भूपेन गोगोई को बरी कर दिया है. 12 दिसंबर 2019 से लेकर आज तक इन लोगों को ऐसे आरोपों के तहत जेल में रखा गया जिसे साबित करने के लिए NIA जैसी पेशेवर एजेंसी भी सबूत पेश नहीं कर पाई. शिबसागर विधानसभा की जनता अखिल गोगोई को अपना विधायक चुन लेती है.
NIA कोर्ट ने कहा कि अखिल गोगोई के भाषणों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे लगता हो कि वे हिंसा फैलाने की कोशिश कर रहे थे. इसी तरह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के बाहर इसी कानून के खिलाफ भाषण देने पर डॉ कफील ख़ान के खिलाफ NSA लगा दिया जाता है जिसके कारण सात महीने दस दिन जेल में रहना पड़ा. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने डॉ कफील खान के केस में भी यही कहा कि उनके भाषण में भड़काने वाली बात कुछ नहीं है. नताशा नरवाल, देवांगाना कालिता और आसिफ तन्हा को ज़मानत देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन करना ग़ैर कानूनी नहीं है और न ही आतंकी कार्रवाई है. भड़काऊ भाषण और चक्का जाम करना ऐसे अपराध नहीं हैं कि Unlawful activities prevention act UAPA की संगीन धाराएं लगा दी जाएं. दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि UAPA के तहत आतंक की परिभाषा इतनी भी व्यापक नहीं होनी चाहिए कि सामान्य अपराध को भी आप आतंकी धाराओं में डाल दें. देश की अदालत कह रही है कि आतंक की परिभाषा व्यापक की जगह स्पष्ट होनी चाहिए. सरकार को याद नहीं कि प्रधानमंत्री भी यही बात कहते हैं. यहां नहीं, दुनिया के मंच पर.
21 जून को कपिल सिब्बल ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार और मौलिक स्वतंत्रता की सुरक्षा वाले विशेष प्रावधानों में आतंकवादी गतिविधियों को परिभाषित किया है. बताया है कि किसी कार्रवाई को आतंकी कार्रवाई कहने के लिए किन बातों का होना ज़रूरी है. घातक हथियार का इस्तेमाल होना चाहिए, लोगों को आतंकित करने का मकसद होना चाहिए, सरकार या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को रोकने के लिए होना चाहिए. कपिल सिब्बल कहते हैं कि UAPA में जो व्यापक परिभाषा दी गई है वह इससे मेल नहीं खाती है.
सिब्बल का लेख इसी संदर्भ में है कि UAPA का इस्तेमाल लोगों को डराने धमकाने और किसी का जीवन बर्बाद करने के लिए किया जा रहा है. आतंक से लड़ने के नाम पर बना यह कानून सरकार के आतंक का हथियार बन गया है. राज्यसभा में कर्नाटक से कांग्रेस सांसद सैय्यद नासिर हुसैन ने सवाल पूछा था कि कितने लोग UAPA के तहत जेल में बंद हैं, इनमें से अनुसूचित जाति, जनजाति पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक कितने हैं. महिलाएं कितनी हैं, ट्रांसजेंडर कितने हैं. पांच साल में कुल कितने लोग गिरफ्तार हुए हैं और कितने लोगों को सज़ा मिली है.
जवाब में गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा कि 2019 में UAPA के तहत 1948 लोग गिरफ्तार किए गए हैं. 2016 से 2019 के बीच 5922 लोग गिरफ्तार हुए और सज़ा केवल 132 लोगों को मिली है. इसका मतलब हुआ कि UAPA के तहत जितने केस दर्ज हुए थे, केवल 2 प्रतिशत मामलों में सज़ा हुई. 9 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट फाइल हुई है. क्या सरकार इस तरह से आतंक से लड़ रही है? इसी पर सिब्बल ने लिखा है कि 91 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट दायर न होना बताता है कि इसका मकसद किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद ज़मानत से रोकना था.
यही नहीं किसी मामले में चार साल तो किसी में आठ साल से आरोप पत्र दायर नहीं हुए हैं. आतंक के नाम पर NIA जैसी पेशेवर एजेंसी का इस्तेमाल धरना प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ हो रहा है ठीक उसी तरह जैसे ED का इस्तेमाल चुनाव के समय विरोधी दल के समर्थकों के यहां होता है. हमारे सहयोगी निहाल ने कर्नाटक से एक और रिपोर्ट भेजी है. यहां की जेलों में UAPA के तहत 27 ऐसे आरोपी 8 साल से जेलों में बंद हैं जिनका अभी तक ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ है.
रिलायंस एनर्जी के लिए बीस साल काम करने वाले सैदुलु सिंगापांडा को 2018 में गिरफ्तार किया जाता है और UAPA लगा दिया जाता है. कि वे आतंकी संगठन (CPI-M) के सदस्य हैं. सिंगापांडा को किसी और की जगह गलती से गिरफ्तार कर लिया गया था. लंबे समय तक जेल में रहने के बाद ज़मानत मिली है.
इस कानून को लेकर सवाल उठ रहे हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि आतंक को परिभाषित किया जाए, धरना प्रदर्शन को आंतक की कार्रवाई में नहीं रखा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी पर विचार किया जाएगा. केंद्र सरकार का कहना है कि हाई कोर्ट ने तो इस कानून को उल्टा ही खड़ा कर दिया है. अब सब इस आधार पर बेल मांगेंगे. लेकिन आपने अभी देखा कि अखिल गोगोई को बेल इसलिए मिली कि बिना आधार के UAPA में गिरफ्तार किया गया.
योग दिवस के साथ योग का इतिहास, परम्परा और विशेष आलेख...