Owner/Director : Anita Khare
Contact No. : 9009991052
Sampadak : Shashank Khare
Contact No. : 7987354738
Raipur C.G. 492007
City Office : In Front of Raj Talkies, Block B1, 2nd Floor, Bombey Market GE Road, Raipur C.G. 492001
ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक दो संभावित कोरोना वायरस के वैक्सीन को लेकर टेस्ट शुरू कर चुके हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और अमरीकी कंपनी इनोविओ फ़ार्मास्युटिकल्स के बनाए वैक्सीन का जानवरों पर सफल परीक्षण किया जा चुका है. अगर ये वैक्सीन इंसानों पर परीक्षण में सफल पाए जाते हैं तो ऑस्ट्रेलिया की साइंस एजेंसी इसका आगे मूल्यांकन करेगी.
पिछले महीने अमरीका में पहली बार इंसानों पर वैक्सीन का परीक्षण किया जा चुका है लेकिन उस वक़्त जानवरों पर परीक्षण करने वाला चरण छोड़ दिया गया था. पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के वैक्सीन पर तेज़ी से काम चल रहा है. लेकिन ऑस्ट्रेलिया के कॉमनवेल्थ साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन (सीएसआईआरओ) का कहना है कि यह परीक्षण पहला पूरी तरह से जानवरों पर आज़माया गया प्री-क्लिनिकल ट्रायल होगा.
शोधकर्ताओं ने कहा है कि पूरी दुनिया से मिलने वाला सहयोग शानदार है जिसकी वजह से इस चरण तक हम इतनी तेज़ी से पहुँच पाए हैं. सीएसआईआरओ के डॉक्टर रॉब ग्रेनफ़ेल का कहना है, "आमतौर पर इस स्टेज तक पहुँचने में एक से दो साल तक का वक़्त लगता है. लेकिन हम सिर्फ़ दो महीने में यहां तक पहुँच गए हैं."
कैसे काम करता है ये वैक्सीन
पिछले कुछ दिनों में सीएसआईआरओ की टीम ने इस वैक्सीन को गंधबिलाव (नेवले की जाति का एक जानवर) पर टेस्ट किया है. यह साबित हो चुका है कि गंधबिलाव में इंसानों की तरह ही कोरोना वायरस का संक्रमण होता है.वास्तव में सार्स कोवि-2 वायरस कोरोना संक्रम के लिए ज़िम्मेवार होता है. पूरी दुनिया में कम से कम 20 वैक्सीन पर अभी काम चल रहा है. सीएसआईआरओ की टीम दो वैक्सीन पर काम कर रही है.
पहला वेक्टर वैक्सीन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से विकसित किया गया है. इसमें कोरोना वायरस के प्रोटीन को इम्युन सिस्टम में डालने के लिए 'डिफ़ेक्टिव' वायरस का इस्तेमाल किया जाता है और फिर इससे होने वाले प्रभावों परीक्षण किया जाता है.
विक्टोरिया में ऑस्ट्रेलियन एनीमल हेल्थ लैबोरेट्री के प्रोफ़ेसर ट्रेवर ड्रु बताते हैं कि इम्युन सिस्टम में डाला गया वायरस अपनी प्रतिलिपि नहीं तैयार करता. इसलिए इस वैक्सीन से बीमार पड़ने की संभावना नहीं है. वो दूसरे वैक्सीन के बारे में भी बताते हैं जो अमरीकी कंपनी इनोविओ फर्मास्युटिकल्स ने तैयार किया है. यह वैक्सीन थोड़ा अलग तरीके से काम करता है.
यह इस तरह से तैयार किया गया है कि यह इम्युन सिस्टम में कोरोना वायरस के कुछ प्रोटीन को इनकोड करता है और फिर शरीर की कोशिकाओं को उन प्रोटीन को पैदा करने के लिए उत्प्रेरित करता है. यह कई पहलुओं से बहुत अहम हैं और इसके सफल होने की बहुत हद तक गुंजाइश बनती है.
कब तक हमें इसके नतीजे मिल सकते हैं?
वैज्ञानिकों का कहना है कि जानवरों पर होने वाले परीक्षण के नतीजे जून की शुरुआत में आ सकते हैं. अगर नतीजे सही आते हैं तो वैक्सीन को क्लीनिकल परीक्षण के लिए भेजा जा सकता है. इसके बाद से मार्केट में इसके आने की प्रक्रिया तेज़ हो सकती है लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि कम से कम 18 महीने का वक़्त इसके बाद भी दूसरी प्रक्रियाओं में लग सकते हैं.
ख़ास बातें
स्मार्टफोन हमारी जिंदगी का बेहद ही अहम हिस्सा है, जो दिनभर हमारे हाथों में रहता है। एक दिन में स्मार्टफोन न जाने कितनी सतहों को छुकर हमारे स्पर्श में आता है, यह भी कारण है कि स्मार्टफोन उन डिवाइस में से एक है जिसमें सबसे ज्यादा कीटाणुओं और वायरस के मौजूद होने की संभावना होती है। COVID-19 यानी कोरोना वायरस के कहर को देखते हुए, हमें स्मार्टफोन के द्वारा कोरोना वायरस फैलने की भी चिंता होनी चाहिए। कुछ प्रमुख बातें, यह भी है जिनपर सोचना-विचार करना जरूरी है। फोन के जरिए किसी शख्स में कोरोना वायरस फैलने की कितनी संभावना है? और कोरोना वायरस एक मोबाइल फोन पर कब-तक जिंदा रहता है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के एक शोध के मुताबिक, साल 2003 का SARS-CoV वायरस एक कांच की सतह पर 96 घंटे यानी चार दिन से भी ज्यादा जिंदा रहता था। कांच के अलावा यह वायरस मजबूत प्लास्टिक और स्टेनलेस स्टिल पर 72 घंटे यानी तीन दिन तक जिंदा रहता था। लेकिन, हाल ही में यूनाटेड स्टेट्स के National Institutes of Health द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक, नोवल-कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) भी SARS-CoV वायरस की तरह मजबूत प्लास्टिक और स्टेनलेस स्टिल पर 72 घंटे यानी तीन दिन तक जिंदा रहता है। इस शोध में यह भी कहा गया कि यह कोरोना वायरस कार्डबोर्ड पर 24 घंटे और कॉपर यानी तांबे पर केवल 4 घंटे ही जिंदा रह पाता है। हालांकि, इस नए शोध में यह साफ नहीं हो पाया है कि यह खतरनाक कोरोना वायरस कांच (ग्लास) पर कब तक जिंदा रहता है।
लेकिन, हम WHO के द्वारा किए गए साल 2003 के शोध और NIH के पिछले महीने के शोध की समानता से यह मान सकते हैं कि यह नोवल-कोरोना वायरस कांच (ग्लास) पर 96 घंटे यानी चार दिन तक जिंदा रह सकता है। वहीं, सभी स्मार्टफोन का फ्रंट पैनल ग्लास का बना होता है, इसलिए कहा जा सकता है कि यह खतरनाक कोरोना वायरस आपके मोबाइल फोन पर भी 4 दिन तक जिंदा रह सकता है। केवल स्मार्टफोन ही नहीं, यह उन सभी गैजेट्स पर लागू होता है, जो ग्लास से बने होते हैं। चाहे स्मार्टफोन हो, स्मार्टवॉच हो, टैबलेट हो या फिर लैपटॉप।
सभी गैजेट्स में स्मार्टफोन सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला गैजेट है, जिसके द्वारा कोरोना वायरस के संपर्क में आने का खतरा सबसे ज्यादा रहता है। ऐसे में कोरोना वायरस से बचाव के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, खुद की सफाई के साथ-साथ अपने स्मार्टफोन की सफाई करना। स्मार्टफोन की सफाई के लिए आप गैजेट क्लिन करने वाला लिक्विड का इस्तेमाल कर सकते हैं। नहीं तो गीले कपड़े से गैजेट को पोंछकर भी उसे साफ रख सकते हैं। इसके अलावा गैजेट को अच्छे से सैनेटाइज़ करने के लिए आप 70 प्रतिशत isopropyl अल्कोहल सॉल्युशन का भी इस्तेमाल कर सकते हैं, जिसे ऐप्पल जैसा ब्रांड भी सुझाता है। हालांकि, ध्यान रखें 70 प्रतिशत से ज्यादा concentrations का इस्तेमाल न करें और न ही किसी कीटाणुनाशक पेय पदार्थ का इस्तेमाल करें। ये सभी आपके स्मार्टफोन के डिस्प्ले की oleophobic कोटिंग को खत्म कर देंगे। आप अपने फोन में स्क्रीन प्रोटेक्टर को लगा लें। आप इसे आसानी से साफ रख सकते हैं, बिना डिस्प्ले को नुकसान पहुंचाए।
Apple ने अपने सपोर्ट पेज़ पर लिखा, "70 प्रतिशत isopropyl अल्कोहल या क्लोरॉक्स डिसइंफेक्टिंग वाइप्स का इस्तेमाल करके अपने ऐप्पल प्रोडक्ट के डिस्प्ले, कीबोर्ड आदि बाहरी सतह को आराम से साफ कर सकते हैं। डिवाइस साफ करने के लिए ब्लीच का इस्तेमाल बिल्कुल न करें। डिवाइस के ओपनिंग हिस्से में नमी न दें, इससे आपका डिवाइस खराब हो सकता है। कपड़े या फिर लैदर का इस्तेमाल डिवाइस की सतह पर न करें।"
कोरोना वायरस से निपटने के लिए हाईजीन का ख्याल रखना ही बचाव की एकमात्र तरकीब है. हेल्थ एक्सपर्ट्स का कहना है कि साबुन या सैनिटाइजर से अच्छे से हाथ धोकर ही आप इस जानलेवा वायरस से बच सकते हैं. हालांकि लोगों के बीच इसे लेकर भी बड़ी बहस है कि साबुन या सैनिटाइजर में से क्या ज्यादा सही विकल्प है.
यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ वेल्स के प्रोफेसर पॉल थॉर्डर्सन ने कोरोना वायरस से बचने के लिए साबुन को ज्यादा बेहतर विकल्प बताया है. साबुन वायरस में मौजूद लिपिड का आसानी से खात्मा कर सकता है.
दरअसल साबुन में फैटी एसिड और सॉल्ट जैसे तत्व होते हैं जिन्हें एम्फिफाइल्स कहा जाता है. साबुन में छिपे ये तत्व वायरस की बाहरी परत को निष्क्रिय कर देते हैं. करीब 20 सेकंड तक हाथ धोने से वो चिपचिपा पदार्थ नष्ट हो जाता है जो वायरस को एकसाथ जोड़कर रखने का काम करता है.
आपने कई बार महसूस किया होगा कि साबुन से हाथ धोने के बाद स्किन थोड़ी ड्राइ हो जाती है और उसमें कुछ झुर्रियां पड़ने लगती हैं. दरअसल ऐसा इसलिए होता है क्योंकि साबुन काफी गहराई में जाकर कीटाणुओं को मारता है.
अब बात करते हैं कि सैनिटाइजर क्यों साबुन जितना प्रभावशाली नहीं है. जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के एक शोध के मुताबिक जेल, लिक्विड या क्रीम के रूप में मौजूद सैनिटाइजर कोरोना वायरस से लड़ने में साबुन जितना बेहतर नहीं है. कोरोना वायरस का सामना सिर्फ वही सैनिटाइजर कर सकेगा जिसमें एल्कोहल की मात्रा अधिक होगी. सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाला साबुन इसके लिए ज्यादा बेहतर विकल्प है.