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अति सामान्यीकरण और पसंद या नापसंदगी की अधिकता में अक़्सर बारीकियां और विषमरेखीय वास्तविकताएं छिप जाती हैं, सामने होते हुए भी दिखती नहीं.
अंग्रेज़ी के सबसे प्रतिष्ठित और बड़े अखबारों को ले लीजिए, टाइम्स ऑफ इंडिया को छोड़ कर हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू, द टेलिग्राफ सही मुद्दों पर मोदी को तिलमिला देने वाली आलोचना करते हैं. टेलिग्राफ और एक्सप्रेस तो अक़्सर ऐसी की तैसी वाले अंदाज़ अपना लेते हैं. टेलिग्राफ कई बार आलोचना से आगे बढ़ कर विरोध की पत्रकारीय अतिवादिता तक पहुंच जाता है. हिन्दी में जागरण को छोड़ कर अमर उजाला, दैनिक हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, भास्कर काफ़ी हद तक संतुलित रहते हैं. मोदी का महिमामंडन नहीं करते. राजस्थान पत्रिका तो ताल ठोक कर मोदी-भाजपा-वसुन्धरा आलोचना कर रहा है.
यह सच है कि चैनलों में कुछ तो सचमुच निर्लज्जता की हद तक मोदी भक्ति और विपक्ष-विरोध में जुटे हैं. हिन्दी अंग्रेजी दोनों में. पर तटस्थ और आलोचक भी हैं, दोनों ही भाषाओं में. एक तरफ राष्ट्रवाद की सरिता बहती रहती है दूसरी ओर शुद्ध विरोध की. इन दो अतियों के बीच वाले भी हैं.
क्षेत्रीय मीडिया का हाल
पिछले कुछ सालों में अपनी एक अलग जगह और धमक बना चुके कई ऑनलाइन समाचार-विचार मंचों में तो प्रमुखता मोदी-भाजपा विरोधी स्वरों की ही है. अंग्रेज़ी में खूब तीखी. उसकी काट के लिए कई राष्ट्रवादी मंच भी उभरे हैं पर वह प्रभाव और प्रसार नहीं हासिल कर पाए हैं. ये ऑनलाइन मंच अपने तीखेपन, मौलिकता, निडरता, विविधता और बौद्धिकता में कई बार अपने प्रिंट साथियों से आगे दिखते हैं.
लेकिन ये सब मुख्यतः राजधानी दिल्ली या कुछ प्रमुख शहरों से निकलने वाले मीडिया की बात है वह भी हिन्दी और अंग्रेजी में. पर व्यापक भारतीय मीडिया तो सारे राज्यों में, उनकी दर्जनों भाषाओं में है. अपनी दिल्ली-केन्द्रित दृष्टि के कारण हमारा ध्यान उन पर लगभग नहीं जाता. क्षेत्रीय अखबारों और समाचार चैनलों की संपादकीय भूमिका और रुख हमेशा से प्रदेश सरकारों के ज़्यादा ख़िलाफ़ ना जाते हुए, उनसे मिल कर चलने का ही रहा है.
अपवाद सब जगह हैं, यहां भी हैं. केन्द्र सरकार, केन्द्रीय सत्तारूढ़ पार्टी उनके लिए तब तक दोयम दर्ज़े का महत्व रखते हैं जब तक उनके अपने-अपने प्रदेशों से संबंधित बात न हो. यह ठीक है कि आज बीस से ज़्यादा राज्यों में भाजपा-एनडीए सरकारें हैं इसलिए वहां का मीडिया इस असलियत को प्रतिबिम्बित करता है. केन्द्र-राज्य दोनों जगह एक पार्टी का होना उनके मुख्यमंत्री-मोदी-भाजपा-एनडीए समीकरण से प्रभावित होने को लगभग अनिवार्य सा बना देता है. ये स्थितियां किसी भी लोकतंत्र के लिए आदर्श नहीं हैं. लेकिन भारतीय मीडिया के चरित्र की ज़मीनी वास्तविकता यही रही है एक लंबे समय से. अपने जमाने में कांग्रेस ने इसका फ़ायदा उठाया, अब भाजपा उठा रही है.
जहां भाजपा सरकार नहीं
लेकिन इसका यह भी मतलब है कि बंगाल में ममता बनर्जी के उग्र रवैए, तेलंगाना में केसीआर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पंजाब आदि में आप मोदी की गोदी में बैठे होने का आरोप वहां के बहुसंख्यक मीडिया पर नहीं लगा पाएंगे. उनका रुख़ अपनी सत्तारूढ़ पार्टी और मुख्यमंत्री के मन के मुताबिक रहता है. जब बिहार में नीतीश भाजपा विरोधी गठबंधन में रह कर सरकार चला रहे थे उस समय भी मीडिया को बेहद सख्ती से नियंत्रण में रखने के आरोप उन पर लग ही रहे थे. आज वही नियंत्रण और दबाव एनडीए के पक्ष में है.
बंगाल मीडिया का भी कुछ अपवादों को छोड़ कर यही हाल है. लेकिन चूंकि इस विराट क्षेत्रीय मीडिया के संपादकीय रुखों और भूमिकाओं का हमें ठीक से पता नहीं चलता इसलिए हमारी विचारों-विश्लेषण से भी यह विशाल विविधता गायब रहती है. यह सच है कि मनमोहन सिंह सरकार के दस साल के कार्यकाल में मीडिया के कई हिस्से ऐसे मनमोहन या कांग्रेस भक्ति में नहीं लगे थे जैसे आज मोदी भक्ति में लगे हैं. हालांकि यह याद रखना भी ज़रूरी है कि उन दस सालों में राहुल गांधी को देश और कांग्रेस के प्रखरतम राजनीतिक नायक, उद्धारक के रूप में स्थापित करने के कितने प्रबल मीडिया प्रयास हुए थे.
यह भी याद रखना उतना ही ज़रूरी है कि वे ही दिन थे जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हत्यारा, सांप्रदायिक आदि कहने, दिखाने के अभियान में देश के प्रमुखतम मीडिया संस्थान जम कर शामिल थे. क्या किसी मुख्यमंत्री या भारतीय राजनीतिज्ञ को इतने लंबे, इतने ज़बरदस्त, इतने सघन विरोध और छविहनन को झेलना पड़ा है जितना मोदी को? नहीं.
मोदी के पक्ष में कैसे जुटा मीडिया?
जैसा अभूतपूर्व वह छविहनन अभियान था उतना ही वह जनसमर्थन रहा है जिसने मोदी को एक आंधी बना कर प्रधानमंत्री बना दिया. इसलिए यह कहना कि मोदी को मीडिया ने बनाया है मज़ाक है. मीडिया के बड़े हिस्सों का मोदी के पक्ष में जुटना तब हुआ जब प्रचार अभियान के दौरान उनको मिल रहे ऐतिहासिक समर्थन और स्वीकार्यता की अप्रत्याशित लहर का एहसास होना शुरू हुआ. वह लहर मोदी और शाह की रणनीति, चुनावी तैयारी, विराट संसाधनों और टेक्नोलॉजी के कभी न देखे गए इस्तेमाल और सबसे ज़्यादा मोदी की अपनी ऊर्जावान, मौलिक वक्तृता और नए सपने दिखाने की कला से पैदा हुई थी. मीडिया इस गाड़ी में बाद में सवार हुआ.
शिव कहते हैं, दो दशक पहले मोदी पूरी तरह एक अफ़वाह थे. यह अद्भुत स्थापना है. सच यह है कि दो दशक पहले वह भारतीय जनता पार्टी के एक कार्यकर्ता थे जो बाद में महासचिव बने. उनका गुजरात जाना, मुख्यमंत्री बनना किसी सोची समझी योजना के तहत नहीं भाजपा और गुजरात के भीतर उस समय की परिस्थितियों ने अचानक संभव कर दिया. वह अफ़वाह नहीं कभी-कबार मीडिया में आने वाले एक पार्टी नेता थे, बस. मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद गोधरा और गुजरात दंगों में मोदी की छवि मीडिया ने एक आइकन या आदर्श नहीं इसके बिलकुल उलट एक भयानक खलनायक की बनाई थी. इस अभूतपूर्व रूप से नकारात्मक मीडिया छवि से लड़ कर, उसे हरा कर मोदी सत्ता के शिखर पर पहुंचे. मोदी मीडिया के खोजे और बनाए हुए नहीं थे तब, मीडिया के मारे हुए थे.
आज चार साल बाद स्थिति कुछ दृष्टियों से उलट गई लगती है. शिव को अभी सिर्फ़ वही दिख रही है. जैसा ,मैं ऊपर कह चुका हूं, आज का सच सचमुच यह है कि तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया का एक प्रभावशाली हिस्सा मोदी-महिमा में शामिल है. किन्तु एक हिस्सा, पूरा नहीं. यह हिस्सा अनालोचक हो गया है. पर यह कहना कि पूरा मीडिया ऐसा हो गया है, वैचारिक अतिवादिता है और अधूरी बात है. शिव की शिकायतें जायज़ भी हैं. नोटबंदी पर मीडिया तथ्यपरक नहीं रहा कुछ को छोड़ कर. लेकिन उस समय लगभग पूरा देश, खासतौर पर मध्यम वर्ग और खुद मोदी तथा उनकी सरकार भी नोटबंदी की अच्छाईयों के सपनों से अभिभूत थे.
वह एक अत्यंत गंभीर गलती थी, मिसकैलकुलेशन था. पर सबको यह तो दिख रहा था कि मोदी ने एक भारी राजनीतिक जोखिम उठा कर यह कदम उठाया था. वह पूरी तरह नाकाम रहा, लेकिन इसने मोदी को बड़े, क्रांतिकारी किस्म के, देशहित में कड़े और अलोकप्रिय कदम उठाने की क्षमता वाले नेता के रूप में स्थापित किया.
विदेश नीति में मोदी पर शिव की एक टिप्पणी गौरतलब है जो चकित करती है. मोदी के शिंजो आबे, पुतिन, ट्रंप के साथ दोस्ताना तस्वीरें खिंचवाने और इनसे लोगों को मोह लेने का आरोप लगाते समय शिव कहते हैं - मीडिया इन चार देशों के नैतिक खालीपन को देखना भूल जाता है. क्या शिव जैसे गंभीर, वरिष्ठ चिंतक यह नहीं जानते कि असली राजनय में नैतिकता हमेशा, और हर देश के लिए, एक औपचारिकता के अलावा कुछ नहीं होती. उसपर देशहित का राजनय नहीं होता न हो सकता है.
विदेश मामलों में केवल देशहित सर्वोपरि होता है और यह देशहित नैतिक नहीं आर्थिक, सैनिक या रणनीतिक होता है। लेकिन एक बात जो अपनी मीडिया आलोचना में शिव ने नहीं कही वह मैं कहना चाहता हूं. यह दुखद है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते. चार साल में एक भी नहीं. मीडिया को दूर रखते हैं. यह गलत है. उन्हें करनी चाहिए सभी लोकतांत्रिक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों की तरह. लेकिन अगर भारतीय मीडिया सचमुच उतना ही ठोस रूप से मोदी भक्त होता तो क्या मोदी उससे कतराते?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
::/fulltext::शत्रुघ्न सिन्हा ना सिर्फ बीजेपी के सांसद हैं बल्कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी हैं.
खास बातें
नई दिल्ली: आम आदमी पार्टी की नोएडा में हुई जन अधिकार रैली बुलाई तो थी पार्टी सांसद और वरिष्ठ नेता संजय सिंह ने, लेकिन इसमें मुख्य अतिथि के तौर पर अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ बीजेपी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा भी मौजूद थे. यशवंत सिन्हा तो भारतीय जनता पार्टी छोड़ चुके हैं, लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा ना सिर्फ बीजेपी के सांसद हैं बल्कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी हैं. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की 2 दिन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही है, लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा उस बैठक में शामिल नहीं हुए. लेकिन पास ही के नोएडा में आयोजित आम आदमी पार्टी की जन अधिकार रैली में ना सिर्फ शामिल हुए, बल्कि अरविंद केजरीवाल और उनकी दिल्ली सरकार की जमकर तारीफ भी की. अब इसको लेकर बीजेपी में चर्चाओं का दौर जारी है.
बीजेपी के नाराज लोकसभा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार की तारीफ करते हुए कहा कि 'जो काम शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोहल्ला क्लीनिक के क्षेत्र में और अब सरकार को जनता के द्वार पहुंचाने के क्षेत्र में अरविंद केजरीवाल की सरकार ने किया है, वह शानदार है भूतो ना भविष्यति है यानी ना पहले कभी ऐसा हुआ ना आगे कभी ऐसा होगा.' शत्रुघ्न सिन्हा को इस बात का शायद एहसास था कि जब वह अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की बजाए विरोधी पार्टी की रैली में जाकर मंच साझा करेंगे तो सवाल तो उठेंगे.
उन्होंने मंच जनता को संबोधित करते हुए कहा 'लोग मुझसे पूछते हैं कि आप मुख़ालफ़त क्यों करते हैं आप भारतीय जनता पार्टी में हैं अभी तक तो आप भारतीय जनता पार्टी की मुख़ालफ़त क्यों करते हैं? तो मैं यही जवाब देता हूं कि मैं भले भारतीय जनता पार्टी में हूं अभी तक, लेकिन उससे पहले भारत की जनता का हूं और क्योंकि भारत की जनता का हूं इसलिए जानता हूं कि व्यक्ति से बड़ी पार्टी होती है, और पार्टी से बड़ा देश होता है. तो मैं जो बातें करता हूं देश हित में करता हूं, जनहित में करता हूं. कोई स्वार्थ के लिए नहीं करता हूं, कोई चीज कोई लाइसेंस या कोई भ्रष्टाचार की बात नहीं करता हूं. मैं आपकी लड़ाई लड़ रहा हूं.'
अरविंद केजरीवाल ने भी शत्रुघ्न सिन्हा की तरफ से हुई जबरदस्त तारीफ का जवाब देते हुए कहा कि 'आप दोनों शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा जी जिस तरह से पूरे देश में घूम-घूमकर लोगों को जागरुक कर रहे हैं वह वाकई लाजवाब है इसके लिए मैं आप को सलाम करता हूं.' आपको बता दें कि शत्रुघ्न सिन्हा बिहार की पटना साहिब सीट से बीजेपी के सांसद हैं और बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, लेकिन बीते काफी समय से पार्टी से नाराज चल रहे हैं.
लंदन। लंदन में सिख विरोधी दंगों को लेकर दिए गए राहुल के बयान पर देश में सियासत शुरू हो गई है। शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कहा कि, राहुल गांधी ने साफ संदेश दिया है, वो उनके साथ हैं, जिन्होंने बेगुनाहों को मारा। ये उन सिखों के लिए जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है, जिन्होंने सिख विरोधी दंगों में अपनों को खोया।
::/introtext::दरअसल राहुल गांधी ने 1984 में हुए सिख दंगों पर भी लंदन में बयान दिया। उन्होंने ब्रिटेन के सांसदों और स्थानीय नेताओं की संभा में कहा कि," ये बड़ी त्रासदी थी और इससे काफी नुकसान हुआ, लेकिन उन्होंने इससे असहमति जताई कि इसमें कांग्रेस शामिल थी। उन्होंने कहा कि, मुझे लगता है कि किसी के भी खिलाफ की गई हिंसा गलत है।
::/fulltext::नई दिल्ली. इमरान खान पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री बन चुके है उनके समारोह में शामिल होने भारत से नवजोत सिंह सिद्धू पहुंचे हैं। शपथ समारोह में इमरान काफी नर्वस दिख रहे थे। इस दौरान उन्होंने स्पीच में काफई गलतियां की जिसके लिए उन्हे SORRY बोलना पड़ा।
::/introtext::इमरान के शपथ-ग्रहण समारोह का मुल्क बेसब्री से इंतजार कर रहा था। शनिवार को वह घड़ी भी आई, जब इमरान प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने ऐवान-ए-सद्र (राष्ट्रपति भवन) पहुंचे। काली शेरवानी में शपथ लेने पहुंचे इमरान जब शपथ ले रहे थे तो कई ऐसे मौके आए जब वह अटक गए और राष्ट्रपति ममनून हुसैन को कुछ लाइन दोहरानी पड़ी। दरअसल, शपथ-ग्रहण के दौरान एक बार ‘कयामत’ शब्द का उन्होंने गलत उच्चारण किया और कयादत बोल दिया, जिसके बाद राष्ट्रपति ने एक बार फिर वह लाइन दोहराई। इसके बाद इमरान खुद हंस पड़े और उन्होंने सॉरी कहते हुए सही उच्चारण किया। इमरान खान के शपथ-ग्रहण समारोह में भारत से क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू भी शामिल हुए, जिसे लेकर देश में बवाल मचा हुआ है। कुछ लोगों ने पाकिस्तान से रिश्तों में तनातनी के बावजूद पाकिस्तान जाने के सिद्धू के फैसले पर सवाल उठाए हैं।उनकी नाराजगी देश के दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंत्येष्टि वाले दिन ही सिद्धू के पाकिस्तान जाने को लेकर भी है, जिन्हें हाल-फिलहाल तक वह अपनी ‘राजनीतिक प्रेरणा’ बताते रहे।
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