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नई दिल्ली 16 मई 2018। कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई पर सभी की निगाहें टिकी है। कर्नाटक में राजनीतिक उहापौह की स्थिति वजूभाई कैसे शांत करते हैं, इस पर सभी की निगाहें टिकी है। कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनने के बाद अपनी भूमिका को लेकर चर्चा में आए राज्यपाल वजूभाई वाला ने गुजरात में कभी पीएम मोदी के लिए अपनी विधानसभा सीट छोड़ी थी.
ताकि उस समय पहली बार मुख्यमंत्री बने नरेंद्र मोदी 2001 में अपना पहला चुनाव लड़ पाएं. मोदी के करीबी समझे जाने वाले 79 वर्षीय वाला राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ( आरएसएस ) के पुराने स्वयंसेवक हैं और उनके नाम पर गुजरात के वित्त मंत्री के तौर पर 18 बजट पेश करने का रिकार्ड है. भाजपा की गुजरात इकाई में संकट प्रबंधक की छवि हासिल कर चुके वजूभाई वाला को 1990 के दशक के मध्य में तब प्रदेश पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था जब शंकरसिंह वाघेला ने बगावत कर दी थी.और केशुभाई पटेल सरकार गिर गई थी.
वह गुजरात के वित्त मंत्री के रूप में 2002 से 2012 तक मोदी के बाद दूसरे नंबर पर थे. केशुभाई पटेल के दौर में भी उनका यही दर्जा था. गौरतलब है कि वाला ने अपने गृह नगर राजकोट से आरएसएस के साथ अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी. उस दौरान वह जनसंघ से जुड़े और आपातकाल में जेल में भी गए.
::/fulltext::नई दिल्ली.कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा माइक्रो मैनेजमेंट के दम पर इस मुकाम तक पहुंची है। हालांकि, कांटे के मुकाबले में वह बहुमत से चंद सीटें पीछे रह गई। कर्नाटक में बहुमत के लक्ष्य के साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मोदी कैबिनेट के 30 केंद्रीय मंत्रियों समेत 55 सांसदों को पहले 4-4 विधानसभा की जिम्मेदारी सौंपी थी। बाद में इसे कम करते हुए केंद्रीकृत व्यवस्था की।
हर गांव में रोज 8 बार जनसंपर्क करती थीभाजपा
- भाजपा की इस जीत में उसकी प्रचार की रणनीति अहम रही। पार्टी ने महिला, युवा, किसान, एससी, एसटी, अल्पसंख्यक समेत सभी 8 मोर्चों को सक्रिय करते हुए हर गांव में जनसंपर्क की जिम्मेदारी सौंपी थी। यानी एक दिन में एक ही गांव में एक घंटे के अंतराल पर जनसंपर्क अभियान चलाया। एक दिन में 8 बार जनसंपर्क की रणनीति ने भाजपा को मुकाबले में सबसे ऊपर ला दिया।
हर विधानसभा में 15-20 हजार लोगों की पन्ना कमेटी थी
- भाजपा ने पन्ना प्रमुख के साथ पहली बार पन्ना कमेटी भी बनाई, जिसमें वोटर लिस्ट के उसी पन्ने से 2-3 वोटर छांट कर अपने साथ जोड़े। इस तरह हर विधानसभा में पार्टी ने 15 से 22 हजार पन्ना कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी की और 10 लाख से ज्यादा प्रतिबद्ध मतदाताओं को अपने साथ जोड़ा।
50-55 हजार बूथों को 3 हिस्सों में बांटकर काम किया
- इसके अलावा मिस्ड कॉल से पार्टी के सदस्य बने लोगों से कॉल सेंटर के जरिए सीधा संपर्क किया गया। जिन वोटरों से फोन पर बात नहीं होती थी, उनसे प्रत्यक्ष संपर्क के लिए 10-10 लोगों की टीम बनाई गई थी। हर विधानसभा में ये व्यवस्था रखी।
- इसके अलावा करीब 50-55 हजार बूथों को 3 हिस्सों- बूथ कमेटी, शक्ति केंद्र, महाशक्ति केंद्र में बांटकर काम किया। हर बूथ पर 5 से 7 लोगों की कमेटी बनाई। 5-7 बूथों को मिलाकर एक शक्ति केंद्र, 5 शक्ति केंद्र से एक महाशक्ति केंद्र बनाया। राज्य भाजपा इकाई को रणनीतिक मामलों से दूर रखकर सिर्फ प्रचार में लगने को कहा गया। उम्मीदवारों के चयन में शाह ने अपने सर्वे को ही प्राथमिकता दी।
भाजपा के 97% और कांग्रेस के 75% करोड़पति प्रत्याशी जीते
बंगाल के पंचायत चुनाव शर्मसार करने वाले हैं. मतदान शुरू नहीं हुआ कि कई जगहों पर सुबह के वक्त ही बम बंदूक गोली चलने लगी. आम तौर पर दोपहर बाद हिंसा होती थी मगर सुबह ही हिंसा होने लगी. थाने के पास, पोलिंग बूथ के करीब हिंसा हुई है. बम चले हैं और गोली चली है. मारपीट तो जाने कितनी जगह हुई. बीजेपी कार्यकर्ता की गोली मार कर हत्या हुई है. तृणमूल का कार्यकर्ता भी मार दिया गया. सीपीएम कार्यकर्ता का घर फूंक दिया गया. उसकी पत्नी भी जल कर मर गई. चुनाव से पहले ही हिंसा होने लगी थी. उसके बाद भी ऐसी क्या तैयारी थी कि इस तरह की हिंसा हुई है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सात से लेकर 13 लोगों के मरने की ख़बर आ रही है. घायलों की संख्या सैंकड़ों में बताई जा रही है. टीवी के फुटेज में कोई तलवार लेकर जा रहा है तो कोई चेहरा छिपाए जा रहा है. इस शर्त पर पंचायत चुनाव में हार और जीत का कोई मतलब नहीं रह जाता है. राज्य चुनाव आय़ोग को चुनाव ही रद्द कर देना चाहिए.
भारत में कई राज्यों में चुनाव हिंसा मुक्त हो गए हैं. वहां बाहुबल की जगह घनबल ने ले लिया है. मगर बंगाल में राजनीति का चरित्र ही हिंसा हो गई है. किसी को जगह बनानी होती है तो रामनवमी में तलवारों की यात्रा निकालता है, तनाव पैदा करता है, किसी को अपनी जगह बचानी है तो वो भी तलवारें निकालते हैं. इस हिंसा में हर दल के कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं. बंगाल के गांव अगर इसी तरह हिंसा को स्वीकार करते रहे और शहर बेपरवाह रहे तो एक दिन वहां चुनाव और जीतने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. हिंसा के डिटेल बता रहे हैं कि बंगाल अभी भी 80 के दशक के राजनीतिक युग में जी रहा है. चुनाव से पहले ही विपक्ष एक तिहाई सीटों पर उम्मीदवार खड़े नहीं कर पाया. जबकि विपक्ष में कई पार्टियां हैं. बीजेपी, कांग्रेस, सीपीएम, लेफ्ट की अन्य पार्टियां. अगर ये सब मिलकर एक तिहाई सीटों पर भय और हिंसा के कारण उम्मीदवार न उतार पाएं तो फिर इस चुनाव को कराना ही नहीं चाहिए था. यह क्या संदेश दे रहा है? कोई वामदलों के समय होने वाली हिंसा के आंकड़ों से तुलना कर रहा है कि इस बार कम है. यह तुलना ही शर्मनाक है. सवाल है कि आज भी हिंसा को क्यों जगह मिल रही है. ज़िम्मेदारी तृणमूल की बनती है. जवाबदेही से बीजेपी और सीपीएम भी नहीं बच सकती है. बंगाल का सच यही है. सबको हिंसा चाहिए. हिंसा ही रास्ता है सत्ता तक पहुंचने का.
इस स्थिति में एक ही विकल्प होना चाहिए था. बंगाल में हर हाल में चुनाव हिंसा मुक्त होना चाहिए था. एक चुनाव अधिकारी को जान बचाने के लिए अगर पुलिस के सामने गिड़गिड़ाना पड़े तो यह मंज़र भयावह है. हिंसा मुक्त चुनाव न कराने के लिए चुनाव व्यवस्था में लगे सभी को दंडित किया जाना चाहिए. बर्खास्त कर देना चाहिए और चुनाव को निरस्त. किसी भी सूरत में हिंसा से कोई समझौता नहीं. वर्ना लोकतंत्र सिर्फ उनके पास होगा जिनके हाथ में या तो तलवार होगी या जिनके पास धर्मांधता से लैस भीड़.
अब तक आए परिणामों को देखते हुए लगता है कि कर्नाटक में कोई एक पार्टी सरकार नहीं बना पाएगी. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बहुमत से दूर है. जबकि कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन करके सरकार बनाने की स्थिति में हैं. कांग्रेस ने जेडीएस को समर्थन देने का एलान कर दिया है. अब सबकी नजरें राज्यपाल पर टिक गई हैं कि वह किसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे. सबसे बड़ी पार्टी को या फिर सबसे बड़े गठबंधन को? गोवा और मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस थी फिर भी वहां राज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था. बिहार में आरजेडी, जेडीयू गठबंधन टूटने के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आरजेडी रह गई थी. लेकिन बीजेपी के समर्थन देने की वजह से राज्यपाल ने नीतीश कुमार को शपथ दिलाकर बहुमत साबित करने का मौका दे दिया था. तो क्या कर्नाटक में भी यह परंपरा कायम रहेगी या फिर राज्यपाल वजूभाई वाला यहां सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को आमंत्रित करेंगे?
सिर्फ बड़े दल को ही न्यौता दिया गया है ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. कुछ मामलों में सबसे बड़े दल को मौका दिया गया है तो कुछ में सबसे बड़े गठबंधन को मौका दिया गया है. कई बार छोटे दलों को भी मौका मिला है. सबसे बड़े दल को न्यौता देने की बात है तो संविधान में इसका कहीं उल्लेख नहीं है. संविधान में सिर्फ इतना उल्लेख है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा. राज्यपाल गैर राजनीतिक पद है. फिर भी राज्यपालों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं. कई राज्यों में राजभवन राजनीति के अखाड़े बने रहे हैं. कर्नाटक मामले में यह एक सच्चाई है कि वजूभाई वाला गुजरात भाजपा के वरिष्ठ नेता रह चुके हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी भी माने जाते हैं. उन्होंने मोदी को मुख्यमंत्री के तौर पर नामांकित किए जाने के बाद 2002 में उनके लिए राजकोट (पश्चिम) सीट छोड़ दी थी. वह नौ साल तक गुजरात के वित्त मंत्री रहे. साल 2005 से 2006 तक गुजरात भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. ऐसे में राज्यपाल क्या करेंगे?