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सुनीता कुमारी, झारखंड के सिमडेगा में खाने-पीने की एक दुकान चलाती हैं.
लेकिन, पिछले साल मार्च महीने में वो गोवा में एक केयर होम में काम करती थीं. यानी वो एक फ्रंटलाइन वर्कर थीं. पिछले साल भारत में अचानक देश भर में लॉकडाउन लगाए जाने के बाद जो कुछ हुआ, उसने सुनीता की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी.
सुनीता ने हमसे कहा कि, "वो सब इतना ख़ौफ़नाक था. मुझे लगता है कि वैसे हालात का सामना करने से बेहतर होगा कि मैं मर जाऊं. आज भी जब मैं उन दिनों को याद करती हूं तो मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है."
वायरस के प्रकोप के बावजूद उन्हें निजी सुरक्षा उपकरणों यानी पीपीई किट के बग़ैर काम करने को मजबूर किया गया. सुनीता ने बताया कि उनके मालिक ने चेतावनी दी थी कि उन सबको अव्वल तो तनख़्वाह ही शायद मिले, और मिली भी तो आधी ही दी जाएगी.
हालात इतने ख़राब थे कि सुनीता ने नौकरी छोड़ने का फ़ैसला किया.
लॉकडाउन की घोषणा के बाद शहरों में रह रहे लाखों प्रवासी मज़दूरों ने गांवों की तरफ़ पलायन शुरू कर दिया था
वो कहती हैं कि, "हम लोग वहां क़रीब एक महीने तक फंसे रहे थे. वो बहुत बुरा वक़्त था. हमें किसी ने कोई मदद नहीं दी. बल्कि, पुलिसवाले तो हमें पकड़कर थाने ले गए थे. हमने बार-बार मदद की गुहार लगाई. आख़िरकार, बाहरी मज़दूरों को घर पहुंचाने वाली एक ट्रेन में सफर के लिए हमारा नाम भी दर्ज किया गया."
"जब हम ट्रेन में सवार हुए, तो हमारा सामना सरकार के असल इंतज़ामों से हुआ. ट्रेन में एक आदमी था, जो हम लोगों पर बस चिल्लाता रहता था. हमसे दूरी बनाए रखने को कहता था. लेकिन, जब वो ख़ुद हमें भेड़ बकरियों की तरह ट्रेन में ठूंस रहे थे, तो फिर हम कैसे आपस में दूरी बनाते? सच तो ये है कि ऐसे हालात के लिए अधिकारी बिल्कुल तैयार नहीं थे."
इसके पीछे की कहानी
क्या आपको पता है कि जब प्रधानमंत्री ने 24 मार्च 2020 को पूरे देश में लॉकडाउन लगाने का एलान किया था, तो उससे पहले ही कितने राज्य और केंद्र शासित प्रदेश अपने-अपने यहां लॉकडाउन लगा चुके थे?
सरकार के आंकड़ों पर यक़ीन करें, तो देश के तीस राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ये क़दम प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले ही उठा चुके थे. राज्यों ने ये लॉकडाउन, अपने-अपने यहां कोरोना वायरस के प्रकोप का आकलन करके लगाया था. कई राज्यों में ये लॉकडाउन 31 मार्च 2020 तक प्रभावी रहना था.
सवाल ये है कि जब इतने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पहले ही 'संपूर्ण लॉकडाउन' लगा हुआ था, तो फिर राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की क्या ज़रूरत थी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 अप्रैल 2020 को राष्ट्र के नाम संदेश देते हुए लॉकडाउन को तीन मई तक के लिए बढ़ा दिया था
केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन को जायज़ ठहराते हुए, 24 मार्च को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने कहा कि, 'वायरस का संक्रमण रोकने के लिए उठाए जा रहे तमाम क़दमों में एकरूपता और समन्वय बनाए रखने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था.'
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं. तो, जब केंद्र सरकार ने वायरस की रोकथाम की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए, देश भर में लॉकडाउन लगाया, तो उसने इसके लिए कैसी तैयारी की गई थी?
सूचना के अधिकार क़ानून 2005 के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए, हमने केंद्र सरकार की प्रमुख एजेंसियों, संबंधित सरकारी विभागों और उन राज्य सरकारों से संपर्क किया, जो इस महामारी के असर से सीधे तौर से निपटने में जुटे थे.
हमने पूछा कि प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले, क्या उन्हें पता था कि देश भर में एक साथ लॉकडाउन लगने वाला है? या फिर उन्होंने अपने विभाग को सरकार के इस क़दम के बाद की स्थिति से निपटने के लिए कैसे तैयार किया? उन्होंने किन क्षेत्रों में काम किया, जिससे कि वो लॉकडाउन को प्रभावी ढंग से लागू कर सकें और इसके विपरीत असर से भी निपट सकें?
बीबीसी ने अपनी व्यापक पड़ताल में पाया है कि लॉकडाउन के बारे में न तो पहले से किसी को कोई जानकारी थी और न ही हमें इसकी तैयारी किए जाने के कोई सबूत मिले हैं.
एक मार्च 2021 को हमने सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संपर्क किया, जिससे कि वो इस ख़बर के बारे में सरकार का पक्ष रख सके. लेकिन अब तक, न तो सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, और न ही मंत्रालय के सचिव अमित खरे ने ही हमसे बातचीत के लिए हामी भरी है.
24 अप्रैल को चेन्नई से साइकिल पर चला प्रवासियों का ये समूह, 15 मई को ली गई इस तस्वीर में झारखंड के रांची शहर में दिख रहा है. ये मज़दूर बिहार के शेरघाटी की तरफ़ बढ़ रहे हैं.
आइए अब केंद्र सरकार के विभागों के बारे में चर्चा करते हैं. ख़ासतौर से वो विभाग जो जनता की सेहत और अर्थव्यवस्था से जुड़े विषय संभालते हैं. ऐसे ज़्यादातर विभागों ने, ऑन रिकॉर्ड ये कहा है कि या तो उन्हें देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा से पहले, इसकी जानकारी नहीं थी. या फिर, उनसे कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया. तो फिर, भारत ने किस आधार पर देश भर में इतना सख़्त लॉकडाउन लगाने का फ़ैसला किया?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के 'कोविड-19 से निपटने की सरकारी कोशिशों के ट्रैकर' ने भारत के लॉकडाउन को दुनिया में सबसे सख़्त बताया था. इन अभूतपूर्व परिस्थितियों में जब सरकार के कई अहम विभागों को इतने बड़े फ़ैसले को लेकर अंधेरे में रखा गया था, तो सरकारी मशीनरी से ये अपेक्षा कैसे की गई थी कि वो देश के आम नागरिकों की मदद करेगी?
स्वास्थ्य क्षेत्र
भारत सरकार ने कोरोना वायरस से निपटने का अभियान, आधिकारिक रूप से 8 जनवरी 2020, यानी वुहान में इसके प्रकोप की ख़बर आने के कुछ दिनों बाद से ही शुरू कर दिया था.
सच तो ये है कि 8 जनवरी 2020 से लेकर 24 मार्च 2020 को देश भर में लॉकडाउन लगाने से पहले लगभग ढाई महीनों के दौरान, बार-बार यही दोहराया जाता रहा था कि ख़ुद प्रधानमंत्री, 'निजी तौर पर नियमित रूप से कोरोना वायरस के संक्रमण और इससे निपटने की तैयारियों पर नज़र बनाए हुए हैं.'
जब सरकार इस मामले से जुड़े अन्य लोगों के साथ सलाह-मशविरा कर रही थी, तब भी ख़ुद प्रधानमंत्री की ओर से जनता को यही संदेश बार-बार दिया जा रहा था कि 'तैयारी पूरी रखो, लेकिन घबराओ नहीं.'
फरवरी 2020 में भारत में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के स्वागत की तैयारियां ज़ोर-शोर से चल रही थीं. इसी दौरान, 22 फरवरी 2020 को अचानक देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने ये एलान किया: 'भारत की मज़बूत स्वास्थ्य निगरानी व्यवस्था, कोरोना वायरस को देश में प्रवेश करने से रोकने में सफल रही है.'
लेकिन, देश में कोरोना वायरस के मामले बढ़ते ही जा रहे थे.
5 मार्च 2020 को, स्वास्थ्य मंत्री ने संसद को विश्वास दिलाया कि, देश के पास 'निजी सुरक्षा उपकरणों या पीपीई किट और एन-95 मास्क का पर्याप्त बफ़र स्टॉक है.' यही नहीं, स्वास्थ्य मंत्री ने ये भरोसा भी दिया कि, 'देश में कोरोना वायरस के मरीज़ों के लिए पर्याप्त मात्रा में आइसोलेशन बेड भी हैं.'
12 मार्च, 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कोरोना वायरस के प्रकोप को वैश्विक महामारी घोषित किया. तब भी भारत ने इसकी चुनौती से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार होने का आत्मविश्वास जताया.
केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) में संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने कहा कि, 'हमने कोविड-19 महामारी की रोकथाम और प्रबंधन के लिए सही समय पर सभी ज़रूरी क़दम उठाए हैं… हमने सामुदायिक निगरानी की व्यवस्था को मज़बूत बनाया है. देश में क्वारंटीन की सुविधाएं, आइसोलेशन वार्ड, पर्याप्त मात्रा में निजी सुरक्षा उपकरण (पीपीई), प्रशिक्षित कर्मचारियों और त्वरित कार्रवाई की टीमें तैयार हैं.'
लेकिन, 12 दिनों बाद ही जब देश में 600 से भी कम कोविड केस थे और केवल नौ लोगों की मौत की पुष्टि हुई थी, तब अचानक पूरे देश में बेहद सख़्त लॉकडाउन लगा दिया गया.
जब हमने देशव्यापी लॉकडाउन की योजना बनाने में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की भूमिका के बारे में जानकारी हासिल करनी चाही, तो हमारी ज़्यादातर अर्ज़ियों को गृह मंत्रालय की ओर या अन्य मंत्रालयों की ओर टरका दिया गया.
आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी को आगे बढ़ा दिया गया
इसके बाद हमने, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले प्रमुख विभागों और संस्थानों से संपर्क किया. पहला नंबर था स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशालय (DGHS) का. ये वो विभाग है जो मेडिकल और सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े सभी मामलों में सरकार को तकनीकी सलाह देता है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का ये विभाग तमाम स्वास्थ्य सेवाओं को लागू करने में भी शामिल रहता है.
24 मार्च को लॉकडाउन लगाने से पहले स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशालय से कोई सलाह-मशविरा करने की बात तो दूर, महानिदेशालय के इमरजेंसी मेडिकल रिलीफ (EMR) विभाग ने तो ये भी कहा कि उन्हें लॉकडाउन लगाने की योजना की ख़बर तक नहीं दी गई.
आपातकालीन मेडिकल सहायता विभाग की गतिविधियों और कार्यों की जो सरकारी सूची है, उसके मुताबिक़ ये विभाग, स्वास्थ्य क्षेत्र में आपदा प्रबंधन की ज़िम्मेदारी संभालता है.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला नेशनल सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल (NCDC) विभाग, देश में संक्रामक बीमारियों की निगरानी और रोकथाम की केंद्रीय इकाई है.
लेकिन, इसके पास भी लॉकडाउन के बारे में कोई पूर्व सूचना नहीं थी.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद या इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (ICMR) पिछले साल की शुरुआत से ही, इस महामारी से निपटने के भारतीय अभियान में अग्रणी भूमिका निभा रही है.
ICMR ने वायरस के संक्रमण के परीक्षण, इसके लिए प्रोटोकॉल बनाने, वायरस का अध्ययन करने और यहां तक कि इस महामारी का टीका बनाने के प्रयासों की अगुवाई की है.
कोविड-19 की शुरुआत के समय ICMR के महामारी विज्ञान और संक्रामक रोगों के विभाग के प्रमुख रहे डॉक्टर आर.आर गंगाखेड़कर ने हमें बताया कि, "ये कहना ग़लत होगा कि बिना किसी से सलाह-मशविरा किए ही देश में लॉकडाउन लगाया गया. हां, ये बात ज़रूर सच है कि इसकी बैठकों में सभी लोग शामिल नहीं रहते थे. इससे जुड़ी बैठकों में गिने चुने लोग ही होते थे, जो महामारी से निपटने की रणनीति पर चर्चा करते थे. मैं ये मानता हूं कि लॉकडाउन अचानक लगाया गया. मैं इस बात से सहमत हूं कि अगर हमने, लॉकडाउन लगाने से पहले लोगों को सावधान करने का ज़्यादा समय दिया होता, तो हम इसे और बेहतर तरीक़े से लागू कर सकते थे. लेकिन, लोगों को लॉकडाउन के फ़ैसले की जानकारी पहले दे देने में भी जोखिम था."
जब हमने ICMR को इस बारे में चिट्ठी लिखकर जानकारी मांगी, तो संस्था ने कोई जानकारी नहीं दी. उसने हमारी अर्ज़ी को गृह मंत्रालय की तरफ़ बढ़ा दिया.
भारत में ऐसे गिने-चुने अस्पताल ही होंगे, जो सुविधाओं और प्रतिष्ठा के मामले में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) का मुक़ाबला कर सकें. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत आने वाला एम्स एक स्वायत्त संगठन है. वहां के अधिकारी भी हमें इस बात का कोई सबूत नहीं दे सके कि लॉकडाउन लगाने से पहले उनसे कोई विशेष सलाह ली गई थी.
इस महामारी की शुरुआत से ही, भारत की सैन्य सेवाओं के डॉक्टर भी मदद में जुटे हुए थे. याद कीजिए उन क्वारंटीन केंद्रों को, जो विदेश से लौट रहे भारतीय छात्रों के लिए बनाए गए थे. देश में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों के लिए आइसोलेशन केंद्र बनाने में पहला अनुभव आर्म्ड फोर्सेज मेडिकल सर्विसेज़ (AFMS) का ही रहा था. उन्हें पता था कि बड़े-बड़े निगरानी केंद्र बनाने और अस्थायी अस्पताल स्थापित करने में कौन सी चुनौतियां आती हैं. क्योंकि वो शुरुआत से ही इस काम में जुटे थे. बाद में, कोविड-19 के मरीज़ों के लिए ऐसे केंद्र देश में कई जगह खोले गए थे.
लेकिन, सैन्य मेडिकल सेवाओं के अधिकारियों के पास भी ऐसी कोई जानकारी नहीं थी, जिससे ये साबित हो सके कि लॉकडाउन लगाने से पहले उनसे सलाह ली गई थी.
जब हमने संबंधित अधिकारियों से पूछा कि उन्हें देश भर में लॉकडाउन लगाने की जानकारी कैसे मिली, तो उनका जवाब था, '…हमें मीडिया से पता चला कि माननीय प्रधानमंत्री ने देश में लॉकडाउन लगाने की घोषणा की है.'
कोरोना महामारी से निपटने के लिए भारत ने कई बड़े अस्थायी वॉर्ड तैयार किए थे. ये वॉर्ड दिल्ली के कॉमनवेल्थ विलेज स्पोर्ट्स कांप्लेक्स में बनाया गया था
'स्वास्थ्य अधिकारी लॉकडाउन के फ़ैसले से बेख़बर थे'
लॉकडाउन लगने के कुछ दिनों के अंदर ही, ज़मीनी स्तर पर ग़फ़लत और अराजकता महसूस की जाने लगी थी. समीद अहमद फ़ारूक़ी एक प्रोजेक्ट मैनेजर हैं. वो दिल्ली में काम करते हैं. समीद को अप्रैल 2020 में पता चला कि उनके माता और पिता, कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए हैं. वो वरिष्ठ नागरिक थे और आबादी के उस वर्ग से ताल्लुक़ रखते थे, जिसको नए कोरोना वायरस से सबसे ज़्यादा ख़तरा बताया जा रहा था.
समीद ने हमें बताया कि, "जब हमने कोविड-19 संबंधी सरकारी हेल्पलाइन नंबर डायल किया तो अंदाज़ा हुआ कि ज़्यादातर काम ही नहीं कर रहे थे. अगर किसी ने फ़ोन उठा भी लिया तो उनके पास मदद करने वाली कोई जानकारी नहीं होती थी. वो हमें बार-बार पुलिस के पास जाने को कहते थे! अपने मां-बाप को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए मुझे कई अस्पतालों की पार्किंग में कई घंटों तक एंबुलेंस के भीतर बैठकर इंतज़ार करना पड़ा था. वो बहुत तकलीफ़देह वक़्त था. आप सोचिए, अगर ये मंज़र देश की राजधानी का था, तो अल्लाह ही जानता है कि देश के दूसरे हिस्सों में उस समय कैसे हालात रहे होंगे."
ख़ुशक़िस्मती से समीद के मां-बाप इलाज के बाद ठीक होकर सकुशल घर लौट आए.
अर्थव्यवस्था का हाल
प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि, "इसमें कोई शक नहीं है कि देश को इस लॉकडाउन की आर्थिक क़ीमत भी चुकानी पड़ेगी. लेकिन, इस समय मेरी सबसे बड़ी प्राथमिकता…हर भारतीय की जान बचाना है."
तो, आख़िर देश ने लॉकडाउन की कितनी क़ीमत चुकाई?
कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से ठप्प हुए कई कारोबार अभी तक पटरी पर नहीं आ सके हैं
जिस तिमाही में लॉकडाउन लगा, उसमें देश की जीडीपी में 24 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी. इस साल, अभी भी, सरकार का अपना आकलन है कि विकास दर नकारात्मक ही रहेगी. यानी माइनस आठ प्रतिशत. लॉकडाउन लगने के साथ ही देश में बेरोज़गारी में ज़बरदस्त उछाल आया.
एक निजी संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के मुताबिक़, बड़े पैमाने पर छंटनी के चलते मार्च 2020 में देश की बेरोज़गारी दर बढ़कर 8.7 प्रतिशत हो गई थी. अप्रैल 2020 में बेरोज़गारी की दर 23.5 फ़ीसद के शीर्ष स्तर पर पहुंच गई और जून महीने तक 20 प्रतिशत के आस-पास बनी रही थी.
फ़रवरी 2021 में जाकर बेरोज़गारी की दर 6.9 फ़ीसद के स्तर पर लौटी.
लॉकडाउन में बेरोज़गार हुए बहुत से लोग अभी तक काम पर नहीं लौट सके हैं
हालांकि, CMIE के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) महेश व्यास लिखते हैं कि, "देश में बेरोज़गारी की दर के लॉकडाउन के पहले के स्तर पर लौटने से बहुत ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है. क्योंकि, ये असल में कामकाजी वर्ग के सिकुड़ने का प्रतीक है, न कि देश में बेरोज़गारों की संख्या में कमी आने का संकेत…श्रम बाज़ार के अन्य सभी प्रमुख मानक हालात के लगातार बिगड़ने का ही इशारा कर रहे हैं."
महेश व्यास कहते हैं कि देश में बेरोज़गारी की स्थिति बताने वाला एक प्रमुख मानक रोज़गार की दर है. उनके मुताबिक़, "देश की आबादी में कामकाजी तबक़े का हिस्सा लगातार घट रहा है. अगर 2016-17 में कुल आबादी में से 41.6 प्रतिशत लोग कामकाजी थे, तो उसके बाद के वर्षों में ये अनुपात घटते हुए क्रमश: 40.1 फ़ीसद और वर्ष 2019-20 में और घटकर 39.4 प्रतिशत ही रह गया था. फरवरी 2021 तक देश की आबादी में से रोज़गार कर रहे लोगों का हिस्सा और भी घटकर केवल 37.7 फ़ीसद ही रह गया था."
हमने वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामले, व्यय, राजस्व, वित्तीय सेवाएं जैसे कई विभागों से संपर्क किया ताकि ये समझ सकें कि आख़िर देश भर में लगे लॉकडाउन के प्रभाव की समीक्षा किस तरह से की गई.
पहले तो वित्त मंत्रालय में डाली गई सूचना के अधिकार की कई अर्ज़ियों को गृह मंत्रालय की तरफ़ टरका दिया गया.
गृह मंत्रालय को इन अर्ज़ियों पर ये लिखकर वित्त मंत्रालय को वापस करना पड़ा कि ये जानकारी उसके विभागों से उनकी भूमिका के बारे में मांगी गई है, न कि गृह मंत्रालय से.
गृह मंत्रालय ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि यह जानकारियां वित्त मंत्रालय से मांगी गई हैं
तमाम कोशिशों के बाद, आख़िरकार हमारे सवालों के जो जवाब वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग, व्यय, वित्तीय सेवाएं और राजस्व विभाग की ओर से दिए गए, उनमें लॉकडाउन के आर्थिक प्रभावों पर ऐसे किसी सलाह-मशविरे के सबूत नहीं उपलब्ध कराए गए थे.
वित्त मंत्रालय में डाली गई सूचना के अधिकार की कई अर्ज़ियों को गृह मंत्रालय की तरफ़ टरका दिया गया.
वस्तु और सेवा कर परिषद यानी GST काउंसिल एक संवैधानिक संस्था है. लेकिन, लॉकडाउन या उसके प्रभावों से निपटने में इसकी भी कोई भूमिका नहीं थी. GST काउंसिल ने हमारी याचिका को गृह मंत्रालय को भेज दिया, जिसने हमें कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई.
GST काउंसिल ने हमारी याचिका को गृह मंत्रालय को भेज दिया
चूंकि, कोरोना वायरस का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ने वाला था. इसलिए, प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्री की अगुवाई में एक, 'कोविड-19 इकोनॉमिक रिस्पॉन्स टास्क फोर्स' बनाने की घोषणा की थी. लेकिन, ये टास्क फ़ोर्स भी देश भर में लॉकडाउन लगाए जाने से बस पांच दिन पहले यानी 19 मार्च को अस्तित्व में आई थी.
इस टास्क फ़ोर्स को ये सुनिश्चित करना था कि, 'लॉकडाउन से होने वाली आर्थिक मुश्किलों को कम से कम करने के लिए उठाए गए सभी ज़रूरी क़दमों को असरदार तरीक़े से लागू किया जाए.'
हमने इस बात का विश्लेषण करने की कोशिश की कि इस टास्क फ़ोर्स ने सरकार को कितने मशविरे दिए और ये अपना मक़सद किस हद तक पाने में सफल रही.
हमारी अर्ज़ी अभी भी प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) और वित्त मंत्रालय के बीच अटकी है. दोनों ने ही अब तक हमें इस टास्क फ़ोर्स की उपलब्धियों बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई है. जबकि, हमने ये जानकारी 2005 के सूचना के अधिकार क़ानून के तहत मांगी है.
देश के बैंकिंग उद्योग की नियामक संस्था, रिज़र्व बैंक से भी हमने दो बार जानकारी मांगी. लेकिन, रिज़र्व बैंक भी इस बात के कोई सबूत नहीं दे सका कि देशव्यापी लॉकडाउन लगाने के फ़ैसले में उसकी भी कोई भूमिका थी
शेयर बाज़ार की नियामक संस्था सेबी (Securities and Exchange Board of India) ने इस बारे में हमारे सवाल के जवाब में कहा कि, 'देशव्यापी लॉकडाउन लगाने के निर्णय के बारे में सेबी को सरकार की ओर से कोई जानकारी नहीं दी गई.'
यही हाल केंद्र सरकार के अन्य प्रमुख विभागों का भी था. लघु, सूक्ष्म और मध्यम उद्योग मंत्रालय, दूरसंचार विभाग, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग, नागरिक उड्डयन और उपभोक्ता मामलों के विभाग के पास भी लॉकडाउन के फ़ैसले की पहले से कोई जानकारी नहीं थी.
नीतिगत मामलों के विश्लेषक प्रिय रंजन दास ने कहा कि जिस वक़्त भारत की अर्थव्यवस्था पहले से ही 'ख़राब प्रदर्शन' कर रही थी, उस समय 'भारत में देशव्यापी लॉकडाउन लगाने की कोई ज़रूरत नहीं थी. बिना कोई योजना बनाए देश भर में लॉकडाउन लगाना पूरी तरह से ग़लत था.'
जब हमने प्रिय रंजन दास को अपनी पड़ताल की जानकारी दी और बताया कि, सरकार के ज़्यादातर विभागों को लॉकडाउन लगाने के फ़ैसले की जानकारी ही नहीं थी, तो उन्होंने कहा कि, 'इस सरकार के काम करने का यही अंदाज़ है.'
प्रिय रंजन दास ने कहा कि, 'हम लॉकडाउन को बेहतर योजना बनाकर लागू कर सकते थे. इस फ़ैसले को विकेंद्रीकृत करके लागू करना चाहिए था. भारत ने आज़ादी के बाद से कई युद्ध झेले हैं. ऐसी कई क़ुदरती आपदाओं का सामना किया है, जिनसे अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा. लेकिन, जो लॉकडाउन के चलते हुआ, वो देश को लगा बहुत बड़ा सदमा था. हमारी (आर्थिक) स्थिति आज ऐसी है कि हम दुनिया की किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश से इसकी तुलना नहीं कर सकते हैं.'
मानवीय क़ीमत
लॉकडाउन की सबसे भयावाह तस्वीरें शायद वो थीं, जब बाहरी मज़दूर किसी न किसी तरह से अपने अपने घर लौटने की कोशिश कर रहे थे. 14 सितंबर 2020 को संसद में श्रम और रोज़गार मंत्रालय से प्रवासी मज़दूरों के बारे में जानकारी मांगी गई थी. मंत्रालय ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान लगभग एक करोड़ बाहरी मज़दूरों को अपने गृह राज्यों को लौटना पड़ा था. इनमें से 63.07 लाख लोगों को सरकार ने घर तक पहुंचाया था.
सरकार ने दावा किया कि उसके पास इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि घर वापसी के इस सफ़र के दौरान कितने लोगों की जान गई. सरकार ने इस बात का कोई आकलन तो किया ही नहीं कि लॉकडाउन से कितने लोगों के रोज़गार छिन गए.
बीबीसी ने मीडिया की ख़बरों का विश्लेषण किया तो पाया कि लॉकडाउन के दौरान घर लौटते हुए क़रीब 300 लोगों की मौत हो गई थी. इन लोगों की जान या तो हादसों में गई या सफ़र की थकान से.
जिस दिन लॉकडाउन का एलान किया गया था, उस दिन श्रम और रोज़गार मंत्रालय ने राज्यों को 'सलाह' दी थी कि वो इमारतें बनाने के काम में जुटे मज़दूरों के खातों में उनके पैसे डाल दें.
इसके अलावा श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय ने क्या किया? क्या लॉकडाउन के दौरान भी मंत्रालय ने सरकार को कोई और मशविरा दिया था? क्या श्रम मंत्रालय कामगारों के संकट का अंदाज़ा लगाने में नाकाम रहा और उनके लिए वैकल्पिक उपाय नहीं कर सका?
मुख्य सचिवालय से लेकर लगभग 45 अन्य विभागों में, जहां-जहां हमने RTI की याचिकाएं डालीं-किसी के पास भी इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी.
प्रवासी मज़दूरों की मदद करने वाली संस्था, स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (SWAN) से जुड़ी स्वयंसेवी प्रीति सिंह को इस बात से कोई हैरानी नहीं होती. उनकी संस्था ने प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा के दस्तावेज़ी सबूत इकट्ठा किए थे. प्रीति सिंह का दावा है कि उनकी संस्था ने लॉकडाउन के दौरान लगभग 40 हज़ार लोगों को नक़द पैसे देकर मदद की थी.
प्रीति सिंह ने कहा कि, "आप इम्तिहान देने के लिए भी तैयारी करते हैं. उन मज़दूरों के पास पैसे नहीं थे क्योंकि उनकी रोज़ी तो छिन गई थी. हमसे कई बार पैसे के लिए गुहार लगाने वाला एक मज़दूर तो रो पड़ा था. उसने हमसे कहा था कि वो अपनी ही नज़रों में गिर गया है. उसे ये लॉकडाउन एक ऐसा प्रयोग लगा था, जो हम जैसे लोगों पर किया गया, मानो मज़दूर इंसान नहीं कीड़े-मकोड़े हों. अगर हमने दस दिन का समय दिया होता और बाहर काम करने वालों को उनके घर पहुंचा दिया होता, तो बहुत से लोगों को बेवक़्त मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता था."
अन्य लोगों ने क्या कहा?
राष्ट्रपति कार्यालय को लॉकडाउन से जुड़े फैसले के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी
बीबीसी ने सार्वजनिक पदों पर बैठे अन्य लोगों से भी संपर्क किया था. इनमें भारत के राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के कार्यालय भी शामिल थे. हमने ये जानकारी मांगी कि क्या इन संवैधानिक कार्यालयों को सार्वजनिक रूप से एलान किए जाने से पहले लॉकडाउन के बारे में कोई जानकारी दी गई थी? और क्या, उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से इस फ़ैसले के असर या किसी अन्य पहलू पर चर्चा की थी?
राष्ट्रपति के सचिवालय ने हमारे सवाल के जवाब में कहा कि, 'इस बारे में राष्ट्रपति सचिवालय के संबंधित विभाग के पास कोई जानकारी नहीं है.'
उप-राष्ट्रपति के कार्यालय ने जवाब दिया कि उन्हें लॉकडाउन की जानकारी 24 मार्च 2020 को गृह मंत्रालय द्वारा जारी आदेश से हुई थी, यानी लॉकडाउन के एलान वाले दिन. उप-राष्ट्रपति कार्यालय के जन सूचना अधिकारी ने कहा कि, 'लॉकडाउन के बारे में उप-राष्ट्रपति सचिवालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच कोई और संवाद नहीं हुआ.'
लॉकडाउन के एलान से पहले इस बारे में प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के बीच किसी सलाह मशविरे के बारे में सूचना अधिकारी का कहना था कि उनके कार्यालय के पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.
भारत के चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ जनरल बिपिन रावत
2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) के पद का सृजन करने का एलान किया था. CDS, सैन्य मामलों के विभाग (DMA) की अध्यक्षता करते हैं. ये इत्तेफ़ाक़ ही है कि मौजूदा CDS जनरल बिपिन रावत ने एक मई 2020 को तीनों सेनाओं के प्रमुखों के साथ एक प्रेस कांफ्रेंस की थी. इसमें उन्होंने, 'कोरोना वॉरियर्स के प्रयासों की सराहना करते हुए फ्रंटलाइन वर्कर्स की हर मुमकिन मदद करने की प्रतिबद्धता दोहराई थी.'
हमने इस विभाग से भी ये जानना चाहा कि क्या उसके पास लॉकडाउन लगाए जाने की जानकारी पहले से थी और क्या उनसे इस बारे में पहले कोई सलाह मशविरा किया गया था? हमें बताया गया कि, 'ये जानकारी उपलब्ध नहीं है.'
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भी हमें यही जवाब दिया कि, 'ये जानकारी हमारे रिकॉर्ड में नहीं है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने लॉकडाउन का एलान करने से पहले उच्च शिक्षा विभाग से इस बारे में या इससे संबंधित अन्य मसलों पर कोई सलाह मशविरा किया था.'
न्यूज़ वेबसाइट टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट में जिस मामले की सुनवाई चल रही थी उसमें पत्नी ने अपने पति, सास और ससुर के ख़िलाफ़ दहेज की माँग पूरी ना करने के कारण बुरी तरह पीटने का आरोप लगाया है. ये शिकायत पंजाब के लुधियाना में जून 2020 में दर्ज की गई थी.
महिला का आरोप है कि उसे पति और ससुर ने क्रिकेट बैट से बुरी तरह पीटा और उसके मुंह पर तकिया रखकर उसका दम घोटने की कोशिश की. इसके बाद उन्हें सड़क पर फेंक दिया गया और उनके पिता और भाई उन्हें लेकर गए. महिला की मेडिकल रिपोर्ट में भी शरीर पर कई जगह चोटें आने की पुष्टि हुई है. जिसमें एक बड़े और ठोस हथियार से मारने की बात भी सामने आई है.
पति ने ये कहते हुए अग्रिम ज़मानत की याचिका दायर की थी कि पत्नी की बैट से पिटाई उसने नहीं बल्कि उसके पिता ने की थी.
लेकिन, मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ये मायने नहीं रखता कि आपने या आपके पिता ने कथित तौर पर बैट का इस्तेमाल किया था. अगर किसी महिला को ससुराल में चोट पहुँचाई जाती है तो उसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी पति की होती है. कोर्ट ने पति की याचिका ख़ारिज कर दी.
धारा 304बी में पति की ज़िम्मेदारी
इस पर दिल्ली हाइकोर्ट में वकील सोनाली कड़वासरा कहती हैं कि शादी के बाद पत्नी के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी पति की तय की गई है. लेकिन, अगर पत्नी पर अत्याचार होता है तो पति कितना ज़िम्मेदार है ये इस बात पर निर्भर करता है कि अपराध क्या है, किस क़ानून के तहत दर्ज है और मामले के तथ्य क्या हैं.
सोनाली कड़वासरा इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी का उदाहरण देती हैं.
304बी के तहत दहेज़ हत्या का मामला दर्ज होता है. इस क़ानून के तहत अगर शादी के सात सालों के अंदर महिला की मौत हो जाती है जिसके पीछे अप्राकृतिक कारण होते हैं और मृत्यु से पहले उसके साथ दहेज़ के लिए क्रूरता या उत्पीड़न हुआ हो, तो उस मौत को दहेज़ हत्या मान लिया जाएगा.
सोनाली कड़वासरा कहती हैं, “अगर 304बी के तहत शिकायत में विशेष तौर पर किसी का नाम ना लिखा हो तो पति और ससुराल वालों का या जो भी उस घर में रहता है, उनका नाम इसमें अपने आप शामिल हो जाएगा. इसमें पति को भी ज़िम्मेदार माना गया है. भले ही उसने उत्पीड़न किया हो या नहीं.”
“लेकिन, अगर मृतक पत्नी के परिवारजन अपनी शिकायत में ससुराल पक्ष पर आरोप लगाते हैं लेकिन पति पर नहीं तो पति को अपराध में शामिल नहीं माना जाएगा. परिकल्पना का खंडन तब हो जाता है जब आपकी कोई विशेष शिकायत होती है जो प्रकल्पना के विपरीत हो.”
“इस धारा के तहत एक शादी में पत्नी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमेशा पति पर ही डाली गई है. साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी में भी यही परिकल्पना की गई है. इसमें पति और उसके परिवार को खुद को निर्दोष साबित करना पड़ता है.”
लेकिन, आईपीसी की धारा 498ए में इस तरह की प्रकल्पना नहीं की गई है. दहेज़ प्रताड़ना से बचाने के लिए 1986 में आईपीसी की धारा 498ए का प्रावधान किया गया था. अगर किसी महिला को दहेज़ के लिए मानसिक, शारीरिक या फिर अन्य तरह से प्रताड़ित किया जाता है तो महिला की शिकायत पर इस धारा के तहत केस दर्ज होता है.
क्या कहता है घरेलू हिंसा क़ानून
महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा से जुड़ा एक और क़ानून है, ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005’. इसमें शारीरिक, आर्थिक, भावनात्मक और मानसिक हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया गया. इसके तहत केवल महिला ही शिकायत कर सकती है.
सोनाली कड़वासरा कहती हैं कि इस क़ानून में 304बी की तरह कोई प्रकल्पना नहीं की गई है कि पत्नी के साथ होने वाले अत्याचार और प्रताड़ना के लिए पति ही ज़िम्मेदार है.
अगर पत्नी घरेलू हिंसा के मामले में ससुराल के सदस्यों को अभियुक्त बनाती है लेकिन पति को नहीं तो पति इस मामले में कोई पक्ष नहीं बनाया जाएगा.
लेकिन, इसमें एक और बात ध्यान रखने वाली है. अगर पत्नी ये कहती है कि पति ने शारीरिक रूप से तो प्रताड़ित नहीं किया लेकिन उसे इस प्रताड़ना की जानकारी थी. ऐसे में पति पर मानसिक या भावनात्मक प्रातड़ना का मामला बनता है.
एडवोकेट जीएस बग्गा बताते हैं, “घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे पहले ये देखा जाता है कि क्या जो हिंसा हुई है वो एक ही घर या एक ही छत के नीचे हुई है. अगर पति-पत्नी और सास-ससुर एक ही घर या एक ही छत के नीचे नहीं रहते हैं तो मामले को घरेलू हिंसा के तहत नहीं मान सकते. घरेलू हिंसा क़ानून में आने के बाद ही किसी अन्य की ज़िम्मेदारी तय होती है.”
“हालांकि, 498ए में ऐसा नहीं होता. इसमें आप साथ रहते हों या नहीं लेकिन अगर लड़की प्रताड़ित है और वो जिनके भी नाम लेती है उन सब पर मामला चलाया जाता है.”
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के मायने
सोनाली कड़वासरा बताती हैं कि सुप्रीम कोर्ट की जिस टिप्पणी की बात की जा रही है उसका ज़िक्र इस मामले के आदेश में नहीं है. इसलिए अगर ऐसी टिप्पणी की गई है तो वो केवल इसी मामले पर लागू होगी. उसका मौजूदा किसी भी क़ानून पर असर नहीं पड़ेगा. कई बार कोर्ट किसी मामले के तथ्यों को देखते हुए अलग-अलग टिप्पणियां करते है.
हालांकि, अगर इस टिप्पणी का कोई व्यापक प्रभाव होता या मौजूदा क़ानून के संदर्भ में कही गई होती तो उसके फायदे और नुक़सान दोनों हो सकते थे.
सोनाली कड़वासरा बताती हैं, “ससुराल में महिला को पहुंचाई गई चोटों की प्राथमिक ज़िम्मेदारी अगर हर मामले में पति पर मानी जाती है तो उससे समस्या ये होगी कि अगर पत्नी केवल ससुराल वालों पर प्रताड़ना का आरोप लगाती है लेकिन पति पर नहीं तो भी पति आरोपी माना जाएगा. पत्नी उसे नहीं बचा पाएगी. क्योंकि पत्नी की सुरक्षा की प्राथमिक ज़िम्मेदारी पति पर आ जाएगी.”
“वहीं, इससे मदद ये मिलेगी कि पत्नी को साबित नहीं करना पड़ेगा कि पति भी प्रताड़ना में शामिल है. तब साबित करने की पूरी ज़िम्मेदारी पति की होगी. कई मामलों में पति कहते हैं कि उन्हें प्रताड़ना के बारे में नहीं पता था. पति और पत्नी दोनों को अपनी बात साबित करनी होती है और मामले बहुत लंबे खिंच जाते हैं. हालांकि, ये सब बहुत दूर की बात है."
जीएस बग्गा भी कहते हैं कि हर मामले में प्राथमिक तौर पर पति को ज़िम्मेदार मानना मुश्किलें खड़ी कर सकता है. जैसे अगर थप्पड़ ससुर ने मारा है और पति घर पर नहीं है तो आप कैसे कह सकते हैं कि पति इसके लिए प्राथमिक तौर पर ज़िम्मेदार है. इसलिए कोर्ट ने जो कहा है वो सिर्फ़ उसी मामले के लिए कहा गया है.
पति की ज़िम्मेदारी है लेकिन अनुपालन नहीं
महिला अधिकारों के लिए और उन पर हिंसा के ख़िलाफ़ काम करने वाली कोलकाता स्थित संस्था स्वयं की निदेशक अनुराधा कपूर कहती हैं कि शादीशुदा महिला तो अपने पति से ही अधिकार मांगेगी चाहे भरण-पोषण का हो या घर में सुरक्षित रहने का. हमारे क़ानून में पति की जिम्मेदारी भी तय की गई है. उनके ख़िलाफ़ मामले दर्ज होते हैं लेकिन, समस्या क़ानून को लागू करने की है.
वह बताती हैं, “भारत में महिलाओं के लिए क़ानून तो अच्छे हैं. महिला अधिकारों की लंबी लड़ाई के बाद ये क़ानून आए हैं लेकिन इनका अनुपालन उतने बेहतर तरीके से नहीं हो पाता. जैसे अदालत से भरण-पोषण का आदेश मिलने के बाद भी जब पति रखरखाव की रकम देने से इनकार करता है तो पत्नी को कोर्ट के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.”
“घरेलू हिंसा क़ानून में कहा गया है कि तीन दिनों के अंदर मामले की सुनवाई होगी और 60 दिनों के अंदर अंतिम आदेश आएगा. लेकिन, असल में तो पहली सुनवाई के लिए ही महीनों लग जाते हैं. अंतिम आदेश आने में सालों निकल जाते हैं.”
वह कहती हैं कि क़ानून के स्तर पर ज़िम्मेदारियां तय होने के बाद भी महिलाएं संघर्ष कर रही हैं. उन्हें मेडिकल टेस्ट की जानकारी नहीं होती. वो समय रहते टेस्ट नहीं करातीं तो हिंसा के सबूत ही नहीं मिल पाते. मुकदमे लंबे चलते हैं इसलिए वो थककर पीछे ही हट जाती हैं. इसलिए क़ानून को तो पुख़्ता बनाया ही जाना चाहिए लेकिन उसके अनुपालन पर भी ध्यान देना चाहिए.
28 फरवरी को ब्रिटेन और नॉर्थ यूरोप में आसमान से आग के जलते कुछ गोले गिरे थे, जिसके बाद दुनिया के वैज्ञानिक डर गए कि आखिर प्रकृति क्या अनहोनी करने वाली है, लेकिन, उल्कापिंड (meteorite) की जांच के दौरान खुद वैज्ञानिक हैरान रह गए. क्योंकि, इस उल्कापिंड के जरिए हमें पृथ्वी के बारे में बहुत सी जानकारियां मिल सकती हैं. 28 फरवरी की रात ब्रिटेन के कॉटस्वोल्ड इलाके में रास्ते किनारे आसमान से कुछ उल्कापिंड गिरे. वैसे तो आसमान से उल्कापिंड और पत्थरों का गिरना कोई नई बात नहीं है. लेकिन इस बार प्रकृति इंसानों के लिए सौगात भेजेगी इस बात की कल्पना वैज्ञानिकों ने भी नहीं की थी.
जांच के दौरान इस उल्कापिंड में कई रहस्यमयी ताकतें पाई गईं हैं और माना जा रहा है कि इस उल्कापिंड से पृथ्वी के प्रारंभिक इतिहास के साथ साथ पृथ्वी पर जीवन कैसे आया, इन तमाम सवालों के जबाव भी मिल सकते हैं. ब्रिटेन में आसमान से गिरा ये उल्कापिंड करीब 300 ग्राम का है, जिसे वैज्ञानिकों ने ब्रिटेन के ग्लूस्टरशायर से खोजने में कामयाबी हासिल की है. आसमान से गिरा यह पत्थर का टुकड़ा कार्बोनेसस कोनड्राइट से बना हुआ है. माना जा रहा है कि यह पत्थर का टुकड़ा पृथ्वी पर पाए जाने वाले प्राचीनतम पदार्थों से मिलकर बना हो सकता है.
इस पत्थर के टुकड़े में वैज्ञानिकों को कार्बनिक पदार्थ और अमीनो एसिड भी मिले, जिसे देखकर वैज्ञानिक उछल पड़े क्योंकि अमीनो एसिड और वो कार्बनिक पदार्थ इंसानों में पाए जाते हैं और माना जाता है कि इंसानी जीवन बनाने में ये रसायन काम आते हैं. लंदन की नेचुरल हिस्ट्री म्यूजिमय (Natural History Museum) का कहना है कि आसमान से गिरने के बाद भी इस पत्थर की क्वालिटी इतनी अच्छी है कि ऐसा लगता है कि इसे स्पेस से वैज्ञानिकों ने लाया है. उन्होंने कहा, कि इस पत्थर का इतनी ज्यादा संख्या में इतनी अच्छी गुणवत्ता के साथ आसमान से गिरना किसी आश्चर्य से कम नहीं है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि ये उल्कापिंड दुर्लभ से भी दुर्लभ है और आसमान से इतनी तेज रफ्तार में गिरने के बाद भी इसका सही सलामत रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले हर पत्थर की तुलना में ये उल्कापिंड पुराना है. जिसका मतलब ये निकलता है कि ये पत्थर शायद अरबों साल पुराना हो सकता है. वैज्ञानिकों ने संभावना जताई है कि ये उल्कापिंड शायद लाखों साल से अंतरिक्ष में ट्रेवल कर रहा था और अब जाकर ये पृथ्वी पर गिरा है.
व्हॉट्सऐप के कारोबारी मॉडल को समझाते हुए इसके चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर मैट इडेमा कहते हैं, "फेसबुक और इंस्टाग्राम दुकान की खिड़कियां हैं, जबकि व्हॉट्सऐप नकदी बनाने की मशीन है."
अपनी पैरेंट कंपनी फेसबुक के तहत व्हॉट्सऐप उस दौर को काफी पीछे छोड़ आया है जबकि इसका मकसद यूजर्स के सालाना सब्सक्रिप्शन के जरिए मुनाफा कमाना होता था. अब इसका फोकस कंपनियों को सर्विसेज देना और व्हॉट्सऐप बिजनेस के जरिए कमीशन हासिल करने पर है.
इसके अलावा, यह भारत जैसे देशों में लागू किए जा चुके दूसरे फीचर्स पर भी है. कोई छोटा कारोबार अपने प्रोडक्ट कैटलॉग को इस एप्लिकेशन के जरिए शेयर कर सकता है और अपने कस्टमर्स के साथ बातचीत कर सकता है. इसी तरह से कोई बड़ी कंपनी व्हॉट्सऐप का इस्तेमाल कस्टमर सर्विस सेंटर और सेल्स के लिए कर सकती है.
एक्सपर्ट्स का कहना है कि इस योजना में ग्रोथ की भारी संभावनाएं हैं. हालांकि, इसे लेकर ये चिंताएं भी पैदा हो रही हैं कि फेसबुक मुनाफा कमाने के लिए यूजर्स की जानकारियों का किस तरह से इस्तेमाल करती है. व्हॉट्सऐप के डेटाबेस में 2 अरब लोगों की जानकारियां हैं.
टेक्नॉलॉजी एनालिस्ट पिलर साएंज कहते हैं, "व्हॉट्सएप अपने यूजर्स के लिए फ्री है क्योंकि कई मायनों में वे ही इसके प्रोडक्ट हैं."
फेसबुक की खरीद
दुनिया का सबसे लोकप्रिय मैसेजिंग ऐप व्हॉट्सऐप दुनिया के 180 से ज्यादा देशों में मौजूद है. इसकी नींव 2009 में पड़ी थी और 2014 में इसे फेसबुक ने खरीद लिया था. यह सौदा करीब 20 अरब डॉलर में हुआ था. उस वक्त ये कोशिश की गई थी कि दुनिया के कुछ बाज़ारों में सालाना सब्सक्रिप्शन के लिए एक डॉलर लिया जाए.
लेकिन बाद में इस आइडिया को 'गुजरे जमाने' का बताकर खारिज कर दिया गया. इसकी खरीदारी के वक्त फेसबुक के मालिक मार्क जकरबर्ग ने व्हॉट्सऐप प्लेटफॉर्म की पॉलिसी के दो मूल तत्वों को बरकरार रखने का वादा किया था. ये थे- इसमें विज्ञापन शामिल नहीं किए जाएंगे और यह यूजर डेटा का इस्तेमाल नहीं करेगा.
साएंज बताते हैं कि 2016 से यह वादा तोड़ा जाने लगा और एक नए व्हॉट्सऐप मॉडल का उभार हुआ.
साएंज कहते हैं, "फेसबुक ने यह खरीदारी इस वजह से की थी क्योंकि उसे पता था कि व्हॉट्सऐप के पास भारी डेटाबेस है और यह और बढ़ने वाला है. इसी वजह से 2016 से व्हॉट्सऐप ने अपने यूजर्स का डेटा इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इस डेटा से फेसबुक के कारोबारी प्लान को रफ्तार मिली है."
साएंज कोलंबिया स्थित नई टेक्नॉलॉजीज के डिवेलपमेंट को मॉनिटर करने वाले एक संस्थान करिश्मा फाउंडेशन के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर हैं. इस मैसेजिंग ऐप की अरबों डॉलर की खरीद एक ज्यादा महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट की शुरुआत भर थी.
फेसबुक ने व्हॉट्सऐप को कंसॉलिडेट करने के लिए 2020 में दो और निवेश किए. कंपनी ने भारतीय डिजिटल सॉल्यूशंस कंपनी जियो प्लेटफॉर्म को खरीदने पर 5.7 अरब डॉलर लगाए और इसके बाद इसने ई-कॉमर्स में विशेषज्ञता रखने वाली कंपनी में 1 अरब डॉलर का निवेश किया.
एक्सपर्ट्स का मुताबिक, इसका मकसद व्हॉट्सऐप के लिए जरूरी सभी तरह के टेक्नॉलॉजिकल एनवायरमेंट को तैयार करना था ताकि यह एक ट्रांजैक्शन सेंटर के तौर पर काम कर सके और ज्यादा प्रॉफिट कमा सके.
दुनिया का सबसे बड़ा कस्टमर सर्विस सेंटर
हालांकि, अभी तक व्हॉट्सऐप ने विज्ञापन न देने का वादा बरकरार रखा है. अर्जेंटिना के एक इनोवेशन और पॉलिसी ऑर्गनाइजेशन साउथ अफेयर्स के प्रोग्राम डायरेक्टर क्रिश्चियन लियोन कहते हैं, "ट्विटर, गूगल, इंस्टाग्राम या फेसबुक के उलट व्हॉट्सऐप विज्ञापनों का इस्तेमाल नहीं करता है और यही वजह है कि यह सीधे कमाई नहीं करता."
वे कहते हैं कि यह एक क्लोज्ड एप्लिकेशन है. ऐसे में कोई भी डेवेलपर इसके कोड को एक्सेस नहीं कर सकता और इसके जैसी टेक्नॉलॉजी नहीं बना सकता.
लियोन कहते हैं, "निश्चित तौर पर इसकी पूरी वैल्यू इसका डेटा है. इसके पास फोन नंबर हैं, इनकी जियोलोकेशन जैसे अहम डेटा हैं. इसके अलावा, कारोबारी व्हॉट्सऐप का इस्तेमाल अपने प्रोडक्ट्स को बेचने में करते हैं."
साल 2017 में व्हॉट्सऐप बिजनेस का एलान किया गया. यह छोटी और मंझोली कंपनियों के लिए बनाई गई सेवा है जिसके तहत कंपनियां अपने कस्टमर्स के साथ जुड़ सकती हैं, अपने प्रोडक्ट्स और सर्विसेज को प्रमोट कर सकती हैं और शॉपिंग एक्सपीरियंस को लेकर लोगों के सवालों के जवाब दे सकती हैं.
पिलर साएंज हालिया निवेश के जरिए फेसबुक का मकसद व्हॉट्सऐप को दुनिया का सबसे बड़ा कस्टमर सर्विस सेंटर बनाने का है. इसके जरिए आप हवाई जहाज के टिकट बुक करने से लेकर पिज्जा ऑर्डर करने और कार रेंट पर लेने जैसे तमाम काम कर सकते हैं.
हालांकि, साएंज कहते हैं कि यह कारोबारी प्लान यहीं खत्म नहीं होता. चूंकि, फेसबुक ने एक प्रोग्रामिंग इंटरफेस डिवेलप किया है (जिसे एपीआई कहा जाता है), ऐसे में बड़ी कंपनियां इस मैसेजिंग एप्लिकेशन को अपने कस्टमर सर्विस चैनलों के साथ इंटीग्रेट कर सकती हैं.
इस वजह से अब ये तेजी से आम बात होती जा रही है जिसमें जकरबर्ग के सोशल नेटवर्क पर मौजूद बिजनेस पेज एक बटन शामिल कर लेते हैं जिसके जरिए दिलचस्पी दिखाने वाली कोई भी पार्टी कंपनी से व्हॉट्सएप के जरिए सीधे संपर्क कर सकती है.
इस साल जनवरी में इस मैसेजिंग एप्लिकेशन की प्राइवेसी पॉलिसी में एक बदलाव का एलान किया गया था जिससे फेसबुक को यूजर डेटा तक ज्यादा पहुंच मुहैया करा दी गई. इससे फेसबुक के कंपनियों के साथ संपर्क की क्षमता भी बढ़ गई. यह उपाय को फरवरी से लागू हो जाना था, लेकिन आलोचनाओं के बाद इसे अप्रैल तक के लिए टाल दिया गया है.
कहानी यहीं खत्म नहीं होती
साएंज कहते हैं, "हम एक ऐसे कस्टमर सर्विस सेंटर की बात कर रहे हैं जहां अरबों लोगों के डेटा मौजूद हैं और कंपनियां सर्विसेज लेने के लिए भुगतान करती हैं. आप देखेंगे कि वे इस बिजनेस मॉडल को तेजी से आगे बढ़ाना चाहते हैं."
अन्य टेक्नॉलॉजीज की तरह से ही व्हॉट्सऐप भी अपनी सेवाओं से होने वाली कमाई के आंकड़े सार्वजनिक नहीं करता है. एक तरफ व्हॉट्सऐप फेसबुक के पूरे कारोबार की नकदी की मशीन बनने की राह पर है तो दूसरी ओर यह भारत में तकरीबन एक क्रेडिट कार्ड के जैसे है.
व्हॉट्सऐप पर भारत में हर महीने 4 लाख नए अकाउंट्स जुड़ते हैं और इसके यहां पर 20 करोड़ एक्टिव यूजर्स हैं. भारत में यह मैसेजिंग ऐप व्हॉट्सएप बिनजेस के अलावा ऑनलाइन पेमेंट, डायरेक्ट खरीदारी और यूजर्स के बीच पैसों के लेनदेन में भी इस्तेमाल हो रहा है. करीब दो साल से ये फंक्शंस भारत में चल रहे हैं.
हर फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन पर व्हॉट्सऐप को सीधे कमाई होती है.
जकरबर्ग ने 2020 में कहा था कि भारत उनके लिए एक बड़ा मौका है और अन्य देशों को टारगेट किया जा रहा है. इन देशों में ब्राजील भी शामिल है जहां व्हॉट्सऐप के जरिए होने वाले लेनदेन धीरे-धीरे लागू किए जा रहे हैं.
एक्सपर्ट्स का कहना है कि व्हॉट्सऐप का नया कारोबारी मॉडल चीन में इसके प्रतिस्पर्धी वीचैट की तर्ज पर बढ़ रहा है. वीचैट में आप खरीदारी, लेनदेन, क्रेडिट कार्ड बिल पेमेंट जैसे कई काम कर सकते हैं. यहां तक कि इसके जरिए टिंडर की तर्ज पर आप नए लोगों से मिल भी सकते हैं.
मजेदार बात यह है कि शुरुआत में वीचैट को चीन का व्हॉट्सऐप कहा गया था. एक्सपर्ट कहते हैं कि व्हॉट्सऐप की अकूत पूंजी कमाने की ताकत उसके पास उसके यूजर्स के मौजूद डेटा में छिपी हुई है.