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खास बातें
नई दिल्ली: जम्मू-कश्मीर में दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे ब्रिज बनकर लगभग तैयार है, इसका निर्माण तीन साल सेे कुछ अधिक समय पहले प्रारंभ हुआ था. रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने इसे इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से नायाब नमूना बताते हुए जम्मू-कश्मीर में चेेनाब नदी पर स्टील के ढांचे पर बने 476 मीटर लंबे इस ब्रिज का फोटो शेयर किया है. उन्होंने ट्वीट में लिखा है-इन्फ्रास्ट्रक्चर मार्बल इन मेकिंग. भारतीय रेलवे एक और इंजीनियरिंग मील का पत्थर हासिल करने की राह पर है. यह दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे ब्रिज होगा.' इंद्रधनुष के से आकार का यह ब्रिज रेलवे के उस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का हिस्सा है जो कश्मीर को शेष भारत से जोड़ेगा. इस ब्रिज के लिए काम नवंबर 2017 में प्रारंभ हुआ था.
1250 करोड़ रुपये की लागत का यह ब्रिज चेनाब नदी के तल से 359 मीटर ऊपर और पेरिस के मशहूर एफिल टॉवर से 35 मीटर ऊंचा होगा.
अन्य विचार
स्टेडियम के नामकरण को लेकर विपक्ष के मोदी सरकार पर हमले
स्टेडियम में प्रधानमंत्री के नाम का खेल
दिशा रवि को मिली जमानत, अदालत का यादगार फैसला
भारत के नेताओं की एक खूबी है. वे काम की जगह नाम के अमरत्व में विश्वास करते हैं. उन्हें पता है कि काम अमर नहीं होता है. वह नश्वर है. नाम अमर होता है. जब तक सूरज चांद रहेगा तब तक. इसलिए भारत का नेता अपने नाम की एक डेडलाइन भी तय कर देता है. उसे चाह होती है कि उसके नाम पर योजना हो. परियोजना हो. किसी योजना को राष्ट्र को समर्पित करने से पहले किसी नाम को समर्पित करे. इस प्रक्रिया में वह अपने दल से महान नेताओं का चुनाव करता है. उन्हीं के नाम पर सड़कें बनवाता है. योजनाएं लॉन्च करता है. शिलान्यास करता है. उद्घाटन करता है. वह नामजीवी बन जाता है. उसे पता है नाम ही जड़ है. नाम ही परिवर्तनशीलता है. नाम को ही बड़ा करना है. नाम को ही छोटा करना है. नाम का इस्तमाल तलवार की तरह भी होता है और हार की तरह भी.
एक ऐसे समाज में जब नब्बे दिनों से किसान कृषि क़ानूनों के विरोध के दौरान अंबानी और अडानी के नाम से भी नारे लगा रहे हैं, राहुल गांधी हम दो और हमारे दो के आरोप मढ़ रहे हैं, अमित शाह अहमदाबाद में एक क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम रख देते हैं. जिसके भीतर एक छोर का नाम रिलायंस एंड है और दूसरे छोर का अडानी एंड.
इस लिहाज़ से नरेंद्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम शरद पवार के नाम से बने स्टेडियम या किसी दूसरे जीवित नेताओं के नाम पर बनी मूर्ति से थोड़ा अलग मामला बन जाता है. नाम रखने में कोई बड़ी बात नहीं लेकिन किस चीज़ का और किसके साथ नाम रखा गया है बात उसमें है.
नरेंद्र मोदी ने विपक्ष और उन्हें जवाब दिया है जो कहते हैं कि उनकी सरकार अडानी-अंबानी की दुकान है. आम तौर पर प्रधानमंत्री स्तर के नेता ऐसे आरोपों से लजाते सकुचाते हैं मगर कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी ने खुलकर अपने जवाब का इज़हार किया है. आप सभी ने कई बार विपक्ष के राजनीतिक आरोपों में सुना होगा कि अडानी और अंबानी के खर्चे से फ़लाँ दल और उसकी सरकार चलती है. यह आरोप तो कांग्रेस पर भी लगता है.
भारत के राजनीतिक हलकों में यह स्वीकृत-अस्वीकृत सच है. अब यह एक खुला प्रश्न है कि स्टेडियम के नामकरण से नरेंद्र मोदी ख़ुद इन आरोपों को हवा दे रहे हैं या सच साबित कर रहे हैं ? सोशल मीडिया पर कई लोग भारत इंग्लैंड मैच के स्क्रीन शॉट लेकर बता रहे हैं कि एक छोर का नाम अंबानी एंड है और दूसरे का अडानी एंड है. वैसे एक छोर का नाम रिलायंस के नाम पर है लेकिन जनता रिलायंस को अंबानी ही कहती है. कमेंट्री में यह बात अनेक बार आएगी कि नरेंद्र मोदी स्टेडियम में रिलायंस छोर से गेंदबाज़ तैयार है और अडानी छोर से बल्लेबाज़. जनता से छिप कर अंबानी और अडानी से वित्तीय अमृत पीने वाले नेताओं को नरेंद्र मोदी ने चुनौती दी है. वे अपने संबंधों को सामने से जीते हैं.
किसी प्रधानमंत्री ने अडानी और अंबानी को इतना सार्वजनिक मान नहीं दिया होगा. कल का दिन बेशुमार दौलत के मालिक अडानी और अंबानी के लिए वेलेंटाइन डे से कम ख़ुशनुमा नहीं रहा होगा. उन्होंने निवेश तो कई नेताओं में किए लेकिन ऐसा रिटर्न किसी ने न दिया होगा. नरेंद्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम अडानी एंड और रिलायंस एंड के साथ आज करोड़ों घरों में पहुंच रहा है. हम दो हमारे दो अगर आरोप है तो आरोप ही सही! राजनीति में नेता अपने प्रतीकों का चुनाव बहुत सावधानी से करते हैं. कई बार वह खुद विडंबनाओं को सामने रखता है और कई बार विडंबनाएं खुद सामने आ जाती हैं. इसी गांधीनगर में बिहार के कुख्यात नेता साधु यादव से नरेंद्र मोदी मिलते हैं.
अगस्त 2013 की बात है. आज भी हर दिन उनकी पार्टी बिहार में साधु और सुभाष का नाम लेकर अराजकता की याद दिलाती है. मुलाक़ात के समय साधु यादव कांग्रेस में थे. साधु ने बताया कि शिष्टाचार की मुलाक़ात 40-50 मिनट की थी! स्टेडियम का नाम एक जवाब है कि नरेंद्र मोदी बहुत परवाह नहीं करते हैं कि विपक्ष उन्हें अडानी और अंबानी का पॉकेट लीडर बताता है. मेरी राय में यह स्टेडियम किसान आंदोलन की सबसे बड़ी जीत है. बस यह किसानों की जीत नहीं है. नरेंद्र मोदी, अडानी और अंबानी की जीत है. किसान आंदोलन ने अगर गांव-गांव घर-घर पहुंचा दिया कि सरकार अडानी-अंबानी को सब बेच देगी, नरेंद्र मोदी स्टेडियम भी क्रिकेट के ज़रिए उन्हीं गांव घरों में अडानी और अंबानी का नाम लेकर पहुंचेगा. जनता जो समझे.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
नेपाल की राजधानी काठमांडू से चितवन की दूरी लगभग 170 किलोमीटर है.
वहाँ जाने के लिए एक टैक्सी किया. टैक्सी के तौर पर स्कॉर्पियो मिली. टैक्सी ड्राइवर लक्ष्मण लौडारी भारत समेत सऊदी अरब में 10 साल तक रहे हैं. लक्ष्मण ने काठमांडू से चितवन आने-जाने के लिए लगभग 11 हज़ार भारतीय रुपए लिए. अगर दिल्ली में इतनी दूरी के लिए यही टैक्सी करते, तो लगभग चार हज़ार रुपए देने पड़ते. लक्ष्मण से पूछा कि इतना ज़्यादा पैसा क्यों ले रहे हैं?
इस पर लक्ष्मण ने हँसते हुए कहा, "मुझे सरकार लूट रही है और हम जनता को लूट रहे हैं. आपको पता है मैंने ये स्कॉर्पियो कितने में ख़रीदी है? दो साल पहले सेकंड हैंड ये स्कॉर्पियो लगभग 22 लाख भारतीय रुपए में ख़रीदी थी. भारत में तीन लाख रुपए और लगा देता तो दो नई स्कॉर्पियों ख़रीद लेता. अब ये मत पूछिएगा कि इतना पैसा क्यों चार्ज कर रहे हैं."
लक्ष्मण ग़ुस्से में कहते हैं, हमसे सरकार केवल वसूली करती है और देती कुछ नहीं है."
दरअसल, नेपाल में सरकार मोटर वीइकल टैक्स बोरा भरकर लेती है. नेपाल सरकार भारत से गाड़ी ख़रीदने पर एक्साइज, कस्टम, स्पेयर पार्ट्स, रोड और वैट मिलाकर कुल 250 फ़ीसदी से ज़्यादा टैक्स लेती है. इस वजह से यहाँ गाड़ियाँ भारत की तुलना में लगभग चार गुनी महंगी मिलती हैं.
बाइक की क़ीमत भी नेपाल आसमान छू रही है. नेपाल सरकार का कहना है कि ये लग्ज़री कैटिगरी में हैं, इसलिए ज़्यादा टैक्स लगाए जाते हैं.
हालाँकि नेपाल में पब्लिक ट्रांसपोर्ट इतनी भी अच्छी नहीं है कि इन्हें लग्ज़री समझा जाए.
काठमांडू यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर विश्व पौडेल कहते हैं, "जब तक नेपाल में राणाशाही रही, तब तक यहाँ के लोगों को खुलकर जीने नहीं दिया गया. राणाशाही को नेपालियों के सुख-सुविधा में जीने देना पसंद नहीं था. वहीं चीज़ें आज भी जारी हैं."
"मोटर-गाड़ी पर 250 से 300 प्रतिशत तक टैक्स लगाने का कोई मतलब नहीं है. अच्छा होता कि सरकार इसके बदले टोल टैक्स लेती और सड़क बनाने पर ज़्यादा ज़ोर देती. काठमांडू से वीरगंज की दूरी 150 किलोमीटर से भी कम है और वहाँ से ट्रकों को आने में दो दिन का वक़्त लता है. नेपाल में सड़कों की हालत बहुत बुरी है."
विश्व पौडेल कहते हैं कि सरकार को राजस्व बढ़ाने का कोई और ज़रिया समझ में नहीं आता इसलिए बेमसझ और बेशुमार टैक्स लगाती है.
वो कहते हैं, "नेपाल विदेशी मुद्रा के लिए टैक्स और विदेशों में काम कर रहे अपने नागरिकों पर निर्भर है. यहाँ निवेश के नाम पर सन्नाटा है. कोई निवेश भी करने आता है, तो बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं. सड़क, बिजली, पानी, स्किल्ड लेबर और सुगम सरकारी तंत्र नहीं है. एक मानसिकता ये भी है कि कोई विदेशी कंपनी आएगी, तो देश पर क़ब्ज़ा कर लेगी. ऐसे में कौन निवेश करेगा."
विश्व पौडेल कहते हैं कि नेपाल की सरकार नहीं चाहती है कि नागरिकों को सस्ते में सामान मिले. बात केवल कार और बाइक की नहीं है. यहाँ खाने-पीने के सामान भी उतने ही महँगे हैं. एक कप चाय के लिए कम से कम 14 भारतीय रुपए देने होंगे.
नेपाल का एक स्थानीय बाज़ार
रेस्तरां में खाने जा रहे हैं, तो एक हज़ार रुपए से कम नहीं लगेंगे. यहाँ मटन 900 रुपए किलो है. अभी आलू का सीज़न है, लेकिन यहाँ नेपाली रुपए में आलू 45 रुपए किलो है और प्याज 90 रुपए किलो है.
भारत की आरबीआई की तरह नेपाल में राष्ट्र बैंक है. नेपाल राष्ट्र बैंक के पूर्व कार्यकारी निदेशक नरबहादुर थापा कहते हैं कि क़ीमतों की तुलना भारत से करने का कोई मतलब नहीं है.
थापा कहते हैं, "हम लैंडलॉक्ड देश हैं. हम समंदर से जुड़े नहीं हैं. नेपाल के कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार का 65 फ़ीसदी से ज़्यादा भारत से होता है. वो भी एकतरफ़ा है. हम आयात ज़्यादा करते हैं. निर्यात के नाम पर कुछ कृषि उत्पाद हम भारत से बेचते हैं. ऐसे में देश को चलाने के लिए राजस्व जुटाने का विकल्प भारी टैक्स के आलावा कुछ दिखता नहीं है."
नरबहादुर थापा कहते हैं, "नेपाल की अर्थव्यवस्था का आकार लगभग 35 अरब डॉलर का है. इसमें सबसे ज़्यादा योदगान सर्विस और कृषि सेक्टर का है. मैन्युफैक्चरिंग न के बराबर है. हम नेपाल की तुलना बांग्लादेश से भी नहीं कर सकते हैं. बांग्लादेश के पास समंदर है. मेरे पास तो भारत के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है. चीन है, तो अभी चीज़ें विकसित नहीं हो पाई हैं."
हालाँकि विश्व पौडेल कहते हैं कि बांग्लादेश अगर रेडिमेड कपड़ा बनाने में अव्वल हो सकता है, जेनरिक दवाइयाँ बनाने में भारत के बाद दूसरे नंबर पर आ सकता है, तो नेपाल ऐसा क्यों नहीं कर सकता है.
वो कहते हैं, "एक तो यहाँ राजनीतिक माहौल नहीं है. ढंग से पढ़े-लिखे नेपालियों को यहाँ एक अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती. अगर कोई बिहारी खाड़ी के देशों में नौकरी करता है, तो वो एक साल कमाकर बिहार में अपना अच्छा घर बना लेता है. वही काम नेपाली नहीं कर सकता. नेपाली को घर बनाने में कम से कम एक करोड़ रुपए ख़र्च करने होंगे."
नेपाल ऑटोमोबिल डीलर असोसिएशन के अध्यक्ष कृष्ण प्रसाद दुलाल कहते हैं कि टैक्स से देश चल रहा है, तो भारी टैक्स लगाया जा रहा है. दुलाल कहते हैं, "नेपाल में पिछले 40 सालों से कोई नई सड़क नहीं बनी. सरकार बहाना करती है कि टैक्स नहीं लगाएँगे, तो सड़क पर गाड़ियाँ बढ़ जाएँगी. अब ये तो अजीब बात है कि पिछले चार दशक से सड़क नहीं बनाओ और गाड़ियाँ कम करने के लिए भारी टैक्स लगा दो."
दुलाल कहते हैं, "ये जनता को बताते हैं कि नेपाल में गाड़ियाँ ज़्यादा हो गई हैं, जबकि सच ये है कि नेपाल में सड़कें कम हैं. ये 300 फ़ीसदी टैक्स ले रहे हैं. इन्हें सड़क बनाने पर ध्यान देना चाहिए था. लेकिन सारे प्रोजेक्ट लटके पड़े हैं."
"राजनीतिक अस्थिरता थमने का नाम नहीं ले रही. ऐसे में विकास कहाँ से होगा. 90 फ़ीसदी गाड़ियाँ भारत से नेपाल में आती हैं. अब बजाज और टीवीएस बाइक की एसेंबलिंग नेपाल में ही शुरू होने जा रही है. हालाँकि इसका फ़ायदा जनता को शायद ही मिले. इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार टैक्स कम करे."
दुलाल कहते हैं कि यहाँ टैक्सी का किराया इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि स्पेयर पार्ट्स पर 40 फ़ीसदी का टैक्स लगता है. सड़कें ख़राब हैं, तो सर्विसिंग जल्दी करानी पड़ती है. जाम भयानक लगता है.
इसमें टाइम और तेल की खपत भी ज़्यादा होती है. दुलाल कहते हैं कि अभी कोई उम्मीद नहीं दिखती कि सरकार इन पर टैक्स कम करेगी.
नेपाल में बिजली भी काफ़ी महंगी है. यहाँ के लोग 12 रुपए प्रति यूनिट से बिजली का बिल भरते हैं. सड़क किनारे जिन सैलूनों में भारत में 20 से 50 रुपए में हेयर कटिंग हो जाती है, वही हेयर कटिंग के लिए यहाँ 220 नेपाली रुपए देने पड़ते हैं. किताब, नोटबुक, कलम और दवाइयाँ में नेपाल में बहुत महंगी हैं.
मधेस में रोहतट के शिवशंकर ठाकुर काठमांडू के धोबीघाट इलाक़े में सड़क किनारे बाल काटते हैं. उन्होंने जब बाल काटने के बाद 220 रुपए लिए, तो मैंने कहा कि बहुत ही ज़्यादा ले रहे हैं. शिवशंकर ठाकुर ने कहा आप अंदाज़ा लगाइए हम इस झोपड़ी का किराया कितना देते हैं... मैंने कहा- दो हज़ार रुपए. शिवशंकर ठाकुर हँसने लगे और बोले कि इसका किराया 10 हज़ार है.
अगर आप नेपाल ये सोचकर घूमने आते हैं कि सस्ते में घूम लेंगे, तो निराशा हाथ ललेगी. पोखरा और सोलुखुंबु को सिंगापुर जितना महंगा बताया जाता है. सोलुखुंबु वही जगह है जहां से माउंट एवरेस्ट पर लोग चढ़ाई शुरू करते हैं.