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नई दिल्ली: धरती के बर्फीले हिस्से के रूप में अपनी अलग पहचान रखने वाले अंटार्कटिका में एक और विशाल आइसबर्ग यानी हिमशैल, आइस शेल्फ यानी बर्फ की चट्टान से अलग हो गया है. इस आइसबर्ग का आकार अमेरिका के शिकागो शहर का दोगुना होगा. अमेरिकी स्पेस NASA के NASA Earth के वैज्ञानिकों ने इसकी जानकारी दी है.
बुधवार को नासा अर्थ ने एक ट्वीट शेयर कर बर्फ का बड़ा हिस्सा टूटकर आइसबर्ग बनने की जानकारी दी. ट्वीट के मुताबिक, जिस हिस्से से यह बर्ग टूटा है, उसे ब्रंट आइस शेल्फ कहा जाता है. यह आइसबर्ग दो सालों से ज्यादा वक्त से टूटने की कगार पर था. नासा ने कहा कि ब्रंट आइस शेल्फ से बर्ग अब आखिरकार टूट गया है.
NASA के Earth Observatory वेबसाइट के मुताबिक, A-74 नाम का यह आइसबर्ग फरवरी में अलग हुआ है. इसे सबसे पहले जीपीएस उपकरण पर 26 फरवरी, 2021 को देखा गया था और फिर यूरोपीय स्पेस एजेंसी के Sentinel-1A सैटेलाइट ने इसकी पुष्टि की. जो तस्वीर नासा अर्थ ने शेयर की है, उसे धरती का प्रक्षेपण करने वाली सैटेलाइट Landsat 8 के ऑपरेशनल लैंड इमेजर की मदद से लिया गया है.
बता दें कि दो साल पहले यहां बर्फ की चादर में दरारें आनी शुरू हो गई थीं, तबसे ही वैज्ञानिकों को इसका अंदाजा हो गया था. दरारों से ब्रंट आइस शेल्फ की स्थिरता को लेकर भी चिंताएं उठी थीं. इसका आकार 1270 वर्ग किलोमीटर या शिकागो के दोगुने आकार का है.
भारत के युवा हमेशा ही निराश करते हैं. उनसे उम्मीद थी कि वे नरेंद्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम को लेकर डिबेट में डूब जाएंगे लेकिन वे नौकरी पर डिबेट की मांग करने लगे. भारत इंग्लैंड टेस्ट मैच के दूसरे दिन का खेल शुरू होने से पहले इन युवाओं ने नौकरी की बात शुरू कर दी. Someone should have told them that this is not the way to ask for a job. You can't just leave the hindu-muslim debate like this. आप भी सोचिए कि भारत के युवाओं को आखिर कौन सा टॉपिक दिया जाए जिससे वे रोजगार के सवाल से भटक जाएं. इसमें दोष युवाओं का नहीं है, उनके रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप का है.
जिनका काम हर दिन चीन और पाकिस्तान को पराजित करने के बाद विश्व गुरु बनाने की महानता के डोज़ सूरज उगने से पहले भेज देना होता है. आप किसी से भी पूछिए वो रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप से परेशान है. राजनीति शास्त्र के प्रोफेसरों और रिसर्चरों को रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप और सांप्रदायिक नागरिकता के घरेलु संस्कार पर काम करना चाहिए. यह अच्छा नहीं है कि कोलंबिया से लेकर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट को रिसर्च का आइडिया मैं ही दूं. क्या उनके व्हाट्सएप ग्रुप में रिश्तेदार सक्रिय नहीं हैं. ऐसा कैसे हो सकता है.
रिश्तेदारों के इन्हीं ग्रुप में लोकतंत्र को खत्म करने के लिए ज़रूरी ख़ास किस्म के नागरिकों के निर्माण की प्रक्रिया चलती रहती है. सबसे पहले मैंने नेशनल टीवी पर रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप की प्रासंगिकता की बात की है. आपने पिछली दो पंक्तियों में दो बार मैं मैं सुना होगा. स्टेडियम का नाम रखने से प्रेरित हो गया हूं. जो लोग अपने रिश्तेदारों के प्रयास के बाद भी सांप्रदायिक नागरिक होने से बच गए वो मेरा भी शुक्रिया अदा कर सकते हैं. तीसरी बार मैं आ गया. आज हो क्या रहा है मेरे साथ.
ख़ैर इसमें से निकल कर उस चराचर जगत की तरफ प्रस्थान करते हैं जहां भारत के लोकल युवा ट्विटर पर रोज़गार नाम की छोटी मोटी समस्या को ग्लोबल ट्रेंड करा रहे हैं. यह विश्व गुरु भारत की छवि को ख़राब करने वाला कदम तो है ही, युवाओं के परिवारों में रिश्तेदारों के घटते प्रभाव का भी द्योतक है. बेरोज़गारी का मुद्दा युवाओं के रिश्तेदारों की नाकामी का समानुपाती है. रिश्तेदार जितने नाकाम होंगे, बेरोज़गारी का मुद्दा उतना प्रमुख होगा. नौजवान मुझसे चर्चा मांग रहे हैं, मुझे टैग कर रहे हैं. इस बात पर फिर इंग्लिश बोलने का मन कर रहा है लेकिन रहने देता हूं.
25 फरवरी का दिन जब घड़ी की बड़ी सुई छोटी सुई को क्रमांक 12 पर छोड़ आगे बढ़ती है, तब हिन्दू मुस्लिम डिबेट में रमने वाले युवाओं ने मैसेज भेजना शुरू किया है कि #Modi_job_do दुनिया में नंबर वन ट्रेंड कर रहा है. और भारत में #go_back _modi दूसरे नंबर पर ट्रेंड कर रहा है. प्रधानमंत्री मोदी के साथ साथ अन्य पत्रकारों के साथ साथ मैं भी टैग-टूग हो रहा था. जैसे बेरोज़गारी के तक्षक ने मुझे भी बांध लिया हो. मेरे सपने में आने वाले नीम के पेड़ ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि ट्विटर से दूर रहा करो. एक ग्लोबल ट्रेंड और दूसरा इंडिया ट्रेंड. युवाओं ने आज दूरदर्शिता का परिचय दे ही दिया. मोदी से रोज़गार मांग रहे हैं यह बात दुनिया को बता रहे हैं लेकिन रोज़गार न देने पर मोदी को वापस जाना होगा केवल भारत को बता रहे हैं. इन युवाओं को आज दोपहर 12 बजे तक साठ लाख ट्वीट करने की क्या ज़रूरत थी. वे क्या समझते हैं कि इससे कल के सारे अखबारों में पहली हेडलाइन बन जाएंगे? कोटा के एक मास्टर साहब रवि मोहन तो बकायदा बता रहे हैं कि हैशटैग कैसे ट्रेंड कराना है, इसी को टूलकिट कहते हैं. दुआ कीजिए इनके घर में ED छापे न डाले और पुलिस फरज़ी केस में न फंसा दे.
#मोदीरोज़गारदो यह मात्र ट्रेंड नहीं है. यह उस सामूहिक बेचैनी, हताशा और क्रोध की अभिव्यक्ति है जिसमें सिर्फ केंद्र सरकार की परीक्षाएं और भर्तियां ही नहीं हैं, बल्कि तमाम राज्यों की भर्ती परीक्षाएं हैं. बिहार, बंगाल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक। तभी तो साठ लाख ट्वीट कर रहे हैं. टाइमली एगज़ाम, टाइमली रिज़ल्ट, इंक्रीज़ वेकेंसी ये सब भी भारत के भीतर टॉप टेन में ट्रेंड कर रहा था.
परीक्षा, रिज़ल्ट और नियुक्ति के साथ साथ गायब होती भर्ती ये भारत का इतना बड़ा मसला है कि मुझे कई बार घोषणा करनी पड़ती है कि नहीं करेंगे क्योंकि आप कर ही नहीं सकते. हर राज्य में घोटाले घपले की इतनी कहानियां हैं कि इसके लिए अलग से किसान चैनल की तरह भर्ती चैनल की ज़रूरत है. वैसे किसान आंदोलन के दौरान आप लोगों ने एक बार भी किसान चैनल की बात नहीं की. ये बात मैं आतंरिक रुप से बता रहा हूं. अभी इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने कहा कि प्रश्न पत्र लीक देश की शिक्षा प्रणाली को बर्बाद कर रहा है. यह उस समय की खबर है जब भारत विश्व गुरु हो चुका है, बताइये. और प्रश्न पत्र है कि लीक हुआ जा रहा है.
मामला कर्नाटक का था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मध्य प्रदेश के व्यापम जैसे मामले शिक्षा प्रणाली को खराब कर रहे हैं. चीफ जस्टिस ने तो यह भी कह दिया कि हम जानते हैं कि मध्य प्रदेश में व्यापम मामले में क्या हुआ था. यह कोई साधारण बात तो नहीं है. कर्नाटक में 2016 में रसायन शास्त्र के प्रश्नपत्र लीक का मामला सामने आया था. जिसके एक आरोपी को हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गई। और सह आरोपी आरोप मुक्त हो गया. बिहार में तो पेपर लीक के मामले में आए दिन विपक्ष के नेता सवाल उठाते रहते हैं. सवाल उठाने से पेपर लीक बंद नहीं होते ये बिहार ने साबित किया है.
सरकारी नौकरियां कम हो रही हैं. निकलती हैं तो कभी पूरी नहीं होती हैं. एकाध पूरी होंगी बाकी अधूरी रह जाती हैं. यही पैटर्न आपको सभी राज्यों में दिखेगा. राहुल गांधी ने भी इस मामले में ट्विट करते हुआ है कि फेल सरकार, महंगाई की मार, बेरोज़गारी की सब हदें पार, #modi_job_do.
बुधवार को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में अलग अलग जगह पर सैकड़ों कि संख्या में युवा रोज़गार के मुद्दे पर सड़क पर उतरे. सुबह 11 बजे बालसन चौराहा से यह प्रदर्शन शुरू हुआ. ये छात्र खाली पड़े पदों पर जल्दी भर्ती की मांग कर रहे हैं. पुलिस ने यह कहकर उन्हें हटा दिया कि पत्थर गिरजाघर धरना स्थल बनाया गया है और छात्र वहां पर चले जाएं. इसके बाद छात्र पत्थर गिरजाघर पहुंचे. छात्रों का आरोप है कि जब वो शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे थे तब प्रशासन ने ज़बरदस्ती बलपूर्वक गिरफ्तार कर लिया. कुल 27 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से नौ महिलाएं थीं. गुरुवार 2 बजे तक यह छात्र रिहा नहीं हो पाए थे.
दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने भी इलाहाबाद के सलोरी में सभाएं की. इस दौरान जुलूस निकाला गया जिसमें सैकड़ो युवाओं ने भागीदारी की. रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने, निजीकरण को रोकने, सभी खाली पदों को भरने, नए पदों का सृजन करने और नई शिक्षा नीति को रद्द करने जैसी मांगे रखी गई.
प्रधानमंत्री परीक्षा पर चर्चा करते हैं. 10वीं और 12वीं के छात्रों के साथ. मगर 12वीं के बाद के युवाओं को भी परीक्षा के तनावों से गुज़रना होता है. यह तनाव कोर्स के पूरा होने और तैयारी का ही नहीं है. पेपर लीक होने से लेकर रिज़ल्ट के आने का भी तनाव होता है जिसने न जाने कितने युवाओं की ज़िंदगी बर्बाद कर दी है और इस तनाव के लिए युवा ज़िम्मेदार नहीं हैं. सिस्टम ज़िम्मेदार है. बहरहाल परीक्षा के तनाव से ग्रस्त जिन युवाओं ने ट्रेंड का रास्ता चुना है वो इस वीडियो को देख सकते हैं. शिक्षा मंत्री ने आज ही इस वीडियो को ट्विट किया.
साठ लाख ट्वीट के बाद तो केंद्र सरकार को प्रेस कांफ्रेंस करनी चाहिए थी. युवाओं को कुछ बताना चाहिए कि अभी निजीकरण करना है. सरकारी नौकरी का दौर नहीं है. यह सब ठीक से बताने में क्या हर्ज है. सिर्फ आज नहीं ट्रेंड हुआ है. रविवार को भी हुआ और सोमवार को भी हुआ था. अब मेरा युवाओं से कुछ प्रश्न है. उन्हें क्यों लगा कि 35 और 60 लाख ट्वीट करने से रोज़गार पर बात होने लगेगी?
युवा भी सरकार के साथ साथ खुद से यह सवाल करें, 93 दिनों से भारत के करोड़ों किसान आंदोलन पर हैं, क्या उनके बीच किसान आंदोलन को लेकर बात हुई? किसान आंदोलन के प्रति उनकी राय क्या वही है जो गोदी मीडिया ने बनाई है? ऐसा हो सकता है कि किसानों के आंदोलन के प्रति आप गोदी मीडिया देख कर राय बनाएं और अपने हैशटैग के कवर न करने पर आप गोदी मीडिया का मज़ाक भी उड़ाए? अगर गोदी मीडिया हैशटैग आंदोलन कवर कर देता है तो क्या वह पाक साफ हो जाता है? अगर इतनी सीमित और तात्कालिक सोच है तो फिर युवाओं को जलेबी बांटनी चाहिए कि उनका आंदोलन सफल रहा क्योंकि किसी मंत्री या गोदी मीडिया ने उन्हें किसानों की तरह आतंकवादी नहीं कहा. आंदोलन का मतलब केवल साहस नहीं होता है. आंदोलन के कारणों को लेकर साफ समझ बहुत ज़रूरी होती है और उस समझ का व्यापक होना बहुत ज़रूरी होता है.
यह सवाल इसलिए किया क्योंकि बहुत सारे ट्विट को पढ़ते ही साफ नहीं हो सका कि ये युवा किसान आंदोलन के बारे में क्या सोचते हैं? न तो किसानों के प्रति समर्थन दिखा और न उनके मुद्दों का ज़िक्र. इसका मतलब यह नहीं कि हैशटैग ट्रेंड करा देना बेमानी हो गया. क्या वाकई ट्विटर पर ट्वीट की संख्याओं का कोई खास मतलब होता है, इस सवाल पर क्या युवा सोचना चाहेंगे? कौन ट्वीट करता है उस पर निर्भर करता है या केवल संख्या से तय होता है? अगर साठ लाख ट्वीट की संख्या का महत्व होता तो आज तो बहुत बात होती रोज़गार पर? एक साल पहले 17 सितंबर 2020 को भी रोज़गार को लेकर 35 लाख ट्वीट हुए थे, प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर. क्या हुआ? अच्छी बात है कि युवाओं ने हार नहीं मानी और अपनी आवाज़ उठाने के इस सबसे सुरक्षित माध्यम पर बार बार लौट कर आए. कार्यक्रम की शुरूआत में मैंने सांप्रदायिक नागरिकता का इस्तमाल किया उसे भूल मत जाइयेगा.
ट्विटर पर ट्रेंड कराने के लिए बनाए गए ये मीम युवाओं की बेचैनी का प्रदर्शन करते हैं, उनकी हताशा भी झलकती है, वे प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करते हैं, कभी-कभी सरकार को ललकारते हैं. आईटी सेल ने इन युवाओं को जिस तरह की अभिव्यक्ति दी है उसी शैली में जवाब दे रहे हैं. इससे आप देखेंगे कि कोई अलग असर पैदा नहीं होता है. कई दिनों तक लाखों ट्वीट करने के बाद भी रोज़गार का सवाल केवल परीक्षा और नियुक्ति पत्र तक सिमट जाता है. मुमकिन है युवा खुद को गैर राजनीतिक दिखाना चाहते हों लेकिन रोज़गार का सवाल तो राजनीतिक है. इसके लिए सरकार और विपक्ष पर समान रूप से दबाव बनाना पड़ता है और उनसे रिजल्ट नहीं रोज़गार की नीतियों के बारे में पूछना होता है. तब युवाओं को उन आर्थिक नीतियों को लेकर सवाल करने होंगे जो जीडीपी के आंकड़े तो देते हैं मगर रोज़गार के आंकड़े नहीं देते हैं.
अपना देखने और कतरा कर निकल जाने की आदत हमारे युवाओं को इस हद तक संकुचित कर चुकी है कि लाखों ट्वीट में आपको उनके ही बीच की एक युवा दिशा रवि और नौदीप कौर को लेकर कोई राय नहीं दिखेगी. जबकि ट्रेंड कराने के लिए इन युवाओं ने भी वही टूलकिट बनाए जिसके आरोप में दिशा रवि 7 दिनों तक जेल में बंद रही. अपने समय के राजनीतिक प्रश्नों से कटने की यह सावधानी मां-बाप को पसंद तो आएगी लेकिन इससे हासिल कुछ नहीं होता है. अगर सारा प्रयास इस बात को लेकर है कि कहीं छप जाए और दिख जाए तो फिर उन्हें इसका मूल्यांकन करना चाहिए कि जहां छपना है या दिखना है उस प्रेस की क्या हालत है. उसकी विश्वसनीयता भारत और दुनिया में क्या है.
क्या युवाओं से आर्थिक नीतियों के आर पार देख लेने की उम्मीद करनी चाहिए? क्या उसके बग़ैर रोज़गार का प्रश्न इस राजनीति में स्थापित होगा? प्रधानमंत्री ने लोकसभा में निजीकरण और सरकारी नौकरी को लेकर जो बात कही उस पर भी ट्रेंड के दौरान गंभीर प्रतिक्रिया नहीं दिखी. जबकि पकौड़ा तलने से लेकर आईएएस भी हवाई जहाज़ उड़ाएगा वाली बात सबके सामने कही गई है. उम्मीद है इस बयान से प्रभावित मां बाप बच्चों को आईएएस की तैयारी छोड़ देने के लिए कहेंगे.
सरकारी नौकरी का सपना देखना कोई खराब सपना नहीं है. प्राइवेट सेक्टर अगर नौकरी दे पा रहा होता तो युवा सरकारी नौकरी की तरफ कम देखते. महामारी के दौरान करोड़ों लोग प्राइवेट सेक्टर से ही बेरोज़गार हुए. नौकरी और सैलरी की शर्तें खराब हो चुकी हैं. व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में रिश्तेदारों के ग्रुप बच्चों को डांट रहे हैं कि प्राइवेट सेक्टर रोज़गार देता है. निजीकरण ज़रूरी है. किस वेल्थ क्रिएटर ने कितना रोज़गार दिया, कोई आंकड़ा नहीं है. सरकार ने कितना रोज़गार दिया, कोई आंकड़ा नहीं है. किस तरह का रोज़गार दिया है इसका भी आंकड़ा नहीं है. इसका आंकड़ा तो है कि हमारे देश के कुछ सबसे अमीर वेल्थ क्रिएटर्स की वेल्थ में कोरोना महामारी के दौरान 35 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ. लेकिन इसका आंकड़ा नहीं है कि कोरोना के कारण कितने लोग बेरोज़गार हुए. क्या इन सब प्रश्नों के बगैर किसी ट्रेंड का कोई व्यापक असर हो सकता है?
इस बीच गैस का सिलेंडर फिर 25 रुपये महंगा हो गया है. अकेले फरवरी में करीब 100 रुपया महंगा हो गया. देश की राजनीति बंगाल में जाकर जय बांग्ला और जय श्री राम में सिमट चुकी है. महंगाई से त्रस्त इस देश की यह हालत है कि चुनाव इन स्लोगनों के बोले जाने को लेकर हो रहे हैं. राजनीति को इस लेवल पर कौन लाया अब सवाल खत्म हो चुका है लेकिन इस लेवल कौन बार बार लाए जा रहा है यह भी दिखाई नहीं देता है. जनता की जेब खाली हो रही है. उसकी कमाई कम होती जा रही है.
नागरिक जीवन के तानव सिर्फ दाम और नौकरी के नहीं हैं. दंगों के भी हैं. करीब 11 महीने तक बिना सबूत के जेल में बंद कर दिए गए उन ग़रीब लोगों पर क्या गुज़री होगी. गोली मारने के नारे लगाने वाले से पूछताछ तक नहीं होती है लेकिन तीन ग़रीब बिना सबूत के दंगों के आरोप में उठाकर जेल में बंद कर दिए जाते हैं. जुनैद, इरशाद और चांद मोहम्मद के लिए भारत के युवा साठ लाख ट्वीट नहीं करेंगे, ये मैं जानता हूं. दिल्ली हाई कोर्ट ने इन्हें 19 फरवरी को ज़मानत दी, प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि बाहर आते-आते 19 से 24 फरवरी हो गया. जिस इमारत पर होने के आरोप में चांद मोहम्मद, जुनैद और इरशाद को गिरफ्तार किया गया, तीनों उस इमारत पर थे ही नहीं. उमर खालिद भी तो दिल्ली से बाहर थे, जेल में हैं, साज़िश रचने के आरोप में. परिमल कुमार की यह रिपोर्ट आप देख सकते हैं.
दिल्ली दंगों में 53 लोग मारे गए थे. 600 से ज़्यादा घायल हुए. पुलिस कहती है कि 1800 से अधिक दंगाई गिरफ्तार हुए. इसमें से तीन तो अभी ज़मानत पर इसलिए छोड़े गए कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था. इन दंगों में घायल हुए लोगों में लगभग दर्ज़न लोग ऐसे हैं जो विकलांग हो चुके हैं. कुछ तो ऐसे हैं जो अब भी बिस्तर पर हैं और जो कभी वापस खड़े नहीं हो पाएंगे.
कोरोनिल नाम की इस दवा को हाल में कुछ सरकारी मंत्रियों की मौजूदगी में लॉन्च किया गया. लेकिन इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि ये काम करता है और इसके इस्तेमाल की मंज़ूरी के बारे में भ्रामक दावे किए गए हैं.
कोरोनिल के बारे में हम क्या जानते हैं?
ये पारंपरिक तौर पर भारतीय दवाओं में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियों का मिश्रण है और इसे भारत की एक बड़ी कंपनी पतंजलि बेच रही है. इसे कोरोनिल नाम दिया गया है. सबसे पहले इसके बारे में बीते साल जून में चर्चा शुरू हुई थी, जब मशहूर योग गुरु बाबा रामदेव ने इसे बिना किसी आधार के कोविड-19 का 'इलाज' बताकर प्रचारित किया था.
लेकिन भारत सरकार के हस्तक्षेप के बाद इसकी मार्केटिंग रोकनी पड़ी. सरकार ने तब कहा था कि ऐसा कोई डेटा नहीं है, जो दिखाता हो कि इससे इलाज हो सकता है.हालाँकि सरकार ने कहा था कि इसे "इम्युनिटी बूस्टर" के तौर पर बेचना जारी रखा जा सकता है.
इस साल 19 फरवरी को कंपनी ने एक और इवेंट किया, जिसमें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन भी मौजूद थे. इस आयोजन में ये दावा दोहराया गया कि कोरोनिल कोविड-19 से बचाव और उसका इलाज कर सकती है. डॉ हर्षवर्धन की मौजदगी की भारत में डॉक्टरों की सबसे बड़ी संस्था, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने आलोचना की.
संस्था ने कहा कि स्वास्थ्य मंत्री की मौजूदगी में एक 'अवैज्ञानिक दवा' का प्रचार भारत के लोगों का अपमान है और एसोसिएशन ने मंत्री से ये स्पष्ट करने को कहा कि क्या उन्होंने इसका इलाज के तौर पर समर्थन किया.
आयोजन में डॉ हर्षवर्धन की मौजूदगी के बारे में पूछने के लिए हमने स्वास्थ्य मंत्रालय से संपर्क किया, लेकिन ये लेख प्रकाशित होने तक हमें उनका कोई जवाब नहीं मिला. पतंजलि कंपनी ने मंत्री की मौजूदगी का बचाव किया और कहा, "उन्होंने न तो आयुर्वेद (भारत की पारंपरिक चिकित्सा) का समर्थन किया, न ही आधुनिक चिकित्सा पद्धति का."
कोरोनिल के बारे में क्या दावे किए गए?
कंपनी बार-बार कह रही है कि उनका उत्पाद कोविड-19 पर काम करता है. पतंजलि के प्रबंध निदेशक आचार्य बालकृष्ण ने बीबीसी से कहा, "इसने लोगों का इलाज किया है."
कंपनी ने हमें कहा कि इसके वैज्ञानिक ट्रायल हुए हैं, जिसके नतीजे कई अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हुए है. कंपनी ने ख़ास तौर पर नवंबर 2020 में स्विट्ज़रलैंड स्थित एमडीपीआई की ओर से प्रकाशित एक जर्नल का ज़िक्र किया, जो लैब ट्रायल पर आधारित है.
हालाँकि ये अध्ययन मछली पर किया गया था, और इसमें ये नहीं कहा गया कि इस बात के सबूत हैं कि कोरोनिल इंसानों में कोरोना वायरस का इलाज कर सकती है. इसमें सिर्फ़ ये कहा गया है कि मौजदा प्री-क्लीनिकल अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इंसानों में विस्तृत क्लीनिकल ट्रायल किए जा सकते हैं.
ब्रिटेन के साउथैम्प्टन विश्वविद्यालय में ग्लोबल हेल्थ के विशेषज्ञ डॉ. माइकल हेड ने बीबीसी से कहा कि लैब में प्री-क्लीनिकल ट्रायल करने और इंसानों पर काम करने वाली किसी चीज़ के लिए रेगुलेटरी मंज़ूरी हासिल करने में अंतर होता है.
उन्होंने कहा, "कई दवाइयां लैब में कुछ ठीक नतीजे देती हैं, लेकिन जब इनका इंसानों पर ट्रायल किया जाता है, तो वो कई वजहों से काम नहीं करतीं."
कोरोना वायरस से पॉज़िटिव पाए गए 95 मरीज़ों पर बीते साल मई और जून के बीच एक इंसानी ट्रायल किया गया था. इनमें से 45 को उपचार दिया गया और 50 प्लेसीबो समूह का हिस्सा था (जिन्हें कुछ नहीं दिया गया).
पतंजलि कंपनी ने कहा कि इसके नतीजे एक जाने-माने जर्नल साइंस डायरेक्ट के अप्रैल 2021 के एडिशन में छप रहे हैं. कंपनी ने कहा कि नतीजों से पता चला कि जिन लोगों को कोरोनिल दी गई, वो लोग उन लोगों के मुक़ाबले जल्दी ठीक हो रहे थे, जिन्हें ये नहीं दी गई थी. हालाँकि, ये एक छोटे सैंपल साइज़ पर किया गया पायलट अध्ययन था. इसलिए इसके नतीजों को पुख़्ता मानना मुश्किल लगता है, क्योंकि रिकवरी की दरों में कई अन्य वजहों से भी अंतर हो सकता है.
क्या कोरोनिल को कोई आधिकारिक मंज़ूरी मिली है?
दिसंबर 2020 में उत्तराखंड स्थित पतंजलि कंपनी ने राज्य प्रशासन से कोरोनिल के मौजूदा 'इम्युनिटी बूस्टर' के लाइसेंस को 'कोविड-19 की दवा' में बदलने के लिए कहा. इस साल जनवरी में पतंजलि कंपनी ने कहा कि उत्पाद को कोविड के ख़िलाफ़ एक 'सहायक उपाय' के तौर पर मंज़ूरी मिल गई है.
राज्य प्रशासन ने बीबीसी से बातचीत में पुष्टि की है कि उन्होंने नया लाइसेंस जारी किया है, लेकिन साथ ही ये भी स्पष्ट किया कि ये लाइसेंस कोविड के 'इलाज' के तौर पर नहीं है.
पारंपरिक चिकित्सा विभाग और राज्य लाइसेंसिंग प्राधिकरण के निदेशक डॉ. वाईएस रावत ने बीबीसी को बताया, "अपग्रेडेड लाइसेंस का मतलब है कि इसे ज़िक, विटामिन सी, मल्टी-विटामिन या किसी अन्य सप्लिमेंटल मेडिसिन की तरह बेचा जा सकता है."
उन्होंने साथ ही कहा, "ये (कोरोनिल) इलाज नहीं है."
कंपनी ने ये भी बताया कि उसे गुड मैन्युफ़ैक्चरिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) प्रमाणपत्र मिला है, जो कहता है कि ये 'विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सर्टिफ़िकेशन स्कीमों के अनुरूप है'.
एक वरिष्ठ एक्ज़िक्यूटिव राकेश मित्तल ने एक ट्वीट में ये दावा भी किया था कि कोरोनिल को डब्ल्यूएचओ से मान्यता मिली है, लेकिन बाद में उन्होंने इस ट्वीट को हटा दिया था. दरअसल भारत का शीर्ष ड्रग रेगुलेटर ही डब्ल्यूएचओ से मान्यता प्राप्ता एक स्कीम के तहत जीएमपी सर्टिफ़िकेशन देता है और ये निर्यात के मक़सद से उत्पादन मानकों को सुनिश्चित करने के लिए दिया जाता है.
उत्तराखंड राज्य सरकार के डॉ. रावत ने बताया, "जीएमपी प्रमाणपत्र का दावा की प्रभावकारिता से कुछ लेना-देना नहीं है, ये मैन्युफ़ैक्चरिंग के दौरान गुणवत्ता के मानकों को बनाए रखने के लिए होता है."
डब्ल्यूएचओ ने बीबीसी को इस बात की पुष्टि की कि उन्होंने "कोविड -19 के उपचार के लिए किसी भी पारंपरिक दवा की प्रभावशीलता को प्रमाणित नहीं किया है."
साउथैम्प्टन विश्वविद्यालय के डॉ हेड कहते हैं, "अभी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि ये उत्पाद कोविड -19 के इलाज या बचाव के लिए फ़ायदेमंद है."
पाँच युवक ज़मीन पर गिरे हुए दर्द में कराह रहे हैं, हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहे हैं और बख़्श दिए जाने की विनती कर रहे हैं लेकिन उन्हें डंडे से पीटने वाले उन्हें गालियाँ देते हुए 'जन गण मन' और 'वंदे मातरम' गाने के लिए कह रहे हैं.
इस घटना का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें इन युवकों को जो लोग क्रूरता से पीट रहे हैं और वे सब दिल्ली पुलिस की वर्दी में हैं.पिछले साल फ़रवरी में हुए दंगों के दौरान जिन मामलों की वजह से दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सबसे ज्यादा सवाल उठे हैं उनमें यह सबसे अहम मामला है. दिल्ली पुलिस ने इस बात से इनकार नहीं किया है कि वे पुलिसकर्मी ही थे, दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान कहा है कि उन पुलिसकर्मियों की पहचान करने की कोशिश की जा रही है.
बुरी तरह पिटाई की वजह से इस मामले में फैज़ान की मौत हो गई और चार अन्य लोग बुरी तरह से ज़ख्मी हुए लेकिन आज एक साल बाद भी इस मामले की जाँच में कोई प्रगति नहीं हुई है. वीडियो में नज़र आ रहे पुलिसकर्मी कौन थे, किस थाने के अंतर्गत उनकी तैनाती थी, किसके निर्देश पर उन्होंने यह सब किया? इनमें से किसी सवाल का जवाब अब तक नहीं मिला है. फ़ैज़ान और 4 अन्य लोगों को 24 फ़रवरी को पीटा गया था, 26 फ़रवरी को फ़ैज़ान ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में दम तोड़ दिया था.
मरने से पहले फ़ैज़ान का बयान
फ़ैज़ान की माँ किस्मतून अपने छोटे से कमरे में सुबकते हुए कहती हैं, "क्राइम ब्रांच की जाँच से मेरा भरोसा उठ चुका है इसलिए अपने बेटे को इंसाफ़ दिलाने के लिए हमने हाई कोर्ट में याचिका दायर की है. मेरे बेटे ने मरने से पहले साफ़ कहा था कि पुलिस ने उसे बुरी तरह पीटा है और पुलिस ही उसकी हालत के लिए ज़िम्मेदार है."
किस्मतून के कमरे की दीवारों पर हुए पेंट की परतें उधड़ रही हैं. ये छोटा सा कमरा इस्तेमाल में न आने वाले एक पुरानी सिलाई मशीन और एक छोटे से बिस्तर भर से भर गया है.
किस्मतून बताती हैं, "उसके साथ किसी जंगली जानवर-सा सलूक किया गया. वो बहुत अच्छा बेटा था, ज़िम्मेदार बच्चा था. वो ग़ाज़ीपुर मंडी में काम करता था. वो बहुत मेहनती था, वह कमाकर घर चलाता था, उसे इसलिए मारा गया क्योंकि वो मुसलमान था. पुराने वक़्त में आज जैसा माहौल नहीं था. तब आस-पड़ोस में मेलजोल था, ऐसा हिंदू मुसलमान नहीं होता था. अगर दंगों में कोई बड़ा आदमी मारा गया होता तो इंसाफ़ भी जल्दी होता."
बीबीसी ने पिछले साल एक मार्च को फ़ैज़ान की माँ किस्मतून से बात की थी. उन्होंने पुष्टि की थी कि वीडियो में दिखने वाले पाँच युवकों में से एक उनका बेटा फ़ैज़ान था. उस समय भी क़िस्मतून का यही कहना था कि फ़ैज़ान की मौत पुलिस की पिटाई के कारण हुई और किस्मतून के वकील का कहना है कि "पुलिस ने फ़ैज़ान को जान बचाने के लिए ज़रूरी मेडिकल सहायता से वंचित रखा".
एफ़आईआर जिसमें पिटाई का ज़िक्र ही नहीं
इस मामले में दिल्ली के भजनपुरा पुलिस स्टेशन में 28 फ़रवरी को एक एफ़आईआर (0075/2020) दर्ज की गई थी लेकिन एफ़आईआर में उस वायरल वीडियो का ज़िक्र नहीं किया गया था जिसमें पुलिस फ़ैजान को पीटते हुए दिख रही थी.
क़िस्मतून ने अपने बेटे को न्याय दिलाने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की थी. उन्होंने अदालत से अपील की थी की फैज़ान की मौत की जाँच के लिए अदालत की निगरानी में एक विशेष जाँच दल (एसआईटी) बनाई जाए.
जानी-मानी वकील वृंदा ग्रोवर और सौतिक बनर्जी ने अदालत में जस्टिस योगेश खन्ना के समक्ष क़िस्मतून का पक्ष रखा था. याचिका में कहा गया कि फ़ैज़ान को पुलिस ने पहले कर्दमपुरी में "निशाना बनाकर बर्बरतापूर्वक पीटा जिससे वो बुरी तरह घायल हो गया".
याचिका के मुताबिक़, "पुलिस ने फ़ैज़ान को पीटने के बाद उसे घायल और नाज़ुक हालत में ग़ैरक़ानूनी तरीके से हिरासत में लेकर ज्योति नगर पुलिस थाने में रख दिया, हालत बहुत बिगड़ने पर उसे अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसकी मौत हो गई."
बदन के ज़ख़्म तो भर जाएंगे लेकिन...
कर्दमपुरी के अंदर तक पहुँचने के लिए कई सँकरी गलियों को पार करना पड़ता है. यहाँ घुसते ही कसाइयों की दुकानें, चाय की टपरी और छोटा-मोटा कारोबार करने वाले लोग नज़र आते हैं.
यहाँ पहुँचकर मैंने कौसर अली के घर का दरवाजा खटखटाया. कौसर अली भी उन पाँच युवकों में से एक हैं, जो वीडियो में पुलिस से पिटते नज़र आए थे. जब मैं उनसे मिला तो वो काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे.
कौसर ज़िंदगी बसर करने के लिए एक बैटरी रिक्शा चलाते हैं. उनके परिवार में छह सदस्य हैं, जिनका ख़र्च चलाने के लिए उनकी आमदनी कम ही पड़ती है. उनकी पत्नी रोटियाँ बना रही हैं और उनके बेटे आस-पास बैठे खाने का इंतज़ार कर रहे हैं.
चाय पीते हुए कौसर अली उस दिन को याद करते हैं जिस दिन उनके साथ वो भयावह वाकया हुआ था.
कौसर कहते हैं, "उस घटना की वजह से मुझे अब तक पुलिस से डर लगता है. मुझ जैसे लोगों को बचाने के बजाय पुलिस ने हम पर ही जुल्म किए. हमें पीटने वाले पुलिसवाले ही थे. उन्होंने हेलमेट पहने हुए थे और उनकी वर्दी से नाम ग़ायब थे. पिछले एक साल हमारे लिए बेहद मुश्किल रहे हैं और ये मुश्किलें अब भी जारी हैं."
वे कहते हैं, "हालाँकि अब धीरे-धीरे मुझे काम मिलने लगा है लेकिन पिछली घटनाओं को याद करके मैं अब भी डर जाता हूँ. मेरा शरीर अब भी पूरी तरह फ़िट नहीं हो पाया है. बदन पर लगे ज़ख़्म तो भर जाएंगे लेकिन मेरे ज़हन के जख़्मों का क्या होगा? मैं अब भी सदमे में हूँ. लेकिन ज़िंदगी तो चलती रहेगी."
मुआवज़ा मिला मगर इंसाफ़ नहीं
पुलिस ने कौसर अली के ख़ून से लथपथ कपड़ों को सबूत के तौर पर अभी तक इकट्ठा भी नहीं किया है.
दंगों के बाद कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने हिंसा पीड़ितों के हालात और मुश्किल बना दिए. फ़ैज़ान के परिवार को 10 लाख और कौसर अली को दो लाख रुपये मुआवज़ा तो मिल गया लेकिन दोनों को लगता है कि उन्हें इंसाफ़ अब तक नहीं मिला है और इसके लिए संघर्ष जारी है.
वकील वृंदा ग्रोवर ने बताया, "हमने हाई कोर्ट में रिट पेटिशन दाख़िल की है. पुलिस आरोपों से नहीं बच सकती. घटना के एक साल बाद भी जाँच आगे नहीं बढ़ी है और ये पता नहीं लगाया जा सका है कि वो पुलिसकर्मी कौन थे. जाँच की बेहद धीमी रफ़्तार को देखते हुए ही हमने इंसाफ़ के लिए हाई कोर्ट का रुख़ किया. फ़ैज़ान की माँ भी जाँच की रफ़्तार से संतुष्ट नहीं थीं."
हाईकोर्ट ने पुलिस को यह बताने का निर्देश दिया था कि जिस समय फ़ैज़ान को ज्योति नगर पुलिस थाने में रखा गया तब वहाँ के सीसीटीवी कैमरे काम कर रहे थे या नहीं. 26 फ़रवरी को पुलिस थाने से रिहा होने और अस्पताल में भर्ती होने के चंद घंटों के भीतर ही फ़ैज़ान की मौत हो गई थी.
किस्मतून की वकील का कहना है कि उनके बेटे को वहाँ ग़ैरक़ानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया था, वे घायल हालत में थाने में रखे तो गए थे लेकिन उन्हें गिरफ़्तार या हिरासत में नहीं दिखाया गया.
दंगों में पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल
पुलिस ने इस बारे में पिछले साल 22 जुलाई को अदालत में स्टेटस रिपोर्ट दाख़िल की थी, जिसमें कहा गया था, "जाँच के दौरान न तो कोई सरकारी और न ही कोई प्राइवेट सीसीटीवी कैमरा उस इलाके में थे."
दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट को बताया कि वो अब भी वीडियो में मौजूद पुलिसकर्मियों की पहचान करने की कोशिश कर रही है. क़िस्मतून की वकील वृंदा ग्रोवर का कहना है कि "ऐसा कैसे हो सकता है कि पुलिस को मालूम न हो कि उसके जवानों की तैनाती कहाँ है, कहाँ-कहाँ कौन-कौन तैनात है पुलिस के रजिस्टर में सब दर्ज होता है."
पुलिस ने अदालत में ये भी कहा कि फ़ैज़ान और अन्य युवकों को ज्योति नगर थाने में उनकी सहमति से रखा गया था क्योंकि उन्होंने खुद ही अपनी सुरक्षा की वजह से ऐसा करने का अनुरोध किया था क्योंकि पिटाई के बाद वे घबरा गए थे.
मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने हाल ही में दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए थे. संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि पुलिस ने दंगों में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन किया था.