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भारत में पिछले ढाई महीनों से नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जारी किसान आंदोलन दुनियाभर में लोगों का ध्यान आकर्षित करता जा रहा है. कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों में प्रवासी भारतीय किसानों के पक्ष में रैलियाँ कर रहे हैं और भारतीय मूल के और स्थानीय नेता भारत में आंदोलन कर रहे किसानों के पक्ष में बयान दिए जा रहे हैं.
भारत सरकार के कुछ मंत्रियों, सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों और भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से की ओर से आंदोलन करने वाले किसानों के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम लगाए जा रहे हैं कि किसान आंदोलन और इसके समर्थकों की मदद विदेश में बसे खालिस्तानी कर रहे हैं.
ये भी आरोप है कि 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा भारत के ख़िलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय साज़िश का नतीजा थी.
लेकिन किसान आंदोलन के समर्थन की आवाज़ कैलिफ़ोर्निया के एक छोटे शहर में भी सुनाई दी. रविवार को सुपर बोल कहे जाने वाले नेशनल फुटबॉल लीग चैंपियनशिप के अंतिम गेम और अमेरिका के सबसे लोकप्रिय खेल प्रतियोगिता को 12 करोड़ लोगों ने टीवी पर देखा.
खेल शुरू होने से पहले कमर्शियल ब्रेक के दौरान कैलिफ़ोर्निया के फ्रेस्नो काउंटी में 30 सेकंड का एक विज्ञापन प्रसारित किया गया, जिसमें भारतीय कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे भारतीय किसानों के विरोध प्रदर्शन को दिखाया गया.
कैलिफ़ोर्निया के कृषि उत्पाद के लिए चर्चित फ्रेस्नो शहर के मेयर जेरी डायर ने इस वीडियो विज्ञापन में किसानों के आंदोलन का समर्थन किया.
पिछले दिनों अमेरिकी पॉप स्टार रिहाना का किसानों के पक्ष में एक ट्वीट इस विरोध प्रदर्शन को वैश्विक सुर्खियों में ले आया. ट्विटर पर रिहाना के 10 करोड़ से अधिक फ़ॉलोअर्स हैं. इस ट्ववीट ने विरोधों की रूपरेखा को बड़ा कर दिया और इसे दुनिया भर में हाई-प्रोफ़ाइल हस्तियों से समर्थन प्राप्त हुआ.
इसके तुरंत बाद युवा पर्यावरणवादी ग्रेटा थनबर्ग ने अपने एक ट्वीट से किसानों के साथ "एकजुटता" का संकल्प लिया. अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस ने भी किसानों के साथ एकजुटता व्यक्त की.
इस पर भारत में काफ़ी हंगामा हुआ. बॉलीवुड और खेल के मैदान के सेलिब्रिटीज ने अपनी प्रतिक्रिया दी और भारत सरकार के पक्ष में ट्वीट किए.
कौन कर रहा है मदद
इस हफ़्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में किसान आंदोलन के बीच "आंदोलनजीवियों" से बचने की सलाह दी. उनके अनुसार किसानों के शांतिपूर्ण विरोध के बीच कुछ लोग नक्सलियों, आतंकवादियों और राष्ट्र को नुक़सान पहुँचाने वाले पोस्टर लेकर खड़े रहते हैं.
उन्होंने कहा, "जो भाषा उनके लिए (सिखों के लिए) कुछ लोग बोलते हैं, उनको गुमराह करने का प्रयास करते हैं, इससे कभी देश का भला नहीं होगा. हमें ऐसे (आंदोलनजीवी) लोगों को पहचानना होगा. देश आंदोलनजीवी लोगों से बचे. आंदोलनजीवी परजीवी होते हैं."
लंदन में भारतीय मूल के सांसद 73 वर्षीय वीरेंदर शर्मा पूछते हैं कि क्या भारत सरकार के पास इस बात का सबूत है कि इस आंदोलन में खालिस्तानी शामिल हैं या वो आंदोलन कर रहे किसानों की मदद कर रहे हैं?
उन्होंने बीबीसी से बातें करते हुए कहा, "ये एक धारणा तो हो सकती है लेकिन भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे लोगों के बारे में बताए."
वो अपना तर्क आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "खालिस्तानियों की मदद का सबूत दें और फिर उनकी कूटनीति की बात आती है. भारतीय सरकार ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका की सरकारों के साथ बात करे और कहे कि आपके देश में ऐसे एलिमेंट्स (ख़ालिस्तानी) बैठे हैं और भारत में आंदोलन कर रहे किसानों की मदद कर रहे हैं.'
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह दिल्ली में किसान आंदोलन के एक नेता हैं, वो कहते हैं कि भारत सरकार और बीजेपी उनके आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश में लगी है.
वो कहते हैं, "पहले सिखों का बताया ताकि उसे आसानी से खालिस्तान से जोड़ दें, वो नाकाम रहा. फिर इसको केवल पंजाब का आंदोलन बताया. फिर केवल पंजाब और हरियाणा का. इनकी कोशिश है देशद्रोही साबित करने की, लेकिन इसमें ये नाकाम रहे"
कनाडा में ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के प्रीमियर रह चुके भारतीय मूल के राजनेता उज्जल दोसांझ ये स्वीकार करते हैं कि कनाडा में किसानों के पक्ष में जारी रैलियों में खालिस्तानी हो सकते हैं, लेकिन वो केवल मुठ्ठी भर हैं.
वैंकुवर से बीबीसी से बातें करते हुए वो कहते हैं, "यहाँ या अमेरिका और ब्रिटेन में (भारतीय मूल के लोगों के बीच) सिर्फ़ दो प्रतिशत आबादी हो सकती है, जो कट्टर ख़ालिस्तानी हैं. और अगर किसी जगह पर 200 लोगों का प्रदर्शन है और उसमें केवल दो खालिस्तानी मौजूद हैं, तो क्या आपको लगता है कि भारत को वास्तव में इससे ख़तरा है? ये बिलकुल बकवास बात है."
उज्जल दोसांझ 18 वर्ष की उम्र में पंजाब से कनाडा आकर बसे थे. वो कहते हैं कि उनका परिवार अब भी पंजाब के दोसांझ कलाँ में है और वो मौजूदा हालात से चिंतित हैं.
वो कहते हैं कि किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी रंग देना ग़लत है. वो कहते हैं, "कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन में आबाद कुछ लोगों की वजह से पूरे आंदोलन को बदनाम करना केवल एक बहाना है. ये छोटे किसान हैं, जो अपनी वित्तीय सुरक्षा, अपने जीवन और अपनी भूमि को संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं."
उनका कहना है कि बीजेपी सरकार अपने ख़िलाफ़ सभी आंदोलनों को बदनाम करने की कोशिश करती आ रही है, वो कहते हैं, "नरेंद्र मोदी के अंतर्गत भारत सरकार ने सियासत के सभी मुद्दों को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है, चाहे वो बंगाल का चुनाव हो या कोई दूसरा चुनाव हो, चाहे वो शाहीन बाग़ का आंदोलन हो, या जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हुई घटना का मामला हो या फिर जामिया मिल्लिया इस्लामिया में विद्यार्थियों की पुलिस पिटाई का मामला हो. सही बात तो ये है कि बीजेपी को नहीं मालूम कि देशभक्ति क्या होती है."
गुरप्रीत सिंह पिछले 30 सालों से पत्रकार हैं और पिछले 20 सालों से कनाडा में आबाद हैं. वो किसानों के आंदोलन के पक्ष निकलने वाली रैलियों में हिस्सा लेते हैं.
वैंकुवर के नज़दीक सरी के इलाक़े में शाम में तीन घंटे के लिए भारतीय किसानों के आंदोलन के साथ एकजुटता दिखाने के लिए रोज़ प्रदर्शन होता है, जिसमे 200-250 लोग भाग लेते हैं.
ये प्रदर्शन पिछले दो महीने से जारी हैं. वो कहते हैं कि कनाडा में आंदोलन अपने आप से शुरू हुआ है, किसी की मदद से नहीं. उनका कहना है कि आंदोलन में शामिल लोगों को बदनाम किया जा रहा है. ग़लत धारणा बनाई जा रही है कि "जो लोग सिख हैं, वो खालिस्तानी हैं और जो सिख नहीं हैं वो अर्बन नक्सल हैं."
कनाडा के शहर टोरंटो में भारतीय मूल के एक और वरिष्ठ पत्रकार गुरमुख सिंह के मुताबिक़ "चूंकि कनाडा में सिख आप्रवासियों का एक बड़ा हिस्सा खेती की पृष्ठभूमि से है, वे सभी किसान आंदोलन का समर्थन करते हैं. उन्होंने आंदोलन के समर्थन में कुछ रेडियो कार्यक्रमों के माध्यम से दान भी दिए हैं.
खालिस्तानी समर्थन के कारण भारत सरकार नाराज़ है. उन्होंने कनाडा में जारी आंदोलन में हिस्सा लेने वाले पाँच ऐसे सिख संगठनों और गुरुद्वारों के नाम लिए, जिनके तार खालिस्तानी आंदोलन से जुड़े हैं.
वो कहते हैं, "इन समूहों द्वारा भारतीय वाणिज्य दूतावासों और शहरों में रैलियों का आयोजन किया गया है. यहाँ तक कि कनाडा में पढ़ने वाले कई भारतीय छात्र इन रैलियों में शामिल होते हैं."
तिरंगा रैली
कनाडा के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी भारतीय किसानों के समर्थन में रैलियाँ दिसंबर से ही निकल रही हैं, जो अक्सर भारतीय दूतावासों के बाहर विरोध प्रदर्शन में ख़त्म होती हैं.
रॉयटर्स न्यूज़ एजेंसी ने अपनी एक हाल की रिपोर्ट की सुर्खी कुछ इस तरह से दी: ''सिख प्रवासी भारत में किसानों के आंदोलन के लिए वैश्विक समर्थन हासिल कर रहे हैं"
लेकिन पिछले कुछ दिनों से भारत सरकार और कृषि क़ानूनों के पक्ष में भी रैलियाँ निकाली जा रही हैं. शनिवार को भारतीय मूल की कुछ संस्थाओं ने वैंकुवर में एक रैली निकाली, जिसमें 350 कारें शामिल थीं.
इस रैली को तिरंगा रैली का नाम दिया गया. स्थानीय मीडिया में इसमें शामिल होने वाले लोगों ने कहा कि गणतंत्र दिवस पर नई दिल्ली में जो कुछ हुआ था, उस पर यहाँ के भारतीय समुदाय में इतना ग़ुस्सा था कि उन्हें कुछ करना ही था.
भारत सरकार के समर्थन में लोगों ने कनाडा में विरोध प्रदर्शन का उल्लेख करते हुए कहा कि हर दिन यह यहाँ हो रहा है. यह बहुत परेशान करने वाला है.
लेकिन पत्रकार गुरप्रीत सिंह के अनुसार तिरंगा रैली में शामिल लोग बहुत कम संख्या में हैं, जबकि किसानों के समर्थन में रोज़ निकाली जाने वाली रैलियों में संख्या कहीं अधिक होती है और इसमें हर समुदाय के लोग शामिल हैं.
भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप
भारत में जारी किसान आंदोलन का समर्थन विदेश में केवल भारतीय मूल के लोगों तक सीमित नहीं रहा है. ये अब कनाडा की राष्ट्रीय सियासत में एक मुद्दा बन चुका है. बात आगे बढ़ चुकी है.
टोरंटो में वरिष्ठ पत्रकार गुरमुख सिंह का कहना है कि दिसंबर के पहले हफ़्ते में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के किसान आंदोलन के समर्थन वाले बयान के बाद देश के रक्षा मंत्री हरजीत सिंह सज्जन का बयान आया और इसके बाद कनाडा की ख़ास विपक्षी दल नई डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष जगमीत सिंह का भी किसानों के समर्थन में बयान आया.
ट्रूडो के बयान से भारत काफ़ी नाराज़ हुआ और भारत सरकार ने अपनी नाराज़गी को दिल्ली में कनाडा के राजदूत नादिर पटेल के सामने रखा और उन्हें चेतावनी दी कि इस तरह के बयानों से दोनों देशों के बीच आपसी रिश्ते बिगड़ सकते हैं.
उधर ब्रिटेन में 36 सांसदों ने देश के विदेश मंत्री डोमिनिक राब को एक चिट्ठी लिखी है, जिसमे कहा गया है कि ब्रिटेन की सरकार किसानों के मसले के हल को निकालने के लिए भारत सरकार से बात करे.
इसके अलावा इस मुद्दे पर एक याचिका पर एक लाख से अधिक हस्ताक्षर किए गए हैं, जिसे ब्रिटेन के पार्लियामेंट को भेजा गया है ताकि इस मुद्दे पर चर्चा हो. ब्रिटेन में अगर किसी याचिका पर एक लाख से अधिक संख्या में हस्ताक्षर किए जाते हैं, तो उस पर संसद में चर्चा होना लाज़मी है
सांसद वीरेंदर शर्मा कहते हैं, "अब इस पर बहस कब होगी, इसका फ़ैसला पेटिशन समिति करेगी. लेकिन इस पर चर्चा होगी. अब चर्चा के दौरान सांसद भारत सरकार के पक्ष में या किसानों के पक्ष में बोल सकते हैं या फिर दोनों के बीच संतुलन रखा जाएगा ये तो समय बताएगा."
वीरेंदर शर्मा विपक्ष की लेबर पार्टी के सांसद हैं. ब्रिटेन की सत्तारुढ़ कंजर्वेटिव पार्टी में भी भारतीय मूल के कई सांसद और मंत्री हैं. उदाहरण के तौर पर देश की गृह मंत्री प्रीति पटेल और वित्त मंत्री ऋषि सुनक जैसे भारतीय मूल के सांसदों का पक्ष क्या है, ये अभी सामने नहीं आया है. लेकिन आम तौर से प्रीति पटेल जैसे सांसद मोदी सरकार के पक्ष में माने जाते हैं.
भारत का विदेश मंत्रालय विदेश में होने वाली रैलियों और विदेशी नेताओं द्वारा दिए गए बयानों को देश के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप मानता है. प्रधानमंत्री ट्रूडो के बयान पर भारतीय विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया तीखी थी और कनाडा से कहा गया कि वो भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप न करे.
ब्रिटेन के सांसद वीरेंदर शर्मा कहते हैं कि वो भारत के अंदरूनी मामलों में नहीं पड़ना चाहते, लेकिन वो कहते हैं कि उनकी मजबूरी ये है कि जिस चुनावी क्षेत्र (ईलिंग-साउथहाल) से वो चुने गए हैं, वहाँ भारत, और खास तौर से पंजाब से आकर बसने वालों की संख्या बहुत है.
वे कहते हैं, "हम इंडिया वालों को ये नहीं कहते हैं कि आपका क़ानून ग़लत है. लेकिन वहाँ (भारत में ) आंदोलन से जो अशांति फैली है, उससे हमारे लोग चिंतित हैं. क्योंकि हम भारतीय मूल के हैं और हमारे वहाँ रिश्तेदार हैं. तो उससे प्रभावित होकर हम बयान देते हैं, हम भारत के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप नहीं करते."
वीरेंदर शर्मा भारत सरकार को ये याद दिलाना चाहते हैं कि उनके जैसे सांसद और भारतीय मूल के लोग जिन देशों में रह रहे हैं, उनके और भारत के बीच एक कड़ी की तरह हैं.
उनके अनुसार भारत के दूसरे देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने में भारतीय मूल के लोगों की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. वीरेंदर शर्मा भी पंजाब से आकर ब्रिटेन में बसे हैं और उनके वोटरों की एक भारी संख्या पंजाब से है.
वे कहते हैं, "उनका हम पर दबाव होता है. वो हमसे कहते हैं कि पंजाब के किसानों के ख़िलाफ़ हिंसा हो रही है." शर्मा ये ज़रूर स्वीकार करते हैं हैं कि इस मुद्दे पर राय बँटी हुई है "लेकिन बहुमत उनका है, जो किसानों के पक्ष में हैं."
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, "पहली बात तो ये है कि आज दुनिया एक ग्लोबल विलेज है. किसी भी देश में घटना घटती है, तो कोई भी अपने विचार रख सकता है. अब जैसे बर्मा वाली घटना में हमारे देश से ट्वीट किए गए. कोई मंदिर टूट जाए पाकिस्तान में, तो हम कूदते हैं. बांग्लादेश में हिंदुओं का दमन हो, तो हम उछलने लगते हैं. ये कभी आपके पक्ष में हो सकता है, कभी आपके ख़िलाफ़ भी हो सकता है. इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए."
इसका असर क्या होगा?
ब्रिटिश कोलंबिया के पूर्व प्रीमियर उज्जल दोसांझ इस बात से चिंतित हैं कि अगर आंदोलन ने तूल पकड़ा या आंदोलन करने वाले किसानों को खालिस्तानी होने का इलज़ाम लगाया जाना ख़त्म नहीं हुआ, तो इसके परिणाम क्या होंगे.
वो कहते हैं, "मुझे डर है कि अगर मोदी सरकार की हरकतों से अगर कुछ ग़लत होता है, अगर सरकार कोई ग़लत क़दम उठाती है, तो कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटैन जैसी जगहों पर विदेशों में एक छोटे से अल्पसंख्यक तत्व हैं, जो फ़ायदा उठा सकते हैं और यह देश के लिए मुसीबत पैदा कर सकता है."
ब्रिटिश सांसद वीरेंदर शर्मा के अनुसार इससे स्वयं नरेंद्र मोदी की छवि पर असर पड़ सकता है.
वो कहते हैं, "मोदी ने विदेशी नीति के तहत रिश्ते बनाए हैं, इज़्ज़त बनाई है, उनकी विदेशी यात्राएँ कामयाब रही हैं, लेकिन इससे (किसान आंदोलन से) इनकी साख कमज़ोर हुई है."
जस्टिन ट्रूडो जैसे नेताओं के बयानों पर वीरेंदर शर्मा बोले, "जब सियासी लीडरशिप सवाल करती है, तो इसका असर पड़ता है. स्वाभाविक है कि जब सवाल खड़े होते हैं तो आपकी लोकप्रियता में कमी आती है."
चौधरी पुष्पेंद्र सिंह के अनुसार सरकार के पास किसान आंदोलन को बदनाम करने के अलावा आईसीई तंत्र है, जिसका मतलब हुआ इनकम टैक्स, सीबीआई और ईडी विभाग. वो कहते हैं, "ये तंत्र किसानों पर नहीं चल पाएँगे. हमारा आंदोलन उस समय तक जारी रहेगा, जब तक सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस नहीं ले लेती."
लेकिन सरकार के समर्थकों और बीजेपी के नेता आरोप लगाते हैं कि किसान आंदोलन में "देशद्रोही' लोग शामिल हो गए हैं.
अभी भारत में 5G की शुरुआत हुई भी नहीं है कि कुछ देश 6G की शुरुआत करने की दौड़ शुरू हो चुकी है। यह दौड़ अमेरिका और चीन के बीच हो रही है, क्योंकि निश्चित तौर पर, जो देश 6G को विकसित करने और पेटेंट करने वाला पहला देश होगा, वो दुनिया के अधिकांश टेलीकॉम बाज़ारो में राज करेगा। 6G नेटवर्क मौजूदा 5G नेटवर्क की अधिकतम स्पीड से 100 गुना ज्यादा तेज़ होगा। हालांकि अभी भी इसे वास्तविकता बनने में कम से कम दशक का समय लग सकता है।
इसमें दोराय नहीं कि डोनाल्ड ट्रम्प (Donald Trump) के सत्ता में रहते हुए चीनी टेक्नोलॉजी कंपनियों को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन फिर भी चीन 5G लीडर के रूप में उभरा। देश की घरेलू कंपनी Huawei ने अपनी आकर्षक कीमतों के चलते 5G बाज़ार में अन्य प्रतिद्वंदियों को पीछे छोड़ दिया। ऐसे में 6G के विकास और पेटेंट को सबसे पहले हासिल करने से अमेरिका को वायरलेस तकनीक की दुनिया में खोई अपनी जमीन वापस हासिल करने का मौका मिल सकता है।
अमेरिकी कंसलटेंसी फर्म Frost & Sullivan के इनफॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशन्स विभाग के सीनियर इंडस्ट्री डायरेक्टर विक्रांत गांधी (Vikrant Gandhi) का कहना है कि (अनुवादित) "5G के विपरीत, उत्तरी अमेरिका इस बार लीडरशिप को इतनी आसानी से हाथ से फिसलने नहीं देगा। यह संभावना है कि 6G लीडरशिप के लिए प्रतिस्पर्धा 5G की तुलना में काफी जबरदस्त होगी।"
बता दें कि 2019 में उस समय रहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ट्वीट किया था, जिससे साफ हो गया था कि वह 6G तकनीक की शुरुआत जल्द से जल्द चाहते हैं।
चीन इस तकनीक में पहले से ही आगे बढ़ रहा है। कनाडाई मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, देश ने संभावित 6G ट्रांसमिशन के लिए एयरवेव्स की टेस्टिंग करने के लिए नवंबर में एक सैटेलाइट लॉन्च की गई थी और Huawei का कनाडा में 6G अनुसंधान केंद्र भी है। टेलीकॉम उपकरण बनाने वाली कंपनी ZTE ने चीन की Unicom Hong Kong के साथ मिलकर इस टेक्नोलॉजी का विकाश पहले से ही शुरू कर दिया है।
अमेरिका ने भी 6G तकनीक पर ज़ोर-शोर से काम करना शुरू कर दिया है। ATIS (द अलायंस फॉर टेलीकम्युनिकेशन्स इंडस्ट्री सॉल्यूशन्स) ने अक्टूबर में देश को 6G तकनीक में लीडर बनाने के लिए नेक्स्ट जी अलायंस की शुरुआत कर दी थी। इस अलायंस में Apple, AT&T, Qualcomm, Google और Samsung जैसे टेक्नोलॉजी दिग्गज शामिल हैं, लेकिन चीनी दिग्गज Huawei नहीं है। इससे साफ दिखाई देता है कि अमेरिका चीनी कंपनियों को अभी भी दबाने के मूड में है।
गठबंधन ने यह दिखाया कि जिस तरह से दुनिया 5 जी प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप शिविरों का विरोध कर रही है। यूएस द्वारा नेतृत्व किया गया, जिसने Huawei को जासूसी जोखिम के रूप में पहचाना - एक आरोप चीनी विशालकाय इनकार करता है - जापान, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और यूके सहित देशों ने अपने 5 जी नेटवर्क से फर्म को बंद कर दिया है। हालांकि, Huawei का स्वागत रूस, फिलीपींस, थाईलैंड और अफ्रीका और मध्य पूर्व के अन्य देशों में किया जाता है।
पिछले साल दिसंबर में यूरोपीय संघ ने भी Nokia के नेतृत्व में 6G वायरलेस प्रोजेक्ट की शुरुआत की, जिसमें Ericsson AB और Telefonica SA के साथ-साथ कुछ विश्वविद्यालय भी शामिल हैं।
नई दिल्ली: कोरोनावायरस से भारत में अब तक 1,55,252 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि भारत में पिछले 24 घंटे में कोविड-19 (Covid-19) के 11,067 नए मामले सामने आने के बाद देश में संक्रमण के मामले बढ़कर 1,08,58,371 हो गए. केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 1,05,61,608 लोगों के संक्रमण मुक्त होने के साथ ही संक्रमण से ठीक होने की राष्ट्रीय दर बढ़कर 97.27 प्रतिशत हो गई. वहीं कोविड-19 से मृत्यु दर 1.43 प्रतिशत है. लेकिन सवाल यह है कि भारत में पश्चिमी देशों की बजाय कोरोना वायरस से मृतकों की संख्या कम है.
कोरोना की वजह से दुनिया के अमीर देशों में ही ज़्यादा मौत रिपोर्ट हुई है. जो गरीब देश हैं उनमें मरने वालों की तादाद कम है. आखिर वजह क्या है? इस पर CSIR ने एक शोध किया है जो आज ही करंट साइंस जर्नल में पब्लिश हुआ है.
शोध पर CSIR के महानिदेशक डॉक्टर शेखर मांडे ने एनडीटीवी से बात करते हुए बताया कि अमीर देशों के लोगों का शरीर नए विषाणु को झेलने के लिए उतना तैयार नहीं रहता. वहीं लोअर और मिडिल इनकम ग्रुप वाले देश में जहां हाइजीन कम है, वहां ऐसे विषाणु हमारे आस पास ही रहते हैं. और हमारा शरीर हाइपर रिएक्ट नहीं करता है.
उन्होंने बताया, वायरस का Multiplication 7-8 दिनों तक होता जाता है फिर कम होना शुरू होता है. 12 से 14 दिन में वायरस पूरी तरह चला जाता है. हमारा शरीर 7-8 दिनों में उसको रिएक्ट करना शुरू करता है. जो लोग कोरोना से मर रहे हैं, उनके शरीर में ये प्रतिरोधकता कुछ ज्यादा ही रिएक्ट कर जाती है, इसे Hyperimmune Reaction कहते हैं.'
गरीब देशों की बजाय अमीर देशों में ज्यादा मौत के पीछे के कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि अमीर देशों में 65 साल से ज्यादा उम्र के लोग ज्यादा हैं. दूसरा वहां शहरीकरण ज्यादा हुआ है. साथ ही बताया कि इम्यून रिएक्शन की बीमारियां अमीर देशों में ज़्यादा हैं