Monday, 20 October 2025

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ये कहानी एक की ज़िंदगी पर आधारित है उनकी पहचान गुप्त रखी गई है....

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के छोटे शहर रुड़की में शायद मैं पहला या दूसरा मर्द था जिसने कोई खोला था। मेरी इस च्वाइस पर मेरे जानने वाले तो नाक-भौंह सिकोड़ते ही थे, महिला कस्टमर्स में भी हिचकिचाहट थी। पड़ोसी तरह-तरह की बातें बनाया करते और कहते कि लेडीज़ पार्लर तो लड़कियों का काम है। लड़कियों को मनाना, उनका विश्वास जीतना और यह बताना कि मैं भी किसी लड़की से कम अच्छा मेकअप नहीं कर सकता, बहुत मुश्किल था। अगर कोई लड़की मेरे पार्लर में आती भी थी तो उनके पति, भाई या पिता मुझे देखकर उन्हें रोक देते। वो कहते, अरे! यहां तो लड़का काम करता है।
 
लड़कियां मुझसे थ्रेडिंग तक करवाने से साफ़ इनकार कर देती। 8X10 के कमरे में शायद एक लड़के का उनके क़रीब आकर काम करना उन्हें असहज करता था। सवाल मेरे ज़हन में भी थे। क्या लड़कियां मुझसे उतना ख़ुल पाएंगी जैसे एक पार्लर वाली लड़की को अपनी पसंद-नापसंद बता पाती हैं।
 
घरवालों की चाहत
 
ऐसा नहीं कि मुझे इस सबका अंदाज़ा नहीं था। लेकिन जब अपने मन के काम को बिज़नेस में बदलने का मौका मिला तो मैं क्यों छोड़ता? शुरुआत दरअसल कई साल पहले मेरी बहन की शादी के दौरान हुई। उसके हाथों में मेहंदी लगाई जा रही थी और वो मेहंदी लगाने वाला एक लड़का ही था। बस लड़कपन की उस शाम मेरे दिलो-दिमाग में मेंहदी के वो डिज़ाइन रच-बस गए। कोन बनाना सीखा, कागज़ पर अपना हाथ आज़माया और फिर मैं भी छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में मेहंदी लगाने लगा। कुछ दिन बाद जब घर पर इस बारे में पता चला, तो खूब डांट पड़ी। पापा ने सख्त लहज़े में कहा कि मैं यह लड़कियों जैसे काम क्यों कर रहा हूं। वो चाहते थे कि मैं उन्हीं की तरह फ़ौज में चला जाऊं।

लेकिन मुझे फ़ौज या कोई भी दूसरी नौकरी पसंद ही नहीं थी। फिर एक बार मैं एक शादी में गया और वहां मैंने औरतों के हाथों में मेहंदी लगाई जो काफ़ी पसंद की गई। इसके एवज़ में मुझे 21 रुपए मिले। मेरी जीवन की ये पहली कमाई थी। मेरी मां और भाई-बहन मेरे शौक को पहचान चुके थे लेकिन पापा को ये अब भी नागवारा था। हारकर मैं हरिद्वार में नौकरी करने लगा। सुबह नौ से पांच वाली नौकरी। सब ख़ुश थे क्योंकि मैं मर्दों वाला काम कर रहा था। पर मेहंदी लगाने का शौक़ मेरे दिल के एक कोने में ही दफ़्न होकर रह गया। रह-रहकर एक हूक सी उठती कि इस नौकरी से मुझे क्या मिल रहा है। ना तो बेहतर पैसा ना ही दिल का सुकून।

 
एक नई शुरुआत
 
इस बीच लंबी बीमारी के बाद पापा चल बसे, घर का ख़र्च चलाने की ज़िम्मेदारी अचानक मेरे कंधों पर आ गई। लेकिन, इसी ज़िम्मेदारी ने मेरे लिए नए रास्ते भी खोल दिए। मैं जब छुट्टी पर घर आता तो शादियों में मेहंदी लगाने चला जाता। 
यहां मेरी महीने की तन्ख्वाह महज़ 1,500 रुपए थी, वहीं शादी में मेंहदी लगाने के मुझे करीब 500 रुपये तक मिल जाते थे। शायद कमाई का ही असर था कि अब परिवार वालों को मेरा मेहंदी लगाना ठीक लगने लगा था। उसी दौरान मुझे पता चला कि ऑफिस में मेरा एक साथी अपनी पत्नी के में उनकी मदद करता है, और दोनों अच्छा-खासा पैसा कमा लेते हैं।
 
मन में कौंधा, की क्यों न मैं भी अपना एक ब्यूटी पार्लर खोल लूं? लेकिन यह सुझाव जब मैंने अपने परिवार के सामने रखा तो एकाएक सभी की नज़रों में बहुत से सवाल उठ खड़े हुए। वही लड़कियों का काम- लड़कों का काम वाले सवाल। पर ठान लो तो रास्ते ख़ुल ही जाते हैं।
 
विश्वास जीतने की लड़ाई
 
मेरे मामा की लड़की ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही थी। उसने वही सब मुझे सिखाना शुरू कर दिया। और फिर हमने मिलकर एक पार्लर खोला। शुरुआती दिनों की चुनौतियां भी उसी की मदद से हल हुईं। पार्लर में मेरे अलावा, मेरी बहन यानी एक लड़की का होना महिला कस्टमर्स का विश्वास जीतने में सहायक रहा। हमने अपने छोटे से कमरे में ही परदे की दीवार बना दी। मेरी बहन लड़कियों की वैक्सिंग करती और मैं उनकी थ्रेडिंग और मैक-अप। उम्र और अनुभव के साथ मैं अपने काम की पसंद के बारे में मेरा विश्वास और बढ़ गया था। शादी के लिए लड़की देखने गया तो उसने भी मुझसे यही सवाल किया, ''आखिर यह काम क्यों चुना?''
 
मेरा जवाब था, ''यह मेरी पसंद है, मेरी अपनी च्वाइस।'' उसके बाद से आज तक मेरी पत्नी ने मेरे काम पर सवाल नहीं उठाए। वैसे भी वो मुझसे 10 साल छोटी है, ज़्यादा सवाल पूछती भी कैसे। शादी के बाद मैंने पत्नी को ब्यूटी पार्लर दिखाया, अपने कस्टमर और स्टाफ से भी मिलवाया। मैं चाहता था कि उनके मन में किसी तरह का कोई शक़ ना रहे। पिछले 13 साल में 8x10 का वो छोटा सा पार्लर, तीन कमरों तक फैल चुका है। अब रिश्तेदार भी इज़्ज़त करते हैं और मुझे ताना देनेवाले मर्द अपने घर की औरतों को मेरे पार्लर में खुद छोड़कर जाते हैं।
 
(ये कहानी एक की ज़िंदगी पर आधारित है जिनसे बात की बीबीसी संवाददाता नवीन नेगी ने। उनकी पहचान गुप्त रखी गई 
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