Owner/Director : Anita Khare
Contact No. : 9009991052
Sampadak : Shashank Khare
Contact No. : 7987354738
Raipur C.G. 492007
City Office : In Front of Raj Talkies, Block B1, 2nd Floor, Bombey Market GE Road, Raipur C.G. 492001
मुंबई. भारत रत्न स्वर कोकिला लता मंगेशकर 89 साल की हो गई हैं। अपनी जादुई आवाज में लता मंगेशकर ने 30 हजार से ज्यादा गानों को अपनी आवाज दी है। लता मंगेशकर ने करीब 7 दशकों तक हिंदी गानों की दुनिया पर राज किया। 28 सितंबर 1929 को इंदौर में जन्मीं लता मंगेशकर के जन्मदिन पर जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ खास बातें। लता मंगेशकर के पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर खुद एक बड़े क्लासिकल सिंगर और थियेटर आर्टिस्ट थे। लता मंगेशकर तीन बहनों मीना मंगेशकर, आशा भोसले, उषा मंगेशकर और एक भाई ह्रदयनाथ मंगेशकर में सबसे बड़ी थीं। उनके बचपन का नाम हेमा था लेकिन एक दिन थियेटर कैरेक्टर ‘लतिका’ के नाम पर उनका नाम लता रखा गया। लता मंगेशकर ने 5 साल की उम्र से ही अपने पिता से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी।
बावर्ची ने मिला दिया था खाने में जहर
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक साल 1962 में एक बार लता मंगेश्कर काफी बीमार पड़ गई थी और कहा जाने लगा था कि वह अब कभी गा नहीं पाएंगी। कहा जाता है उनके बावर्ची ने उनके खाने में धीमा जहर मिला दिया था। बाद में उन्होंने उस बावर्ची को बिना सेलेरी दिए नौकरी से हटा दिया। लता की बेहद करीबी पद्मा सचदेव ने इसका जिक्र अपनी किताब ‘ऐसा कहां से लाऊं’ में किया है। जिसके बाद राइटर मजरूह सुल्तानपुरी कई दिनों तक उनके घर आकर पहले खुद खाना चखते, फिर लता को खाने देते थे। हालांकि, उन्हें मारने की कोशिश किसने की, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया।
मिर्चियां खा लेती हैं लता
बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि लता का असली नाम हेमा हरिदकर है। बचपन के दिनों से उन्हें रेडियो सुनने का बड़ा ही शौक था। 18 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला रेडियो खरीदा था और रेडियो ऑन करते ही उन्हें के.एल.सहगल की मृत्यु की खबर मिली थी। जिसके बाद उन्होंने वह रेडियो दुकानदार को वापस लौटा दिया। लता को अपने बचपन के दिनों में साईकिल चलाने का काफी शौक था जो पूरा नहीं हो सका। बता दें कि उन्होंने अपनी पहली कार 8000 रुपये में खरीदी थी। स्पाइसी खाने की शौकीन लता एक दिन में तकरीबन 12 मिर्चियां तक खा लेती हैं। उनका मानना है कि मिर्च खाने से गले की मिठास बढ़ती है। लता को किक्रेट देखने का भी काफी शौक रहा है। लार्डस में उनकी एक सीट हमेशा रिजर्व रहती हैं।
असली कहानी हुई 1957 में. 1957 में फिल्म ‘चोरी चोरी’ के लिए संगीतकार शंकर जयकिशन को फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए चुना गया. जिस गाने के लिए उन्हें ये अवॉर्ड दिया जा रहा था वो गाना था- ‘रसिक बलमा’. आपको बताते चलें कि ये वही गाना था जो जाने माने निर्देशक महबूब खां अपनी बीमारी के दिनों में लॉस एंजेल्स में लता जी से फोन पर सुनते थे. खैर, अवॉर्ड सेरेमनी से पहले जयकिशन ने लता मंगेशकर से एक गुजारिश की. उन्होंने लता जी से कहा कि वो अवॉर्ड सेरेमनी में ‘रसिक बलमा’ गाना गा दें. लता जी को अपना विरोध दर्ज कराना था. उन्होंने ये कहकर गाने से इंकार कर दिया कि फिल्मफेयर अवॉर्ड गाने के संगीतकार को मिल रहा है ना कि गायक को इसलिए वो ये गाना कार्यक्रम के दौरान नहीं गाएंगी.
::/fulltext::सुप्रीम कोर्ट ने पहले स्त्री को पारिवारिक संपत्ति का अधिकार देकर उसकी लैंगिक बराबरी का रास्ता बनाया और अब 158 साल पुराना क़ानून रद्द करके उसकी यौनिक आज़ादी का रास्ता खोल दिया है
व्यभिचार कानून को रद्द करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला बस इतना नहीं है कि स्त्री और पुरुष के विवाहेतर संबंधों को अब जुर्म नहीं माना जाएगा. दुर्भाग्य से हमारे लगातार सतही-सपाट होते समय में ज़्यादातर लोग इस फैसले की इतनी भर व्याख्या करेंगे. लगातार चुटकुलेबाज होते जा रहे हमारे समाज को यह फैसला अपने लिए स्त्री-पुरुष संबंधों के खुलेपन पर कुछ छींटाकशी का अवसर भर लग सकता है, लेकिन यह एक ऐतिहासिक फैसला है.
क्योंकि इस फैसले का वास्ता स्त्री की आजादी और उसकी यौनिक आज़ादी से भी है. सुप्रीम कोर्ट ने संभवतः पहली बार इतने स्पष्ट ढंग से रेखांकित किया है कि देह स्त्री की संपत्ति है और उसे इसके बारे में फैसला करने का अधिकार है. हालांकि स्त्री की यौनिक आजादी का जिक्र छिड़ते ही कुछ लोग इस तरह छिटक पड़ते हैं जैसे यह विमर्श चलाने वाले या स्त्री के लिए यौनिक आजादी की मांग करने वाले लोग विवाहेतर संबंधों का लाइसेंस मांग रहे हैं या यौन रिश्तों की विच्छृंखलता की वकालत कर रहे हैं.
जबकि मामला बस इतना है कि पुरुष की तरह स्त्री भी स्वाधीन है, शादी उसे सामाजिक और नैतिक बंधन में बांधती जरूर है, लेकिन दोनों का एक स्वायत्त व्यक्तित्व भी है. पहले यह स्वायत्तता सिर्फ़ पुरुष को हासिल थी. अब तो नहीं, लेकिन अतीत में विवाहित पुरुषों का वेश्यागमन भी सामाजिक तौर पर स्वीकृत था, बल्कि जिन जमींदार घरों में पुरुष इससे बचते थे, वहां उनकी मर्दानगी पर सवाल उठते थे.
आज शहीद-ए-आजम भगत सिंह भगत सिंह (Bhagat Singh) का जन्मदिन है. आज भगत सिंह की 111वीं जयंती (Bhagat Singh 111th Birth Anniversary) है. अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग के निर्मम हत्याकांड ने 12 साल के उस बच्चे को ऐसा क्रांतिकारी बनाया, जिसके बलिदान ने मौत को भी अमर बना दिया. नौजवानों के दिलों में आजादी का जुनून भरने वाले शहीद-ए-आजम के रूप में विख्यात भगत सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में इतिहास के पन्नों में अमर है. उनके नाम से ही अंग्रेजों के पैरों तले जमीन खिसक जाती थी. आइए भगत सिंह की 111वीं बर्थ एनिवर्सिरी पर जानते हैं उनकी 10 खास बातें, जो हर बच्चे को जानना चाहिए...
1. भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी भगत सिह का जन्म पंजाब प्रांत में लायपुर जिले के बंगा में 28 सितंबर, 1947 को पिता किशन सिंह और माता विद्यावती के घर हुआ था.
5. आजादी के इस मतवाले ने पहले लाहौर में 'सांडर्स-वध' और उसके बाद दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में चंद्रशेखर आजाद और पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलंदी दी.
6. परिजनों ने जब उनकी शादी करनी चाही तो वह घर छोड़कर कानपुर भाग गए. अपने पीछे जो खत छोड़ गए उसमें उन्होंने लिखा कि उन्होंने अपना जीवन देश को आजाद कराने के महान काम के लिए समर्पित कर दिया है.
7. वीर स्वतंत्रता सेनानी ने अपने दो अन्य साथियों-सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया, जिसने अंग्रेजों के दिल में भगत सिह के नाम का खौफ पैदा कर दिया.
8. भगत सिंह को पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसंद नहीं आती थी. 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल पेश हुआ. अंग्रेजी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शन के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फोड़कर अपनी बात सरकार के सामने रखी. दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन भारत के निडर पुत्रों ने हंसत-हंसते आत्मसमर्पण कर दिया.
9. असहयोग आंदोलन समाप्त होने के बाद जब हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे तो उनको गहरी निराशा हुई. जिसके बाद 1930 में लाहौर सेंट्रल जेल में उन्होंने अपना प्रसिद्ध निबंध ''मैं नास्तिक क्यों हूं'' (व्हाई एम एन एथीस्ट) लिखा.
10. लाहौर षड़यंत्र केस में उनको राजगुरू और सुखदेव के साथ फांसी की सजा हुई और 24 मई 1931 को फांसी देने की तारीख नियत हुई. लेकिन नियत तारीख से 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को उनको शाम साढ़े सात बजे फांसी दे दी गई. कहा जाता है कि जब उनको फांसी दी गई तब वहां कोई मजिस्ट्रेट मौजूद नहीं था जबकि नियमों के मुताबिक ऐसा होना चाहिए था.