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ब्रिटिश मूल की सिख सेना अधिकारी प्रीत चंडी ने अकेले दक्षिणी ध्रुव का सफर पूरा करने वाली पहली "गैर श्वेत महिला" बनकर इतिहास रच दिया है. सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार, चंडी का साहसिक कार्य पिछले साल नवंबर में शुरू हुआ, जब उन्होंने अंटार्कटिका के हरक्यूलिस इनलेट से असमर्थित अपनी यात्रा शुरू की. उसने अगले कुछ सप्ताह अंटार्कटिका में अकेले स्कीइंग करते हुए बिताए और 3 जनवरी को घोषणा की कि उन्होंने 40 दिनों में 700 मील (1126 किमी) का ट्रेक पूरा कर लिया है. प्रीत चंडी ने अपने ब्लॉग पर बताया, "अभी बहुत सारी भावनाओं को महसूस कर रही हूं ..."
अपने अंटार्कटिका अभियान के दौरान, भारतीय मूल की ब्रिटिश सेना अधिकारी ने एक पुल्क या स्लेज ढोया, जिसका वजन लगभग 90 किलोग्राम था और उसके पास किट, ईंधन और भोजन था. ब्रिटिश सेना के जनरल स्टाफ के चीफ ने चंडी को उनके ट्रेक के पूरा होने पर बधाई दी, उनकी तारीफ "धैर्य और दृढ़ संकल्प के प्रेरक उदाहरण" के रूप में की.
दक्षिणी ध्रुव की यात्रा पूरी करने के बाद उन्होंने अपने ब्लॉग पर घोषणा की, "यह अभियान हमेशा मुझसे कहीं अधिक था. मैं लोगों को अपनी सीमाओं को आगे बढ़ाने और खुद पर विश्वास करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहती हूं." "मैं सिर्फ कांच की छत को तोड़ना नहीं चाहती, मैं इसे एक लाख टुकड़ों में तोड़ना चाहती हूं."
नई दिल्ली: आखिरकार नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government)ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों (Farm Laws)को वापस करने का फैसला कर लिया. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज गुरु नानक के जन्मोत्सव पर प्रकाश पर्व के पावन अवसर पर राष्ट्र के नाम संदेश में इसकी घोषणा की. जहां आंदोलनकारी किसान संगठनों ने इसका स्वागत किया है, वहीं उन्होंने यह भी कहा है कि जब तक संसद में इसे मूर्त रूप नहीं दे दिया जाता, तब तक वे अपना आंदोलन जारी रखेंगे. उन्होंने अपनी मांगों की सूची को लंबा करते हुए एमएसपी को कानूनी दर्जा देने, मृतक किसानों के परिवारवालों को मुआवजा देने और आंदोलनकारी किसानों पर लगाए गए मुकदमों को वापस लेने की मांग पर भी जोर दिया है. वहीं विपक्षी पार्टियों ने सरकार के अहंकार को लेकर हमले किए और इस फैसले की टाइमिंग पर सवाल उठाए. कल तक इन कृषि कानूनों को ऐतिहासिक बताने वाली बीजेपी अब इन कानूनों को वापस लेने के फैसले को ऐतिहासिक बताने में जुट गई है. पार्टी और सरकार कहती आ रही थी कि ये कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि पीएम मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बने इन कानूनों पर यूटर्न करने का फैसला किया. इसके पीछे के प्रमुख कारण ये हैं-
पश्चिमी उत्तर प्रदेश
बीजेपी का अपना फीडबैक है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के कारण जमीनी हालात तेजी से बदल रहे हैं. लगातार तीन चुनावों में बीजेपी को यहां जबर्दस्त समर्थन मिला. जाटों के नेता माने जाने वाले अजित सिंह खुद चुनाव हार गए. वैसे तो प्रमुख रूप से गन्ने की फसल उगाने वाले इस क्षेत्र में इन कृषि कानूनों के कारण किसानों के हक पर कोई चोट नहीं हो रही थी, लेकिन धारणा यह बन गई कि सरकार किसान विरोधी है, हालांकि योगी सरकार ने गन्ने के समर्थन मूल्य में बढोत्तरी और बकाया चुकाने की घोषणा की, लेकिन आंदोलन को लेकर जिस तरह से सरकार की ओर से सख्ती बरती गई और बीजेपी नेताओं के बयान आए उससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट खासतौर से नाराज हुए. राकेश टिकैत इस आंदोलन का चेहरा बन गए. उनके द्वारा राज्य में बुलाई गई महापंचायतों को विपक्षी पार्टियों का जमकर समर्थन मिला. इसी तरह राष्ट्रीय लोक दल भी अपना खोया जनाधारा वापस पाने में जुट गई. सपा और रालोद के बीच समझौता भी बीजेपी के लिए चिंता का कारण है. पंचायत चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खराब प्रदर्शन को भी इसी से जोड़ा गया. मुजफ्फपुर हिंसा के बाद टूटी जाट मुस्लिम एकता फिर से जुड़ने लगी. बीजेपी को यह भी डर रहा कि चुनाव प्रचार में उतरने पर उसके नेताओं को कहीं वैसे ही विरोध का सामना न करना पड़े जैसे हरियाणा और पंजाब में हुआ. खुद पीएम मोदी 25 नवंबर को ग्रेटर नोएडा में जेवर में नोएडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की आधारशिला रखने जा रहे हैं. इसमें बीजेपी दो से ढाई लाख लोगों को जुटाना चाह रही है, लेकिन किसान आंदोलन के चलते उसे इस कार्यक्रम में विरोध का डर था. अमित शाह कह चुके हैं कि 2024 में अगर मोदी को फिर पीएम बनाना है तो यूपी में 2022 में योगी को जिताना जरूरी है, लेकिन किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुकसान की आशंका थी. लखीमपुर खीरी की घटना ने भी बीजेपी का नुकसान किया.
कैप्टन अमरिंदर सिंह
जिस दिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि वे कांग्रेस छोड़ रहे हैं लेकिन बीजेपी में शामिल होने के बजाए उससे गठबंधन करेंगे, उसी दिन यह संकेत मिल गया था कि कृषि कानूनों पर मोदी सरकार पुनर्विचार कर रही है. कैप्टन अमरिंदर सिंह के पंजाब का मुख्यमंत्री रहते हुए खुद बीजेपी ही उन पर यह आरोप लगाती थी कि दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब के किसानों को भेजने के पीछे कैप्टन ही हैं। लेकिन अब हालात बदल गए. बीजेपी के पास पंजाब में न पाने को कुछ है, न खोने को कुछ. उसे उम्मीद है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई पार्टी से उसका गठबंधन होने पर वह शहरी क्षेत्रों में हिंदू वोटों के सहारे थोड़ी-बहुत ताकत पा सकती है. बीजेपी कृषि कानूनों की वापसी के पीछे कैप्टन को अगर खुल कर श्रेय दे दे तो हैरानी नहीं होगी. इसी तरह, इसी मुद्दे पर बीजेपी से अलग हुए अकाली दल के लिए भी अब बीजेपी के साथ वापस आने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी, खासतौर से चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर. बीजेपी नेता आज बताते हुए नहीं थक रहे कि सिखों के लिए पीएम मोदी ने क्या क्या कदम उठाए. इनमें करतारपुर साहिब कॉरीडोर दोबारा खोलना, कोविड के बावजूद गुरु तेग बहादुर का 400 वां प्रकाश पर्व मनाना, पीएम मोदी का खुद गुरुद्वारे जाना, गुजरात के सीएम रहते हुए कच्छ में भूकंप से तबाह हुए लखपत गुरुद्वारे का पुनर्निर्माण, हाल ही में अफगानिस्तान से सिख समुदाय लोगों की सुरक्षित भारत वापसी और गुरु ग्रंथ साहिब को ससम्मान वापस लाना आदि शामिल हैं. गुरु गोविंद सिंह का 350 वां प्रकाश पर्व और गुरु नानक देव जी का 500 वां प्रकाश पर्व मोदी सरकार ने बहुत उत्साह के साथ मनाया। बीजेपी नेताओं के मुताबिक अपने राजनीति जीवन में मोदी ने बहुत समय पंजाब में बिताया और इसीलिए सिख समुदाय के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान है। यही कारण है कि कृषि कानूनों की वापसी का फैसला गुरु नानक देव के प्रकाश पर्व पर किया गया.
हरियाणा में उग्र प्रदर्शन
बीजेपी ने जाटों की नाराजगी के बावजूद हरियाणा में दूसरी बार सरकार बनाई लेकिन उसे सरकार बनाने के लिए जाट नेता दुष्यंत चौटाला का साथ लेना पड़ा. किसान आंदोलन उसके बाद शुरू हुआ लेकिन पिछले एक साल से हरियाणा युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया था. राज्य के अधिकांश टोल बूथ पर किसान आंदोलनकारी बैठे हुए थे और दिल्ली से सटी सीमाओं पर आवाजाही बंद थी. लोगों का रोजगार छिन रहा था. सड़कें बंद होने से आम लोग परेशान हैं और कई बार किसानों और स्थानीय लोगों के बीच टकराव की नौबत भी आई. उधर, राज्य भर में राजनेताओं की शामत आ चुकी थी. खासतौर से बीजेपी नेताओं के लिए सड़कों पर निकलना और कोई राजनीतिक कार्यक्रम करना मुश्किल हो गया था. ऐसी कई घटनाएं हुईं जिनमें बीजेपी नेताओं के कपड़े फाड़ दिए गए. कई जगहों पर हिंसक टकराव भी हुआ. बीजेपी पर उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला का भी दबाव था कि इस आंदोलन को जल्द खत्म किया जाए. हाल के उपचुनाव में बीजेपी के वोट जरूर बढ़े लेकिन हार को किसान आंदोलन से ही जोड़ा गया.
पीएम की छवि को धक्का
बीजेपी ने किसानों की आमदनी दोगुना करने का लक्ष्य रखा है. पार्टी दावा करती है कि किसानों के हित में कई बड़े फैसले किए गए. इनका श्रेय पीएम मोदी को दिया जाता है. किंतु, किसान आंदोलन में सीधे पीएम मोदी पर हमले किए जाने लगे. उनके पुतले जलना, उनके खिलाफ नारेबाजी होना, यह सब बीजेपी को रास नहीं आया. इससे न केवल पीएम मोदी बल्कि पूरी सरकार के खिलाफ नकारात्मक माहौल बनने लगा. विरोध केवल कृषि कानूनों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें महंगाई, बेरोजगारी जैसे शाश्वत मुद्दे भी जुड़ने लगे. बीजेपी के भीतर से भी आवाजें उठने लगीं. मणिपुर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक, बीजेपी सांसद वरुण गांधी, पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह खुल कर किसान आंदोलन का समर्थन करने लगे. दबी जुबान में पार्टी के अन्य किसान नेता भी इस आंदोलन से उठने वाले नुकसान की तरफ ध्यान दिलाने लगे. आरएसएस के पूर्व महासचिव भैय्याजी जोशी को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा कि किसान आंदोलन का हल निकाला जाना चाहिए. पार्टी को फीडबैक मिला कि किसान आंदोलन के कारण पांच राज्यों के आने वाले विधानसभा चुनावों में दिक्कत हो सकती है. हालांकि कानूनों को वापस लेना भी पीएम मोदी की छवि को धक्का ही है. इससे पहले वे भूमि अधिग्रहण कानूनों को भी वापस ले चुके हैं. नोटबंदी, अनुच्छेद 370 और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कड़े फैसलों के बूते एक कठोर प्रशासक के तौर बनी उनकी छवि को इन कानूनों पर चल रहे आंदोलन से भी चोट पहुँच रही थी और अब कानूनों की वापसी से भी नुकसान पहुंचेगा.
राष्ट्रीय सुरक्षा
बीजेपी नेता कहते हैं कि लंबे समय से चला आ रहा यह आंदोलन आगे चल कर एक बड़ी समस्या का रूप भी ले सकता था. देश विरोधी और अलगाववादी ताकतें इस असंतोष का फायदा उठाने की फिराक में थीं. बीजेपी नेता गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर हुई हिंसा का उदाहरण देते हैं. सुरक्षा एजेंसियों को चिंता थी कि पंजाब जैसे बॉर्डर राज्य में अलगाववादी ताकतें इस आंदोलन को हाईजैक कर सकती थीं. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इस बारे में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और गृह मंत्री अमित शाह को प्रजेंटेशन देकर भी आए थे. बीजेपी नेताओं का मानना है कि देश को कमजोर करने वाली ताकते सक्रिय हो रही थीं. पीएम मोदी ने कृषि कानूनों को वापस करने का फैसला करते समय इस बात का भी खासतौर से ध्यान रखा.
गतिरोध न टूटना
किसानों और सरकार के बीच लगातार बातचीत हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल सका. दोनों ही अपने-अपने रुख पर अड़े रहे. इसके अलावा मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया लेकिन कोर्ट के कहने पर बनाई गई समिति भी गतिरोध नहीं तोड़ सकी.सड़कें बंद होने को भी कोर्ट में चुनौती दी गई जिस पर सुनवाई लगातार जारी है. किसानों को दिल्ली में आने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने जो बाड़बंदी की थी कि वह हटाई गई. सरकार ने आंदोलन खत्म करने के लिए कृषि कानूनों को दो साल के लिए मुल्तवी करने का प्रस्ताव दिया था जो किसानों ने ठुकरा दिया था. वे कानूनों की वापसी से कम पर राजी नहीं थे. यही कारण है कि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.
मोटे तौर पर यही कारण हैं जिनके चलते मोदी ने इन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया, हालांकि इससे उनकी छवि को धक्का जरूर पहुंचा है और सुधारों को लेकर कारोबारी जगत को सही संदेश नहीं गया, लेकिन फिलहाल बीजेपी की प्राथमिकता पांच राज्यों के चुनाव हैं, जिसके लिए वह कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहती. यह सही है कि पहले पेट्रोल डीजल पर एक्साइज में कटौती कर और अब कृषि कानूनों को वापस लेकर बीजेपी ने विपक्षी पार्टियों के हाथ से बड़े मुद्दे छीन लिए हैं, लेकिन कृषि कानूनों के कारण पार्टी के खिलाफ बना माहौल क्या इससे कम होगा, यह कह पाना अभी मुश्किल है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
गोदी मीडिया ने आम जनता को इस तरह से झूठ की चपेट में ले लिया है कि जनता के लिए भी उस झूठ से निकलना संभव नहीं है. गोदी मीडिया के अलावा आई टी सेल और अन्य संगठनों से जुड़े लोग इस तंत्र के नॉन-स्टेट एक्टर हैं जो स्टेट का काम कर रहे हैं. झूठ फैला कर. आपने लोकतंत्र की एक सामान्य परिभाषा सुनी होगी. जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन. अब इसे बदल कर झूठ द्वारा, झूठ के लिए और झूठ का शासन किया जा सकता है. पिछले दो दिनों से मेरे बारे में अलग-अलग नेटवर्क से अफवाह फैलाई गई कि मैंने दिवंगत जनरल बिपिन रावत की पत्नी मधुलिका रावत को लेकर कुछ टिप्पणी की है, जबकि मैंने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की है. न तो कहीं लिखा है और न अपने किसी कार्यक्रम में बोला है.
अभी जनरल साहब के निधन की पुष्टि भी नहीं हुई थी कि हज़ारों ऐसे मैसेज तैयार कर दिए गए और अनगिनत अकाउंट से इसे फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में भेजा जाने लगा. हर दिन ऐसे झूठ को फार्वर्ड करने वाले रिटार्यड अंकिल लोग इसे भी फार्वर्ड करने लगे. यह कोशिश किसी के लिए भी जानलेवा हो सकती है. इस झूठ के ज़रिए उन्मादी भीड़ बनाई जाती है और किसी ग़रीब को उकसा दिया जाता है.अमित चतुर्वेदी नाम के इस अकाउंट से यह झूठ शुरु हुआ. हम दावा नहीं कर सकते कि सबसे पहला ट्वीट अमित चतुर्वेदी ने किया या किसी और ने. अपने बायोडेटा में इंजीनियर और आध्यात्मिक लिखने वाला अमित चतुर्वेदी झूठ की इंजीनियरिंग में माहिर लगता है. अमित ने अपने ट्विटर अकाउंट की प्राइवेसी सेटिंग सीमित कर दी है. अब केवल वही देख सकते हैं जो उसे फॉलो करते हैं. अमित चतुर्वेदी ने 2015 में ट्विटर पर अपना अकाउंट बनाया है और छह साल में सवा लाख के करीब ट्विट किए हैं. उम्मीद है गीता से प्रेरित रहने वाला अमित एक दिन सत्य से भी प्रेरित होगा.
न जाने कितने लोगों ने यह अफवाह फैलाई है. जनार्दन मिश्रा के ट्विटर अकाउंट से भी ऐसा ही ट्वीट किया गया. जनार्दन मिश्रा की प्रोफाइल में प्रधानमंत्री की तस्वीर है. इन्हें 1 लाख 86 हज़ार लोग फॉलो करते हैं. जनार्दन मिश्रा ने भी इतना लंबा चौड़ा अनाप-शनाप मेरे बारे में लिखा है. राष्ट्रवाद और धर्म का नाम लेकर इन जैसे लोग इतना झूठ कैसे बोल लेते हैं. इसकी तरकीब के बारे में प्रधानमंत्री मोदी जनार्दन मिश्रा को DM कर पूछ सकते हैं. मेरे बारे में इसी तरह का पोस्ट जनार्दन मिश्रा नाम के एक और अलग अकाउंट से किया गया है इस वाले जनार्दन मिश्रा के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीर है. आशीष कौशिक के ट्विटर अकाउंट से भी मेरे बारे में ट्वीट किया गया है. आशीष कौशिक को 28 हजार लोग फॉलो करते हैं. आशीष सिंह को 789 लोग फॉलो करते हैं. ट्विटर के अकाउंट में खुद को पत्रकार संपादक बताते हैं.
इस तरह के कई पोस्ट में मुझे गालियां दी गई हैं और पढ़ने के बाद लोगों ने गालियां दी हैं. मुझे धमकियां आने लगीं. बीजेपी को चेक करना चाहिए कि ये लोग पार्टी के नाम का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे हैं. जब लोग नड्डा और योगी की तस्वीर लगाकर ट्वीट करने लगे तब लगा कि लोगों के बीच यह बात रखनी चाहिए कि मैंने ऐसी कोई बात नहीं की है जिससे जनरल रावत और उनकी पत्नी मधुलिका रावत का अपमान हो. कहीं नहीं बोला है. कहीं नहीं लिखा है. मेरे खंडन करने के बाद भी ये अफवाह फैलाई गई है और फैलाई जा रही है. गांव गांव में व्हाट्एस एप यूनिवर्सिटी के द्वारा पहुंचाई जा चुकी है. ऐसा कर इन लोगों ने राष्ट्रीय शोक की इस घड़ी में अच्छा काम नहीं किया है लेकिन ये आगे भी ऐसा ही काम करते रहेंगे.
खब्बू तिवारी अयोध्या के गोसाईपुर से बीजेपी के विधायक चुने गए थे. करीब पांच साल तक विधायक रहने के बाद उनकी विधायकी रद्द हो गई है. खब्बू तिवारी की मार्कशीट जाली पाई गई है. कोर्ट ने पांच साल के लिए जेल भेज दिया है. खब्बू तिवारी अयोध्या के गोसाईगंज से बीजेपी के विधायक थे. अगर आई टी सेल इस खबर को वायरल कराए तो बाकी विधायक भी अपनी डिग्री और मार्कशीट चेक कर लेंगे. अशोक चंदेल और कुलदीप सिंह सेंगर भी बीजेपी के विधायक थे हत्या और बलात्कार के मामले में जेल जाने के बाद उनकी विधायकी रद्द कर दी गई. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार खब्बू तिवारी पर जीप लूटने का भी मामला चल रहा है.
आई टी सेल इन खबरों को वायरल नहीं कराएगा और अगर पत्रकार यह खबर करेगा तो उसे निशाना बनाया जाएगा. शायद इसीलिए अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने एक बड़ी घोषणा की है. उन्होंने कहा है कि अमरीका एक ग्लोबल फंड बनाएगा जिससे मीडिया की आज़ादी की लड़ाई को सपोर्ट किया जाएगा और खोजी पत्रकारिता करने वालों को मदद दी जाएगी जिन्हें झूठे मुकदमों में फंसाया जाता है.
दुनिया भर के देशों के साथ-साथ भारत में भी काम करने वाले पत्रकार मुकदमों का सामना कर रहे हैं. पत्रकार सिद्दीक कप्पन की कहानी हम कई बार बता चुके हैं. कितने महीनों से जेल में हैं. त्रिपुरा में पत्रकारों के साथ क्या हुआ आपने देखा, इन पर UAPA लगा दिया गया. अगर सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी से राहत न दी होती तो ये पत्रकार जेल में होते. जो भी पत्रकारिता कर रहा है उसे सोशल मीडिया के ज़रिए और प्रशासन के ज़रिए टारगेट किया जा रहा है. चंद रोज़ पहले सिलचर के एक पत्रकार अनिर्बन रॉय चौधरी पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया गया. आज सरकार से सवाल करने वाला पत्रकार एक गलती कर दे वह जेल में होगा लेकिन सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का फोटो लगाकर कोई कितना भी झूठ फैला ले उनका कुछ नहीं होगा.
सवाल पूछने की पत्रकारिता क्यों ज़रूरी है इसका एक उदाहरण श्रीनिवासन जैन और पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के इंटरव्यू से दे सकता हूं. अयोध्या पर फैसला देने के चार महीने बाद चीफ जस्टिस रिटायर होते हैं और राज्य सभा के सदस्य बन जाते हैं. इसे लेकर कई लोगों ने सवाल भी किया था. श्रीनिवासन ने रंजन गोगोई से पूछा कि राज्य सभा में आपकी उपस्थिति दस प्रतिशत भी नहीं है तो फिर कैसे कह सकते हैं कि आप लोगों की सेवा के लिए राज्य सभा गए हैं. इस सवाल के जवाब में पूर्व चीफ जस्टिस कह रहे हैं कि कोविड के कारण नहीं गए क्योंकि वहां कोविड के दिशानिर्देशों का पालन नहीं होता है. इस पर तो राज्य सभा के सभापति ही जवाब दे सकते हैं लेकिन यह जवाब भी शानदार है कि जब लगता है कि जाना चाहिए तब जाते हैं और जब लगता है कि नहीं जाना चाहिए तब नहीं जाते हैं. यानी रंजन गोगोई को केवल छह दिन लगा कि जाना चाहिए.
मन करेगा तो जाएंगे और मन नहीं करेगा तो नहीं जाएगा. मन की बात पर ही सारा देश चल रहा है. कुछ दिन पहले खबर आई कि प्रधानमंत्री बीजेपी के सांसदों से नाराज़ हैं कि वे सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं लेते हैं. हेडलाइन बनी. अब खबर है कि बीजेपी ने अपने सौ सांसदों से कहा है कि संसद में आने के बजाए चुनावी राज्यों में काम करें. उन्हें छुट्टी दे दी गई है और वे सोमवार से नहीं आएंगे. इसी तरह पांच साल में छह लाख भारतीयों को लगा कि चलो भारत की नागरिकता ही छोड़ देते हैं और छोड़ देते हैं. इन छह लाख भारतीयों को क्या आप एक्स देशभक्त ED कहना चाहेंगे या डबल देशभक्त DD कहना चाहेंगे. भारत और अमरीका दोनों की देशभक्ति करने वाले DD यानी डबल देशभक्त. कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह के सवाल के जवाब में 9 दिसंबर को राज्य सभा में सरकार ने बताया है कि पिछले पांच साल में हर साल औसतन पचास हज़ार लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ अमरीका की नागरिकता ली है. भारतीयों की नज़र दूसरे विकल्पों पर भी हैं. इस साल चार हज़ार भारतीयों ने इटली की नागरिकता ली है. कनाडा, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन की नागरिकता के लिए बड़ी संख्या में भारतीय कतार में हैं.
इनमें से कोई ट्विटर का चीफ या मेयर बनेगा तो हम दिल खोलकर स्वागत करेंगे और याद भी करेंगे, फिलहाल यहां के लोगों की चिन्ता करते हैं. यहां पर हम यह सवाल लाना चाहते हैं कि आई टी सेल की झूठ की फैक्ट्री में कौन लोग काम करते हैं, और धर्म के नाम पर सड़क पर उतर कर कौन लोग भीड़ बन जाते हैं. आप ऐसी हिंसा के किसी भी वीडियो में देखेंगे तो इसमें साधारण घरों के लड़के ज़्यादा दिखते हैं. जिनके हाथ में लाठी होती है, पत्थर होता है ये किसी चूड़ी वाले को मार रहे होते हैं, किसी सब्ज़ी वाले को मार रहे होते हैं, किसी स्कूल में पत्थर चला रहे होते हैं. वहां पुलिस होती है, रोकती भी है लेकिन कई बार पुलिस भी सहायक की भूमिका में नज़र आती है. बहुसंख्यक धर्म के नाम पर ऐसा करने वालों के प्रति सहनशील नज़र आती है. इन्हें पुलिस का ख़ौफ नहीं है.
आर्थिक असमानता पर पर्दा डालने के लिए धर्म के सहारे राजनीतिक समानता कायम की जा रही है ताकि यह बात छिप जाए कि भारत में अमीर ही अमीर हो रहे हैं और ग़रीब पहले से ज़्यादा ग़रीब हो रहे हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के एक वयस्क नागरिक की औसत मासिक कमाई 17000 से कुछ अधिक है. अगर आप आबादी के 50 फीसदी हिस्से की कमाई को देखें तो वह महीने में औसतन 5,523 रुपये ही कमाता है. इस देश में केवल 10 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो महीने का करीब एक लाख कमाते हैं. इस दस फीसदी की कमाई और बाकी के पचास फीसदी की कमाई के बीच 20 गुने का अंतर है. हम आए दिन अखबार और टीवी चैनलों के विज्ञापन के ज़रिए एक ऐसा भारत देखते हैं जो केवल दस प्रतिशत के लोगों का है. बड़े-बड़े मॉल को देखते हुए और महंगे टोल टैक्स देकर एक्सप्रेस वे से गुज़रते हुए उस 50 फीसदी भारत की सोचिए जो महीने का साढ़े पांच हज़ार ही कमाता है. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत का मिडिल क्लास भी गरीब जैसा ही है. बहुत छोटा और बहुत कम कमाने वाला.
हर दल के पास धर्म की राजनीति की कोई न कोई स्कीम है. राजनीति अब सही और ग़लत के हिसाब से नहीं होती, धर्म और धर्म को मानने वालों की संख्या के हिसाब से होती है. कोई मुखर है तो कोई चुप है. सांप्रदायिकता के कई वर्ज़न लांच हो हो रहे हैं. गुरुग्राम में पांच हफ्ते से नमाज़ को लेकर यही चल रहा है. इसी तरह से चर्च और कान्वेंट स्कूलों पर हमले हो रहे हैं. मध्य प्रदेश के विदिशा के सेंट जोसेफ स्कूल के कैंपस में लड़के घुस गए और पत्थर चलाने लगे. उत्तराखंड के रुड़की में दो महीने हो गए चर्च पर हमले को. आज तक एक भी गिरफ्तारी नहीं हुई है. मेहर पांडे की रिपोर्ट बताती है कि इस हमले से संबंधित FIR में जो नाम हैं, कइयों के संबंध बीजेपी से हैं.
पुलिस और प्रशासन की सुरक्षा में धर्म के नाम पर असुरक्षा की राजनीति चल रही है. आपकी आर्थिक असुरक्षा की बात कोई नहीं कर रहा है. लोग राजनीति के बारे में धर्म के हिसाब से सोचने लगे हैं. चूड़ी बेचने वाले तस्लीम की पिटाई का वीडियो वायरल हुआ तो आरोप लगाया गया कि इसने फर्ज़ी नाम और पहचान पत्र देकर पीएम आवास योजना का लाभ लिया है. तब भी उसकी इस तरह से पिटाई नहीं की जा सकती थी. तस्लीम पर एक बच्ची के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगा कर पोक्सो लगा दिया. वह 100 से अधिक दिनों तक जेल में रहा और अब ज़मानत मिल गई है न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल की खंडपीठ ने जमानत दे दी है. कोर्ट ने कहा है कि उसके खिलाफ आरोप की प्रकृति ऐसी नहीं है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसे मामले के निर्णय तक हिरासत में रहना चाहिए. एक ग़रीब चूड़ी वाले को पचास हज़ार के मुचलके पर छोड़ने के आदेश दिए गए हैं. क्या यह राशि उसके लिए ज़्यादा नही है?
धर्म की राजनीति के नए-नए संस्करण अभी और आएंगे, आप उसी में उलझे रहेंगे और केंद्रीय विश्वविद्यालों में छह हज़ार प्रोफेसरों के पद ख़ाली रह जाएंगे. आपके बच्चे बिना टीचर के ही पास होंगे और भारत विश्व गुरु बन जाएगा.
कोरोना वायरस (Corona virus) का नया वैरिएंट ओमिक्रॉन (Omicron) की खोज हुए दो सप्ताह से थोड़ा ज्यादा वक्त हो गया. इस दौरान दक्षिण अफ्रीका के शुरुआती आंकड़ों से पता चलता है कि यह वायरस पहले के वैरिएंट की तुलना में कहीं अधिक तेजी से फैलता है, लेकिन यह गंभीर बीमारी का कारण नहीं बनता दिख रहा है. अभी तक इसकी वजह से किसी की मौत की खबर पूरी दुनिया में नहीं है. हालांकि, इस वैरिएंट के बारे में अभी बहुत कुछ खोजा जाना बाकी है.
Bloomberg की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस वैरिएंट को लेकर अभी कुछ भी निश्चित नहीं है, इसलिए दुनिया अभी भी कुछ हद तक इस मामले में अंधेरे में है. रिपोर्ट में कहा गया है कि विकसित देश ब्रिटेन में हर कुछ दिनों में ओमिक्रॉन के मामले दोगुने हो रहे हैं. ब्रिटेन में हो रहे ओमिक्रॉन के प्रसार से यूरोप और अमेरिका में स्थितियां बिगड़ सकती हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 के अंत तक यह लगने लगा था कि 2022 में स्थितियां बदली होंगी लेकिन ओमिक्रॉन वैरिएंट के बाद अब यह धुंधला सा नजर आता है और कमोबेश 2021 जैसी परिस्थितियां बन सकती हैं.
लैब रिसर्च की शुरुआती स्टडीज से संकेत मिलता है कि ओमिक्रॉन डेल्टा वैरिएंट की तुलना में अधिक संक्रामक है, जो दुनिया भर में तेजी से फैल रहा है. स्टडी में यह भी देखा गया है कि यह वैरिएंट वैक्सीन लगवा चुके लोगों को भी अपनी चपेट में लेता है. इसके अलावा उस शख्स को भी बीमार कर सकता है जो पहले से ही कोविड संक्रमित हो चुके हैं.
हालांकि, अभी तक की स्टडीज से यह खुलासा नहीं हो सका है कि कोविड का नया वैरिएंट कैसे विकसित हुआ? और क्या यह दक्षिण अफ्रीका की तुलना में पुरानी आबादी वाले देशों में अधिक गंभीर बीमारी का कारण बनेगा?