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नई दिल्ली: क्रिप्टोकरेंसी मार्केट में पिछले कुछ दिनों से सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है. भारत में क्रिप्टोकरेंसी बिल (Cryptocurrency Bill) ने पहले ही बाजार पर संशय के बादल खड़े कर रखे हैं, वहीं कई ग्लोबल फैक्टर्स हैं, जिनके चलते निवेशकों को नुकसान हुआ है. ग्लोबल शेयर बाजार में और अन्य सेक्टरों में बिकवाली का दबाव दिखा है. इस बीच यूएस फेडरल रिजर्व बैंक के सख्त रवैये और कोरोनावायरस के नए वेरिएंट ओमिक्रॉन के चलते क्रिप्टोकरेंसी बाजार के मार्केट वैल्यू में 10% से ज्यादा की गिरावट आई है.
Bloomberg की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे पॉपुलर क्रिप्टोकरेंसी बिटकॉइन जैसे संकेत दे रहा है, उनके मुताबिक, बाजार अभी और वॉलेटाइल यानी अस्थिर होने वाला है. बीते वीकेंड पर बिटकॉइन में जबरदस्त तरीके से उतार-चढ़ाव देखा गया है. शुक्रवार के बाद से इसमें 21 फीसदी तक की गिरावट आई. अक्टूबर में 69,000 डॉलर का रिकॉर्ड हाई देखने वाला क्रिप्टो सोमवार की दोपहर को 40,000 डॉलर की गिरावट पर चल रहा है.
बिटकॉइन फ्यूचर भी गिर रहा है और रिपोर्ट के मुताबिक, बड़े एक्सचेंज़ेज पर फंडिंग रेट निगेटिव में हो गए हैं. यानी शॉर्ट पोजीशन पर चल रहे निवेशक प्रीमियम चुका रहे हैं. बाजार में लिक्विडेशन का दबाव बढ़ गया है. बीते एक हफ्ते से ज्यादा वक्त में क्रिप्टोकरेंसी निवेशकों के 250 बिलियन डॉलर डूबे हैं. 26 नवंबर के बाद से उनको इतना नुकसान हुआ है.
गुरु नानक देव जी की जयंती से 3 दिन पहले पाकिस्तान में स्थित सिखों के सबसे पूजनीय तीर्थस्थलों तक जाने के लिए करतारपुर साहिब गलियारे को बुधवार से दोबारा खोला जाएगा। कोविड-19 के प्रकोप के बाद मार्च 2020 से यहां की यात्रा रुकी हुई थी। आओ जानते हैं कि क्या है करतारपुर कॉरिडोर का इतिहास।
सलमान खुर्शीद की नई किताब 'सनराईज ओवर अयोध्या' (Sunrise Over Ayodhya-Nationhood In Our Time) पर विवाद हो गया है. यह किताब बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवाद, उस पर हुई मुकदमेबाजी और अंत में सुप्रीम कोर्ट का फैसला, इन सब चीजों की विस्तार से चर्चा करती है. मगर इसके साथ ही इसमें अलग-अलग धर्मों और खासकर हिंदू धर्म के बारे में भी लिखा गया है. जाहिर है सलमान खुर्शीद ने काफी शोध के बाद यह किताब लिखी है, मगर विवाद उस चैप्टर में लिखी बातें को लेकर है जिसका शीर्षक है The Saffron Sky. इसमें सलमान खुर्शीद लिखते हैं कि "सनातन और प्रचीन हिंदू धर्म जो कि पुराने साधु संतों के जमाने से चला आ रहा है, उसे मौजूदा हिंदुत्व किनारे कर रहा है और उसके तमाम राजनैतिक स्वरूप ISIS और बोको हरम जैसे इस्लामी संगठनों जैसे हैं. हालांकि बाद में सलमान खुर्शीद ने इस पर लंबी चौड़ी सफाई भी दी.
उन्होंने कहा कि "मैने अयोध्या पर दिया गया फैसला पढ़ा, वक्त लगा क्योंकि 1500 पेज का फैसला था. दुबारा पढ़ा, समझने की कोशिश की लेकिन तब तक लोग अपनी ओपिनियन बना चुके थे शायद, बिना पढ़े हुए कि आपने मस्जिद नहीं बनने दी, मंदिर बनवा दिया. लोगों ने पढ़ा ही नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है. तो मुझे लगा कि मैं इससे जुड़ा हूं, मैं लोगों को समझाऊं कि क्या इसमें कोई त्रुटि है कि नहीं और मैं यह मानता हूं कि यह एक अच्छा फैसला है और आज के जो हालात देश में है उसमें यह मरहम लगाने का यह रास्ता है कि फिर ऐसी बातें ना हों.''
यही नहीं सलमान खुर्शीद ने यह भी कहा कि हिंदू धर्म उच्च स्तर का है और हमारे लिए गांधी जी की प्ररेणा से बढ़ कर कोई और प्ररेणा नहीं है. कोई धर्म पर नया लेबल लगा दे तो उसे मैं नहीं मान सकता. कोई हिंदू धर्म का अपमान करेगा तो मैं जरूर बोलूंगा. मैं कहता हूं कि हिंदुत्व की राजनीति करने वाले गलत हैं और ISIS भी गलत है. सलमान खुर्शीद की यह किताब कई संदर्भों में कई अच्छी बातें समाज के लिए भी कहती है. जैसे कि किताब में लिखा है कि ''हिंदुत्व के सर्मथक अयोध्या के इस फैसले को अपनी जीत, अपने गौरव की तौर पर देखेगें मगर न्याय के संर्दभ में जीवन कई विषंगतियों से भरा हुआ है. हमें इसको साथ ले कर ही आगे बढ़ने की जरूरत है. यह किताब एक फैसले को विवेकपूर्ण ढंग से देखने की कोशिश है. हालांकि कई लोगों को लगता है कि यह फैसला सही नहीं है. यदि समाज में एकता कायम रहती है तो मैं मानूंगा कि मेरा किताब लिखने का मकसद सही था और मैं कामयाब रहा.'
यही नहीं सलमान खुर्शीद ने अपनी इस किताब में कांग्रेस का भी जिक्र किया है और लिखा है कि हमारी पार्टी में भी एक तबका अल्पसंख्यक के प्रति सहानूभुति रखने की कांग्रेस की छवि से निकलने की बात करता है और नेतृत्व के जनेऊ धारी छवि रखने की बात करता है. इसी समूह ने अयोध्या फैसले के बाद यह कहा था कि वहां पर राम का एक भव्य मंदिर बनना चाहिए. इससे उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अनदेखा किया जिसमें मस्जिद के लिए भी जमीन देने की बात कही गई थी. यही नहीं एक दूसरे मौके पर हमारे एक साथी ने कहा कि हमें बीजेपी के हिंदू राष्ट्र बनाने की बात पर चुप रहना चाहिए हालांकि वे साथी उस वक्त चुप हो गए जब कांग्रेस अध्यक्ष ने उनसे पूछा कि हिंदू राष्ट्र कैसा होगा. सलमान खुर्शीद आगे लिखते हैं कि कई धर्मनिरपेक्ष पार्टियां बीजेपी की इस चाल में फंस गई हैं और उन्हें लगने लगा है कि यदि इनको हरा नहीं सकते तो इनके साथ ही हो लेते हैं. शायद सलमान खुर्शीद का इशारा जेडीयू से लेकर तमाम उन क्षेत्रीय दलों की तरफ है जो संसद में जब भी बीजेपी पर संकट आता है तो उसके पीछे खड़ी हो जाती हैं.
सबसे मजेदार बात है कि सलमान खुर्शीद की इस किताब में 364 पन्ने हैं और 113वें पेज पर हिंदुत्व, ISIS और बोको हरम का जिक्र हुआ है, केवल एक लाइन में. उसी को लेकर इतना हंगामा बरपा दिया गया. मतलब साफ है सब कुछ राजनीति के चश्मे से देखा जा रहा है. क्या करें उत्तर प्रदेश में चुनाव जो हैं. कभी जिन्ना तो कभी ISIS तो चाहिए वरना ऐजेंडे की राजनीति हो नहीं पाएगी. यदि यह सब नहीं हुआ तो मंहगाई की बात होगी, विकास की बात होगी, नौकरी की बात होगी. इसलिए ये विवाद खड़ा किया जा रहा है. सलमान खुर्शीद ने भी कहा है ये मेरे विचार हैं जो मैंने किताब में लिखे हैं, यदि आपको पसंद नहीं आ रहे तो आप भी एक किताब लिख दिजिए. इसलिए मैंने लिखा है कि हंगामा क्यों बरपा है.
बहरहाल सलमान खुर्शीद ने अपनी किताब में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को विस्तार से समझाया है. मगर अंत में दो बातें कही हैं जिसका जिक्र करूंगा. उन्होंने एक शेर कहा है, "ये दाग दाग उजाला ये शबगज़िदा सहर...जिस सहर का इंतजार था ये वो सहर तो नहीं." और सबसे अंतिम पन्ने पर है महात्मा गांधी द्वारा गाया जाने वाला भजन, ''रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम.. ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सब को सन्मति दे भगवान..''
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
दिवाली की पूर्व संध्या पर केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज़ कम करके लोगों को दिवाली की सौगात दे डाली. पेट्रोल पांच रुपये और डीज़ल दस रुपये सस्ता कर दिया. उसकी देखादेखी कुछ राज्यों ने भी वैट घटाया. लेकिन इस सौगात के बावजूद ज़्यादातर शहरों में पेट्रोल 100 रुपये के पार बिक रहा है. जिस शाम पेट्रोल-डीज़ल सस्ते होने की ख़बर आई, उस शाम एनडीटीवी इंडिया के हमारे सहयोगी सुनील सिंह एक पेट्रोल पंप पर जा पहुंचे. उन्होंने वहां पेट्रोल भरा रहे लोगों से पूछा कि उन्हें इस कटौती से कितनी राहत मिली है? लगभग सबने बताया कि पेट्रोल 115 रुपये लीटर है, अब 110 रुपये का हो जाएगा, लेकिन यह 100 रुपये लीटर हो जाता तो सचमुच राहत होती.
तो यह हिंदुस्तान में महंगाई का 'न्यू नॉर्मल' है. लोग अब सौ रुपये लीटर तक पेट्रोल के दाम पर संतोष करने को तैयार हो गए हैं. यह ‘न्यू नॉर्मल' उन लोगों ने बनाया है जो कल तक 35 रुपये लीटर पेट्रोल-डीज़ल बेचने का दावा करके सत्ता में आए थे. ये वही लोग हैं जो पहले पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दामों पर चुटकुले बनाया करते थे, इसे प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की उम्र से जोड़ने का लगभग अभद्र मज़ाक करते थे. लेकिन वही लोग अब महंगाई की शिकायत करने वालों पर चुटकुले बना रहे हैं. वे बता रहे हैं कि देश बुलेट ट्रेन के लिए पैसे जुटा रहा है और ये आलू-गोभी के दाम पूछ रहे हैं. बीजेपी अब अपने लोगों को यह समझा रही है कि पेट्रोल के दाम बढ़ाना विकास के लिए ज़रूरी है. सीधा और मोटा तर्क है- ज़्यादा टैक्स आएगा तो सरकार के पास ज़्यादा पैसा आएगा. ज़्यादा पैसा आएगा तो सरकार विकास के लिए ज़्यादा पैसे ख़र्च कर सकेगी.
सरकार के पास कितना पैसा आ रहा है, यह पता नहीं. लेकिन लोगों की जेब कटने की हालत है. और गरीबों को तो पेट काट कर रहना पड़ रहा है. पिछले दिनों गोभी 120 रुपये किलो तक बिकी है. टमाटर-प्याज़ का न्यू नॉर्मल साठ रुपये किलो के आसपास का है. जिनका काम नून-तेल से चल जाता था, वे अब पा रहे हैं कि सरसों तेल ढाई सौ रुपये लीटर तक पहुंच गया है.
संकट यह है कि आप यह सब लिखें तो मोदी विरोधी मान लिए जाएंगे. यह आरोप लगेगा कि आपको ग़रीबों की फ़िक्र नहीं है, आप बस मोदी जी के विरोध के लिए ग़रीबों को याद कर रहे हैं.
चलिए मान लिया. हम पाखंडी लोग हैं. आपके मुताबिक लुटियन्स गैंग या खान मार्केट गैंग के समर्थक हैं. लेकिन आप तो ग़रीबों की फ़िक्र कीजिए. किसी को तो उनकी फ़िक्र करनी होगी? यह देखना होगा कि उनकी थाली में कम से कम रोटी-दाल, सब्ज़ी पहुंचती रहे. उनके घर का चूल्हा जलता रहे. कोई तो इस बात की सुध लेगा कि लॉकडाउन के बाद दर-बदर भटकने वाले मज़दूरों के परिवारों के बच्चे अब स्कूल छोड़ कर सड़कों पर भटक रहे हैं और भीख मांगने की कला सीख रहे हैं.
लेकिन सरकार के समर्थन में और महंगाई के पक्ष में बेशर्मी से चुटकुले गढ़ रहा भारत का उच्च मध्य वर्ग जैसे ख़ुद एक चुटकुला हो गया है. उसने एक विचारधारा के समर्थन से ख़ुद को इस तरह जोड़ लिया है कि उसे वास्तविक संकट भी नहीं चुभ रहे. उसे न बेरोज़गारी डरा रही है, न महंगाई सता रही है, न शिक्षा और स्वास्थ्य के बिल्कुल लचर हो चुके बुनियादी ढांचे की सच्चाई हिला रही है. सच तो यह है कि इन वर्षों में उसने पैसा भी मोटा कमा लिया है और खाल भी मोटी कर ली है. अब बहुत सारी चिंताएं करने की ज़रूरत उसे नहीं है. लेकिन यह बहुत छोटा सा भारत है. जो बड़ा भारत है, वह इसी अव्यवस्था और असुरक्षा में जीता है जिसे वह देखने को तैयार नहीं है. जब कोरोना की दूसरी लहर जैसी कोई मारक घड़ी आती है तो रोज़ ईमानदारी का जाप करने वाला यही छोटा सा तबका लाख रुपये ब्लैक में ऑक्सीजन सिलिंडर और रेमडिसिविर जुटाता है और बाक़ी को सड़क पर मरने के लिए छोड़ जाता है. इसी कोरोना काल में हमने ऐसी रेजिडेंट्स वेलफेयर सोसाइटी देखीं जो अपने लोगों के लिए बेड और ऑक्सीजन जुटा कर रख रही थीं और ऐसे अमीरों के बारे में भी सुना जो कोरोना के अंदेशे में पहले से अस्पतालों में बिस्तर बुक करा कर बैठे हुए थे. उस दूसरी लहर ने बताया कि हमारी सेहत का बुनियादी ढांचा कितना लचर है. लेकिन उसके बीतने के बाद सरकार स्वास्थ्य पर नहीं, दीए जलाने पर पैसे खर्च कर रही है. इस दौरान उसने सांप्रदायिकता की जो नई हवा बनाई है, उसने बहुत बड़ी आबादी को अपने नशे में ले लिया है और यह मार्क्स द्वारा बताई गई धर्म वाली अफीम से भी ज़्यादा ख़तरनाक है. इस सांप्रदायिकता को धार्मिकता से कोई मतलब नहीं है. उसके लिए धार्मिक पहचान का मतलब अपने लिए एक अवैध सत्ता और बल का निर्माण भर है जो तरह-तरह के संगठनों और कृत्यों में नज़र आ रहा है.
बहरहाल, बीजेपी की इस मूल स्थापना पर लौटें कि सरकार ज्यादा टैक्स लेगी तो उसके पास विकास के लिए ज़्यादा पैसे आएंगे. यह विकास कहां हो रहा है? दिलचस्प यही है कि विकास के नाम पर ही पैसे जुटाने के लिए सरकारी संसाधन औने-पौने दामों पर बेचे जा रहे हैं. विकास अब बड़ी पूंजी की जेब में है. कोई हवाई अड्डे संवार रहा है, कोई रेलवे स्टेशन, कोई प्लैटफॉर्म देख रहा है, कोई रेलें चला रहा है, कोई सड़कों पर पुल बनवा रहा है और कोई बिजली बना-बांट रहा है. शिक्षा और स्वास्थ्य पहले ही इस बड़ी पूंजी के हवाले कर दिए गए हैं.
डीज़ल-पेट्रोल के बढ़ते दामों और विकास के बीच कोई संबंध होता तो यूपीए के समय देश को बहुत पीछे चले जाना चाहिए था. क्योंकि जब कच्चा तेल 112 डॉलर बैरक तक चला गया था तब भी भारत में डीज़ल-पेट्रोल अस्सी पार नहीं हुए थे. लेकिन हम पा रहे हैं कि विकास के लगभग सभी पैमानों पर यूपीए के दौर में जो रफ़्तार रही, एनडीए उसे हासिल करने में विफल रहा है. इसमें कोरोना काल को छोड़ दें तब भी विकास की रफ़्तार यही निकलती है. उल्टे हम पाते हैं कि सामाजिक-शासकीय मोर्चे पर मनमोहन सिंह के दस सालों में जैसे नीतिगत फ़ैसले हुए, उनकी अब आठ साल को छूने जा रहे इस दौर में बराबरी नहीं दिखती. मनरेगा- यानी रोज़गार गारंटी, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भूमि अधिग्रहण क़ानून दरअसल वे बड़े बदलाव थे जिन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए काफ़ी कुछ बदल दिया. मोदी सरकार की आयुष्मान योजना को इस कड़ी में बेशक एक माना जा सकता है, लेकिन इसके अलावा उसकी कोई ऐसी बड़ी पहल नहीं दिखती जिसे देर तक याद रखा जा सके. उल्टे उसने पांच साल जिस जीएसटी का विरोध किया, उसको रातों-रात लागू करने की हड़बडी ने एक ज़रूरी योजना को अरसे तक कारोबारियों का दु:स्वप्न बना डाला. इसी तरह नोटबंदी वह फैसला है जिसे बीजेपी खुद भूल जाना चाहती है.
महंगाई बढ़ने का विकास के बुनियादी ढांचे के विकास से कोई संबंध नहीं है. जो अर्थशास्त्री यह पाठ पढ़ा रहे हैं, उनसे पूछना चाहिए कि फिर वे अरसे तक महंगाई को समस्या क्यों मानते रहे. बीजेपी से भी पूछना चाहिए कि महंगाई को लेकर उसका नज़रिया अचानक क्यों बदल गया है. क्या पहले उसको विकास की समझ नहीं थी या अब राजनीति की ज़्यादा समझ आ गई है?
लेकिन यह सवाल पूछे कौन. सब यह समझाने में लगे हैं कि महंगाई अच्छी चीज़ है, सौ के ऊपर बिकता पेट्रोल आम लोगों का सौभाग्य है. बहरहाल, एक ज़रूरी मुद्दे का यह बदनीयत भाष्य देश को बहुत महंगा न पड़े.