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रायपुर। इंडस्ट्रीयल ऑटोमेशन ट्रेनिंग के नाम पर आदिम जाति विभाग में एक करोड़ 98 लाख रुपये का फर्जीवाड़ा किए जाने का पर्दाफाश हुआ है। बेरोजगारों को ट्रेनिंग देने वाली संस्था प्रोलोफिक सिस्टम एंड टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के साथ मिलकर फर्जीवाड़े को अंजाम दिया गया है।
::/introtext::450 छात्रों को ट्रेनिंग और नौकरी-रोजगार दिलाने के नाम पर 30 जुलाई 2012 से हर तीन माह में छह किश्तों में संबंधित कंपनी को भुगतान किया गया। वह भी 18 लाख 24 हजार टीडीएस काटकर। प्रकरण की शिकायत पर जब विभागीय उच्च स्तरीय जांच शुरू हुई तो धीरे-धीरे मामला उजागर हुआ।
ज्ञात हो कि इस योजना के तहत बेरोजगार युवकों को ट्रेनिंग देने और रोजगार या नौकरी उपलब्ध करवाने का प्रावधान है, जिसके लिए संबंधित कंपनी को प्रति बेरोजगार 48 हजार रुपए दिए जाते हैं। लेकिन यहां ठीक इसके उलट हुआ, बिना भौतिक सत्यापन किए कंपनी को भुगतान किया जाता रहा।
दूसरे चरण में 64 बेरोजगारों को 15 मार्च 2013 से प्रशिक्षण का दावा भी जांच में झूठा निकाला। सांख्यिकी अधिकारी ने स्थल पर जांच की तो सिर्फ नौ युवा ही क्लॉस में उपस्थित थे। उपस्थिति पंजिका में बाकी 53 के अवकाश पर होना दर्ज था। ये नाम भी फर्जी निकले।
इसके पहले प्रथम चरण में 450 में से 386 प्रशिक्षार्थियों को ट्रेनिंग देने की बात कंपनी ने कही थी। इसमें भी अधिकांश बेरोजगारों के नाम फर्जी निकले। विभागीय अनुबंध पत्र के मुताबिक कंपनी को इस योजना के तहत तीन माह की ट्रेनिंग और इनके बाद रोजगार देना होता है अथवा नौकरी की व्यवस्था करनी होती है।
चला कमीशनखोरी का खेल
इस योजना में विभागीय राशि जारी करने में जमकर कमीशनखोरी का खेल चला। सूत्रों के मुताबिक 40 फीसद राशि नकद लेकर 100 फीसद राशि जारी की गई। यही कारण है कि अभी तक उच्च अधिकारी के बार-बार पत्र करने के बाद जिम्मेदार अधिकारियों की जबावदेही तय करने में सहायक आयुक्त के हाथ कांप रहे हैं।
जांच प्रतिवेदन में बेरोजगारों को नौकरी नहीं मिलने की पुष्टि
जांच प्रतिवेदन में बेरोजगारों को नौकरी नहीं मिलने की पुष्टि भी हो गई है। सिर्फ 60 बेरोजगारों के नाम मिले थे, लेकिन इनमें से किसी को भी नौकरी या रोजगार नहीं मिलने की पुष्टि हुई।
कलेक्टर का कड़ा पत्र भी दरकिनार
गत दिनों कलेक्टर ओपी चौधरी ने भी इस प्रकरण को संज्ञान में लेते हुए कड़ा पत्र जारी किया था, लेकिन अभी तक जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों के नाम उजागर नहीं किया जाना शासकीय कार्य में घोर लापरवाही है। कलेक्टर द्वारा इस मामले में रुचि नहीं ली जा रही है।
जिला पंचायत सीई के पत्र पर भी कार्रवाई नहीं
कंपनी तो दूर, विभागीय जिम्मेदार अधिकारियों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है, जबकि आयुक्त बाबा साहेब कंगाले ने दोषी अधिकारियों के बारे में सूचना मांगी है। वह भी एक नहीं, बल्कि आठ बार। जिला पंचायत सीई ने भी 29 अगस्त 2017 को विभाग के सहायक आयुक्त को कार्रवाई के निर्देश दिए थे, लेकिन मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
- जिम्मेदारों के नाम जल्द तय होंगे। अधिकारियों को नोटिस आदि भेजकर जवाब मांगा गया है। -आरके सिदार, सहायक आयुक्त, आदिम जाति विभाग
::/fulltext::रायपुर। कैशलेस इकोनामी को बढ़ावा देने के लिए की गई सरकार की पहल को झटका लगने लगा है। कैशलेस मार्केट घोषित होने के बाद भी कैश कारोबार हावी है। रोजाना बमुश्किल 20 फीसद कैशलेस ट्रांजेक्शन ही हो पा रहा है।
::/introtext::साल 2016 के अंत में आई नोटबंदी के बाद बाजार में कैश की दिक्कत को देखते हुए कैशलेस ट्रांजेक्शन पर जोर दिया गया और स्वाइप मशीनों के साथ पेटीएम को बढ़ावा दिया गया। कैश की दिक्कत के चलते कुछ महीने तो स्वाइप ट्रांजेक्शन काफी हुआ, लेकिन मार्केट में कैश फ्लो होते ही, व्यापारी और उपभोक्ता दोनों कैशलेस ट्रांजेक्शन को भूल गए, यहां तक बैंक भी।
मालूम हो कि उस दौरान रायपुर जिले के व्यापारियों ने करीब 20 हजार स्वाइप मशीनों की मांग बैंकों से की थी, लेकिन बैंक समय पर उपलब्ध नहीं करा पाए। कुछ दिनों बाद बाजार में कैश का फ्लो काफी बढ़ गया तो व्यापारियों ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया।
मालवीय रोड व्यापारी संघ के अध्यक्ष व चेम्बर उपाध्यक्ष राजेश वासवानी का कहना है कि रोजाना के कारोबार को देखा जाए तो बमुश्किल 20 फीसद कारोबार कैशलेस होता है। बैंक अफसरों का कहना है कि व्यापारी अब मशीन लेने से इन्कार कर रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं। कैशलेस ट्रांजेक्शन को बढ़ावा देने की कोशिश बैंकों द्वारा की जा रही है साथ ही उपभोक्ताओं को जागरूक किया जा रहा है।
कैशलेस को झटका लगने के ये माने जा रहे कारण-
1. सबसे बड़ा कारण बैंकों द्वारा लिए जाने वाले चार्जेस को माना जा रहा है। चार्जेस के चलते व्यापारी स्वाइप ट्रांजेक्शन से कतराते हैं।
2. दूसरी बड़ी समस्या सर्वर खराबी की आती है। अधिकांश समय सर्वर ठप होने की समस्या के कारण स्वाइप नहीं हो पाता, मशीनें खराब हो जाती हैं।
फैक्ट फाइल-
- कैश की दिक्कत आने पर जनवरी 2017 में रायपुर जिले में करीब 20 हजार स्वाइप मशीनों की मांग हुई थी।
- बैंकों द्वारा स्वाइप मशीन उपलब्ध कराने में देरी के कारण मार्केट पर पेटीएम ने कब्जा कर लिया, लेकिन पेटीएम भी कम हो गया।
- कैश का फ्लो सुधरने पर व्यापारी मशीन लेने से कतराने लगे।
कैशलेस ट्रांजेक्शन को ऐसे मिलेगा बढ़ावा
- अगर सरकार वाकई में कैशलेस इकोनामी को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे कुछ प्रमुख काम करने होंगे। व्यापारियों के साथ उपभोक्ता भी कैशलेस इकोनामी चाहते हैं। कैशलेस ट्रांजेक्शन को बढ़ावा देना है तो बैंकों द्वारा क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड पर लिए जाने वाले चार्ज का पूरी तरह समाप्त करना होगा। सरकार को इसके लिए पहल करनी होगी। बैंकों में एनईएफटी व आरटीजीएस की सुविधा सालभर जारी रहनी चाहिए। इससे बैंकों को भी फायदा मिलेगा और सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी होगी। कैशलेस ट्रांजेक्शन को बढ़ावा देने के लिए कैट पहले भी यह सुझाव दे चुका है। अगर इन सुझावों को अमल में लाया जाता है तो निश्चित ही कैशलेस ट्रांजेक्शन को बढ़ावा मिलेगा। - अमर पारवानी, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष,कैट
::/fulltext::रायपुर। बिजली की बचत के लिए हैदराबाद की तर्ज पर रायपुर के एक कोने में सेंसर पद्घति काम करने लगी है। स्ट्रीट लाइट में अनावश्यक बिजली की खपत रोकने के लिए पार्षद अजीत कुकरेजा ने सेंसर सिस्टम लगवाया है। इससे 140 स्ट्रीट लाइट को लेकर बिजली विभाग को श्रम व्यय भी नहीं करना पड़ रहा है और समय पर बिजली व्यवस्था संचालित हो रही है।
::/introtext::हैदराबाद से लौटकर पार्षद कुकरेजा ने अपने वार्ड के सतनामीपारा और आनंद नगर में सेंसर सिस्टम लगाने का फैसला किया। सालभर से स्ट्रीट लाइट समय से चालू और बंद होकर बिजली विभाग को मुनाफा दे रही है।
पार्षद कुकरेजा का कहना है कि आम तौर पर बिजली विभाग के कर्मचारियों की लेटलतीफी की वजह से परेशानी होती थी। कई बार ऐसा होता था कि कर्मचारी के नहीं पहुंचने की वजह से क्षेत्र अंधेरे में डूबा रहता था।
आन-आफ मैन्युअल सिस्टम की जवाबदारी संभालने की वजह से परेशानी होती थी। समय पर बटन नहीं दबाने की वजह से दिन में भी लाइट नहीं बुझती थी, इस वजह से अतिरिक्त बिजली व्यय होता था। सेंसर बोर्ड लगाने के बाद से सब कुछ कंट्रोल में चल रहा है, बल्कि अंधेरा होते ही स्ट्रीट से रोशनी मिल रही है।
वहीं, उजाला होते ही सिस्टम खुद बंद हो जाता है। मैन्युअल तरीके से सिस्टम चलाने की व्यवस्था खत्म हो गई है। पार्षद कुकरेजा का कहना है कि अगर यह सिस्टम पूरे शहर में लागू होता तो बिजली की खपत कम हो पाती।
ऐसे काम करता है सेंसर फार्मूला
पार्षद कुकरेजा कहना है कि उन्होंने जो तकनीक 140 स्ट्रीट लाइट में उपयोग की है, उसे संचालित करना बेहद आसान है। सभी स्ट्रीट लाइट के लिए एक सेंसर सिस्टम लगा हुआ है, जो दिन और रात होने पर लाइट को बंद-चालू कर देता है। अगर अंधेरा हुआ, तो सारे बल्ब प्रकाशित हो उठेंगे। सेंसर सिस्टम मैन्युअल स्विच बटन से कनेक्ट है, जो अपने हिसाब से काम करता है। इसकी जानकारी मोबाइल के जरिए भी मिल जाती है।
करोड़ों रुपये की बचत हैदराबाद में
बड़े शहरों में सेंसर तकनीक कारगर है। पार्षद अजीत कुकरेजा ने बताया कि जब वे हैदराबाद गए थे, तब इस तकनीक की जानकारी हुई थी। रायपुर लौटने के बाद अपने वार्ड में प्रयोग शुरू किया। पहले 70 सड़कों की स्ट्रीट लाइट में इस्तेमाल किया, बाद में दूसरी जगह की यूनिट के लिए भी तकनीक शामिल की।
उन्होंने कहा कि अगर सेंसर तकनीक हर जगह ऑपरेट हो तो सालभर में करोड़ों रुपये की बिजली खपत कम होगी। मैन्युअल तरीके से कई हिस्से छूट जाते हैं, जहां समय पर पावर सप्लाई का सिस्टम बंद-चालू किया जा सके। दिन के उजाले में जलने वाली बत्तियों से नुकसान होता है।
खर्च केवल 18 हजार रुपये
सेंसर पद्धति से सिस्टम लगाने का खर्च मात्र 18 हजार रुपये है। एक सिस्टम से 70 सड़कों की स्ट्रीट लाइट में पावर सप्लाई सिस्टम कंट्रोल करना आसान है। बिजली की खपत रोकने के लिए नए सिस्टम की कीमत बहुत ही कम है। सेंसर तकनीक का मेंटेनेंस भी सरल है। किसी भी हिस्से में इसका इस्तेमाल करना आसान है। आपरेट करने के लिए एक्सपर्ट की जरूरत नहीं होती।
::/fulltext::रायपुर। यह किसी से छिपा नहीं है कि अभाव में ही प्रतिभा पलती है। सपनों को पूरा करने की चाहत और जुनून हो तो मंजिल खुद-ब-खुद रास्ते बना लेती है। एक चाय बेचने वाले की बेटी संगीता रामटेके (27) का क्रिकेटर बनने का सपना था। उन्होंने कड़ी मेहनत की और हार नहीं मानी। संगीता की कड़ी मेहनत से उनका चयन छत्तीसगढ़ की महिला वनडे और बीसीसीआइ टी-20 टीम में हुआ।
::/introtext::क्रिकेट के मैदान में चौके-छक्के लगाने वाली संगीता अब फिल्मी पर्दे पर चौके-छक्के लगाते दिखेंगी। अगस्त में रिलीज होने वाली तमिल फिल्म 'कन्ना' में संगीता मुख्य किरदार में नजर आएंगी। फिल्म अगस्त में रिलीज होगी। फिल्म कन्ना की स्टोरी गांव की एक लड़की पर आधारित है।
लड़की का सपना क्रिकेटर बनने का रहता है, लेकिन अभाव की वजह से उसे काफी दिक्कत होती है। लड़की हार नहीं मानती और सपना पूरा करती है। छत्तीसगढ़ की बेटी संगीता की रियल लाइफ फिल्म कन्ना की स्टोरी से मिलती-जुलती है। संगीता के पिता श्रवण कुमार रामटेके भिलाई में ही चाय का ठेला लगाते हैं।
बीसीसीआई द्वारा खेले जा रहे मैच के दौरान सिलेक्शन
चेन्नई में आयोजित बीसीसीआई लीग टूर्नामेंट में छत्तीसगढ़ की महिला टीम खेलने गई थी। छत्तीसगढ़ टीम का मैच खेला जा रहा था। तमिल फिल्म के डायरेक्टर अरुणराज एक्टर की तलाश के लिए मैच देखने ग्राउंड पहुंचे, जहां उन्होंने किरदार के हिसाब से खिलाड़ियों को देखा।
यहीं से डारेक्टर अरुणराज ने आठ से दस खिलाड़ियों को चुना। अलग-अलग टीम के कोच से खिलाड़ियों से मिलने की अनुमति ली। मैच खत्म होने के बाद डायरेक्टर ने सभी से मुलाकात की। संगीता से जब डायरेक्टर ने पूछा कि क्या फिल्म में काम करोगे। संगीता का जवाब था आज तक एक्टिंग की कैमरा भी फेस नहीं किया कैसे होगा।
डायरेक्टर ने कहा ज्यादा कुछ नहीं करना है। जैसे क्रिकेट खेलती हो वैसे ही खेलना है। कुछ चीजें हैं जो 15 दिन ट्रेनिंग में सिखाया जाएगा। संगीता को 15 दिन की ट्रेनिंग दी गई। इसके बाद फिल्म की शूटिंग हुई। संगीता ने गांव की लड़की जो क्रिकेटर बनना चाहती है उसका किरदार निभाया।
कभी हाइट कम होने की वजह से नहीं हुआ चयन
चाय बेचने वाले की बेटी संगीता की रहा कठिनाइयों भरी रही। संगीता ने पिता के चाय ठेले में उनका हाथ बटाया। संगीता बताती हैं कि उन्हें बचपन से ही क्रिकेटर बनना चाहतीं थीं, लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने से वे किसी भी बड़ी क्रिकेट एकेडमी की फीस भी नहीं भर पाती थीं।
संगीता के क्रिकेटर बनने की चाहत ने चैन से बैठने नहीं दिया। उन्होंने सेल्समैन में नौकरी की। कुछ पैसे इकट्ठे होने के बाद क्रिकेट क्लब जॉइन किया।
संगीता की हाइट कम होने की वजह से छत्तीसगढ़ टीम में सिलेक्ट होने में पांच साल लग गए। पांच साल बाद संगीता को छत्तीसगढ़ महिला वनडे टीम में जगह मिली। संगीता छत्तीसगढ़ टीम की विकेटकीपर और मध्यक्रम की जुझारू बल्लेबाज हैं। संगीता रायपुर में टर्मिनेटर एकेडमी में प्रैक्ट्सि करती हैं।
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