Sunday, 27 October 2024

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कर्ण बने इन 5 बड़े दान के कारण दुनिया के सबसे बड़े दानवीर....

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भगवान् ने भी कर्ण को सबसे बड़ा दानी माना है। ने एक बार कृष्ण से पूछा की सब कर्ण की इतनी प्रशांसा क्यों करते हैं? तब कृष्ण ने दो पर्वतों को सोने में बदल दिया और अर्जुन से कहा के इस सोने को गांव वालों में बांट दो। अर्जुन ने सारे गांव वालों को बुलाया और पर्वत काट-काट कर देने लगे और कुछ समय बाद थक कर बैठ गए। तब कृष्ण ने कर्ण को बुलाया और सोने को बांटने के लिए कहा, तो कर्ण ने बिना कुछ सोचे समझे गांव वालों को कह दिया के ये सारा सोना गांव वालों का है और वे इसे आपस में बांट ले। तब कृष्ण ने अर्जुन को समझाया के कर्ण दान करने से पहले अपने हित के बारे में नहीं सोचता। इसी बात के कारण उन्हें सबसे बड़ा दानवीर कहा जाता है।

 
भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा। दोनों ने मिलकर योजना बनाई और इंद्र एक विप्र के वेश में कर्ण के पास पहुंच गए और उनसे दान मांगने लगे। कर्ण ने कहा मांगों। विप्र बने इंद्र ने कहा, नहीं पहले आपको वचन देना होगा कि मैं जो मांगूगा आप वो दे देंगे। कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए। तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए।
 
एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और विप्रवर को सौंप दिए। इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। लेकिन कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा। तब इंद्र ने कर्ण को कवच कुंडल के बदले अमोघ अस्त्र दिया।
 
2.कुंती को दान में दिया वचन : 
 
एक बार कुंती कर्ण के पास गई और उससे पांडवों की ओर से लड़ने का आग्रह करने लगी। कर्ण को मालूम था कि कुंती मेरी मां है। कुंती के लाख समझाने पर भी कर्ण नहीं माने और कहा कि जिनके साथ मैंने अब तक का अपना सारा जीवन बिताया उसके साथ मैं विश्‍वासघात नहीं कर सकता। तब कुंती ने कहा कि क्या तुम अपने भाइयों को मारोगे? इस पर कर्ण ने बड़ी ही दुविधा की स्थिति में वचन दिया, 'माते, तुम जानती हो कि कर्ण के यहां याचक बनकर आया कोई भी खाली हाथ नहीं जाता अत: मैं तुम्हें वचन देता हूं कि अर्जुन को छोड़कर मैं अपने अन्य भाइयों पर शस्त्र नहीं उठाऊंगा।'
 
3.कृष्ण ने ली दान की परीक्षा : 
 
जब महाराज इंद्रप्रस्थ पर राज्य करते थे तब वे काफी दान आदि दिया करते थे। पांडवों को इसका अभिमान होने लगा। भीम व अर्जुन ने श्रीकृष्ण के समक्ष युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की कि वे कितने बड़े दानी हैं। लेकिन कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोककर कहा- हमने कर्ण जैसा दानवीर कहीं नहीं देखा। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। तब कृष्ण ने कहा कि समय आने पर सिद्ध कर दूंगा। कुछ ही दिनों बाद एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्राह्मण हूं और मेरा व्रत है कि बिना हवन किए कुछ भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, मुझ पर कृपा करें, अन्यथा हवन तो पूरा नहीं ही होगा, मैं भी भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।

युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार के कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया। संयोग से कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़- धूप के बाद भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ। ब्राह्मण यह सुनकर खुश हो गए। बोला कहां पर। तब भगवान ने अर्जुन व भीम का भी वेष बदलकर ब्राह्मण के संग लेकर चल दिए।। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी सूखी लकड़ी नहीं थी। ऐसे में ब्राह्मण निराश हो गया। अर्जुन और भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान कृष्ण को ताकने लगे। लेकिन श्री कृष्ण अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए चुपचाप बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, हे ब्राह्मण देव! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास। उसने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा, आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए। कर्ण ने लकड़ी ब्राह्मण के घर पहुंचाने का प्रबंध भी कर दिया। ब्राह्मण कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए। वापस आकर भगवान ने कहा, साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है। अन्यथा हे युधिष्ठिर! चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।
 
4.यौवन दान दे दिया : किंवदंती है कि एक बार कर्ण ने अपना यौवन ही दान दे दिया था। कथा अनुसार एक बार की बात है के महल पर भगवान नारायण स्वयं विप्र के वेश में पधारे और दुर्योधन के भिक्षा मांगने लगे।
 
दुर्योधन के द्वार पर आकर एक विप्र ने अलख जगाई, 'नारायण हरि! भिक्षां देहि!'...
दुर्योधन ने स्वर्ण आदि देकर विप्र का सम्मान करना चाहा तो विप्र ने कहा, 'राजन! मुझे यह सब नहीं चाहिए।'
दुर्योधन ने आश्चर्य से पूछा, 'तो फिर महाराज कैसे पधारे?'
विप्र ने कहा, 'मैं अपनी वृद्धावस्था से दुखी हूं। मैं चारों धाम की यात्रा करना चाहता हूं, जो युवावस्था के स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है इसलिए यदि आप मुझे दान देना चाहते हैं तो यौवन दान दीजिए।'
दुर्योधन बोला, 'भगवन्! मेरे यौवन पर मेरी सहधर्मिणी का अधिकार है। आज्ञा हो तो उनसे पूछ आऊं?'
विप्र ने सिर हिला दिया। दुर्योधन अंत:पुर में गया और मुंह लटकाए लौट आया। विप्र ने दुर्योधन के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह स्वत: समझ गए और वहां से चलते बने। उन्होंने सोचा, अब महादानी कर्ण के पास चला जाए। कर्ण के द्वार पहुंच कर विप्र ने अलख जगाई, 'भिक्षां देहि!'
कर्ण तुरंत राजद्वार पर उपस्थित हुआ, विप्रवर! मैं आपका क्या अभीष्ट करूं?'
विप्र ने दुर्योधन से जो निवेदन किया था, वही कर्ण से भी कर दिया। कर्ण उस विप्र को प्रतीक्षा करने की विनय करके पत्नी से परामर्श करने अंदर चला गया लेकिन पत्नी ने कोई न-नुकुर नहीं की। वह बोली, 'महाराज! दानवीर को दान देने के लिए किसी से पूछने की जरूरत क्यों आ पड़ी? आप उस विप्र को नि:संकोच यौवन दान कर दें।' कर्ण ने अविलम्ब यौवन दान की घोषणा कर दी। तब विप्र के शरीर से स्वयं भगवान विष्णु प्रकट हो गए, जो दोनों की परीक्षा लेने गए थे।
 
5.सोने के दांतों का दान :
 
कर्ण दान करने के लिए काफी प्रसिद्ध था। कहते हैं कि कर्ण जब युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस ले रहा था तो भगवान कृष्ण ने उसकी दानशीलता की परीक्षा लेनी चाही। वे गरीब ब्राह्मण बनकर कर्ण के पास गए और कहा कि तुम्हारे बारे में काफी सुना है और तुमसे मुझे अभी कुछ उपहार चाहिए। कर्ण ने उत्तर में कहा कि आप जो भी चाहें मांग लें। ब्राह्मण ने सोना मांगा। कर्ण ने कहा कि सोना तो उसके दांत में है और आप इसे ले सकते हैं। ब्राह्मण ने जवाब दिया कि मैं इतना कायर नहीं हूं कि तुम्हारे
दांत तोड़ूं। कर्ण ने तब एक पत्थर उठाया और अपने दांत तोड़ लिए। ब्राह्मण ने इसे भी लेने से इंकार करते हुए कहा कि खून से सना हुआ यह सोना वह नहीं ले सकता। कर्ण ने इसके बाद एक बाण उठाया और आसमान की तरफ चलाया। इसके बाद बारिश होने लगी और दांत धुल गया।
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आत्महत्या करने के बाद क्या होता है आत्मा के साथ, जानिए रहस्य...

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हिन्दू धर्मानुसार मरने के बाद आत्मा की मुख्यतौर पर तीन तरह की गतियां होती हैं- 1.उर्ध्व गति, 2.स्थिर गति और 3.अधोगति। इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है। 

पहली बात तो यह कि आत्महत्या शब्द ही गलत है, लेकिन यह अब प्रचलन में है। आत्मा की किसी भी रीति से हत्या नहीं की जा सकती। हत्या होती है शरीर की। इसे स्वघात या देहहत्या कह सकते हैं। दूसरों की हत्या से ब्रह्म दोष लगता है लेकिन खुद की ही देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जिस देह ने आपको कितने भी वर्ष तक इस संसार में रहने की जगह दी। संसार को देखने, सुनने और समझने की शक्ति दी। जिस देह के माध्यम से आपने अपनी प्रत्येक इच्‍छाओं की पूर्ति की उस देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जरा सोचिए इस बारे में। आपका कोई सबसे खास, सगा या अपना कोई है तो वह है आपकी देह।

वैदिक ग्रंथों में आत्मघाती दुष्ट मनुष्यों के बारे में कहा गया है:-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।
तास्ते प्रेत्यानिभगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:।।
अर्थात: आत्मघाती मनुष्य मृत्यु के बाद अज्ञान और अंधकार से परिपूर्ण, सूर्य के प्रकाश से हीन, असूर्य नामक लोक को गमन कहते हैं।

अधर में लटक जाती आत्मा :
गरूड़ में जीवन और मृत्‍यु के हर रूप का वर्णन किया गया है। आत्‍महत्‍या को निंदनीय माना जाता है, क्‍योंकि धर्म के अनुसार कई योनियों के बाद मानव जीवन मिलता है ऐसे में उसे व्‍यर्थ गंवा देना मूर्खता और अपराध है।
 
कहते हैं कि जो व्‍यक्ति आत्‍महत्‍या करता है उसकी आत्‍मा हमारे बीच ही भटकती रहती है, न ही उसे स्‍वर्ग/नर्क में जाने को मिलता है न ही वह जीवन में पुन: आ पाती है। ऐसे में आत्‍मा अधर में लटक जाती है। ऐसे आत्मा को तब तक ठिकाना नहीं मिलता जब तक उनका समय चक्र पूर्ण नहीं हो जाता है। इसीलिए आत्‍महत्‍या करने के बाद जो जीवन होता है वो ज्‍यादा कष्‍टकारी होता है।
 
जीवन के चक्र को समझना जरूरी है : जैसे पूर्ण पका फल ही खाने योग्य होता है। जब फल पक जाता है तभी वह वृक्ष को त्याग कर खुद ही वृक्ष बनने की राह पर निकल पड़ता है। इसी तरह पूर्ण आयु जीकर मरा मनुष्य अच्छे जीवन के लिए निकल पड़ता है। कहते हैं कि मानव जीवन के 7 चरण होते हैं और प्राकृतिक प्रक्रिया के अनुसार, एक के पूरा होने के बाद ही दूसरी शुरू होती है। इसका सही समय और सही क्रम होता है। ऐसे में समय से पूर्व ही मृत्‍यु हो जाने से क्रम गड़बड़ हो जाता है। जिन व्‍यक्तियों की मृत्‍यु प्राकृतिक कारणों से होती है उनकी आत्‍मा भटकती नहीं और नियमानुसार उनके जीवन के 7 चरण पूरे हो चुके होते हैं। लेकिन जिन लोगों की मृत्‍यु, आत्‍महत्‍या करने के कारण होती है वो चक्र को पूरा न कर पाने के कारण अधर में रह जाते हैं।
 
मरने के बाद कब मिलता है दूसरा शरीर?
उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर मौकों पर तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में।
 
बहुत कम ऐसे लोग हैं जिन्हें 40 दिन बाद भी शरीर नहीं मिलता। उनमें से अधिकतर घटना, दुर्घटना में मारे गए या आत्महत्या वाले लोग ही ज्यादा होते हैं। ऐसे लोग यदि प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।
 
किसे कहते हैं भूत : जिसका कोई वर्तमान न हो, केवल अतीत ही हो वही भूत कहलाता है। अतीत में अटका आत्मा भूत बन जाता है। जीवन न अतीत है और न भविष्य वह सदा वर्तमान है। जो वर्तमान में रहता है वह मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।
 
इसी तरह जब कोई स्त्री मरती है तो उसे अलग नामों से जाना जाता है। माना गया है कि प्रसुता, स्त्री या नवयुवती मरती है तो चुड़ैल बन जाती है और जब कोई कुंवारी कन्या मरती है तो उसे देवी कहते हैं। जो स्त्री बुरे कर्मों वाली है उसे डायन या डाकिनी करते हैं। इन सभी की उत्पति अपने पापों, व्याभिचार से, अकाल मृत्यु से या श्राद्ध न होने से होती है। इसी तरह जब कोई पुरुष मरता है तो वह भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल या क्षेत्रपाल हो जाता है।
 
अतृप्त आत्माएं बनती है भूत : जो व्यक्ति भूखा, प्यासा, संभोगसुख से विरक्त, राग, क्रोध, द्वेष, लोभ, वासना आदि इच्छाएं और भावनाएं लेकर मरा है अवश्य ही वह भूत बनकर भटकता है। और जो व्यक्ति दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या आदि से मरा है वह भी भू‍त बनकर भटकता है। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा को तृप्त करने के लिए श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। जो लोग अपने स्वजनों और पितरों का श्राद्ध और तर्पण नहीं करते वे उन अतृप्त आत्माओं द्वारा परेशान होते हैं।
 
अकाल मृत्यु क्या होती है?
अकाल का अर्थ होता है असमय। प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा या प्रकृति की ओर से एक निश्चित आयु मिली हुई है। उक्त आयु के पूर्व ही यदि व्यक्ति हत्या, आत्महत्याण, दुर्घटना या रोग के कारण मर जाता है तो उसे अकाल कहते हैं। उक्त में से आत्महत्या सबसे बड़ा कारण होता है। शास्त्रों में आत्महत्या करना अपराध माना गया है। आत्महत्या करना निश्चित ही ईश्वर का अपमान है। जो व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है वह मृत्यु के उपरांत तुरंत ही प्रेत बनकर अनिश्चित काल के लिए भटकता रहता है। उसे उस दौरान अनेक कठिनाइयों को सहना होता है। पीड़ा और पछतावा ही उसके प्रेत जीवन का प्रसंग बन जाता है।

पं. श्रीराम शर्मा 'आचार्य' कहते हैं कि मरने के उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है।

पंडितजी का मानना है कि मरणोपरांत की थकान दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं।
 
यदि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अत्यन्त विवश होकर आत्महत्या कर रहा है तो उसकी कोई इच्छा अधूरी रह गई है या वह गहरे तनाव के कारण ऐसा कर रहा है। ऐसी आत्मा की मुक्ति मुश्‍किल होती है। मुक्ति का अर्थ है या तो नया शरीर मिल जाए या मोक्ष मिल जाए। संतों तक को मोक्ष नहीं मिलता तो सामान्य की बात अलग है। अत: परेशान या अतृप्त आत्मा मुक्ति नहीं हो पाती और वह भूत, प्रेत या पिशाच जैसी योनि धारण कर भटकती रहती है। वह कम से कम तब तक भटकती है जब तक की उसके मृत शरीर की निर्धारित उम्र पूर्ण नहीं हो जाती या फिर श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक कार्य से उसे मुक्ति नहीं मिलती।

आत्महत्या के बाद भी मिलता है नया जीवन
हिंदू धर्म अनुसार आत्महत्या करने के बाद भी व्यक्ति को जल्द ही दूसरा जन्म मिल सकता है लेकिन शर्त यह है कि उस व्यक्ति ने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए हो और उसकी कोई इच्छा नहीं रही हो। ऐसा शांत चित्त व्यक्ति भी अपने अगले जीवन की यात्रा पर निकल सकता है। हालांकि उसे अपनी देह की उम्र का समय सूक्षात्मा के रूप में रहकर ही भूगतना होता है। लेकिन यहां यह स्पष्ट कर देना उचित है कि ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष तो जन्म और मरण से मुक्त होकर अपने आनंदस्वरूप में स्थित होना होता है। आत्महत्या करने का अर्थ ही यही है कि आप अभी मानसिकरूप से परिपक्व नहीं हैं।
 
गुरूड़ पुराण में आत्महत्या के कारणों से मृत आत्मा की शांति हेतु कई उपाय बताए गए हैं। इसमें मृत आत्मा हेतु तर्पण करना, सद्कर्म करना (दान, पुण्य और गीता पाठ), पिंडदान करना, मृत आत्मा की अधूरी इच्छा को पूर्ण करना प्रमुख है। यह कार्य कम से कम तीन वर्ष तक चलने चाहिए तभी मृत आत्मा को मुक्ति मिलती है। तर्पण करने, धूप देने आदि से मृत आत्माएं तृप्त होती है। तृप्त और संतुष्ट आत्माएं ही दूसरा शरीर धारण कर सकती है या वैकुंठ जा सकने में समर्थ हो पाती है।
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क्यों जरूरी है मूल नक्षत्र की शांति, पढ़ें यह जरूरी जानकारी.....

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संतान का जन्म किसी भी परिवार के लिए खुशहाली व उत्सव का आधार होता है। ज्योतिष शास्त्र में शिशु के जन्म का समय अतिमहत्वपूर्ण होता है। किंतु जन्म समय को लेकर ज्योतिषाचार्यों में मतभेद हैं कि सही जन्म समय किसे माना जाए? कुछ शिशु के रोदन अर्थात रोने को सही जन्म समय मानते हैं, कुछ शिशु के बाहर आने को सही जन्म समय मानते हैं वहीं अधिकांश नालच्छेदन अर्थात शिशु की नाल काटने को सही जन्म समय मानते हैं।

यहां हमारा विषय सही जन्म समय से संबंधित न होकर जन्म नक्षत्र से संबंधित है। जिस प्रकार शिशु के जन्म का समय अतिमहत्वपूर्ण है, ठीक उसी प्रकार शिशु के जन्म का नक्षत्र भी अतिमहत्वपूर्ण है।
ज्योतिष शास्त्र में कुछ नक्षत्र ऐसे माने गए हैं जिनमें शिशु का जन्म होना नेष्टकारक होता है जिसे लोकाचार की भाषा में 'मूल' पड़ना कहते हैं। जब किसी शिशु का जन्म 'संज्ञक' नक्षत्रों में होता है तब कुछ विशेष नियमों का पालन करना होता है एवं पुन: उस नक्षत्र के आने पर मूल शांति करानी होती है।
 
आइए जानते हैं कि 'मूल संज्ञक' नक्षत्र कौन से होते हैं? ज्योतिष शास्त्रानुसार 'मूल संज्ञक' नक्षत्रों की संख्या 6 मानी गई है। ये 6 'मूल संज्ञक' नक्षत्र हैं-
 
1. अश्विनी
2. आश्लेषा
3. मघा
4. ज्येष्ठा
5. मूल
6. रेवती
 
उपर्युक्त नक्षत्रों में संतान का जन्म होने पर 'मूल' में जन्म माना जाता है एवं मूल शांति करवाना अनिवार्य होता है।
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दाती महाराज की कहानी, जानें- बरतन धोने वाला कैसे बना ज्योतिषी......

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25 साल की महिला से दुष्कर्म के आरोपी दाती महाराज के जीवन संघर्ष पर नजर डालें तो यह सब किसी रहस्य-रोमांच सरीखा लगता है।

नई दिल्ली (जागरण स्पेशल)। चाय की प्याली उठाने से लेकर टेलीविजन चैनलों पर सर्वाधिक लोकप्रिय बाबा बनने वाला दाती महाराज एक दिन 25 वर्षीय युवती से दुष्कर्म के आरोपों के चलते दर-दर फिरेगा, यह किसी ने सोचा तक नहीं था। अगर दाती महाराज के जीवन संघर्ष पर नजर डालें तो यह सब किसी रहस्य-रोमांच सरीखा लगता है। दरअसल, बाबा दाती महाराज की कहानी किसी फिल्म की तरह है, जिसमें जगह-जगह ट्विस्ट आते हैं। 

चाय की दुकान खोली फिर टैंट हाउस का काम शुरू किया

दाती महाराज उर्फ मदनलाल ने कुछ ही सालों में चाय की दुकान से लेकर आलीशान आश्रम तक का सफर तय किया।बचपन में ही सात साल की उम्र में उसके मां-बाप दोनों की मौत हो गई तो काम की तलाश में वह राजस्थान से दिल्ली आ गया। वह दिल्ली के फतेहपुरबेरी में मदनलाल पंडित नाम से चाय की दुकान चलाने लगा। कुछ समय बाद उसने पटरी-बल्ली और शटरिंग की दुकान खोली, फिर ईंट-बालू तथा सीमेंट की दुकान खोली। इसके बाद उसने फतेहपुरबेरी में ही टेंट हाउस खोला।

मदन की जिंदगी ने लिया 360 डिग्री का मोड़

कैटरिंग का काम सीखने के बाद उसके पास इससे पैसे आने लगे। वर्ष 1996 में मदन की जिंदगी तब 360 डिग्री घूम गई, जब उसकी मुलाकात राजस्थान के एक नामी ज्योतिषी से हुई। ज्योतिषी की संगत में मदन ने काम सीखा और एक दिन ऐसा भी आया जब उसने जन्मकुंडली देखना भी सीख लिया।

जमीन पर किया कब्जा भी

 इस सब के दौरान वह कुछ बाबाओं से ज्योतिष का काम भी सीखता रहा। धीरे-धीरे उसने सारे काम छोड़ बाबा का चोला पहनकर फतेहपुरबेरी गांव में ही अपना ज्योतिष केंद्र खोल लिया और अपना नाम बदलकर दाती महाराज रख लिया। फिर इसी जमीन पर उसने शनिधाम मंदिर बना लिया। कुछ साल में ही आस-पास की जमीन पर कब्जा करके आश्रम और ट्रस्ट बना लिए।

सात साल में ही खो दिया था मां-बाप को

टेलीविजन खासकर न्यूज चैनलों पर अपनी जादुई बातों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले दाती महाराज का बचपन बेहद अभाव में गुजरा। अब भी बहुत से लोग ये बात नहीं जानते होंगे कि मदन के दाती महाराज बनने के पीछे क्या कहानी है। दाती महाराज के एक करीबी के मुताबिक, मूलरूप से राजस्थान के पाली जिले के अलावास गांव के रहने वाले दाती का असली नाम मदन लाल है। मदन लाल का जन्म इस गांव में रहने वाले मेघवाल परिवार में जुलाई 1950 में हुआ। जन्म के कुछ समय बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया। मदन जब सात साल का हुआ तो देवाराम की भी मौत हो गई।

पिता बजाते थे ठोलक, मुश्किल से होता था गुजारा

जानकारी के मुताबिक, मेघवाल समुदाय ढोलक बजाकर अपना गुजारा करता था और मदन के पिता देवाराम भी यही काम करते थे। घर के हालात देखकर छोटी उम्र में ही मदन गांव के ही एक व्यक्ति के साथ दिल्ली आ गया। यहां पर मदन ने चाय की दुकान में काम करने जैसे छोटे-मोटे काम किए।

मदन से बन गया दाती महाराज

 ज्योतिषी का काम सीखकर मदन ने जान लिया था कि इस काम में जबरदस्त पैसा और शोहरत भी। फिर क्या था मदन ने कैटरिंग का काम बंद कर दिल्ली की कैलाश कॉलोनी में ज्योतिष केंद्र खोल लिया। जिंदगी में बदलाव आया तो उसने काम पीछे छोड़ने के साथ नाम भी छोड़ दिया और नाम बदलकर दाती महाराज रख लिया।

भविष्यवाणी सच होते ही बदल गई दाती महाराज की दुनिया

 ज्योतिषी बनने के बाद मदन की जिंदगी में बदलाव होने लगा। पैसा तो आ ही रहा था शोहरत भी मिल रही थी। इस बीच एक भविष्यवाणी क्या सच हुई उसकी तो पूरी जिंदगी ही बदल गई। हुआ यूं कि वर्ष 1998 में दिल्ली  विधानसभा चुनाव में दाती महाराज ने एक प्रत्याशी की कुंडली देखी और भविष्यवाणी कर दी कि वह जितेगा। भविष्यवाणी सच भी हो गई। प्रतिदान स्वरूप विधायक का चुनाव जीते नेता ने खुशी में फतेहपुर बेरी स्थित अपने पुश्तैनी मंदिर का काम भी दाती महाराज को दे दिया। इसके बाद दाती महाराज की लोकप्रियता बढ़ी तो दौलत भी बरसने लगी। 

...तो इसलिए खुद रख दिया अपना दाता महाराज नाम

दौलत-शोहरत मिलते ही दाती महाराज ने दिल्ली से बाहर भी उड़ान भरनी शुरू कर दी। हरिद्वार महाकुंभ के दौरान पंचायती महानिर्वाण अखाड़े ने दाती महाराज को महामंडलेश्वर की उपाधि दे दी। इसके बाद शनि मंदिर को श्री सिद्ध शक्तिपीठ शनिधाम पीठाधीश्वर का नाम दे दिया और खुद का नाम श्रीश्री 1008 महामंडलेश्वर परमहंस दाती जी महाराज रख लिया।

टेलीविजन शो ने घर-घर कर दिया लोकप्रिय

21वीं शुरू होते-होते दाती महाराज के लिए बहुत कुछ बदल चुका था। दशक खत्म होते-होते वह न्यूज चैनलों पर भी आने लगा। एक समय ऐसा भी आया, जब लोग खासतौर से उसका शो देखने के लिए लालायित रहते थे। दिल्ली के साथ राजस्थान के आश्रमों में उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। बताया जाता है कि शुरुआत में तो उसने पैसा देकर अपने कार्यक्रम चलवाए, लेकिन फिर डिमांड बढ़ी तो चैनलों ने ही पैसा देकर उसको समय देना शुरू कर दिया। 

कई बड़े नेता आश्रम में आते थे

दाती महाराज ने अपने आश्रम के बाहर बैनर में कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा केंद्रीय मंत्रियों के साथ अपनी तस्वीरें लगा रखी हैं, जिनमें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता शामिल हैं। साथ ही अब तक छतरपुर स्थित आश्रम पर शनि अमावस्या समारोह के दौरान कई बड़े नेता आश्रम में भी आते थे।

आइएएस अफसरों-नेताओं से भी रिश्ते

शिष्या से सामूहिक दुष्कर्म के मामले में फरार दाती महाराज के राजनेताओं और नौकरशाहों से भी संबंध हैं। उसने बड़े-बड़े नेताओं के साथ अपनी फोटो आश्रम समेत पूरी राजधानी में लगवाए हैं। इससे वह अपनी राजनीतिक रसूख दिखाता है। सूत्रों के मुताबिक, दाती महाराज तथा उसके शिष्य अक्सर बड़े नेताओं तक अपनी पहुंच होने की धौंस दिखाकर पीड़िता को पुलिस के पास जाने से रोकते थे, इसीलिए पीड़िता ने दो साल तक सामूहिक दुष्कर्म का दंश झेला।

वहीं, दुष्कर्म पीड़ित युवती दक्षिण दिल्ली में परिवार के साथ रहती है। परिवार में माता-पिता, दो बहन व एक भाई है। दोनों बहनों की शादी हो चुकी है। दक्षिण पूर्व जिला अधिकारियों के अनुसार पीड़ित युवती व परिवार को सुरक्षा मुहैया करा दी गई है। सादी वर्दी में पुलिसकर्मियों की तैनाती के अलावा बीट स्टाफ भी तैनात कर दिया गए हैं।पुलिस ने बताया है कि मजिस्ट्रेट के सामने पीड़िता का बयान दर्ज करा दिया गया है। पुलिस ने कहा कि आरोपी देश छोड़कर फरार न हो जाए, यह सुनिश्चत करने के लिए लुकआउट सर्कुलर जरी किया गया है। एक ओर जहां पुलिस ने दुष्कर्म आरोपी के खिलाफ लुक आउट नोटिस जारी कर दिया है वहीं, दाती महाराज ने समाचार एजेंसी एएनआइ से कहा कि वे पुलिस जांच में पूरा सहयोग करेंगे।
 

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