Sunday, 27 October 2024

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सभी महारथियों की सेनाओं को मिलाकर कुल 45 लाख से ज्यादा लोगों ने इस में भाग लिया था....

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श्रीकृष्ण की 1 अक्षौहिणी नारायणी सेना मिलाकर कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी तो पांडवों ने 7 अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली थी। इस तरह सभी महारथियों की सेनाओं को मिलाकर कुल 45 लाख से ज्यादा लोगों ने इस में भाग लिया था। कौरवों की सेना में एक से बढ़कर एक महारथी थे। भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, मद्रनरेश शल्य, भूरिश्र्वा, अलम्बुष, कृतवर्मा, कलिंगराज, श्रुतायुध, शकुनि, भगदत्त, जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज, सुदक्षिण, बृहद्वल, व उसके 99 भाई सहित अन्य हजारों यौद्धा थे।
 
पांडवों की ओर भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन, युधिष्टर, द्रौपदी के पांचों पुत्र, सात्यकि, उत्तमौजा, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, पाण्ड्यराज, घटोत्कच, शिखण्डी, युयुत्सु, कुन्तिभोज, उत्तमौजा, शैब्य और अनूपराज नील जैसे योद्ध थे।

कहने का मतलब यह कि सैन्य बल, शारीरिक आदि शक्ति में हर तरह से पांडवों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली और पराक्रमी थे लेकिन फिर भी वे हार गए। उनकी हार के कई कारण हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण यह था कि कौरवों की ओर कृष्ण जैसा कोई भगवान नहीं था। और भगवान सिर्फ उधर ही होते हैं जिधर सत्य होता है। अब जानते हैं कि ने पांडवों को किस तरह जिताया, जबकि हर दिन युद्ध में पक्ष के हजारों सैनिक मारे जाते थे।

युद्ध की घोषणा से कहीं पहले ही श्री कृष्ण ने इस युद्ध में पांडवों की विजय सुनिश्चित करने के लिए अपनी रणनीति पर काम करने प्रारंभ कर दिया था। श्री कृष्ण चाहते थे कि युद्ध उनके अनुसार ही संचालित हो। इसीलिए उन्होंने सबसे पहले उन योद्धाओं को रास्ते से हटाना शुरू किया जो युद्ध में तबाही मचा सकते थे।
 
भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। तब श्रीकृष्ण ने देवराज इंद्र के साथ मिलकर एक योजना बनाई। इंद्र एक विप्र के वेश में कर्ण से दान मांगने पहुंच गए। दानवीर कर्ण ने कहा, मांगों क्या मांगते हो?

विप्र बने इंद्र ने कहा कि मैं जो मागूंगा वह तुम दे न सकोगे। कर्ण ने कहा कि इस दर से कभी कोई खाली नहीं गया है।...विप्र ने कहा तब फिर पहले आप संकल्प लें। कर्ण संकल्प ले लेता है। फिर विप्र बने इंद्र कर्ण से उनके कवच और कुंडल मांग लेते हैं। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और विप्र बने इंद्र को सौंप दिए।
 
इंद्र वह कवच और कुंडल लेकर तुरंत भाग लेते हैं। लेकिन आगे जाकर उनका रथ भूमि में धंस जाता है और आकाशवाणी होती है कि इंद्र तुमने छल किया है इसलिए तुम और तुम्हारा रथ इसी भूमि में धंसा रहेगा। तब इंद्र कहते हैं कि इससे मुक्ति का कोई उपाय। आकाशवाणी होती है कि तुम इसी वक्त जाओं और कर्ण को कुछ देकर आओ। इंद्र जाते हैं और कर्ण को अपना अमोघ अस्त्र देकर कहते हैं कि यह अस्त्र तुम एक बार किसी पर भी चला देना वह तुरंत ही मारा जाएगा। यह अस्त्र अचूक है। इसके कोई रोक नहीं पाएगा और यह खाली नहीं जाएगा। जिस पर भी चलाओगे उसकी मौत तय है। कर्ण उस अस्त्र को युद्ध में अर्जुन पर चलाने की सोच कर रख लेता है।
 
घटोत्कच : घटोत्कच एक ऐसा योद्ध था जो अकेले ही सभी कौरव सैनिकों को मारने की क्षमता रखता था। कृष्ण ये बात जानते थे। लेकिन तब फिर युद्ध करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। फिर तो अकेले घटोत्कच को ही भेज देते नाहक इतनी सेना लगाने का क्या मतलब। लेकिन कृष्ण जानते थे कि कब किसी युद्ध में लगाने और कब किसे मरना है। जैसे शतरंज की चाल में कई देफे किसी पड़ी सफलता के लिए अपने ही प्यादे को मरने के लिए छोड़ देना होता है वैसे ही श्रीकृष्ण ने किया।
 
तब युद्ध में कौरव पक्ष ने बढ़त हासिल कर ली थी और चारों और पांडवों की सेना में हाहाकार मचा हुआ था तब श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को युद्ध में उतार दिया। युद्ध में जब घटोत्कच ने कौरवों की सेना को कुचलना शुरू किया तो दुर्योधन घबरा गया और ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। तब कृष्ण ने दुर्योधश्र के सामने कर्ण से कहा कि आपके पास तो अमोघ अस्त्र है जिसके प्रयोग से कोई बच नहीं सकता तो आप उसे क्यों नहीं चलाते?
 
कर्ण कहने लगा नहीं ये अस्त्र तो मैंने अर्जुन के लिए बचा कर रखा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन पर तो तुम तब चलाओंगे जब ये कौरव सेना बचेगी, ये दुर्योधन बचेगा। जब ये सभी घटोत्कच के हाथों मारे जाएंगे तो फिर उस अस्त्र के चलाने का क्या फायदा? दुर्योधन को ये बात समझ में आती है और वह कर्ण से अमोघ अस्त्र चलाने की जिद करने लगता है। कर्ण मजबूरन इंद्र द्वारा दिया गया वह अमोघ अस्त्र घटोत्कच के उपर चला देता है। इस तरह भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बचा लेते हैं।
 
जयद्रथ : युद्ध में जयद्रथ के कारण अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया था और दुर्योधन आदि योद्धाओं ने एक साथ मिलकर उसे मार दिया था। इस जघन्नय अपराध के बाद अर्जुन प्रण लेते हैं कि अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध नहीं कर पाया तो मैं स्वयं अग्नि समाधि ले लूंगा। इस प्रतिज्ञा से कौरवों में हर्ष व्याप्त हो जाता है और पांडवों में निराशा फैल जाती है।
 
कौरव किसी भी प्रकार से जयद्रथ को सूर्योस्त तक बचाने और छुपाने में लग जाते हैं। जब काफी समय तक अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुंच पाया तो श्रीकृष्ण ने अपनी माया से सूर्य को कुछ देर के लिए छिपा दिया, जिससे ऐसा लगने लगा कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त समझकर जयद्रथ खुद ही अर्जुन के सामने हंसता हुआ घमंड से आ खड़ा होता है। तभी उसी समय सूर्य पुन: निकल आता है और अर्जुन तुरंत ही पलटकर जयद्रथ का वध कर देता है।
 
भीष्म : महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से सेनापति थे। भीष्म घोर युद्ध करते हुए न केवल पांडवों की सेना के हजारों सैनिकों का संहार कर दिया बल्कि अर्जुन को घायल कर उनके रथ को भी जर्जर कर दिया था। ऐसे में श्रीकृष्ण को एक युक्ति समझ में आती है और कृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।
 
दरअसल, भीष्म ने अपनी मृत्यु का रहस्य यह बताया था कि वे किसी नपुंसक व्यक्ति के समक्ष हथियार नहीं उठाएंगे। इसी दौरान उन्हें मारा जा सकता है। इस नीति के तरह युद्ध में भीष्म के सामने शिखंडी को उतारा जाता है और उसी दौरान भीष्म को अर्जुन तीरों से छेद देते हैं। वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं और भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट जाते हैं।
 
द्रोण : भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद अश्‍वत्थामा के पिता द्रोण सेनापति बनकर युद्ध में कोहराम मचा देते हैं। पिता पुत्र की जोड़ी मिलकर युद्ध में मौत का तांडव खेलते हैं। इससे पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पांडवों की हार होते हुए देखकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से भेद का सहारा लेने को कहते हैं। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्‍ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्‍वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।
 
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे जाने की सत्यता जानना चाही तो जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय जोर से शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह सब कृष्ण की नीति के चलते हुआ, जिसकी बाद में बहुत आलोचना हुई।
 
कर्ण : कवच कुंडल उतर जाने के बाद, अमोघ अस्त्र नहीं होने के बावजूद कर्ण में अपार शक्तियां थी। युद्ध के सत्रहवें दिन शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया। इस दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हराकर कुंती को दिए वचन को स्मरण कर उनके प्राण नहीं लेता। बाद में वह अर्जुन से युद्ध करने लग जाता है। कर्ण तथा अर्जुन के मध्य भयंकर युद्ध होता है। तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया भूमी में धंस जाता है। इसी मौके का लाभ उठाने के लिए श्रीकृष्ण अर्जुन से तीर चलाने को कहते हैं। बड़े ही बेमन से अर्जुन असहाय अवस्था में कर्ण का वध कर देता है। इसके बाद कौरव अपना उत्साह हार बैठते हैं। उनका मनोबल टूट जाता है। फिर शल्य प्रधान सेनापति बनाए जाते हैं, परंतु उनको भी युधिष्ठिर दिन के अंत में मार देते हैं।
 
दुर्योधन: यदि दुर्योधन का संपूर्ण शरीर वज्र के समान बन जाता तो फिर उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। दरअसल, दुर्योधन की माता गांधारी ने अपने पुत्र को अपने पास नग्न अवस्था में बुलाया था ताकि वह अपनी आंखों के तेज से अपने पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर कर दें। माता की आज्ञा का पालन करने के लिए दुर्योधन भी नग्न अवस्था में ही जा रहा था, तभी रास्ते में श्री कृष्ण ने दुर्योधन को रोककर कहा कि इस अवस्था में माता के सामने जाओगे तो तुम्हें शर्म नहीं आएगी? क्या यह पाप नहीं होगा?

यह सुनकर दुर्योधन ने अपने पेट के नीचे जांघ वाले हिस्से पर केले का पत्ता लपेट लिया और इसी अवस्था में गांधारी के सामने पहुंच गया। गांधारी ने अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर पर दिव्य दृष्टि डाली। इस दिव्य दृष्टि के प्रभाव से दुर्योधन की जांघ के अलावा पूरा शरीर लोहे के समान हो गया। युद्ध में भीम ने दुर्योधन की जांघ उखाड़ कर फेंक दी थी जिसके चलते उसकी मृत्यु हो गई थी।
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आपकी हर परेशानी का हल है रुद्राक्ष.....


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हिंदू धर्म में रुद्राक्ष को बहुत ही पवित्र माना जाता है कहते हैं इसे धारण करने से मनुष्य सकारात्मक ऊर्जा से घिरा रहता है और हर तरह की हानिकारक ऊर्जा को दूर रखता है। रुद्राक्ष से मनुष्य को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक लाभ भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि रुद्राक्ष भोलेनाथ की कृपा का प्रतीक है। कहते हैं एक बार महादेव अपने भक्तों के कल्याण हेतु ध्यान साधना में लीन थे जब उन्होंने अपनी आँखें खोली तो अपने भक्तों के कष्ट को देखकर उनकी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। उन्हीं आंसुओं से रुद्राक्ष नामक वृक्ष उत्पन्न हुआ। रुद्राक्ष का अर्थ है रूद्र यानी शिव और अक्ष यानी आंसू। रुद्र-अक्ष इस प्रकार रुद्राक्ष वृक्ष के बीज बन गए।

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रुद्राक्ष के मनके को एक माला में पिरोकर उसे पहना जाता है। इस माला को केवल तपस्वी ही नहीं बल्कि आम लोग भी पहन सकते हैं। यह माला न सिर्फ हमें नकारात्मक ऊर्जा से बचाती है, इसका प्रयोग हमारे पवित्र मंत्रों का जाप करने के लिए भी होता है। हिंदू धर्म में हम मंत्र जाप के लिए रुद्राक्ष माला का उपयोग करते हैं। इस माला में दानों की संख्या 108 होती है। शास्त्रों में इस संख्या 108 को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है। हालांकि ऐसा कहा जाता है कि रुद्राक्ष की माला में 108 दानों के आलावा एक दाना और होना चाहिए क्योंकि अगर मंत्रों का जाप करने वाला व्यक्ति संवेदनशील होता है तो उसे चक्कर आने लगते हैं। यह अतिरिक्त मनका उसे ऐसी स्थिति से बचने में मदद करता है। इसके अलावा, एक वयस्क को कभी भी संख्या में 54 से कम दानों की माला नहीं पहननी चाहिए। आइए जानते हैं रुद्राक्ष के महत्व और उससे जुड़ी कुछ और ख़ास बातें।

रुद्राक्ष के प्रकार रुद्राक्ष कई प्रकार के होते हैं। इसे इनके मुख के आधार पर अलग अलग नाम दिए गए हैं जैसे एक मुखी, दो मुखी, तीन मुखी आदि। हर एक का अपना एक अलग ही महत्व होता है।

एक मुखी: एक मुखी रुद्राक्ष को सबसे चमत्कारी माना गया है। इसे धारण करने से मनुष्य को शक्ति और सुख दोनों की प्राप्ति होती है। इसके प्रभाव से एकाग्रता बढ़ती और बेहतर होती है।

दो मुखी: दो मुखी रुद्राक्ष को माता पार्वती और शिव जा का रूप माना जाता है। कहते हैं ये मानसिक शान्ति प्रदान करता है और साथ ही मनोवांछित फल की भी प्राप्ति होती है। इसके अलावा इस रुद्राक्ष को धारण करने वाले का संबंध अपने गुरु, माता-पिता, मित्र या पति/पत्नी से बहुत ही मधुर रहता है। यह रुद्राक्ष जीवन में प्यार और शान्ति बनाए रखता है।

तीन मुखी: यह रुद्राक्ष त्रिदेव रूप माना जाता है जो विद्या और सिद्धि प्रदान करता है। इतना ही नहीं यह रुद्राक्ष आत्मविश्वास को बढ़ाता है और साथ ही सभी पापों से मुक्ति दिलाता है।

चार मुखी: इस रुद्राक्ष को ब्रह्मरूप कहा गया है। यह चतुर्विध फल प्रदान करता है। साथ ही इसे धारण करने से रचनात्मकता और बुद्धि भी बढ़ती है। इसके अलावा धारण करने वाले व्यक्ति की स्मरणशक्ति भी अच्छी हो जाती है।

पांच मुख: इसे पंचमुख शिव स्वरूप कहते हैं जिसे धारण करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। यह उक्त रक्तचाप से पीड़ित लोगों के लिए बहुत ही लाभदायक माना गया है। इसके प्रभाव से मनुष्य की सेहत अच्छी रहती है और जीवन में सुख और समृद्धि का आगमन होता है।

छह मुखी: इसे भगवान कार्तिकेय का रूप माना गया है। यह हर प्रकार की बुराई का अंत करता है। यह मनुष्य के सभी दुःख दूर करता है और उसे रिद्धि सिद्धि की प्राप्ति होती है।

सात मुखी: सात मुखी को अनंत कहा जाता यह मनुष्य के जीवन से सभी तरह के दुःख और दरिद्रता को दूर करता है। साथ ही अपार धन की प्राप्ति होती है। यह उन लोगों के लिए बहुत ही लाभदायक माना गया है जिन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं आ रही हों।

आठ मुखी: इसे अष्टमूर्ति भैरवरूप माना जाता है। इसे धारण करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर होते हैं और वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। इसके अलावा मनुष्य के जीवन में शान्ति बनी रहती है। नौ मुखी: यह मनुष्य को सर्वेश्वर बनाता है। इसे धारण करने से मनुष्य को शिव जी की कृपा तो प्राप्त होती ही है, साथ ही उसे शक्ति और ऊर्जा भी मिलती है।

दस मुखी: इस रुद्राक्ष में विष्णु जी का वास होता है। इसे धारण करने से समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है। साथ ही सभी पापों का नाश हो जाता है।

ग्यारह मुखी: इस रुद्राक्ष को धारण करने से व्यक्ति को सफलता और जीत हासिल होती है। साथ ही यह मानसिक शान्ति प्रदान करता है।

बारह मुखी: इसे धारण करने से व्यक्ति की कीर्ति और यश सूर्य की तरह बढ़ती है।

तेरह मुखी: यह सौभाग्य और मंगल देने वाला रुद्राक्ष माना गया है। इसे धारण करने से मान सम्मान में वृद्धि होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।

चौदह मुखी: इसे परम शिव रूप माना गया है जिसे धारण करने से शान्ति और सभी पापों से मुक्ति मिलती है।

पंद्रह मुखी: इसमें भगवन पशुपति का वास होता है। इसे धारण करने से स्वास्थ्य लाभ मिलता है और साथ ही आर्थिक समस्याएं भी दूर होती हैं।

सोलह मुखी: जिस भी घर में यह रुद्राक्ष होता है वह घर हमेशा चोरी, डकैती और आग जैसी चीज़ों से सुरक्षित रहता है।

सत्रह मुखी: इसे धारण करने से भगवान विश्वकर्मा का आशीर्वाद प्राप्त होता है। साथ ही मनुष्य को कभी कोई आर्थिक समस्या नहीं होती है।

अठारह मुखी: इसे धारण करने से व्यक्ति के जीवन में सुख, शान्ति और समृद्धि आती है। यह गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत ही लाभदायक माना जाता है।

उन्नीस मुखी: इसे धारण करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और उसका जीवन सुखमय बन जाता है।

बीस मुखी: इसे धारण करने से शिवजी का आशीर्वाद प्राप्त होता है और मनुष्य की सभी इच्छाएं पूर्ण होती है। इससे मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।

इक्कीस मुखी: कहा जाता है कि इस रुद्राक्ष में सभी देवी देवताओं का वास होता है। इसे धारण करने से न सिर्फ भगवान का आशीर्वाद मिलता है बल्कि सारी सुख सुविधा भी प्राप्त होती है और अंत में व्यक्ति को मोक्ष भी मिल जाता है।

गौरी शंकर: इसमें दो दाने एक साथ जुड़े होते हैं। इस रुद्राक्ष की पूजा करने से परिवार में सुख और शांति बनी रहती है, साथ ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।


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बुरे वक़्त में कैसे करें अपनों और गैरों की पहचान, जानिए चाणक्य से....

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क्या आपने कभी अपने नौकरों पर संदेह किया है, क्या आप अपने किसी रिश्तेदार पर ज़रुरत से ज़्यादा भरोसा करते हैं, क्या आप यह जानना चाहते हैं कि आपका जीवनसाथी आपके प्रति कितना ईमानदार और सहयोगी है। हो सकता है जैसा आपको दिखता है वास्तव में वो सत्य न हो। किसी गलत इंसान पर भरोसा करने से जब विश्वास टूटता है तो फिर दोबारा किसी पर भरोसा करना बेहद मुश्किल हो जाता है। पर यहां सवाल यह उठता है कि आखिर इस बात का पता कैसे लगाया जाए कि कौन भरोसे के लायक है और कौन नहीं। अकसर हम यह सुनते है कि समय सब कुछ बता देता है, हम समय के अनुसार यह जान सकते हैं कि कौन हमारा अपना है और कौन पराया। साथ ही कौन हमारे प्रति कितना वफादार है और कौन नहीं। जी हाँ यह बिल्कुल सत्य है समय एकमात्र ऐसी परीक्षा है जो इस बात का खुलासा करती है कि हमारे नौकर कितने अच्छे हैं, हमारे रिश्तेदार कितने मददगार है और हमारा जीवनसाथी कितना सहयोगी है।

बुरा वक्त हमें ढेर सारे दुःख देता है लेकिन हमें बहुत कुछ सीखा देता है। इस दौरान हमें अपनी गलतियों का एहसास तो होता ही है साथ ही हमें यह भी पता चल जाता है कि असलियत में कौन हमारा अपना है। इसी बात की तह तक जाने के लिए महान राजनीतिज्ञ चाणक्य ने कुछ सरल उपाय बताये हैं। चाणक्य का मानना था कि अपने नौकर की परीक्षा तब लें जब आप आस पास न हो, अपने रिश्तेदारों को तब परखें जब आप किसी विपत्ति में हो, वहीं अपने जीवनसाथी की परीक्षा तब लें जब बुरे दौर से गुज़र रहे हों।

नौकर को परखें

जब आप घर पर नहीं होते हैं तो ऐसे में आपका नौकर बहुत ही सहज महसूस करता है। वह किसी भी किस्म का दबाव नहीं महसूस करता। यही सबसे सही समय होता है जब हम उनकी ईमानदारी की परीक्षा ले सकते हैं। हो सकता है घर पर मालिक के न होने का वह पूरा फायदा उठाये यानी मेज़ पर रखे हुए पैसे चुरा ले या फिर कोई दूसरा कीमती सामान गायब कर दे। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि वह पैसों और दूसरी कीमती चीज़ों को सही जगह पर सुरक्षित रख दे और आपके लौटने पर सारी चीज़ें आपको सौंप दे और सही ढंग से रखने को कहे।

कोई भी परिस्थिति हो ऐसे में आप यह जान सकते हैं कि आखिर वह कितना वफादार है। वो व्यक्ति जिन पर आप छोटी छोटी चीज़ों को लेकर भी भरोसा नहीं करते वे बिल्कुल भी आपके विश्वास के लायक नहीं होते। अगर वो इंसान आज थोड़े से पैसों की चोरी बड़े ही आसानी से कर लेता है तो ज़रा सोचिये कि कल वो कोई बड़ी चोरी कितने आराम से कर सकता है। इसलिए इस तरह के मामलों में आपको सावधान रहने की ज़रुरत है और ऐसे लोगों को सही तरीक़े से ज़रूर परख लें तभी इन पर भरोसा करें।

विपत्ति में होती है रिश्तेदारों की पहचान

जब आप किसी आर्थिक समस्या से गुज़र रहे होते हैं तो ऐसे में ज़ाहिर सी बात है कि आपको मदद की ज़रुरत पड़ती है और आपके दिमाग में सबसे पहले आपके रिश्तेदारों का ख्याल आता है। इस तरह के बुरे वक़्त में हम यह नहीं सोच पाते कि क्या हमारे ऐसा करने से रिश्ते बिगड़ेंगे या फिर हमारे आत्म सम्मान को चोट पहुंचेगी। उस समय हमें जो ठीक लगता है हम वही करते हैं। हालांकि ऐसा करना हमारे बड़ों की नज़र में गलत होता है क्योंकि उनका मानना है कि इससे रिश्तों में खटास आती है और सही मायनों में यह सत्य है।

लेकिन चाणक्य के अनुसार परेशानी के समय ही हम अपने रिश्तेदारों को सही ढंग से परख सकते हैं। उनका मानना था कि ऐसी स्थिति में दो बातों की परख हो जाएगी एक तो आपके रिश्तेदार आपके दुःख को समझकर फ़ौरन आपकी मदद करेंगे इससे आप यह जान पाएंगे कि वे कितने भरोसे के लायक है और दूसरी बात वे कोई बहाना बनाकर टाल देंगे और मदद से इंकार कर देंगे। इससे आपको यह पता चल जाएगा कि आप गलत रिश्ता निभा रहे थे।

मतलबी और स्वार्थी लोग आपको परेशानी में देख आपसे दूरियां बनाने की कोशिश करेंगे। वहीं जो लोग सच में आपसे प्यार करते हैं और आपकी परवाह करते हैं वो किसी भी तरह से आपको मुसीबत से बाहर निकालने की कोशिश करेंगे। परिवर्तन स्थिर है। समय के साथ आपकी सारी परेशानियां भी दूर हो जाएंगी ख़ास तौर पर आर्थिक समस्या। लेकिन गलत रिश्ते को निभाना आपको ऐसी तकलीफ दे सकता है जिसका दर्द शायद आपको सारी उम्र सहना पड़े। इसलिए इससे पहले कि बहुत देर न हो जाए बेहतर होगा आप अपने रिश्तों की पहचान भली भांति कर लें ताकि आप यह जान सकें कि उनमें से कौन से रिश्ते निभाने लायक हैं और कौन से नहीं।

अतः चाणक्य के अनुसार ज़रुरत के समय हर किसी को अपने रिश्तेदारों की परख ज़रूर कर लेनी चाहिए।

बुरे वक़्त में जीवनसाथी की परख

एक कहावत के अनुसार बदकिस्मत पति का साथ उसकी पत्नी भी नहीं देती। जब एक पति अपना सब कुछ खो चुका होता है तो एक मतलबी पत्नी उसे पैसों की तंगी के कारण कोसने लगती है। अपने तानों से नैतिक रूप से अपने पति को कमज़ोर कर देती है या फिर वह सोचने लगती है कि अब उसका गुज़ारा उसके पति के साथ नहीं है।

चाणक्य के अनुसार कोई भी पतिव्रता और दृढ़ संकल्पों वाली पत्नी अपने पति का साथ बुरे वक़्त में नहीं छोड़ेगी चाहे जीवन में कितने उतार चढ़ाव आए वह हर परिस्थिति में अपने पति का सहयोग करेगी। एक कथा के अनुसार जब महान संत और कवि तुलसी दास की पत्नी ने उन्हें उनकी बेरोज़गारी पर इस कदर ताने मारे कि उन्होंने अपनी पत्नी से अलग होने का फैसला ले लिया और खुद को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया। तुलसी दास जी को इस बात का एहसास हो गया था कि उनके इस बुरे दौर में उनकी पत्नी से उन्हें किसी भी प्रकार का कोई सहयोग नहीं मिलेगा केवल भगवान ही हैं जो उन्हें बिना किसी चीज़ के बदले में उन्हें प्रेम देंगे।

 तुलसी दास जी के बुरे वक़्त ने उन्हें एक बहुत बड़ा सबक सीखा दिया जिससे उनके जीवन को एक नयी दिशा मिली और आज वे पूरी दुनिया में मशहूर हैं।
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जी हां जगन्नाथ यात्रा से पूर्व हर वर्ष देवता को आता है बुखार....

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14 जुलाई को जगन्नाथ रथयात्रा, उससे पहले 'देव' तो आया 'बुखार', जानिए क्या है परंपरा.

हमारे सनातन धर्म की खूबसूरती यही है कि यहां भगवान स्वयं भक्त के वश में है। स्वयं भगवान का उद्घोष है-"अहं भक्तपराधीनो..अर्थात्
मैं भक्तों के अधीन हूं। भक्तों ने भी अपनी खुशी के लिए कभी उन्हें थोड़े से माखन और छाछ के लिए नचाया तो कभी बालपन का सुख लेने के लिए रोने पर विवश किया। कभी शापित कर विरहासिक्त किया तो कभी उनकी सेवा-सुश्रुषा का आनन्द लेने के लिए उन्हें रुग्ण किया।
 
चौंकिए मत, हमारे देश में भगवान भी रुग्ण यानी बीमार होते हैं और उनकी भी चिकित्सा की जाती है। ज्येष्ठ पूर्णिमा को को ठंडे जल से स्नान कराया जाता है। इस स्नान के बाद भगवान को ज्वर (बुखार) आ जाता है। 15 दिनों तक भगवान जगन्नाथ को एकांत में एक विशेष कक्ष में रखा जाता है। जहां केवल उनके वैद्य और निजी सेवक ही उनके दर्शन कर सकते हैं। इसे अनवसर कहा जाता है।

इस दौरान भगवान जगन्नाथ को फ़लों के रस, औषधि एवं दलिया का भोग लगाया जाता है। भगवान स्वस्थ होने पर अपने भक्तों से मिलने रथ पर सवार होकर निकलते हैं जिसे जगप्रसिद्ध रथयात्रा कहा जाता है। रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकलती है।
 
इस वर्ष 28 जून 2018 ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ का अनवसर सम्पन्न हुआ और अब वे हो रुग्ण हो गए हैं। अब 15 दिनों तक वे एकान्त कक्ष में निवास करेंगे जहां उनकी चिकित्सा कर उन्हें स्वस्थ किया जाएगा। स्वस्थ होने के उपरान्त आषाढ़ शुक्ल द्वितीया 14 जुलाई को वे रथ पर सवार होकर अपने भक्तों से मिलने निकलेंगे जिसे जगप्रसिद्ध रथयात्रा कहते हैं।
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