Thursday, 09 January 2025

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डिजिटल डाटा सुरक्षा : अपराधी और आतंकवादी सॉफ्टवेयर में खामियों का फायदा उठा रहे हैं.....

 

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बहुत से लोगों को डिजिटल डाटा सुरक्षा पर पूरा भरोसा है। इसलिए उन्हें डिजिटल फिंगरप्रिंट का इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं। शायद ये सही नहीं, क्योंकि अपराधी और आतंकवादी सॉफ्टवेयर में खामियों का फायदा उठा रहे हैं।
 
तुर्की में 2017 के अंत में सुरक्षा बलों को एक हैरतअंगेज कामयाबी मिली। देश के पूरब में किर्जेहिर में उन्होंने आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के दस संदिग्ध समस्यों को गिरप्तार किया। उनके कमरों में सिर्फ प्रचार सामग्री ही नहीं मिली बल्कि ऐसी मशीनें भी जिनकी मदद से जाली बायोमेट्रिक पहचान बनाई जा सकती है। उसमें फिंगरप्रिंट का एक फरमा भी था। उस पर वे इंटरनेट से चुराए गए, बाद में बदले गए और प्लास्टिक फॉइल पर चिपकाए गए फिंगरप्रिंट तैयार करते। इस तरह के बदले गए फिंगरप्रिंट को बड़ी संस्थाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले सॉफ्टवेयर भी असली मान लेते हैं। अगर एक बार उन्हें पकड़ा न जा सका तो सुरक्षा का गेट हमेशा के लिए खुल जाएगा। इसके सबूत हैं जिहादी पैसे के लेन देन के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
 
पहचान पत्रों और पासपोर्ट की जालसाजी करने के लिए डार्क वेब में बायोमेट्रिक डाटा का कारोबार चल रहा है। चुराए गए डाटा का इस्तेमाल आतंकवादी दूसरे मकसदों के लिए भी कर सकते हैं। लिष्टेनस्टाइन यूनिवर्सिटी के आईटी एक्सपर्ट गुन्नार पोरादा कहते हैं, "अपराधियों और आतंकवादियों की इनका दुरुपयोग करने और इस्तेमाल करने में गहरी दिलचस्पी है।" इस डाटा का इस्तेमाल बैंक अकाउंट खोलने, पासपोर्ट बनाने और उन जगहों पर कंट्रोल के लिए किया जा सकता है जहां फिंगरप्रिंट देना होता है।
 
सुरक्षा की उम्मीद
 
तुर्की की घटना दिखाती है कि इलेक्ट्रॉनिक डाटा पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। ये हर तरह के उपभोक्ताओं के लिए तो लागू होता ही है, यह नागरिकों के लिए भी लागू होता है। मतलब ये हुआ कि न तो व्यावसायिक उद्यम और न ही सरकारी दफ्तर इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि उनके यहां जमा डाटा चोरी से पूरी तरह सुरक्षित है। आम अपराधी चुराए गए डाटा का इस्तेमाल मिसाल के तौर पर किसी और नाम से इंटरनेट में सामान खरीदने के लिए करते हैं।
 
चुराए गए डाटा का स्रोत दुकानों में खरीदी गई सामान्य डिजिटल मशीन भी हो सकती है जो इस तरह के निजी डाटा को सेव करती है। उनकी सुरक्षा तभी संभव है जब उस मशीन का सुरक्षा सॉफ्टवेयर एकदम अपडेटेड है। यूरोपीय नेट सुरक्षा एजेंसी के ऊडो हेल्मब्रेष्ट कहते हैं कि ऐसा अक्सर होता नहीं है, "जब मैं ग्राहक के रूप में कोई प्रोडक्ट खरीदता हूं तो मुझे पता नहीं होता कि उसमें सिक्योरिटी फीचर्स हैं या नहीं, हैं तो फिर कौन से हैं।" आज कल स्मार्टफोन में फिंगरप्रिंट या फेस रिकग्निशन सॉफ्टवेयर आ रहे हैं लेकिन उनके लिए कोई सुरक्षा सर्टिफिकेट नहीं होता। ये ग्राहक के लिए फिंगरप्रिंट या फेस रिकग्निशन डाटा के लिए बड़ा जोखिम है।
 
शेंगेन में जाली पासपोर्ट
 
चुराए गए डाटा का इस्तेमाल सिर्फ आर्थिक अपराधों के लिए ही नहीं होता। उनका दूसरे मामलों में भी खतरनाक इस्तेमाल संभव है। मसलन दुनिया भर में आप्रवासन में। दुनिया के बहुत से देश आप्रवासियों की पूरी तरह शिनाख्त करने की हालत में नहीं हैं। ये बात यूरोपीय संघ के सदस्य देशों पर भी लागू होती है। इन देशों में जाली पहचान के साथ लोग खुद को रजिस्टर करा सकते हैं। पत्रकार सबीना वोल्फ ने यूरोपीय सीमा एजेंसी फ्रंटेक्स के हवाले से कहा है कि शेंगेन के इलाके में बदले चिप वाले जाली पासपोर्ट के कुछ मामले मिले हैं।
 
ऐसा लगता है कि अपराधियों के लिए दूसरे लोगों का डाटा चुराने को बहुत मुश्किल नहीं बनाया जा रहा है। आलोचकों का कहना है कि निवासियों को रजिस्टर करने वाला जर्मन निवासी दफ्तर भी डिजिटल हमले से पर्याप्त रूप से सुरक्षित नहीं है। ये दफ्तर फिंगरप्रिंट लेने के लिए जिस सरकारी कंपनी की मशीन का इस्तेमाल करते हैं जो डाटा को इंक्रिप्शन के बिना ही कंप्यूटर में भेजता है। इसका इस्तेमाल डाटा चुराने वाले कर सकते हैं।
 
संदेह में डाटा सुरक्षा
 
आईटी सुरक्षा एक्सपर्ट गुन्नार पोरादा कहते हैं, "यदि हमलावर की फिंगरप्रिंट या फेस रिक्निशन डाटा तक पहुंच हो तो वह फैसला कर सकता है कि क्या वह उसे इस्तेमाल के लिए कॉपी करना चाहता है।" बदले गए फिंगरप्रिंट का इस्तेमाल जाली पहचान पत्र बनाने के लिए किया जा सकता है। इस तरह का डाटा चुराने के लिए अपराधी निवासी रडिस्ट्रेशन दफ्तरों के कंप्यूटर को हैक कर सकता है या ट्रोजन सॉफ्टवेयर भेजकर वहां से डाटा चुरा सकता है।
 
जर्मनी में डाटा सुरक्षा के लिए ये कोई अच्छी बात नहीं है। लेकिन जर्मन गृह मंत्रालय का कहना है, "नागरिकों के डाटा को आईटी तकनीकों की मदद से इकट्ठा करने और प्रोसेस करने की प्रक्रिया को यथोचित सुरक्षित कहा जा सकता है।" यथोचित सुरक्षित कोई अच्छी खबर नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ ये होगा कि संदेह की स्थिति में यह कतई सुरक्षित नहीं है।
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रिसर्च के अनुसार लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है.....

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कुछ दिन पहले सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो एक ख़बर ने अपनी ओर ध्यान खींच लिया. ख़बर में बताया गया था कि दिल्ली के कृष्णा नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में एक छात्र ने स्कूल के ही दूसरे छात्र पर चाकू से हमला किया था. बर के मुताबिक़ दोनों छात्रों के बीच सुबह की प्रार्थना के बाद झगड़ा हुआ, जिसके बढ़ने पर एक छात्र अधिक ग़ुस्से में आ गया और उसने इस हमले को अंजाम दिया. ऐसा नहीं है कि स्कूली छात्रों के बीच हुई आपसी झड़प का यह कोई पहला मामला हो. इससे पहले भी स्कूलों में छात्रों के बीच ग़ुस्से में एक दूसरे के साथ मार पीट के आरोप लगते रहे हैं.

गौर करने वाली बात यह है कि हिंसा की ऐसी कई घटनाओं में किशोर उम्र के बच्चे शामिल पाए जा रहे हैं. बच्चों में ग़ुस्से की यह प्रवृत्ति चिंताजनक हालात पैदा कर रही है.

किशोरों में युवाओं से ज़्यादा ग़ुस्सा

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में कुल 120 करोड़ किशोर हैं जिनकी उम्र 10 से 19 साल के बीच हैं. यूनिसेफ़ की यह रिपोर्ट बताती है कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में किशोरों की संख्या 24 करोड़ से अधिक है. यह आंकड़ा भारत की जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा है. इतना ही नहीं दुनिया भर के सबसे अधिक किशोर विकासशील देशों में ही रहते हैं. बच्चों में ग़ुस्से की प्रवृत्ति उनकी उम्र के अनुसार बदलती जाती. साल 2014 में इंडियन जर्नल साइकोलॉजिकल मेडिसिन में प्रकाशित एक रिसर्च के अनुसार लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है.

इस रिसर्च में शामिल लोगों में जिस समूह की उम्र 16 से 19 वर्ष के बीच थी उनमें ज़्यादा ग़ुस्सा देखने को मिला जबकि जिस समूह की उम्र 20 से 26 वर्ष के बीच थी उनके थोड़ा कम ग़ुस्सा. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि किशोर उम्र में युवा अवस्था के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है. इसी तरह लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिला. हालांकि, इसी रिसर्च के अनुसार 12 से 17 आयु वर्ग की लड़कियों में क़रीब 19 प्रतिशत लड़कियां अपने स्कूल में किसी न किसी तरह के झगड़े में शामिल मिलीं.

यह रिसर्च भारत के 6 प्रमुख स्थानों के कुल 5467 किशोर और युवाओं पर की गई थी. इस रिसर्च में दिल्ली, बेंगलुरु, जम्मू, इंदौर, केरल, राजस्थान और सिक्किम के किशोर और युवा शामिल थे. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर बच्चों की इस हिंसक प्रवृत्ति के पीछे क्या वजह है? 

बच्चों में गुस्सा

मोबाइल गेम का असर

मनोवैज्ञानिक और मैक्स अस्पताल में बच्चों की कंसल्टेंट डॉक्टर दीपाली बत्रा बच्चों के हिंसक होने के पीछे कई कारण बताती हैं. वो कहती हैं कि सबसे बड़ी वजह है यह पता लगाना कि बच्चों पर उनके परिजन कितनी नज़र रख रहे हैं. डॉक्टर बत्रा कहती हैं, ''बड़े शहरों में माता-पिता बच्चों पर पूरी तरह से निगरानी नहीं रख पाते. बच्चों को व्यस्त रखने के लिए उन्हें मोबाइल फ़ोन दे दिया जाता, मोबाइल पर बच्चे हिंसक प्रवृत्ति के गेम खेलते हैं.''

कोई वीडियो गेम बच्चों के मस्तिष्क पर कैसे असर कर सकता है, इसके जवाब में डॉ. बत्रा कहती हैं, ''मेरे पास जितने भी बच्चे हिंसक स्वभाव वाले आते हैं उनमें देखने को मिलता है कि वे दिन में तीन से चार घंटे वीडियो गेम खेलने में बिताते हैं. इस खेल में एक दूसरे को मारना होता है, जब आप सामने वाले को मारेंगे तभी जीतेंगे और हर कोई जीतना चाहता है. यही वजह है कि वीडियो गेम बच्चों के स्वभाव को बदलने लगते हैं.''

साल 2010 में अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला लिया था कि बच्चों को वो वीडियो गेम ना खेलने दिए जाएं जिसमें हिंसक प्रवृत्ति जैसे हत्या या यौन हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा हो. इस फ़ैसले के पांच साल पहले कैलिफ़ोर्निया के गवर्नर ने अपने राज्य में वायलेंट वीडियो गेम क़ानून बनाया था, जिसके तहत 18 साल से कम उम्र के बच्चों को हिंसक वीडियो गेम से दूर रखने की बात थी.

इसके अलावा अमरीकन साइकोलॉजी की तरफ़ की गई रिसर्च में भी इस बारे में बताया गया था कि वीडियो गेम इंसानों के स्वभाव को बदलने में अहम कारक साबित होते हैं. 

मोबाइल फोन

पॉर्न तक पहुंच

मोबाइल तक बच्चों की पहुंच के साथ-साथ इंटरनेट भी बच्चों को आसानी से उपलब्ध हो जाता है और इसके साथ ही शुरू होती है यूट्यूब से लेकर पोर्न वीडियो की दुनिया. देहरादून की रहने वाली पूनम असवाल का बेटा आयुष अभी महज़ 5 साल का है, लेकिन इंटरनेट पर अपने पसंदीदा वीडियो आसानी से तलाश लेता है. पूनम बताती हैं कि उनके बच्चे ने उन्हीं से मोबाइल पर वीडियो देखने सीखे.

पूनम अपने बच्चे की इस आदत से बेहद परेशान हैं, अपनी परेशानी बताते हुए वह कहती हैं, ''शुरू में तो मुझे ठीक लगा कि आयुष मोबाइल पर व्यस्त है, लेकिन अब यह परेशानी का सबब बनता जा रहा है, वह हिंसक कार्टून के वीडियो देखता है. इंटरनेट पर गाली-गलौच और अश्लील सामग्री के लिंक भी रहते हैं, डर लगा रहता है कि कहीं वह उन लिंक पर क्लिक कर ग़लत चीज़ें ना देख ले.''

डॉक्टर बत्रा भी इस बारे में विस्तार से बताती हैं, ''इंटरनेट की आसान पहुंच से पोर्न भी बच्चों को आसानी उपलब्ध हो रहा है और यह किसी एडिक्शन की तरह काम करता है. इसमें दिखने वाली हिंसा का बच्चों के मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर पड़ता है.''

पोर्न के असर को जांचने के लिए साल 1961 में मनोवैज्ञानिक एलबर्ट बंडुरा ने एक प्रयोग किया था. उन्होंने बच्चों को एक वीडियो दिखाया जिसमें एक आदमी गुड़िया को मार रहा था, इसके बाद उन्होंने बच्चों को भी एक-एक गुड़िया पकड़ाई. गुड़िया मिलने के बाद उन बच्चों ने भी अपनी-अपनी गुड़िया के साथ वही किया की जो वीडियो वाला आदमी कर रहा था. 

बच्चा

मां-बाप का आपसी रिश्ता

शहरी जीवन में माता-पिता दोनों ही नौकरीपेशा हो गए हैं, ऐसे में आमतौर पर बच्चों के लिए वक़्त निकालना मुश्किल होता जा रहा है. इसके साथ-साथ विवाहेत्तर संबंध के मामले भी बहुत हो रहे हैं. माता पिता का आपस में कैसा रिश्ता है, इसका असर सीधे तौर पर बच्चों पर पड़ता है.

डॉक्टर बत्रा इस विषय में कहती हैं, ''जब बच्चे देखते हैं कि उनके माता-पिता जो कि उसे हमेशा शांत रहने और सभ्य व्यवहार करने की सलाह देते हैं, वे ख़ुद ही आपस में झगड़ रहे हैं तो बच्चा भी ग़ुस्सा आने पर हिंसक रुख अपनाने लगता है. बच्चों का दिमाग़ इस बात पर स्थिर रहता है कि चीज़ें उनके अनुसार ही होनी चाहिए, जब कोई चीज़ उनकी समझ के विपरीत जाती हैं तो वे अलग ढंग से रिएक्ट करते हैं और इसका नतीजा कई मौक़ों पर हिंसक रूप ले लेता है.''

डॉक्टर बत्रा एक और बात कि ओर हमारा ध्यान ले जाती हैं, वे कहती हैं कि माता-पिता के आपसी रिश्ते के साथ-साथ उनका बच्चे के प्रति कैसा व्यवहार है यह भी बहुत अधिक मायने रखता है. अपने एक क्लाइंट के बारे में डॉक्टर बत्रा ने बताया, ''मेरे एक क्लाइंट थे जो अपने बच्चे को छोटी-छोटी ग़लतियों पर बुरी तरह मारते-पीटते थे, इसका नतीजा यह हुआ कि उनका बच्चा अपना गुस्सा साथी बच्चों पर निकालता था. वह स्कूल में बहुत झगड़ता था.''

बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि लंबे वक़्त तक जब माता-पिता के संबंध ख़राब चलते हैं तो इससे बच्चों पर उनकी उम्र के अनुसार असर पड़ता है, जैसे नवजात बच्चे की दिल की धड़कने बढ़ जाती हैं, 6 माह तक के बच्चे हार्मोंस में तनाव महसूस किया जाता है वहीं थोड़े बड़े बच्चों को अनिंद्रा जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. 

मां बाप

हॉर्मोन में आता है बदलाव

मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट की उपलब्धता और माता-पिता का नौकरी पेशा होना यह सब आधुनिक जीवन के उदाहरण हैं, लेकिन बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पहले के वक़्त में भी देखने को मिलती रही है. जब मोबाइल या इंटरनेट का बहुत अधिक चलन नहीं था तब भी बच्चे हिंसक रुख़ दिखाया करते थे, इसकी क्या वजह है. डॉक्टर बत्रा बताती हैं कि किशोर अवस्था में आने पर बच्चों में हॉर्मोनल बदलाव होने लगते हैं, उनका मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंग तेजी से विकसित हो रहे होते हैं.

वे बताती हैं, ''किशोरावस्था 11 से 16 साल तक समझी जाती है, इस दौरान बहुत तेज़ी से दिमाग़ का विकास हो रहा होता है, इस उम्र में दिमाग़ के भीतर लॉजिकल सेंस का हिस्सा विकसित हो रहा होता है, लेकिन इमोशनल सेंस वाला हिस्सा विकसित हो चुका होता है. ऐसे में बच्चा अधिकतर फ़ैसले इमोशनल होकर लेता है.''

यही वजह है कि इस उम्र के दरम्यान बच्चों के व्यवहार में आसपास के हालात का सबसे अधिक असर पड़ता है, वे चिड़चिड़े-ग़ुस्सैल और कई मौकों पर हिंसक हो जाते हैं. 

बच्चे

कैसे पहचाने बच्चे का बदलता व्यवहार

बच्चों के व्यवहार में बदलाव आ रहा है, इसकी पहचान कैसे की जाए. इस बारे में डॉक्टर बत्रा बताती हैं, ''अगर छोटी उम्र में ही बच्चा स्कूल जाने से आना-कानी करने लगे, स्कूल से रोज़ाना अलग-अलग तरह की शिकायतें आने लगे, साथी बच्चों को गाली देना, किसी एक काम पर ध्यान ना लगा पाना. ये सभी लक्षण दिखने पर समझ जाना चाहिए कि बच्चे के व्यवहार में बदलाव आने लगा है और अब उस पर ध्यान देने का वक़्त है.

ऐसे हालात में बच्चों को वक़्त देना बहुत ज़रूरी हो जाता है, उसे बाहर घुमाने ले जाना चाहिए, उसके साथ अलग-अलग खेल खेलने चाहिए, बातें करनी चाहिए, बच्चे को बहुत ज़्यादा समझाना नहीं चाहिए, हर बात में उसकी ग़लतियां नहीं निकालनी चाहिए. बच्चों के व्यवहार के लिए 11 से 16 साल की उम्र बेहद अहम होती है, यही उनके पूरे व्यक्तित्व को बनाती है. ऐसे में उनका विशेष ध्यान देना बेहद ज़रूरी हो जाता है.

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क्या होता है पीएमएस?.....

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''हमारी शादी को उस समय दो या तीन महीने ही हुए थे, हम हर दूसरे या तीसरे वीकेंड में फ़िल्म देखने जाते थे। एक दिन मैंने मोना (पत्नी) से कहा कि ऑफ़िस में बहुत काम है इसलिए फिल्म के लिए नहीं चल सकते। इतना सुनते ही वो अचानक नाराज़ होने लगी। बहुत ज़्यादा ही गुस्सा करने लगी, मैं हैरान था कि इतनी छोटी सी बात पर वो इतना गुस्सा क्यों हो रही है।''
 
यह कहते हुए संतोष हंसने लगते हैं, साथ ही उनके बगल में बैठी मोना अपनी हंसी को छुपाने की कोशिश करने लगती है। दोनों की शादी को एक साल से ज़्यादा हो चुका है और अब उनके बीच काफ़ी अच्छी बॉन्डिंग है। संतोष और मोना की अरेंज मैरिज हुई थी। संतोष जिस वाकये को याद कर रहे हैं दरअसल उस समय मोना प्री-मेंस्ट्रुअल स्ट्रेस (पीएमएस) के दौर से गुज़र रही थीं।

राजस्थान का मामला
 
मोना और संतोष जिस बात को हंसते हुए बता रहे थे कभी-कभी उसके बेहद गंभीर नतीजे भी सामने आ सकते हैं। कुछ दिन पहले राजस्थान के अजमेर से एक मामला सामने आया, जिसमें एक महिला ने अपने तीन बच्चों को कुएं में फेंक दिया था। इनमें से एक बच्चे की मौत हो गई थी।
 
जब राजस्थान हाईकोर्ट में केस चला तो महिला की तरफ से दलील दी गई कि घटना के समय वह प्री-मेंस्ट्रुअल स्ट्रेस (पीएमएस) के दौर से गुज़र रही थीं जिस वजह से उन्हें ध्यान नहीं रहा कि वो क्या क़दम उठाने जा रही हैं। कोर्ट ने महिला की दलील से सहमत होते हुए उन्हें बरी कर दिया।

क्या होता है पीएमएस?
 
पीएमएस महिला के शुरू होने से पांच से सात दिन पहले का वक्त होता है। इस दौरान महिलाओं के व्यवहार में कुछ बदलाव महसूस होने लगता है। उन्हें कोई खास चीज़ खाने की इच्छा होती है या फिर उनके व्यवहार में देखने को मिलने लगता है। इतना ही नहीं कई मामलों में तो महिलाओं को आत्महत्या करने जैसे विचार भी आने लगते हैं।
 
दिल्ली के लक्ष्मीनगर में गाइनोकॉलजिस्ट डॉक्टर अदिति आचार्य पीएमएस को समझाते हुए कहती हैं, ''महिलाओं के शरीर में होने वाले हार्मोनल बदलाव के चलते पीएमएस होता है। इस दौरान लड़कियों को अपने शरीर में दर्द महसूस होता है, विशेषतौर पर पेट और ब्रेस्ट के पास। इसके अलावा लड़कियों के मूड में अचानक बदलाव होने लगते हैं, वे कभी गुस्सा तो कभी अचानक खुश होने लगती हैं। छोटी-छोटी बातों में रोना आने लगता है।''
 
पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ़ साइंस जर्नल PLosONE में पीएमएस पर एक रिसर्च प्रकाशित की गई थी। अप्रैल 2017 में छपे इस रिसर्च के अनुसार 90 प्रतिशत महिलाएं पीएमएस का अनुभव करती हैं। इनमें से 40 प्रतिशत महिलाओं को इस दौरान तनाव महसूस होता है और इनमें से दो से पांच प्रतिशत महिलाएं बहुत अधिक तनाव का शिकार हो जाती हैं जिससे उनकी आम ज़िंदगी पर असर पड़ने लगता है।

पुरुषों में जानकारी का अभाव
 
एक बात जिस पर गौर किया जाना चाहिए वह यह कि इस दौरान महिलाओं को मानसिक सुकून की सबसे ज़्यादा तलाश होती है। वो चाहती हैं कि उनके साथी उनकी परेशानी को समझें और मुश्किल हालात में उनका साथ दें। बीकॉम फ़ाइनल ईयर के छात्र आयुष अपनी गर्लफ्रेंड के ऐसे ही बेवक्त बदलते मूड से परेशान थे।
 
वो बताते हैं, ''हमारे रिलेशनशिप को दो साल हो गए हैं, लेकिन शुरुआत में मुझे नहीं मालूम था कि लड़कियों को इस तरह की प्रॉब्लम फ़ेस करनी होती है, एक दिन मेरी गर्लफ्रेंड बेवजह ही गुस्सा होने लगी और फिर छोटी सी बात पर रोने लगी। मैं भी उस वक्त नाराज़ होकर वहां से चला गया।''
 
आयुष बताते हैं कि बाद में उन्होंने गूगल में इसके बारे में जानकारी जुटाई तो उन्हें कुछ-कुछ समझ में आया। आयुष कहते हैं कि अब जब कभी उनकी गर्लफ्रेंड का मूड अचानक बदलता है तो वे पहले ही पूछ लेते हैं कहीं पीरियड तो शुरू नहीं होने वाले।
 
डॉक्टर अदिति आयुष की बात को आगे समझाते हुए कहती हैं, ''मेरे पास बहुत से कपल आते हैं जिसमें लड़कों को पीरियड्स के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं होती, उन्हें यह पता ही नहीं होता कि उनकी पार्टनर किस दर्द या हालात का सामना कर रही है, इसी वजह से वे अपने पार्टनर के बदलते रुख से नाराज़ हो जाते हैं जिससे परेशानियां और ज़्यादा बढ़ जाती हैं।''
 
पार्टनर की भूमिका
 
मोना अपनी शादी के शुरुआती दिन और अब के वक्त को याद करते हुए कहती हैं कि उनके पति के व्यवहार में काफ़ी बदलाव आया है। वो कहती हैं, ''मेरे पति की बहनें भी हैं लेकिन उन्हें पीरियड्स के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। उन्हें मेरे बदलते मूड का अंदाजा नहीं लग पाता था। वो नाराज़ हो जाते थे, लेकिन अब वो काफी सारी बातें समझने लगे हैं। उनका साथ मिलने से मेरे लिए भी पीएमएस के मुश्किल वक्त को निकालना आसान हो जाता है।''
 
PLosONE की रिपोर्ट बताती है हेट्रोसेक्सुअल कपल के मुकाबले लेस्बियन कपल के बीच पीएमएस का दौर काफ़ी आराम से बीतता है। इसके अनुसार लेस्बियन कपल में दोनों पार्टनर लड़कियां होती हैं तो वो एक दूसरे की समस्या को भी काफ़ी अच्छे तरीके से समझ पाती हैं और यही वजह है कि मुश्किल वक्त में अपने साथी को बेहतर तरीके से सपोर्ट कर पाती हैं।
 
डॉक्टर अदिति इस बात पर कहती हैं कि पुरुष पार्टनर भी अगर अपनी महिला साथी को बेहतर तरीके से समझने लगे तो आधी से अधिक समस्या का समाधान निकल जाता है। वो यह भी मानती हैं कि आमतौर पर पीएमएस में मूड स्विंग जैसी चीज़ें होती हैं लेकिन अगर कोई बहुत अधिक तनाव का सामना कर रहा है तो उसे डॉक्टर की मदद ज़रूर लेनी चाहिए।
 
थैरेपी की मदद
 
ब्रिट्रेन की एक वेबसाइट द कनवरसेशन ने पिछले साल पीएमस पर एक स्टडी की। इस स्टडी के दौरान उन्होंने पीएमएस से जूझ रही महिलाओं पर कपल में और सिंगल में थैरेपी दे कर उनके व्यवहार को परखा। इस स्टडी में पाया गया कि जिस थैरेपी में कपल शामिल थे उनमें पीएमएस से उबरने की संभावनाएं ज़्यादा थी। जबकि अकेले थैरेपी में शामिल होने वाली महिलाओं में ऐसा अंतर नज़र नहीं आया।
 
कॉलेज जाने वाले आयुष की मानें तो जब से उन्होंने पीरियड्स और पीएमएस जैसी बातों को समझना शुरू किया है तब से उनका रिश्ता भी बेहद खूबसूरत हो गया है। डॉक्टर अदिति भी इस बारे में कहती हैं, ''जब पुरुष अपनी साथी के दर्द को समझने लगते हैं और उनका ख़्याल रखने लगते हैं तो रिश्ते में गहराई बढ़ जाती है।''
 
महिलाओं के शरीर में आने वाले बदलाव की जानकारी देते हुए डॉक्टर अदिति बताती हैं, ''पीएमएस के दौरान महिलाओं के पेट, ब्रेस्ट और निजी अंग में खून की मात्रा बढ़ जाती है और उन्हें दर्द महसूस होता है। अब सोचिए किसी के निजी अंगों के आसपास दर्द हो रहा हो तो वह खुश कैसे रह सकता है। ऐसे में अगर आपका पार्टनर आपके दर्द को समझ रहा है और कितना सुकून मिलेगा।''
 
अपनी पत्नी मोना के साथ बैठे संतोष हंसते हुए कहते हैं, ''शुरू में तो मुझे लगता था जब बीवी के पीरियड्स होने लगें तो पतियों को सुरक्षा कवच पहन कर रखना चाहिए, लेकिन अब लगता है कि इस मुश्किल वक्त में हमें उनका सुरक्षा कवच बन जाना चाहिए।''
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 विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि दुनिया की मानवीय विविधता खोने का खतरा है.....

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संसाधनों के लिए अंतरराष्ट्रीय भूख की वजह से आदिवासी समुदायों के इलाके नष्ट होते जा रहे हैं। विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि दुनिया की मानवीय विविधता खोने का खतरा है।
 
दुनिया भर में रहने वाले 37 करोड़ आदिवासी और जनजाति समुदायों के सामने जंगलों का कटना और उनकी पारंपरिक जमीन की चोरी सबसे बड़ी चुनौती है। वे धरती पर जैव विवधता वाले 80 प्रतिशत इलाके के संरक्षक हैं लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लोभ, हथियारबंद विवाद और संरक्षण संस्थानों की वजह से बहुत से समुदायों की आजीविका खतरे में हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर हालात को और खराब कर रहा है।
 
जनजातियां विभिन्न तरह की हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार वे 90 देशों में फैली हैं, 5,000 अलग अलग संस्कृतियां और 4,000 विभिन्न भाषाएं। इस बहुलता के बावजूद या उसकी वजह से ही उन्होंने एक तरह के संघर्ष झेले हैं, चाहे वे ऑस्ट्रेलिया में रहते हों, जापान में या में। उनका जीवन दर कम है, गैर आदिवासी समुदायों की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है। उनकी आबादी दुनिया की 5 प्रतिशत है लेकिन गरीबों में उनका हिस्सा 15 प्रतिशत है।
 
जमीन से वंचित
सर्वाइवल इंटरनेशनल की फियोना वॉटसन ने डॉयचे वेले को बताया कि विभिन्न समुदायों की सबसे बड़ी चुनौती ये हैं कि उनकी पुश्तैनी जमीन खोती जा रही है। "दुनिया भर में आदिवासी लोगों का पर्यावरण के साथ निकट रिश्ता है। उनकी आजीविका के लिए जमीन अहम है, लेकिन उनका प्रकृति से आध्यात्मिक रिश्ता भी है।"

औपनिवेशिक काल में जमीनों को हड़पने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है। विवाद और हिंसा की वजह से भी उनकी जमीन हड़पी जा रही हैं और वे रिफ्यूजी बन रहे हैं। कई बार सरकारें आदिवासी इलाकों में वहां रहने वाले लोगों की परवाह किए बगैर बांध बनाने या सड़क बनाने का फैसला लेती हैं। वॉटसन कहती हैं, "आदिवासी समुदायों को अक्सर पिछड़ा माना जाता है और इसका इस्तेमाल सरकारें और बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकास के नाम पर उनकी जमीन का अधिग्रहण करने के लिए करती हैं।"
 
ब्राजील की मिसाल
एक मिसाल दक्षिणी ब्राजील का गुआरानी समुदाय है जिन्हें पशुपालन और गन्ने की खेती के लिए उनकी जमीन से खदेड़ दिया गया है।वॉटसन बताती हैं कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है और उस इलाके की जैव विविधता पूरी तरह खत्म हो गई है। विडंबना ये है कि पर्यावरण संरक्षण संस्थाएं भी आदिवासी समुदायों से पूछे बिना उन इलाकों को संरक्षित इलाका बनवा रही हैं, जहां वे सदियों से रहते आए हैं।
 
आदिवासी अधिकारों पर एशिया में भी विवाद हो रहा है, जहां दुनिया की 70 प्रतिशत आदिवासी आबादी रहती है। आदिवासी मामलों के अंतरराष्ट्रीय कार्यदल के अनुसार मलेशिया का बजाऊ लाउट ग्रुप बंजारा समुदाय है जो आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर है। जहां वे मछली पकड़ रहे थे वह इलाका 2004 में तून सकारान मरीन पार्क बना दिया और 2009 से वहां मछली मारने पर पाबंदी है। ऑस्ट्रेलिया के वोलोनगोंग यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार इससे उनके पोषण और खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ा है।
 
स्वनिर्णय का अधिकार
इसलिए वॉटसन कहती हैं कि आदिवासी समुदायों के लिए खुद फैसले लेने का अधिकार बहुत मायने रखता है। "ये फैसला करने का अधिकार कि वे कैसे जीना चाहते हैं, इसकी अक्सर उपेक्षा की जाती है और इससे गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं।" अभी तक अंतरराष्ट्रीय तौर पर इस पर भी सहमति नहीं है कि आदिवासी की क्या व्याख्या है। इस शब्द का इस्तेमाल 2007 में संयुक्तराष्ट्र की घोषणा में किया गया और तब से दुनिया भर में आदिवासी समुदाय दिखने लगे हैं।
 
न्यूजीलैंड में माओरी समुदाय बहुत ही सक्रिय हो गया है। ऑकलैंड यूनिवर्सिटी के जॉन मैककाफरी के अनुसार माओरी भाषा के कोर्स पूरे देश में बहुत लोकप्रिय हो गए हैं। कनाडा में भी आदिवासियों के मामलों पर मीडिया में नियमित रिपोर्ट दी जाती है और वे राष्ट्रीय बहस का हिस्सा हैं। ये उदाहरण दिखाते हैं कि दुनिया भर में आदिवासी समुदायों के साथ गहन संबंध संभव हैं। सरकारों को आदिवासी समुदायों और जनजातियों के महत्व को स्वीकार करना होगा और उनके साथ बातचीत कर भविष्य का रास्ता तय करना होगा।
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