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थकावट या आलस की वजह से हम कई दफा दिन में या सुबह के समय हेयरवॉश करने को अवॉइड करते है। हम से कई लोगों की आदत होती है कि रात को सोने से पहले हम हेयरवॉश करते है। लेकिन आपको जानकर हैरान होगी कि आपकी ये आदत आपके सेहत पर भारी पड़ सकती है। रात को सोने से पहले नहाने और हेयरवॉश से सिर्फ आपको फ्लू, बुखार या ठंड ही नहीं पकड़ता है, बल्कि सेहत से जुड़ी दूसरी खतरनाक समस्या भी हो सकती है। आपकी ये गलत आदत कई बीमारियों को न्यौता दे सकती है, आइए जानते है कि गीले बालों में सोने से आपको कौन कौनसी बीमारियां जकड़ सकती है?
इंफेक्शन
जब भी आप गीले बालों में आकर सोती हैं तो आपके गीले बाल सीधे ताकिएं और उसके कवर के सम्पर्क में आतें है। इसके अलावा कई बार होता है कि बालों का पानी सुखाने के लिए आप गीले टॉवेल को अपने बेड पर रख देती है। ऐसा करके आप बैक्टीरिया को पनपने के लिए एक माहौल बना देती है।
मांसपेशियों में दर्द
क्या आपको अचानक से कभी गर्दन के आसपास की मांसपेशियों पर ऐंठन की शिकायत हुई है? अगर हां तो जान लीजिए कि इसके पीछे का कारण है तापमान में एक बड़ा अंतर जो कि बाल नहीं सुखाने के कारण आपके गर्दन के आसपास आपको महसूस होता है। लेकिन इससे भी बड़ी बात है कि इस वजह से आपको पूरे शरीर में लकवा पड़ने के साथ आपको चेहरे का लकवा भी हो सकता है।
हाइपोथेरमीया
बहुत अधिक ठंडे तापमान वाली जगहों पर हाइपोथेरमीया (hypothermia) होने की सम्भावना होती है जो आपकी रोग-प्रतिरोधक शक्ति को प्रभावित करता है। अगर तापमान बहुत कम है या बहुत ठंड है तो किसी भी प्रकार के इंफेक्शन से बचने के लिए आप अपने बालों को तौलिए से थपथपाकर सुखा सकते हैं या गीले बालों में सोना आपको पसंद नहीं तो आप सोने से पहले उन्हें पूरी तरह सुखा सकते हैं। गीले बालों में सोने से आपको तब तक इंफेक्शन नहीं होगा जब तक कि आप किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में न आएं जिसे फ्लू या सर्दी का इंफेक्शन हो।
गीले बालों के साथ सोने से सिर की त्वचा में नमी रहती है जो कि एक अलग प्रकार की खुजली का कारण बन सकती है।\
हेयरफॉल
गीले बाल अधिक टूटते हैं। अगर आप अकसर गीले बालों के साथ सोते हैं तो संभव है कि बाल टूटने की संभावना अधिक हो जाए। गीले बालों में जड़े नम हो जाती है इस वजह से हेयरफॉल बढ़ जाती है। गीले बालों के साथ सोने की वजह से आपके बाल उलझ जाते है और चिपचिपे हो जाते है। खासकर जिन लोगों के बाल लंबे हैं उन्हें गीलें बालों के साथ नहीं सोना चाहिए , उन्हें हेयरफॉल की समस्याएं ज्यादा हो सकती है।
नम खोपड़ी सिर में मौजूद सेबेशियस ग्लांड्स के कार्य को प्रभावित करती है। इसके कारण कम या ज्यादा तेल उत्पन्न हो सकता है। इसके कारण सिर का पी.एच. संतुलन बिगड़ जाता है। रिजल्ट स्वरुप या तो रूसी या अत्यधिक तेलयुक्त खोपड़ी की समस्या हो सकती है।
सिर दर्द
गीले बालों में सोने का सबसे कॉमन समस्या जो होती है वो है सुबह उठते समय आपको बहुत सिरदर्द होता है। जिसका कारण होता है कि तेजी से तापमान में फर्क आना।
::/fulltext::जन्म के बाद और पहले एंटीबायोटिक लेने से बच्चों पर क्या असर पड़ता है ?......
ऑस्ट्रेलिया में जन्म लेने वाले शिशुओं में से लगभग आधे बच्चों को ही अपने पहले जन्मदिन तक एंटीबायोटिक्स का एक कोर्स मिल पाता है। दुनिया में एंटीबायोटिक के उपयोग की यह उच्चतम दर है। एंटीबायोटिक्स की बात करें तो शिशुओं को बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमण से एंटीबायोटिक्स की मदद से बचाया जा सकता है और वायरल संक्रमण होने पर भी शिशुओं को एंटीबायोटिक्स ही दिए जाते हैं। अगर आप बेवजह बच्चों को एंटीबायोटिक्स दें तो इससे उन्हें इसके हानिकारक प्रभाव भी झेलने पड़ते हैं जैसे कि डायरिया, उल्टी, रैशेज़ और एलर्जी आदि। एंटीबायोटिक्स का ज्यादा इस्तेमाल बैक्टीरियल रेसिस्टेंस को भी बढ़ा देता है। ऐसा तब होता है जब सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले एंटीबायोटिक्स कुछ बैक्टीरिया पर बेअसर हो जाते हैं या उनका ईलाज करना मुश्किल हो जाता है। शोधकर्ताओं को भी लगता है कि जन्म से पहले और जन्म के बाद के शुरुआती जीवन में एंटीबायोटिक देने से सेहत को कई खतरे रहते हैं जैसे कि संक्रमण, ओबेसिटी या अस्थमा आदि का खतरा।
गट बैक्टीरिया की भूमिका
हमारे पेट में कई तरह के बैक्टीरिया होते हैं जिनमें वायरस, फंगी के साथ-साथ कई तरह के जीवाश्म मौजूद रहते हैं। ये माइक्रोबियल जीव एकसाथ माइक्रोबाओम कहलाते हैं। शरीर के विकास और सेहत के लिए ये माइक्रोबाओम जरूरी होते हैं और इनका संबंध मानसिक विकास, इम्युनिटी, ओबेसिटी, ह्रदय रोग और कैंसर से भी होता है। नवजात शिशु का सबसे पहले संपर्क बैक्टीरिया से होता है और फिर जन्म के बाद अन्य माइक्रोब्स से। जन्म से पहले शिशु शुरुआती माइक्रोबाओम जननमार्ग और पेट से प्राप्त करते हैं। सिजेरियन सेक्शन से डिलीवरी होने पर मां की त्वचा और अस्पताल से कुछ बग्स शिशु पर लग जाते हैं जिससे शिशु को संक्रमण होने का खतरा रहता है। गर्भावस्था के दौरान एंटीबायोटिक्स से मां के माइक्रोबाओम को सुरक्षित रखा जाता है और इस तरह शिशु के माबक्रोबाओम बनते हैं। एंटीबायोटिक्स ना केवल संक्रमण पैदा करने वाले बैक्टीरिया को खत्म करते हैं बल्कि वो माइक्रोबाओम के बैक्टीरिया को भी खत्म कर देते हैं जिनमें से ज्यादातर फायदेमंद होते हैं। ऐसे में माइक्रोबाओम के असंतुलन को डिस्बायोसिस कहते हैं।
शुरुआत में शिशु को अपने माइक्रोबाओम डिलीवरी के समय अपनी मां से मिलते हैं। जन्म के एक सप्ताह बाद और महीने के भीतर नवजात शिशु का इम्यून सिस्टम विकास करने लगता है और धीरे-धीरे उसके शरीर में माइक्रोबाओम बनने लगते हैं। गर्भावस्था में एंटीबायोटिक्स लेने से मां और उसके ज़रिए शिशु के माइक्रोबाओम में परिवर्तन आता है जिसका असर शिशु के शुरुआती इम्यून पर पड़ता है। इससे बचपन में संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। दानिश की हाल ही में हुई एक स्टडी में सामने आया है कि जो महिलाएं गर्भावस्था में एंटीबायोटिक्स लेती हैं उनके बच्चे को शुरुआती 6 सालों में गंभीर संक्रमण होने का खतरा रहता है। जो महिलाएं गर्भावस्था में ज्यादा एंटीबायोटिक्स लेती हैं या डिलीवरी के आसपास एंटीबायोटिक्स का सेवन करती हैं उनके बच्चों में ये खतरा ज्यादा पाया जाता है। वहीं सामान्य प्रसव करने वाली महिलाओं के शिशु में भी ये खतरा ज्यादा रहता है। ऐसा माना जाता है कि एंटीबायोटिक्स का असर मां के माइक्रोबायोम पर पड़ता है। मां और बच्चे के बीच साझा किए गए अन्य अनुवांशिक और पर्यावरणीय कारक भी इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं।
ओबेसिटी
मांस के उत्पादन में विकास के लिए एंटीबायोटिक्स का बहुत प्रयोग किया जाता है। पशुओं में 80 प्रतिशत सभी तरह के एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल किया जाता है। उनका अधिकांश प्रभाव पशुधन के सूक्ष्मजीवों के माध्यम से होता है, जोकि मेटाबॉलिज्म और एनर्जी पर खासा असर डालता है। मनुष्य के विकास में भी एंटीबायोटिक्स कुछ ऐसी ही भूमिका अदा करते हैं। ऐसे साक्ष्य मिले हैं जिनसे ये साबित होता है कि गर्भावस्था में एंटीबायोटिक लेने का संबंध शिशु के शुरुआती जीवन में वजन बढ़ने और ओबेसिटी से होता है। लेकिन इसके अन्य कारणों पर भी रिसर्च होना अभी बाकी है। शुरुआती बचपन में एंटीबायोटिक्स और ओबेसिटी का संबंध बिलकुल साफ है। जन्म लेने के बाद पहले साल में एंटीबायोटिक लेने से बच्चे में ओबेसिटी का खतरा 10 से 15 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। इसके अलावा एंटीबायोटिक्स देने का समय और उसका प्रकार भी इसमें अहम भूमिका निभाता है।
अस्थमा
शोधकर्ताओं का कहना है कि एंटीबायोटिक के इस्तेमाल की वजह से शिशु को बचपन में ही अस्थमा की बीमारी घेर सकती है। स्टडी में सामने आया है कि गर्भावस्था या नवजात शिशु को एंटीबायोटिक देने से अस्थमा का खतरा बढ़ जाता है। हालांकि, कुछ स्टडी में ये बात भी सामने आई है कि अस्थमा और एंटीबायोटिक्स के बीच संबंध के कई और भी कारण है जिनमें श्वसन संक्रमण है जिससे अस्थमा हो सकता है। लेकिन अन्य अध्ययनों से पता चला है कि ये कारक एंटीबायोटिक उपयोग और अस्थमा के बीच के संबंध का पूरी तरह से वर्णन करने में असक्षम हैं। अस्थमा के विकास में सूक्ष्मजीव की भूमिका की बेहतर समझ से एंटीबायोटिक दवाओं के योगदान को स्पष्ट करने में मदद मिलेगी।
अन्य संबंध
शुरुआती बचपन और जन्म के शुरुआती 12 महीनों में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करने से गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रोग जैसे क्रोह्न और कोएलिअक रोग के बीच संबंध पाया गा है। जो बच्चे एंटीबायोटिक के 7 कोर्स लेते हैं उनमें क्रोह्न रोग का खतरा सात गुना ज्यादा रहता है। हालांकि, मात्र एक अध्ययन से ये साबित नहीं किया जा सकता है कि एंटीबायोटिक्स से अस्थमा का खतरा रहता है। यह संभव है कि इन बच्चों को अपरिचित गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल या सूजन संबंधी बीमारी के लक्षणों के लिए एंटीबायोटिक्स दिया गया हो या फिर किसी संक्रमण के लिए। वहीं किशोरावस्था में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल आंत के कैंसर से संबंधित है। एंटीबायोटिक के ज्यादा कोर्स लेने से इसका खतरा बढ़ जाता है।
हालांकि, अभी इस विषय पर और रिसर्च की जानी बाकी है। एंटीबायोटिक्स सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सा नवाचारों में से एक है और उचित रूप से उपयोग किए जाने पर इनसे किसी के भी जीवन को बचाया जा सकता है लेकिन अनुचित उपयोग से बच्चों और वयस्कों को शारीरिक समस्याओं के रूप में इसके हानिकारक प्रभावों को झेलना पड़ता है। एक हालिया अध्ययन में पता चला है कि विश्व में एंटीबायोटिक का उपयोग 2030 तक तीन गुना बढ़ जाएगा। जब तक हम सभी एंटीबायोटिक के प्रयोग को कम करने के लिए मिलकर काम नहीं करते हैं, तब तक हम अपने बच्चों को इस समस्या से नहीं बचा सकते हैं।