Owner/Director : Anita Khare
Contact No. : 9009991052
Sampadak : Shashank Khare
Contact No. : 7987354738
Raipur C.G. 492007
City Office : In Front of Raj Talkies, Block B1, 2nd Floor, Bombey Market GE Road, Raipur C.G. 492001
‘कुछ कुछ होता है’ – इस फिल्म में शाहरुख खान की लाइन है – हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं, शादी भी एक बार होती है, और प्यार, प्यार भी एक ही बार होता है.
पता नहीं आप शाहरुख की इस बात से कितना सहमत हैं. लेकिन दुनिया में की गई कुछ रिसर्च ऐसा नहीं मानती. वो इस बात पर अड़ी हैं कि प्यार तीन बार ही होता है, बाकी जो होता है, वो कुछ भी हो सकता है लेकिन प्यार नहीं. इन अलग अलग शोध के मुताबिक तीन बार हुआ प्यार होने की वजह अलग अलग होती हैं. पहला प्यार जब हम स्कूल-कॉलेज में होते हैं. यह वैसा प्यार होता है जो परियों की कहानियों में या कहें कि फिल्मों से प्रेरित होता है. सब कुछ एकदम आदर्श.
यही वह प्यार होता है जिसमे आप अपना सब कुछ त्याग करने के लिए तैयार रहते हैं. हम इस विश्वास के साथ प्यार में पड़ते हैं कि यही हमारा आखिरी प्यार भी होने वाला है. अगर हमें यह रिश्ता अच्छा नहीं लग रहा, तब भी यह सोचकर कि - प्यार शायद ऐसा ही होता है – हम इसमें डूबे रहते हैं. क्योंकि इस प्यार में हम अपने से ज्यादा दूसरों के विचारों को तवज्जो देते हैं. दूसरों को आपका प्यार कैसा लग रहा है, वो उसके बारे में क्या सोचते हैं, वगैरह..वगैरह.
जैसे मेहनत की कमाई होती है, वैसे ही मेहनत से हासिल किया गया प्यार भी होता है. यही प्यार हमारा दूसरा प्यार होता है. यह प्यार हमें दूसरे से ज्यादा अपने आप के करीब लेकर जाता है. यह हमें बताता है कि हमारी जिंदगी में प्यार कितना जरूरी है. यह प्यार में दर्द, झूठ, उठापटक सब कुछ होता है. हमें लगता है कि हम पहली वाली गलतियां नहीं दोहराएंगे. लेकिन गलतियां होती हैं. या कहना चाहिए कि ड्रामा होता है जिसमें तमाम तरह के उतार चढ़ाव देखने को मिलते हैं. हम इस प्यार को खोना नहीं चाहते इसलिए हम इसे ठीक करने के चक्कर में इसे और पेचीदा बनाते चलते हैं. यह वह प्यार होता है जो हम चाहते हैं कि काम कर जाएं.
लेकिन प्यार अपने कहने या करने से कहां रुकता है. खैर, आगे बढ़कर हमारे सामने आता है तीसरा प्यार. दिलचस्प यह है कि पहले प्यार में धोखा खाने के बाद हम उम्मीद छोड़ चुके होते हैं. और यह प्यार इसी नाउम्मीदी के बीच कहीं से उठकर आता है. हमें इसका एहसास भी नहीं होता. यह उस शक्ल या रूप में होता है जिसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं था. यह प्यार को लेकर हमारी तमाम धारणाओं को तोड़ता है. यह प्यार जो इतनी सहजता से आपके जीवन में आता है जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की होती है. इस प्यार तक पहुंचते पहुंचते हम किसी दूसरे से अपेक्षाएं करना छोड़ चुके होते हैं. न ही हम किसी और के लिए खुद को बदलने की कोशिश करते हैं. हम एक दूसरे को वैसे ही स्वीकार कर लेते हैं जैसे कि हम हैं.
जैसा कि किसी ने कहा है कि यह वो प्यार है जो लगातार हमारा दरवाज़ा खटखटाता रहता है, फिर हम जवाब देने में कितना भी वक्त क्यों न लगाएं. यह वो प्यार है जिसमें पड़कर लगता है कि सब कुछ सही है. वैसे प्यार को लेकर जिज्ञासा को शांत करने के लिए विज्ञान जगत चुप नहीं बैठा और अन्य किए गए शोध बताते हैं कि प्यार दो या चार बार भी हो जाता है. फिर भी अगर हम औसत निकाले तो तीन ही आता है. यानि तीन बार तो प्यार तो पक्का है, आप प्यार में पड़ना चाहें या नहीं, तीन बार तो आपका इससे सामना होना ही है. वैसे भी प्यार जैसी चीज़ को बार बार नहीं तो एक बार मौका जरूर देना चाहिए...:)
::/fulltext::ई दिल्ली: हर महिला का सपना होता है मां बनना. प्रेग्नेंसी के वो 9 महीने एक्सपीरिएंस करना, हर दिन होने वाले बच्चे के बारे में नए-नए सपने बुनना. लेकिन इस सपने को फीमेल इंफर्टिलिटी (बांझपन) चूर-चूर कर देता है. एक या दो नहीं बल्कि कई महिलाएं इस परेशानी से जूझती हैं. इस कारण उनके मां बनने का सपना बहुत मुश्किल हो जाता है. बांझपन का कोई एक कारण नहीं बल्कि खाने से जुड़ा कोई रोग या एन्डोमीट्रीओसिस (महिलाओं से संबंधित बीमारी जिसमें पीरियड्स और सेक्स के दौरान दर्द होता है) बांझपन की वजह बन सकता है.
आप फीमेल इंफर्टिलिटी के शुरुआती लक्षणों को जानकर इस परेशानी से जल्दी छुटकारा पा सकती हैं. जितना जल्दी इलाज उतना जल्दी निजाद. लेकिन इसके लिए आपको नीचे दिए गए लक्षण पहचानने होंगे.
चिपको आंदोलन' एक आदिवासी औरत गौरा देवी के अदम्य साहस और सूझबूझ की दास्तान है......
::/introtext::बात 1974 की है, जनवरी का महीना था, रैंणी गांव के वासियों को पता चला कि उनके इलाके से गुजरने वाली सड़क-निर्माण के लिए 2451 पेड़ों का छपान (काटने के लिए चुने गए पेड़) हुआ है. पेड़ों को अपना भाई-बहन समझने वाले गांववासियों में इस खबर से हड़कंप मच गया.
अलकनंदा की प्रलयकारी बाढ़ (1970) उनकी स्मृतियों में ऐसी थी, जैसे कल की बात हो. इस बाढ़ ने उत्तराखंड के जनजीवन और जंगल को जिस तरह तबाह किया था, उसके बाद ही पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयास शुरू हुए. इनमें चंडी प्रसाद भट्ट, गोबिंद सिंह रावत, वासवानंद नौटियाल और हयात सिंह जैसे जागरूक लोग थे.
23 मार्च 1974 के दिन रैंणी गांव में कटान के आदेश के खिलाफ, गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ. रैली में गौरा देवी, महिलाओं का नेतृत्व कर रही थीं. प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तारीख 26 मार्च तय की थी, जिसे लेने के लिए गांववालों को चमोली जाना था.
वन विभाग की सुनियोजित चाल
प्रशासनिक अधिकारियों की तेज बुद्धि का लोहा मानते हुए मुनाफाखोर ठेकेदार, मजदूरों के साथ, देवदार के जंगलों को काटने निकल पड़े. उनकी इस हलचल को एक लड़की ने देख लिया. उसे ये सब कुछ असहज लगा, उसने दौड़कर ये खबर गौरा देवी को दी, वो फौरन हरकत में आई.
उस समय, गांव में मौजूद 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर, वो भी जंगल की ओर चल पड़ी. देखते ही देखते महिलाएं, मजदूरों के झुंड के पास पहुंच गईं, उस समय मजदूर अपने लिए खाना बना रहे थे. गौरा देवी ने उनसे कहा, 'भाइयों, यो जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल और लकड़ी मिलती है. जंगल को काटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारे बगड़ बह जाएंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द लौटकर आ जाएंगे तो फैसला होगा.'
'लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका'
ठेकेदार और उनके साथ चल रहे वन विभाग के लोग इस नई आफत से बौखला गए. उन्होंने महिलाओं को धमकाया, यहां तक कि गिरफ्तार करने की धमकी भी दी, लेकिन महिलाएं अडिग रहीं. ठेकेदार ने बंदूक निकालकर डराना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुए कहा, 'लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका', इस पर सारे मजदूर सहम गए. गौरा देवी के इस अदम्य साहस और आह्वान पर सभी महिलाएं पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गईं और उन्होंने कहा, 'इन पेड़ों के साथ हमें भी काट डालो.'
देखते ही देखते, जंगल के सभी मार्ग पर महिलाएं तैनात हो गईं. ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को हटाने की हर कोशिश की, यहां तक कि उन पर थूका भी गया. लेकिन गौरा देवी ने आपा नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा. आखिरकार थक-हारकर मजदूरों को लौटना पड़ा और इन महिलाओं का मायका बच गया.
अगले दिन खबर चमोली हेडक्वॉर्टर तक जा पहुंची. पेड़ों से चिपकने का ये नायाब तरीका अखबारों की सुर्खियां बन गईं. इस आंदोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों का भी ध्यान आकर्षित किया.
मामले की गंभीरता को समझते हुए सरकार ने डॉ. वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति गठित की. जांच में पाया गया कि रैंणी के जंगलों के साथ ही अलकनंदा में बाईं ओर मिलने वाली समस्त नदियों, ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नंदाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुंवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है.
देश भर का हीरो बना दिया
पांचवीं क्लास तक पढ़ी ‘गौरा देवी’ की पर्यावरण विज्ञान की समझ और उनकी सूझबूझ ने अपने सीने को बंदूक के आगे कर के, अपनी जान पर खेल कर, जो अनुकरणीय काम किया, उसने उन्हें सिर्फ रैंणी गांव का ही नहीं, उत्तराखंड का ही नहीं, बल्कि पूरे देश का हीरो बना दिया. विदेशों में उन्हें ‘चिपको वूमेन फ्रॉम इंडिया’ कहा जाने लगा.
चिपको आंदोलन' एक आदिवासी औरत गौरा देवी के अदम्य साहस और सूझबूझ की दास्तान है.
1925 में चमोली जिले के एक आदिवासी परिवार में जन्मी, केवल पांच दर्जे तक पढ़ी, गौरा देवी ने आज से 43 साल पहले पेड़ और उसे काटने वाले आरे के बीच खुद को खड़ा कर के, सिर्फ आंदोलन ही नहीं चलाया बल्कि देश को पर्यावरण के बारे में सोचना भी सिखाया.
2011 में, मशहूर पर्यावरणविद ‘वंदना शिव’ ने इंडिया टुडे मैगजीन से बात करते हुए कहा था कि चिपको मूवमेंट ने ही हमें पर्यावरण विभाग और पर्यावरण मंत्रालय दिया. इसी आंदोलन के बाद पर्यावरण से जुड़े नए कानून बनाए गए.' मैं अक्सर अपने विद्यार्थियों से कहता हूं, कि मात्रा का सिद्धांत मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ओंटारियो, कनाडा से सीखा और पर्यावरण यानी परिस्थिति विज्ञान की शिक्षा ‘चिपको-यूनिवर्सिटी’ ऑफ उत्तराखंड से पाई.
पर्वतीय दोहन खुलेआम किया गया
ये कहानी शुरू होती है भारत-चीन युद्ध के बाद, पर्वतीय सीमाओं तक सैनिकों की आवाजाही के लिए बनाई जाने वाली सड़क निर्माण से. इस दौरान, रक्षा के नाम पर, पर्वतीय दोहन खुलेआम किया गया. लेकिन इलाके के जागरूक लोगों ने इस खतरे को भांपा और इसके विरोध में अपनी आवाज बुलंद की. चंडी प्रसाद भट्ट 1964 से इस काम में लगे हुए थे.
गौरा देवी ने भी इस खतरे को समझा और इसके लिए जागरूकता फैलाने में लग गईं. ‘हम लोग खतरे में जी रहे हैं’, गौरा देवी की जुबां पर हर समय यही रहता था.
एक छोटी सी घटना ने, गौरा देवी के दर्द को, उनकी आवाज को देश और दुनिया से रू-ब-रू करा दिया. सूचना की पहरेदारी पर बैठे लोग अपना मुंह देखते रह गए. रैंणी गांव की उसी छोटी सी घटना को ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है.
::/fulltext::(भोपाल की दुर्गानगर झुग्गी बस्ती की 12 बरस की मुस्कान झुग्गी में ही लाइब्रेरी चलाती है. 3 साल पहले अपनी ही किताबों से शुरू हुई इस लाइब्रेरी में आज रोज़ाना 30 से 35 बच्चे पढ़ने आते हैं. मुस्कान को कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. पढ़िए, मुस्कान की कहानी)
वे पूछ रहे थे कि किस बच्चे को सबसे अच्छी तरह से पढ़ना आता है. सब डर गए. सहेलियों ने कहा, अपना नाम मत लेना, ये लोग तुझे पकड़कर ले जाएंगे. मैं हाथ उठा चुकी थी. बाद में पता चला, वे लोग शिक्षा विभाग से थे. मेरे अच्छी तरह पढ़ पाने पर सब बहुत खुश हो गए और मुझे 25 किताबें तोहफे में दीं.
साल 2015 की बात है. मैं रातभर किताबों के ढेर को अपने तकिए के पास रखकर सोई. जैसे ही पलटती, किसी किताब से नाक टकराती तो किसी से हाथ. सुबह स्कूल गई तो भी किताबों के बारे में सोचती रही. मां-पापा और बड़ी बहन से बात की. अगली शाम अपनी झुग्गी के बाहर बने चबूतरे पर मैं उन 25 किताबों के साथ थी. झुग्गी के संगी-साथी जमा थे. बड़े लोग भी पूछने लगे.
25 किताबों के साथ ये हमारी लाइब्रेरी थी और मैं वहां की लाइब्रेरियन.