Monday, 23 December 2024

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मानसून के दौरान अपनी त्वचा की देखभाल करना.....

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नई दिल्ली, (वीएनएस/आईएएनएस)| मानसून के दौरान अपनी त्वचा की देखभाल करना यह सोचकर बंद नहीं कर दीजिएगा कि सूरज की हानिकारक पराबैंगनी किरणें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगी।

इस मौसम में सोप-फ्री क्लींजर का इस्तेमाल करें और टोनर का इस्तेमाल करें। `प्लम` के संस्थापक शंकर प्रसाद, सौंदर्य त्वचा विशेषज्ञ व `कोसमोडर्मा स्किन एंड हेयर क्लीनिक` की संस्थापक चित्रा वी आनंद और `क्रोनोकेयर` के निदेशक सिरिल फिलिबोइस ने बारिश के मौसम में त्वचा की देखभाल के संबंध में ये सुझाव दिए हैं : 

* सोप-फ्री क्लींजर से चेहरे को दिन में दो-तीन बार साफ करें। यह आपकी त्वचा से जरूरी ऑयल को निकाले बिना इसे साफ और स्वस्थ रखेगा। 

* त्वचा पर जमी मृत परत से निजात पाने के लिए इसकी गहराई से सफाई बेहद जरूरी है। माइक्रोडर्मेब्रेजन या माइल्ड केमिकल पील जैसे ट्रीटमेंट से त्वचा को किसी प्रकार का संक्रमण होने की संभावना कम होती है। 

* कम मेकअप करें, जिससे आपकी त्वचा के रोमछिद्र सांस ले सकें। होंठों की कोमलता बरकरार रखने के लिए लिप बाम लगाएं। 

* टोनर का इस्तेमाल करना नहीं भूलें। एंटीऑक्सीडेंट युक्त जैसे ग्रीन टी और ग्लाकोलिक एसिड युक्त अल्कोहल-फ्री टोनर का इस्तेमाल करें, जो मृत त्वचा हटाने के दौरान गर्मियों में पसीना निकलने के कारण आपके फैले रोमछिद्रों में कसाव लाकर सिकोड़ता है और दाग-धब्बों व मुंहासों को नियंत्रित करता है। 

* त्वचा की रंग के हिसाब से सही सनस्क्रीन का इस्तेमाल बेहद जरूरी है। एसपीएफ-30 से कम वाले सनस्क्रीन लोशन का इस्तेमाल नहीं करें। शरीर के खुले हिस्सों पर सनस्क्रीन लगाएं। तैराकी करने या तौलिए से शरीर को पोंछने के बाद फिर से सनस्क्रीन लगाना नहीं भूलें। ज्यादा सुरक्षा के लिए हर दो-तीन घंटे पर सनस्क्रीन लगाएं। 

* उमसभरे मौसम में त्वचा से अतिरिक्त तेल निकालने के लिए सप्ताह में एक बार क्ले मास्क का इस्तेमाल करें। टी ट्री या ग्रीन ट्री सत्व वाले मास्क का इस्तेमाल करने की कोशिश करें, जो मृत त्वचा को हटाकर और रोम छिद्रों से अशुद्धिया निकालकर मुंहासों को दूर रखेगा। 

* गर्मियों में तेज धूप और प्रदूषण से आपकी त्वचा में मौजूद प्राकृतिक तेल निकल जाती है, जिसके चलते टैनिंग हो जाती है और झुर्रियां आदि पड़ जाती हैं और समय से पहले बढ़ती उम्र के लक्षण नजर आने लगते हैं, इसलिए कम से कम एसपीएफ -30 वाला हल्का नॉन ग्रीजी डे क्रीम लगाएं। 

* चेहरे के संवेदनशील हिस्सों जैसे आंखों और होंठों की जगह की त्वचा अन्य जगहों की त्वचा के मुकाबले ज्यादा पतली व संवेदनशील होती है, इसलिए इन्हें गर्मियों में अतिरिक्त देखभाल की जरूरत होती है। तेज धूप से आंखों के नीचे झुर्रियां पड़ सकती हैं, ये बर्न हो सकते हैं, जबकि होंठ फट सकते हैं। आंखों पर नियमित रूप से पानी के छीटें मारें और होंठों पर लिप बाम लगाएं। 

* बारिश के मौसम में पेराबेंस, मिनरल ऑयल या पैराफिन फ्री वाटरप्रूफ काजल लगाएं। रात में सोने से पहले सारा मेकअप हटा लें और आंखों को आराम देने के लिए गुलाब जल में भिगोए रूई के फाहे को आंखों पर रखें। 

* प्रतिरोधक क्षमता के लिए आहार में विटामिन सी को शामिल करें क्योंकि यह इंफेक्शन से मुकाबला करने में प्रभावी होता है। 

* इंफेक्शन से बचने के लिए साफ त्वचा पर एंटीफंगल पाउडर लगाएं।

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प्रसव पीड़ा के दौरान एपिड्यूरल न बन जाए जीवन भर का दर्द....


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कहते है जब एक औरत माँ बनती है तो उसका खुद का भी नया जन्म होता है।पूरे नौ महीने तरह तरह की मुश्किलों का सामना करके वह बच्चे को जन्म देती है इतना ही नही नौ महीने पूरे होने पर प्रसव के दौरान जो पीड़ा वो सहती है उसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता ।ऐसे में इस पीड़ा से होने वाली माँ को राहत दिलाने के लिए डॉक्टर्स एपिड्यूरल अपनाते है।

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कुछ महिलाएं प्रसव पीड़ा से बचने के लिए एपिड्यूरल का सहारा लेती है लेकिन जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते है ठीक उसी प्रकार इन एपिड्यूरल के भी कुछ प्रभाव ऐसे होते है जो इसके इस्तेमाल के या तो फ़ौरन बाद दिखने लगते है या फिर कुछ समय बाद। आज इस लेख में हम आपको एपिड्यूरल के कुछ साइड इफेक्ट्स के विषय में बताएंगे।

Do Epidurals Taken During Childbirth Result In A Lifelong Spinal Pain?

Do Epidurals Taken During Childbirth Result In A Lifelong Spinal Pain?

डिलीवरी के बाद बैक पेन

प्रेगनेंसी के दौरान शरीर में कई तरह के दर्द होते है कुछ तो डिलीवरी के तुरंत बाद बिलकुल ठीक हो जाते है लेकिन कुछ दर्द ऐसे भी होते है जो लम्बे समय तक परेशानी का सबब बन जाते है। इन्ही में से है बैक पेन की समस्या। एपिड्यूरल एक प्रकार का इंजेक्शन होता है जो प्रसव के दौरान दर्द को कम करने के लिए रीढ़ की हड्डी में लगाया जाता है। कुछ मामलों में डिलीवरी के बाद रीढ़ की हड्डी में दर्द आम बात होती है हालाँकि कई औरतों का दर्द डिलीवरी के कुछ समय बाद गायब हो जाता है। ऐसा उन औरतों के साथ होता है जो डिलीवरी के बाद अपने शरीर की बेहतर देखभाल करती है नाकि अपने शरीर पर किसी भारी काम का दबाव डालती है ।

एपिड्यूरल का प्रभाव

एपिड्यूरल के कारण कई महिलाएं दर्द से पीड़ित रहती है। जहाँ कुछ औरतों को तकलीफ कम होती है वहीँ कई औरतें इसके दर्द को सहन नही कर पाती। कई बार यह दर्द इतना बढ़ जाता है कि औरतों को अपने रोज़मर्रा के काम करने में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। इसका प्रभाव स्त्री की सेहत पर पड़ता है जिसके कारण पीठ दर्द की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

हालाँकि इस तरह के दर्द से छुटकारा पाने के लिए महिलाओं को अपनी सही देखभाल करनी चाहिए। डिलीवरी के बाद इन तरीकों से पा सकती है आप पीठ दर्द की समस्या से छुटकारा।

उचित मुद्रा

सही स्तनपान

जीवनशैली में बदलाव

इस समय हो जाएं सावधान

उचित मुद्रा

डिलीवरी के बाद अपनी मुद्रा बदलते समय आप पेट और श्रोणि की मांसपेशियों को कसने के लिए विशेष देखभाल करें। याद रखिये यह कम से कम दो महीनों तक आपको करना है इसके कारण होने वाले हल्के दर्द से आपको राहत तो मिलेगी ही साथ ही आपका यह दर्द लम्बे समय तक नहीं रहेगा । साथ ही बिस्तर से उठते वक़्त भी आपको ख़ास ध्यान रखना होगा। इसके अलावा आपको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि डिलीवरी के तुरंत बाद आप व्यायाम शुरू न करें। आपको यह समझना होगा कि बच्चे को जन्म देने के बाद आपको अपने शरीर को उतना समय देना होगा जितने की उसे ज़रूरत है।

सही स्तनपान

अपने नन्हे शिशु की देखभाल में वे इतनी व्यस्त हो जाती है कि अपने बारे में सोचना भूल जाती है और इसी वजह से यह दर्द उनके लिए लम्बे अरसे का दर्द बन जाता है। इसलिए स्तनपान क कराने वाली माताओं के लिए सही मुद्रा में बैठना बेहद ज़रूरी होता है। इसके लिए आपको कुर्सी पर बैठना चाहिए और अपने पीठ के निचले हिस्से में सपोर्ट के लिए तौलिये को मोड कर लगा लेना चाहिए साथ ही आपको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि आपके पैर ज़मीन पर अच्छे से टीके हो और आप आराम महसूस करें। अगर ज़रुरत पड़े तो आप समायोज्य ऊंचाई वाली कुर्सी का इस्तेमाल कर सकती है।

जीवनशैली में बदलाव

डिलीवरी के बाद का समय एक महिला के लिए बेहद नाज़ुक होता है क्योंकि गर्भावस्था के दौरान आपके शरीर में कई तरह के बदलाव आते है जिनके प्रभाव से निपटने के लिए आपके शरीर को थोड़ा समय चाहिए होता है। डिलीवरी के कुछ समय बाद तक की आप ज़्यादा हाई हील्स की चप्पलें न पहने क्योंकि इससे आपके पीठ पर ज़्यादा ज़ोर पड़ेगा जिससे आपका दर्द बढ़ सकता है इसलिए आपके लिए बेहतर होगा कि आप अपनी पीठ को ज़्यादा से ज़्यादा आराम दें ।

इस समय हो जाएं सावधान

यह सच है कि के कारण हल्का फुल्का दर्द रहता है। यदि सही देखभाल की जाए तो यह दर्द समय के साथ ठीक हो जाता है और बड़ी से बड़ी समस्या टल जाती है लेकिन कुछ मामलों में यह एक गंभीर समस्या के रूप में खड़ी हो जाती है इसलिए एक औरत होने के नाते आपको यह जानकारी होनी बहुत ज़रूरी है कि किस स्तिथि में आपको सावधान हो जाना चाहिए ताकि खतरा बढ़ न जाए। इसके लिए आपको अपने शरीर पर ध्यान देना होगा आपको खुद ही समझ आ जाएगा कि कब चीज़ें आपके हाथ से निकल रही है। इसके अलावा अगर डिलीवरी के एक महीने बाद भी आपको लग रहा हो कि आपके पीठ का दर्द रोज़मर्रा के कामों में बाधा उत्पन्न कर रहा है तो फ़ौरन अपने डॉक्टर से सलाह लें। यदि आपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया है तो ऐसे में आप कम से कम दो महीने तक इंतज़ार करें।

याद रखिये सही समय पर इसका इलाज करवा कर आप इस दर्द को जीवन भर की समस्या बनने से रोक सकती है ।

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बच्‍चों को कितनी प्रोटीन की आवश्‍यकता होती है?....

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बच्‍चों की सेहत को लेकर मां-बाप की सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि उनके आहार में प्रोटीन को किस तरह से शामिल किया जाए। हमें भी नहीं पता होता कि बच्‍चे के विकास के लिए उसे कितनी मात्रा में प्रोटीन की जरूरत होती है। शायद, हम प्रोटीन को लेकर कुछ ज्‍यादा ही चिंता करते हैं। इस पोस्‍ट के ज़रिए हम आपको बताते हैं कि आखिर प्रोटीन को लेकर हम इतना ज्‍यादा परेशान क्‍यों रहजे हैं।

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क्‍या बच्‍चों के लिए प्रोटीन जरूरी है ?

जी हां, बच्‍चों के लिए प्रोटीन बहुत जरूरी होता है। प्रोटीन हमारे शरीर का संरचनात्‍मक ब्‍लॉक होता है। कुछ प्रोटीन एंजाइम्‍स, एंटीबॉडीज़ और हार्मोंस की तरह भी काम करते हैं। पर्याटप्‍त मात्रा में प्रोटीन लेने से बच्‍चों को बढ़ने, विकास और इम्‍युनिटी बढ़ाने में मदद मिलती है।

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बच्‍चों को कितने प्रोटीन की जरूरत है ?

7 -12 महीने - 11 ग्राम

1 - 3 साल - 13 ग्राम

4 - 8 साल - 19 ग्राम

9 - 13 साल - 34 ग्राम

14 - 18 साल - लड़कों को 52 ग्राम और लड़कियों को 46 ग्राम

लेकिन क्‍या हमें प्रोटीन को लेकर चिंता करने की जरूरत है

आजकल हम बच्‍चों को प्रोटीन के नाम पर प्रोटीन शेक थमा देते हैं लेकिन आपको बता दें कि पहले के समय में बच्‍चों के हर बार के खाने में प्रोटीन शामिल होता था। शोधकर्ताओं ने भी माता-पिता को इस बात की चेतावनी दी है कि बच्‍चों को डेयरी स्रोत और अन्‍य तरह से बहुत ज्‍यादा मात्रा में प्रोटीन देने से उनमें आगे चलकर ओबेसिटी का खतरा बहुत ज्‍यादा बढ़ सकता है। विकसित देशों में अधिकतर बच्‍चों को पर्याप्‍त प्रोटीन मिलता है। बहुत कम ही ऐसे बच्‍चे होंगें जिन्‍हें जरूरत के मुताबिक प्रोटीन नहीं मिल पा रहा है। ये बच्‍चे वो हो सकते हैं जो वेगन डाइट लेते हों और अपने खाने में प्रोटीन नौ प्‍लांट चीज़ें खाते हैं।

वयस्‍क की तुलना में बच्‍चों को कितनी प्रोटीन की आवश्‍यकता होती है? वयस्‍क की तुलना में बच्‍चों को कितनी प्रोटीन की आवश्‍यकता होती है?

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प्रोटीन के बारे में कुछ खास बातें

12 महीने तक के बच्‍चे को मां के दूध से जरूरी प्रोटीन मिल जाता है। एक दिन में दो बार डेयरी प्रॉडक्‍ट देने से 8 साल तक के बच्‍चे की प्रोटीन की जरूरत पूरी हो जाती है। अगर आपका बच्‍चा दूध, चीज़ या योगर्ट दिन में कई बार लेता है तो इसका मतलब है कि उसकी प्रोटीन की जरूरत पूरी हो रही है। स्‍टार्चयुक्‍त फूड में भी प्रोटीन होता है। आधा कप पके हुए स्‍पैगेटी में 4 ग्राम प्रोटीन होता है। एक स्‍लाइस ब्रेड में 2 ग्राम प्रोटीन होता है। आधा कप चावल में 2 ग्राम प्रोटीन होता है। टॉडलर को 13 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होती है और ये उसे दिन में चिकन की एक बाइट या हफ्ते में सिंगल बीन खाने से मिल सकता है।

बच्‍चों को संतुलित आहार देना भी बहुत जरूरी है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप बस प्रोटीन की ही चिंता करते रहें। रिसर्च में सामने आया है कि पिकी इटर्स को भी पर्याप्‍त मैक्रोन्‍यूट्रिएंट्स (कार्ब, फैट और प्रोटीन) मिल जाता है। वहीं दूसरी ओर, ओमेगा 3 फैट, विटामिन डी और फाइबर भी कुछ बच्‍चों के लिए जरूरी होता है।

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कैसे बच्‍चों को पर्याप्‍त प्रोटीन दें

बच्‍चों को तीन बार संतुलित आ‍हार और एक या दो बार दिन में स्‍नैक्‍स परोसें।  हर बार के आहार में 3-4 फूड ग्रुप लें। फल, सब्जियां, अनाज, प्रोटीन और डेयरी आदि से खाने की चीज़ें चुनें। 8 साल से कम उम्र के बच्‍चों को दिन में सिर्फ दो बार ही डेयरी प्रॉडक्‍ट्स दें और इससे अधिक उम्र के बच्‍चों को 3 बार।

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कोख यानी प्रजनन अंगों की संरचना जिसे अंग्रेज़ी में महिलाओं की जटिल शारीरिक संरचना है.....

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महिलाओं के बारे में कहा जाता है कि मर्दों के मुक़ाबले वो ज़्यादा जीती हैं। के मुताबिक़ इसकी वजह महिलाओं की जटिल शारीरिक संरचना है। इसमें सबसे ज़्यादा जटिल है, उनकी कोख यानी प्रजनन अंगों की संरचना जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं।
 
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 अक्सर लोग सलाह देते हैं कि पेल्विक फ्लोर मज़बूत होना चाहिए। लेकिन पेल्विक सिस्टम काम कैसे करता है इसके बारे में पुख़्ता तौर पर आज तक कोई नहीं जान पाया है। पेल्विक फ्लोर मर्दों में भी होता है। लेकिन, महिलाओं की तरह उन्हें बच्चे को जन्म नहीं देना पड़ता। इसीलिए उन्हें महिलाओं की तरह परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ता।

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क्या है पेल्विक फ़्लोर
 
पेल्विक फ्लोर शरीर का वो हिस्सा है, जिसमें ब्लैडर, यूटेरस, वजाइना और रेक्टम होते हैं। ये हिस्सा महिलाओं के शरीर के सबसे अहम अंगों को सहेज कर रखता है। उन्हें सही तौर पर काम करने में मदद करता है। लेकिन, दुनिया भर में लाखों महिलाओं को पेल्विक फ्लोर में कोई ना कोई परेशानी होती है। ये औरत के शरीर का बहुत अहम हिस्सा है। लेकिन, इसके बावजूद इस पर रिसर्च ना के बराबर की गई है। अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी में पेल्विक फ्लोर रिसर्चर और गाइनेकोलॉजिस्ट जेनिस मिलर का कहना है कि शारीरिक संरचना में दिमाग़ के बाद पेल्विक फ्लोर ही सबसे जटिल है। इसके काम के तरीक़े पर अभी तक साफ़ तौर पर किसी रिसर्च का नतीजा सामने नहीं आ पाया है।

शोधकर्ताओं के लिए ये अभी तक शरीर का रहस्यमय हिस्सा बना हुआ है। पेल्विक सिस्टम कोख की हड्डियों के बीच छिपा होता है, जहां तक पहुंचना आसान नहीं है। इसके अलावा शारीरिक संरचना में हरेक चीज़ एक दूसरे से जुड़ी है। मशहूर जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में गाइनेकोलॉजी की प्रोफ़ेसर विक्टोरिया हांडा का कहना है कि पेल्विक फ़्लोर की कोई भी परेशानी महिला की पूरी ज़िंदगी पर असर डालती है। चूंकि इस परेशानी से ज़िंदगी को ख़तरा नहीं होता इसीलिए ना तो आम लोग इस पर ध्यान देते हैं और ना ही रिसर्चर्स ने इसे आज तक गंभीरता से लिया।

रिसर्च में कमी की वजह
 
साइंस ने हर लिहाज़ से हर क्षेत्र में बेपनाह तरक्क़ी कर ली है। लेकिन क्या वजह है कि महिलाओं के शरीर के इतने अहम हिस्से पर अभी तक कोई सार्थक रिसर्च नहीं हो पाई। प्रोफ़ेसर हांडा का कहना है कि बदक़िस्मती से सेहत के क्षेत्र में आज तक जितनी रिसर्च हुई हैं, वो मर्दों पर हुई हैं। लगभग सारी रिसर्च मर्द और औरत दोनों की शारीरिक संरचना को एक जैसा मानकर की गई है। महिलाओं के शरीर पर अलग से रिसर्च की ज़रूरत कम ही समझी गई है। इसके अलावा औरतों के शरीर या उनके गुप्त अंगों और ज़नाना बीमारियों के बारे में बात करने में हिचक महसूस की जाती रही जिसके चलते कभी खुलकर आवाज़ उठी ही नहीं कि महिलाओं के शरीर को मर्दों से अलग माना जाए और उन पर अलग से रिसर्च की जाए।

 हाल ये है कि अमेरिकी कांग्रेस में कभी किसी सांसद ने महिलाओं के पेल्विक फ्लोर सिस्टम पर रिसर्च के लिए फंड की मांग नहीं की। हालांकि हाल के वर्षों में इस दिशा में कुछ रिसर्च की गई हैं। प्रोफ़ेसर मिलर और उनके साथियों ने मिलकर एम।आऱ।आई के ज़रिए पता लगाया है कि बच्चे को जन्म देने की वजह से पेल्विक फ्लोर में कई तरह की चोट लग जाती हैं।

प्रजनन के दौरान चोटें
 
एम.आर.आई. इमेज के ज़रिए ही पता चला कि डिलिवरी के दौरान कई महिलाओं की लेवेटर एनी नाम की मांसपेशी फट जाती है जिसकी वजह से कोख का एक हिस्सा बड़ा होकर वजाइना से बाहर आ जाता है। इससे पेल्विक फ्लोर कमज़ोर पड़ जाता है। हालांकि ये कितनी महिलाओं में और कैसे होता है इसके आंकड़े अलग हैं। एक रिसर्च के मुताबिक़ 13 से 36 फ़ीसद औरतों में ऐसा वजाइना के ज़रिए बच्चा जनने के दौरान होता है। जबकि प्रोफ़ेसर मिलर की रिसर्च के मुताबिक़ ये आंकड़ा 5 से 15 फीसद महिलाओं का है। दिलचस्प बात ये है कि लेवेटर एनी मांसपेशी के फटने की ख़बर मरीज़ या डॉक्टर दोनों को नहीं लग पाती। बच्चा पैदा करते समय महिलाओं के अंदरूनी अंगों में कई तरह की छोटी-छोटी चोटें लगती हैं। इन्हें सामान्य माना जाता है।
 
लेकिन नई रिसर्च के बाद पेल्विक फ्लोर से जुड़ी समस्याएं सुलझाने में मदद मिलेगी। हालांकि पेल्विक फ्लोर मज़बूत करने के लिए केगल एक्सरसाइज़ करने का सुझाव दिया जाता है। लेकिन महिलाओं के लिए ज़ख़्मी मांसपेशियों के साथ ऐसी कोई एक्सरसाइज़ कारगर नहीं है। अभी तक की रिसर्च के मुताबिक़ पेल्विक फ्लोर से संबंधित मुद्दों के लिए उम्र, मोटापा और वजाइना के रास्ते बच्चा पैदा करना अहम है।
 
पेल्विक फ़्लोर डिसऑर्डर
 
प्रोफ़ेसर हांडा का कहना है कि ज़्यादातर महिलाओं को पेल्विक फ़्लोर डिसऑर्डर की समस्या नहीं होती। कुछ में बहुत कम होती है। लेकिन वो ख़तरनाक नहीं होती। बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि वैज्ञानिक महिलाओं की शारीरिक संरचना के साथ-साथ पेल्विक फ़्लोर सिस्टम और उससे जुड़ी बीमारियों के बारे में पता लगा रहे हैं। उनके निवारण के लिए दवाएं बनाने का काम किया जा रहा है।
 
पेल्विक फ़्लोर से जुड़ी समस्याएं बहुत आम हैं। अमरीका में क़रीब एक चौथाई महिलाओं को ये समस्या रहती है। पेल्विक डिसऑर्डर के चलते पेशाब के लिए दबाव जल्दी-जल्दी बनने लगता है। तेज़ हंसने, खांसने या छींक आने पर पेशाब निकल जाता है। इसके अलावा पेल्विक फ़्लोर पर मौजूद बाहर की ओर निकल आता है। एक अन्य स्टडी के मुताबिक़ तो ब्रिटेन में 42 फ़ीसद महिलाओं को पेशाब जल्दी छूट जाने की शिकायत है।
 
कुछ स्टडी पेल्विक फ्लोर डिसऑर्डर के लिए बढ़ती उम्र को ज़िम्मेदार मानती हैं तो कुछ नहीं मानतीं। इनकी रिसर्च के मुताबिक़ जवान लड़कियों को भी ये दिक़्कत होना आम बात है। यहां तक की महिला खिलाड़ियों को भी पेशाब छूट जाने की समस्या का सामना करना पड़ता है। कई मर्तबा पेट पर दबाव पड़ने की वजह से भी पेशाब निकल जाता है।

ज़रूरी है जागरूकता
 
पेल्विक मांसपेशियां मज़बूत करने के लिए कई तरह की एक्सरसाइज़ करने को कहा जाता है। साथ ही दिनचर्या में बदलाव लाकर भी इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है। इसके अलावा कई तरह की डिवाइस का सहारा भी लिया जाता है। मसलन ब्लैडर को सपोर्ट करने के लिए वजाइना के ज़रिए पेसरी नाम की डिवाइस शरीर में दाखिल कर दी जाती है। मिडुरेथ्रल स्लिंज नाम की डिवाइस भी एक अच्छा विकल्प है। लेकिन इसके लिए ऑपरेशन की ज़रूरत पड़ती है। पेल्विक फ़्लोर से संबंधित अभी तक जितनी भी रिसर्च के नतीजे सामने आए हैं उनसे सभी रिसर्चर काफ़ी खुश हैं।

उनका कहना है कि शुगर, दिल और दिमाग की बीमारियों पर लंबे समय से रिसर्च हो रही हैं। लेकिन महिलाओं की कोख को लेकर रिसर्च का क्षेत्र नया है। इसके बावजूद रिसर्च तेज़ी से आगे बढ़ रही है और नतीजे भी काफ़ी बेहतर हैं। प्रोफ़ेसर मिलर का कहना है कि अगर लड़कियों को किशोरावस्था में ही उनके शरीर की आंतरिक संरचना और मांसपेशियों के बारे में जानकारी दे दी जाए तो बहुत सी समस्याओं को समय रहते ही ख़त्म किया जा सकता है। मसलन अगर पेल्विक मांसपेशियों की जानकारी उन्हें पहले से हो, तो केगल एक्सरसाइज़ के ज़रिए वो इन मांसपेशियों को मज़बूत कर सकती हैं। कई बार जानकारी के अभाव में भी बीमारियां बढ़ जाती हैं।
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